सामयिक

तालाब ठाकुर का

 

 ‘ठाकुर का कुआँ’ कविता दलित साहित्य की प्रथम पीढ़ी के साहित्यकार ओमप्रकाश वाल्मीकि ने सन 1981 में लिखी थी। नब्बे के दशक के आरंभिक वर्ष में लिखी जाने वाली यह कविता हिंदी कविता में नए प्रस्थान की तरह है। प्रगतिवादी कविता की धारा को नये सिरे से रचनात्मक और सृजनात्मक ऊँचाई तक ले जाने वाली यह कविता जिस समय लिखी गयी उस समय तक भारत में भूमि सुधार के कई प्रस्ताव और प्रयास हो चुके थे। भूदान आन्दोलन 1952 में ग्रामदान आन्दोलन के रूप में अपनी अनिवार्य गति को प्राप्त हो चुका था। भारत में भूमि स्वामित्व की असमानता को खत्म करने के लिए जे.सी. कुमारप्पन की अध्यक्षता में भूमि सम्बन्धी समस्याओं से निपटने के लिए एक समिति गठित की गयी थी। इसमें प्रस्तावित भूमि सुधार के चार घटकों में दो सबसे महत्वपूर्ण घटक थे –मध्यस्तों का उन्मूलन और भूमि स्वामित्व की सीमा तय करना। इसी से जमींदारी प्रथा का उन्मूलन किया जा सकता था। लेकिन निर्णयकारी शक्तियों में वंचितों के कम प्रभाव और वर्चस्ववाद की राजनीतिक मंशा के कारण यह सफल नहीं हो सका। कानून के बावजूद तीन-तिकड़म करके जमीदारों ने अपनी जमीनें बचा लीं।वर्ष 1972 में विभिन्न क्षेत्रों में भूमि के प्रकार, उनकी उत्पादकता के आधार पर अलग-सीमा के साथ राष्ट्रीय दिशा-निर्देश के बाद भी अधिकांश राज्यों में लैंड सीलिंग एक्ट लागू नहीं किये गये। ऐसे में चेतना से लैश होता हुआ कोई दलित नौजवान जब अपनी गरीबी के कारणों पर सोचना शुरू करता है तो उसको सबसे पहले यह दिखाई देता है कि उसके पास क्या नहीं है, जिसके कारण वह ‘देश की माटी’ से अलगाव महसूस करता है। जाहिर है पृथ्वी पर सबसे आदिम पूँजी पृथ्वी ही है। इस पृथ्वी के संसाधन ही आदिम पूँजी हैं। और इस आदिम पूँजी, जिसको प्राकृतिक संसाधन भी कहा जाता है, पर भारतीय सन्दर्भ में तथाकथित उच्च जातियों का कब्जा अभी भी बना हुआ है। यह भी सच्चाई है कि कृषि भूमि पर अभी भी परंपरागत तथाकथित उच्च जातियों का ही कब्जा है जबकि दूसरी ओर प्राकृतिक खनिज सम्पदा और संपत्ति पर अब आधुनिक जमींदार यानि कि कार्पोरेट का कब्ज़ा हो गया है। दोनों ने मिलकर देश की सारी संपत्ति का केन्द्रीकरण कर दिया है। ऐसे में ओमप्रकाश वाल्मीकि की कविता अगर इस सच्चाई को सामने रखती है और अपनी गरीबी के मुख्य कारण के तौर पर जमीन पर या उत्पादन के साधनों से दलितों की बेदखली को चिन्हित करती है तो इसमें कोई जातिगत दुराग्रह नहीं देखना चाहिए।

 ‘ठाकुर का कुआं’ शीर्षक से प्रेमचंद की एक कहानी भी है। ओमप्रकाश वाल्मीकि की इस कविता के प्रकाशन के इतने वर्षों तक इस कविता का सचेतन संज्ञान नहीं लिया गया। संज्ञान में लेने का अर्थ है कि या तो आप कविता की संवेदना से एकाकार होकर उसकी भावना के पक्ष में खड़े होंगे या कविता को खारिज करके शक्ति सम्बन्धों की पारंपरिक संरचना को सहज और स्वाभविक मानकर कविता की भावना और संवेदना के खिलाफ खड़े हो जाएंगे। दलित समाज के साक्षर और उच्च शिक्षा प्राप्त वर्ग ने इसकी संवेदना से न केवल एकाकार किया बल्कि उसकी भावना की सघन अनुभूति अपने समय में और गहराई से महसूस कर रहा है। दलितों का बड़ा हिस्सा तो इस कविता से अभी भी अनभिज्ञ ही है क्योंकि कविता उन तक पहुँची ही नहीं या यूँ कहा जाये कि कविता तक वे खुद ही नहीं पहुँच पाए। ऐसा क्यों हुआ इस पर बात करने पर बात दूर तक चली जाएगी।

 राजनीतिक शक्ति संतुलन के एक बार फिर लोकतांत्रिक भावना के विरोध में खड़ी सामाजिक शक्तियों के पक्ष में आ जाने से संस्कृति के स्तर पर चुनौती देने वाली सांस्कृतिक और साहित्यिक अभिव्यक्तियों पर संगठित तौर पर हमला हमारे समय की क्रूर सच्चाई बनती जा रही है। राज्य सभा में इस कविता के पढ़े जाने के बाद राजनीतिक और सामाजिक तबके से जो तीखी प्रतिक्रिया आयी है, उसका निहितार्थ यही है कि सामाजिक और राजनीतिक बराबरी की माँग करने वाली आवाज को चाहे वह जिस भी रूप में हो, खत्म कर देना चाहिए। राज्य सभा में मनोज झा ने जो भाषण दिया था वह महिला आरक्षण के भीतर दलित और पिछड़ी जाति की महिलाओं को आरक्षण न दिये जाने का सन्दर्भ था। यह तो ठीक बात है कि अब सवर्ण को भी इस बात का एहसास है कि दलितों और पिछड़ों को उनका उचित प्रतिनिधित्व मिलना चाहिए। राजनीतिक लाभ के लिए ही सही लेकिन मनोज झा ने स्वागत योग्य वक्तव्य दिया था। कुछ लोग मानते हैं कि साहित्य की कोई औकात नहीं है, वह समाज परिवर्तन में कोई भूमिका नहीं निभा सकता है। लेकिन ओमप्रकाश वाल्मीकि की कविता इस बात को सिद्ध करने के लिए पर्याप्त है कि साहित्य की बदलावकारी भूमिका होती है। सत्ताधारी राजनीतिक दल की ओर से इस कविता के पाठ का संगठित और सुनियोजित विरोध सवर्ण जातियों की गोलबंदी के उदेश्य से किया गया लगता है। दरसल दलित साहित्य तो लोकतांत्रिक और सामाजिक बराबरी की माँग कर रहा था , वह आमूल परिवर्तन की बात भी अभी नहीं कर रहा है। लेकिन सवर्ण सामंती शक्तियों को अब यह भी स्वीकार नहीं है। वह प्रतिनिधित्व की माँग को अब और बर्दाश्त नहीं कर सकता। इससे उसकी सामाजिक गैरबराबरी की अमानवीय भावना उजागर हो जाती है। लेकिन विडम्बना यह है कि बिना दलित और पिछड़ों के समर्थन के वह पूँजीशाही की व्यवस्था को खड़ा भी नहीं कर सकता। यही कारण है कि गोरखपुर में दलितों के एक समूह द्वारा जमीन और अन्य मानवाधिकारों की माँग को लेकर प्रदर्शन करने के कारण उनको गिरफ्तार किया गया और कुछ ही दिनों बाद सत्ता द्वारा दलितों के ‘उद्धार’ के लिए सम्मेलन आयोजित किया गया। यह इसी बात को दिखाता है कि उनकी सत्ता केवल सवर्ण वोट बैंक पर नहीं बनी रह सकती है, इसके लिए उनको दलितों को जोड़ना जरुरी है।

कविता जिस वर्ग को संबोधित है, वह केवल दलित समाज नहीं है। प्रबोधन की दृष्टि से भले ही वह दलित समाज को संबोधित है लेकिन यह प्राकृतिक संसाधन पर कब्जा जमाए बैठे उस समाज को भी संबोधित है जिसके प्रतीक के रूप में कविता में ‘ठाकुर’ आया है। दरसल यह कविता राष्ट्र के संसाधनों में दलित समाज की हिस्सेदारी की नगण्यता को ही उजागर करती है। ‘चूल्हा मिट्टी का/ मिट्टी तालाब की/ तालाब ठाकुर का’ जिस चूल्हे पर दलित समाज अपना खाना पकाता है उसकी मिटटी तक पर उसका अधिकार नहीं है। जिस तालाब की मिटटी से बना वह चूल्हा है वह भी किसी जमींदार का है। मिट्टी केवल मिट्टी नहीं है वह सम्पति है और तालाब केवल तालाब नहीं वह राष्ट्र का संसाधन है। लेकिन विडम्बना यह है कि राष्ट्र के संसाधन पर एकाधिकार किसी जाति-वर्ग विशेष का है।

‘भूख रोटी की/ रोटी बाजरे की/ बाजरा खेत का/ खेत ठाकुर का’ लम्बे समय तक समाज और शास्त्र द्वारा लोगों को यही बताया जाता रहा कि दरसल गरीबी पिछले कर्मों का फल है। इससे पार पाने के लिए ‘सेवा’ ही आप का धर्म है। लेकिन यह नहीं बताया गया कि भौतिक दुखों के स्रोत भौतिक संसार की अमानुषिक सामाजिक सम्बन्ध और संसाधन सम्बन्धों में ही हैं। यह नहीं बताया गया की धरती जो प्राकृतिक सम्पदा है उस पर सबका बराबर का हक है। बाजरा तो धरती ही उगायेगी, लेकिन जब धरती ही किसी की व्यक्तिगत संपत्ति बन जाएगी तो बाकि को तो दुःख भोगना ही पड़ेगा, जब तक धरती जैसी प्राकृतिक सम्पदा पर सभी वासियों का बराबर हक न हो जाए। ऐसे में ओमप्रकाश वाल्मीकि जब अपनी कविता के माध्यम से लोगों को यह बता रहे हैं कि हमारी भूख का मूल कारण हमारे खेत का न होना है तो इसमें वे क्या गलत कर रहे हैं। उनकी कविता तो यही कह रही है कि दलित समाज की भूख भी ठाकुरों के खेतों में गिरवी रखी हुई है। जब तक जांगर नहीं ठेठाएंगे तब तक रोटी नहीं मिलेगी। हिंदी के मान्य उदारवादी आलोचकों ने तो इस तरह की कविताओं की भाषा को अनगढ़ और आक्रोशपूर्ण कहा है। बात अब समझ में आती है कि अनगढ़पन और भाषा में व्यक्त सृजनात्मक आक्रोश क्या होता है। दरअसल अनगढ़ भाषा और आक्रोशपूर्ण शैली के विरोध के नाम पर यह यह छुपे हुए सवर्ण-सामंती की ही अभिव्यक्ति थी, जिसे अनेकों वंचित तबके के विद्वानों ने लक्षित किया है। कहा गया कि दलित साहित्यकार अस्मिता और सम्मान की बात तो करते हैं लेकिन सम्मान का जो स्रोत है-जमीन, उस पर कम बात करते हैं। लेकिन यह कविता तो भारत में जमीन के अधिकार में व्याप्त असमानता ख़त्म करने की संवेदना की ओर लोगों का ध्यान खींचती है।

हिंदी दलित कविताओं में देश शब्द बहुत कम आता है लेकिन दलित साहित्य के प्रस्थान बिंदु को रचने वाली इस कविता की संवेदना देश शब्द में केन्द्रीभूत हो गयी सी लगती है। पूरी कविता वर्ग की मार्क्सवादी अवधारणा को आत्मसात करती हुई दिखाई देती है। ‘हल ठाकुर के बैल ठाकुर के / हल की मूठ पर हथेली अपनी/ फसल ठाकुर की’ ये पंक्तियाँ तो इसी बात को कह रही हैं कि उत्पादन के सारे साधन मालिक के हैं जबकि श्रम ही केवल अपना है और उस श्रम का फल तो पूरी तरह मालिक के हैं। यह कोई औद्योगिक समाज की श्रमिक त्रासदी का चित्रण नहीं है लेकिन मध्यकालीन मूल्यों वाली कृषि व्यवस्था के भीतर पिसते हुए मजूरों की कहानी जरुर है। यह कविता देश की अवधारणा और उसकी आत्मा के मुख्य शिल्पकारों के ह्रदय का आक्रोशपूर्ण आर्तनाद है। जिस नाद को वर्षों से हमारा समाज और सत्ता अनसुना करती आ रहे हैं। अगर जमीन वितरण का सवाल इतना महत्त्वपूर्ण नहीं है तो गोरखपुर में बहुत छोटे सामाजिक समूह द्वारा दलितों के लिए जमीन की माँग सत्ता को क्यों नागवार गुजर रही है। आखिर इसी देश के कई राज्यों ने तो उन्हीं मांगों को पूरा किया है।

कला को प्रतिमान बनायेंगे तो भी यह कविता अपने आतंरिक तर्कशीलता और बिम्ब-ग्रहण की क्षमता के लिहाज से कलात्मक ऊँचाई तक उठी हुई है। इस कविता को लाचारगी में उठा हुआ हाथ नहीं समझना चाहिए। यह वैचारिकी का उठा हुआ हाथ है जो देश की नयी बुनियाद का दावा करता है। इस कविता की भावना यही है कि जब मिट्टी अपनी होगी, तब चूल्हा अपना होगा, खेत अपना होगा, तब बाजरे की रोटी भी अपनी होगी और अंततः गाँव भी अपना होगा, शहर भी अपना होगा और देश भी। नवारुण भट्टाचार्य की कविता को याद करते हुए कहना चाहिए कि –‘मैं छीन लाऊंगा अपने देश को सीने में छुपा लूँगा

.

Show More

रामनरेश राम

लेखक जनपक्षीय मुद्दों पर नियमित लिखते हैं। सम्पर्क +919911643722, naynishnaresh@gmail.com
0 0 votes
Article Rating
Subscribe
Notify of
guest

0 Comments
Oldest
Newest Most Voted
Inline Feedbacks
View all comments

Related Articles

Back to top button
0
Would love your thoughts, please comment.x
()
x