मुद्दा

मजदूर आन्दोलन की तरफ बढ़ता देश

 

पलायन झेलने वाले मजदूरों का आन्दोलन आज नहीं तो कल होगा ही, सरकार दबा नहीं पाएगी। सरकार इसे रोकने के लिए तरह-तरह के उपाय करने लगी है। देश के कई राज्यों में मजदूरों के हकों की रक्षा करने वाले कानूनों को कमजोर करने की तैयारी हो रही है। पहले से ही काम के घंटे कागजों पर हैं, अब तो हद पार होने वाली है। इसके विरोध में भी गोलबन्दी तेज हो रही है। यहाँ भारत के संविधान के दो मौलिक अधिकारों को याद रखना होगा- पहला उनुच्छेद 23 से 24 शोषण के विरुद्ध अधिकार और दूसरा अनुच्छेद 19 से 22 स्वतन्त्रता का अधिकार। स्वतन्त्रता के अधिकार के तहत ही देश में कहीं भी आने-जाने और व्यवसाय करने का अधिकर है।

सरिया फैक्ट्री के बन्द होने से हताश थे ये 16 मजदूर भी

हम बात कर रहे थे मजदूरों पर नकेल कसने की। कर्नाटक सरकार मजदूरों को बाहर जाने से रोकती है। बिल्डर चिन्तित होते हैं। ट्रेन बन्द हो जाती है। सरकार दबाव में आती है और फिर फैसले में बदलाव शुरू हो जाता है। बिहार सरकार का परिवहन विभाग कहता है कि बिहार से बाहर फंसे लोग निजी बस बुक कर बिहार नहीं आ सकते। 8 मई को मजदूरों से जुड़ी एक बड़ी घटना होती है। महाराष्ट्र के औरंगाबाद में रेलवे लाइन के पास 16 मजदूरों की मौत हो जाती है, मालगाड़ी से कटकर।workers accident सरिया फैक्ट्री बन्द होने के बाद ये मजदूर अपने घर जा रहे थे। इन मजदूरों से अलग कोरोना काल में महानगरों से गाँवों तक की यात्रा करते हुए कई दर्जन मजदूरों की मौत हो चुकी है।

यह भी पढ़ें- छटपटाते भारतीय प्रवासी मजदूर

उत्तरप्रदेश सरकार ने उद्योग को पटरी पर लाने के लिए और अर्थव्यवस्था को सुधारने के लिए श्रम कानूनों में तीन साल के लिए बदलाव किया है। वहाँ की सरकार ने इसके लिए अध्यादेश ही ला दिया है। अब इसे राष्ट्रपति से मंजूरी का इंतजार है। वहाँ के श्रम मन्त्री ने कहा है कि- यूपी में 38 श्रम कानून लागू हैं लेकिन अध्यादेश के बाद किसी भी उद्योग के खिलाफ लेबर डिपार्टमेंट एनफोर्समेंट नियम के तहत कार्रवाई नहीं की जाएगी। इस दौरान श्रम विभाग का प्रवर्तन दल श्रम कानून के अनुपालन के लिए अगले तीन साल तक कारखाने और फैक्ट्री में छापेमरी या जानकारी के लिए नहीं जाएगा। यूपी सरकार के श्रम मन्त्री स्वामी प्रसाद मौर्य के तर्क है कि बाहर से जो प्रवासी श्रमिक प्रदेश में लाए गये हैं उन्हें बड़े स्तर पर काम मिल सके इसलिए यह किया गया है।

इस अध्यादेश का विरोध सपा, कांग्रेस तो कर ही रही है आरएसएस के मजदूर संगठन भारतीय मजदूर संघ ने भी किया है।

स्किल्ड कामगारों का मोल पहचानो

श्रम से जुड़े कानून कैसे बड़े घरानों के सामने लोटते दिखते हैं यह देश में कई बार दिख चुका है। सबसे पढ़े-लिखे लोगों से जुड़े कारोबार में भी सरकार श्रम कानून को लागू नहीं करवा पाती है। मजेठिया का हाल जगजाहिर है। मजदूर बड़ी संख्या में अपने गाँवों में वापस हो रहे हैं। इसे बिहार सरकार का बड़ा एसेट समझना चाहिये। ये वे मजदूर हैं जो अनुभव से काफी स्किल्ड हैं। बिहार के विकास में इनका बेहतर इस्तेमाल हो सकता है। बदले समय में अब इसे जात के अनुसार रोजगार नहीं दे सकते। जमालपुर जैसे रेल कारखाने में राज्य सरकार को मजदूरों की संख्या तीन-चार हजार से बढ़ाकर 10 हजार करने का दबाव केन्द्र पर देना चाहिये।

jamalpur workshop

विभिन्न ग्रेडों में ये मजदूर यहाँ काम कर सकते हैं। रेल के अलावा अन्य प्रूड प्रोसेसिंग का काम सरकार शुरू कर सकती है। जमालपुर कारखाने में वेंटिलेटर, सेनेटाइजर, मास्क आदि का काम सौंपा जा सकता है। सरकार की नीति ऐसी रही पिछले 30 सालों में कि बिहार के युवा बड़ी संख्या में रोजगार के लिए बाहर गये। इस बीच इनके बच्चे भी जवान हुए और वे उन्हें भी ले गये। अब तो इसका पश्चाताप सरकार को करना चाहिये। वोट की राजनीति के तहत ही औद्योगिक विस्तार कर दीजिए। पलायन दूर करने के संकल्प के साथ सरकार ने वोट लिया और बिहार में सच सामने है।

सबसे ज्यादा मजदूर गुजरात से आए हैं बिहार

बिहार में एक मई से लेकर अब तक 28,467 प्रवासी मजदूर सात राज्यों से चलायी गयी 24 ट्रेनों से बिहार आए हैं। आन्ध्र से एक, गुजरात से आठ, हरियाणा से एक, केरल से एक, महराष्ट्र से पाँच राजस्थान से तीन, तेलंगाना से पाँच ट्रेनें बिहार के लिए चलायी गयीं। यानी सबसे ज्यादा लोग गुजरात से वापस आए हैं। कुल आंकड़ों पर गौर करें तो जनसम्पर्क विभाग के सचिव अनुपम कुमार कहते हैं एक से 7 मई तक कुल 70 ट्रेनों में 82,554 लोग बिहार आए हैं। मजदूरों को टिकट लेकर जब आना पड़ा तो सोनिया गाँधी का बयान वायरल हुआ कि कांग्रेस पार्टी मजदूरों का भाड़ा देगी। आनन-फानन में केन्द्र और राज्य ने तय किया कि वह मजदूरों के भाड़ा देगी। बिहार सरकार ने मजदूरों को रोजगार और उनके कौशल को समझने के लिए बैठक बुलाई। बिहार सरकार ने कहा कि मजदूरों को 100 दिनों के रोजगार की गारंटी देगी।

MIGRANTS WORKERS

कार्य के हिसाब से मजदूरी दी जाएगी। इसके लिए जिलाधिकारी और उपविकास आयुक्त व सम्बन्धित अफसरों को गाइड लाइन जारी किया गया। कहा गया कि काम होते ही एक सप्ताह के अन्दर इनके खाता में राशि चली जाएगी। यह रोजगार मनरेगा के तहत दिया जाएगा। केन्द्र ने 1078 करोड़ रुपए की रशि का आवंटन किया है। सबसे गजब की बात कि पिछले दो वित्तीय वर्ष में मजदूरी मद में 630 करोड़ रुपए बकाया है। इसलिए उसमें भी राशि जाएगी। बिहार सरकार के ग्रामीण विकास विभाग के मन्त्री की श्रवण कुमार की मानें तो 18 करोड़ मानव दिवस का सृजन किया गया है। किसी मजदूर को काम नहीं मिले तो वह शिकायत भी दर्ज कर सकता है।

पलायन आयुक्त बनाए सरकार

मेरा मानना है कि बिहार सरकार को दुर्भिक्ष आयुक्त की तरह पलायन आयुक्त बहाल करना चाहिये। सरकार को आत्मनिर्भरता का लक्ष्य निर्धारित करना चाहिये कि बिहार के मजदूर अगर बाहर नहीं भी जाएँ तो यहाँ उनके रोजगार का बेहतर इंतजाम हो सके। ऐसे समय में बिहार में मजदूर नेता की कमी काफी खल रही है। अभी कोरोना काल दूसरे अर्थों में पुलिस काल भी है इसलिए आन्दोलन नहीं हो सकता। लेकिन इस काल के खत्म होने के बाद मजदूर आन्दोलन हो सकते हैं। सरकार लगातार मजदूरों के गुस्से को कम करने में लगी है। कोरंटाइन कब तक चलेगा। मजदूर इसके बाद ही सही, जोरदार आवाज उठाएँगे जरूर। केन्द्र-राज्य को समय रहते इनके रोजगार के स्थायी समाधान की ओर से सोचना चाहिये।

अंग्रेजी राज वाला छल न हो बिहार के साथ

डफरिन के निर्देश पर 17 अगस्त 1887 को भारत सरकार के सचिव ने राजस्व व कृषि विभाग को यह हिदायत दी थी कि भारत की आबादी के निम्न वर्गों, खासकर कृषि पर निर्भर निम्न वर्गों की स्थिति की जाँच की जाए। पटना, गया, भागलपुर, पूर्णिया और छोटनागपुर की जाँच रिपोर्ट 1888 में तैयार की गयी। लेकिन कलेक्टर गियर्सन की रिपोर्ट की लीपापोती की जवाबदेही बिहार और गया के सेटलमेंट ऑफसर मि. सी. जे. स्टीवेंशन मूर को दी गयी। उन्होंने बताया- बिहार की स्थितियाँ भिन्न हैं। यहाँ अऩाज सस्ता है और यहाँ के लोग थोड़े में ही गुजरा कर लेते हैं। इसलिए ठीक-ठीक जीवन यापन के लिए 15 रुपए प्रति व्यक्ति सालाना आय बिहारी रैयत के लिए पर्याप्त माना जाना चाहिये। (प्रसन्न कुमार चौधरी और श्रीकांत की किताब बिहार में सामाजिक परिवर्तन के कुछ आयाम) किताब में इसका जिक्र है।migrants

भूखे मजदूर नक्सली हो जाते हैं तो आश्चर्य नहीं होगा यह धारणा बदलनी चाहिये कि ज्यादा देने से मजदूरों का मन बढ़ जाता है और वे कामचोर होने लगते हैं। इसलिए मनरेगा से ज्यादा उन्हें नहीं मिलना चाहिये। सरकारों में आंकड़ों के लीपापोती अधिकारी की कमी नहीं होती। डर इस बात का भी है कि ये मजदूर अगर वापस महानगरों में नहीं लौटे, जिसकी फिलहाल संभावना कम है और स्थति नहीं सुधरी तो वे अपना ईमानदारी का रास्ता बदल लेंगे। भूखे मजदूर नक्सली हो जाते हैं तो मुझे भी आश्चर्य नहीं होगा। इसलिए उऩको विकास का हिस्सेदार बनाना चाहिये। सरकार राशन में अनाज दे रही है, लेकिन उनकी नौकरी का स्थायी इंतजाम की ओर सोचना चाहिये।

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प्रणय प्रियंवद

लेखक पर्यावरण, इतिहास, राजनीति और समाज के ज्वलंत मुद्दों पर लिखते रहे हैं। सम्पर्क- +919431613789, pranaypriyambad@gmail.com
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