विशेष

वक्त के आमने-सामने

 

    हम अच्छे दिनों और अच्छे समय की आत्ममुग्धता की सीमा-रेखाओं में हैं। उसके बरअक्स खराब समय की जद्दोजहद के बीच और उसकी धधकती ज्वालाओं में हैं। ख़राब चीज़ों की एक लम्बी शृंखला है। वक्त के सामने हम बार-बार झुलस रहे हैं। खराब, उससे ख़राब और उससे ज्यादा ख़राब की विचलित करने वाली स्थितियों में मुझे डॉ. अम्बेडकर के शब्द याद आ रहे हैं। कहे उन्होंने 1946 में थे और उसका जलता हुआ सच 2021 में उजागर हो रहा है— “आज हम राजनितिक, समाजिक तथा आर्थिक नज़रिये से विभाजित हैं, इसका मुझे अहसास है। एक-दूसरे के ख़िलाफ़ लड़ने वाली छावनियों के समूह हैं।” इधर कई अन्य चीजें और जुड़ गयी हैं; जिसमें बहुसंख्यकता का हाँका है और तरह-तरह की क्रूरताएँ और कट्टरताएँ सतत कवायद कर रही हैं। हमारे देश का नागरिक महफूज़ होने के लिये बेचैन है। अम्बेडकर ने यह भी चिन्ता दर्ज़ की थी— “मेरे मन में खयाल आता है कि इस जनतांत्रिक संविधान का क्या होगा? इसे महफूज़ करने के लिए यह मेरा देश समर्थ रहेगा या एक बार फिर वह अपनी आज़ादी गँवा बैठेगा।”

        2021 में हम आने वाले समय के लिए आँखें चुरा रहे हैं। न ढूँढने में कहीं नैतिकता मिलती है, न शांति, सहयोग, सद्भाव, न अच्छे इलाक़े। बुरी घटनाएँ पीछे पड़ी हैं। क्रूरता, अवहेलना और गर्व का अखण्ड पाठ चल रहा है। असहमति जताने पर किसी को नेस्तनाबूद करना एक आम बात है। अफ़सोस करने की कोई स्थिति नहीं है। आत्मसंघर्ष के बारे में सोचना बंद कर दिया गया है। ख़राब घटनाएँ होने पर ही नहीं, मौतों के तांडव नृत्य पर भी देशभक्ति का मनोविज्ञान गरजने लगता है और कोई सही प्रबन्धन न कर अपने तरीके से बचाव में उतर जाता है। मृत्यु बड़े सामान्य तरीक़े से जाहिर की जाती है और आँकड़ों की मनमानी बरसात होने लगती है। आँसुओं में डूबी आँखों को गरियाया जाता है और हमारे दु:ख हाहाकार, चीत्कार, क्रूरता, हिंसकता और कट्टरता के समुंदर में बहते रहते हैं। वायरस-ही-वायरस अट्टहास कर रहे हैं- कट्टरता-क्रूरता का वायरस, बहुसंख्यकता का वायरस, साम्प्रदायिकता का वायरस, अंधविश्वास का वायरस, आततायी इरादों का वायरस तानाशाह की तरह अपने गौरव गान का वायरस।

     एक साल से अधिक का समय हो गया कोरोना वायरस का आमना-सामना करते-करते। खूब मास्क लगाए, खूब हाथ धोए; किन्तु नीचताओं में, बदमाशियों में किसी तरह की कमी नहीं आई। चुनाव होते रहे, फरमान जारी होते रहे। उसी अनुपात में विराट उल्लंघन भी होते रहे। हमारे साथी, दोस्त, रिश्तेदार और अत्यन्त प्यारे इंसान सभी धीरे-धीरे हैं से थे में बदलते गये। हम विशाल पैमाने पर हुल्लड़ देखते-देखते थक गये। प्रसारणों की लीलाओं में डूबते-उतराते रहे; सुकून के पल खोजते रहे। जो इस दुनिया को अलविदा कह गये, उनको प्रणाम। जो जीवित हैं और जीने के संघर्ष में जुटे हैं, उनकी जिजीविषा को शुभकामनाएँ और दुआ। यह जिन्दगी का संघर्ष जारी रहेगा। आप हैं तो हम हैं। इसी में हमारा सब कुछ है। इसके अलावा और क्या है हमारे पास? दुआ, दुआ, दुआ दोस्तो!

   वक्‍़त की रफ़्तार बहुत तेज़ है। सामाजिक सरोकारों, उम्मीदों और लक्ष्यों में नागरिक हमेशा रहते हैं। जिजीविषा न होती तो हमारा जीवन ‘बेठिकाने’ होता। सत्ता की नज़र ‘ग़रीब और कमज़ोर’ आदमियों पर नहीं है या ये सभी उनके एजेंडे में शामिल ही नहीं है; बल्कि उन्हें वोट-बैंक के रूप में सतत इस्तेमाल किया जा रहा है। मृत्यु का अनवरत ‘रोष’ जारी है। भारत और दुनिया के अनंत लोग प्रश्न उठाते हैं; लेकिन सरकारें चुनाव में भिड़ी हैं; धर्म के पुण्य महाकुंभ में जुटी है। इस समय भूख, ग़रीबी से हटकर, निरन्तर उठने वाले प्रश्नों की सार्वजनिक अवहेलना है। धू-धूकर जलने के लिए पर्याप्त चिताएँ तक नहीं हैं। मानवता हमारे एजेंडे से बाहर है। हम तंग ख्यालियों के समुन्नत इलाके में हैं। हमारा जीवन जिन्दगी के उत्सव में नहीं है; बल्कि लगातार हो रही मृत्यु के जबड़ों में है। अब केवल कहने के संदर्भ बार-बार उठ रहे हैं, शर्म और लज्जा के नहीं। हमें विशाल पैमाने पर हो रही मौतों पर कुछ नहीं कहना। कुप्रबन्धन पर कुछ नहीं कहना। चुनावी बिसात पर कुछ नहीं कहना। पूरा देश जनतन्त्र के अंतिम क्षण पर है और तानाशाही मनोविज्ञान की बहार पर भी कुछ नहीं कहना। मौतें तो शायद भाग्य का मामला हैं। प्रबन्धन के नाम पर केवल अव्यवस्था का नंगा नाच हो रहा है। उसे भी अनदेखा करते हुए जीने की तमन्ना है।

 सरकार मीडिया की आरती उतारने के लिए होती है। उसे तो शर्म नहीं आती; हमें भी नहीं आती। कुछ हस्तियों को हमारी दुआ पर आपत्ति है; क्योंकि हम जीवन चाहते हैं, मौत नहीं। हम स्वास्थ्य-सेवाएँ चाहते हैं, नाटक-नौटंकी और झूठापन नहीं। हम कहाँ फँस गये हैं? झूठ-फरेब के कारखानों में बादशाह ‘पोशाक’ बदल रहा है; चारों ओर से पत्थरों की बारिश हो रही है। इतनी मौतें, इतनी अव्यवस्था, इतना ज़हर और कोहराम की  हम गुस्से की मुट्ठी भर आग को कायदे से छितरा नहीं पाते। गुस्सा भीतर-ही-भीतर पी रहे हैं।

अभी किस सभ्यता-संस्कृति का अभिषेक होना है और जनतन्त्र की थमती नब्ज़ को हम कैसे स्पंदित कर सकते हैं। खुशियों की जगह एक आर्तनाद फ़ैला है— “लगता है कहूँ; रे! मूढ़! आलोचना मत कर/ अपनी सीधी मौत में काँटा मत कर/ प्यारे अपने केंद्र में लौटो/ सिस्टम-सिस्टम को रटा कर।” क्या कहूँ, किससे कहूँ। है कोई सुनने वाला। क्या यह अकेले कंठ की पुकार है या कुछ और? कभी-कभी दु:खों-चीत्कारों में हमको चुप्पी साध लेनी पड़ती है। कहते हैं, दुःख को अभिव्यक्त किया जाए तो उसका अनुपात कम होता है और अपने लोगों, शुभचिंतकों से कहते हैं तो राहत मिलती है।

          भारतीय जीवन में और इतिहास में कई ऐसे अवसर आए हैं कि हमें चुप होने को मज़बूर होना पड़ा है। भारत-पाक बँटवारे का कत्लेआम, आपातकाल की तमाम घटनाएँ, इंदिरा गाँधी जी की हत्या के बाद सिक्खों का नरसंहार और बावरी मस्जिद विध्वंस के बाद साम्प्रदायिक ताक़तों का नंगा नाच और व्यवस्था के नाम पर घोला जाता ज़हर इसी के जानलेवा दंश हैं। सब कुछ पूरा-पूरा कहा भी नहीं जा सकता। हम अथाह दुःख के बीच हैं। अनंत सावधानी बरतने के बावजूद अपनी असमर्थता पर अमर्ष से भर जाता हूँ। दुआओं का असर अवश्य होता है। अपने से बड़ों को जब हम प्रणाम करते हैं तो उनकी आत्मा से निकली हुई दुआएँ हमें आशा, उत्साह, उमंग-उल्लास से भर देती हैं। इधर उमड़न-घुमड़न ज्‍़यादा है। तसल्ली देते हुए अपने आप को थक गया हूँ।

डेढ़-दो महीनों से मौतों का ताँता लगा है। श्रद्धांजलि अर्पित करते-करते, नमन करते-करते आत्मा कराह उठती है। सोचता हूँ कि यह सिलसिला कब रुकेगा। निराशा घेरा डालकर बैठी है। जब चारों ओर मुर्दनी छाई हो तो कब तक झूठी दिलासा सरकार की तरह आप दे पाएँगे और कब तक खुशियों के गीत गा सकते हैं। सरकारें झूठ और महाझूठ से चल रही हैं; लेकिन मनुष्यता नहीं। कोई कब तक खुशियों में सराबोर हो सकता है। मेरी आत्मा बार-बार मर्सिया गा रही है। मरी हुई आत्माओं का कोरस सुख-समृद्धि की फरेब लीला रच रहा है। घिरे हैं हम सवालों से; लेकिन कहीं कोई उत्तर नहीं। समय, समाज और परिवेश की चिन्ताएँ लेखक और जागरूक आदमी में ही संभव है।

     कहना ज़रूरी है कि एक नया वातावरण निर्मित हुआ है कि हमारे कुछ साथी शब्दों में बड़ी-बड़ी चिन्ताएँ जाहिर करते हैं; लेकिन कर्म में और आचरण में ठीक कहे के विपरीत आचरण करने में जुटे हैं। यह दोगला मनोविज्ञान हमारे जीवन-संघर्षों को क्या इसी रूप में देखेगा? प्रश्न है कि क्या हमने भारतीय चिन्तन-धारा और मानवीय मूल्यों और उसकी संवेदना, ऊष्मा को एकदम अलगा दिया है। सत्ता की मार्केटिंग और राजनीति दरअसल अब जिन्दगी को भी सट्टा बाजार के रूप में व्यवहृत कर रही है। हमारे जीवन का यथार्थ कोई चुटकुला जोक्स-जोक्स तो है नहीं। हम आज यहाँ तक संघर्ष करते हुए आए हैं तो उसके पीछे हमारी जिजीविषा है। हमारे गहन मानवीय ‘कंसर्न’ हैं। बाजीगर संवेदना विहीन होकर सब कुछ को ‘रिजेक्ट’ करने पर तुले हैं।

सोशल नेटवर्किंग साइट्स और मीडिया के तमाम रूपों को हँसी-ठठ्ठा की बजाय गंभीरता से लें तो इसकी प्रभाव-क्षमता के मान में इज़ाफ़ा होगा और नेटवर्किंग साइटों में घुसकर मानव-विरोधी कार्रवाई को भी हम समझ सकते हैं। इसलिए यह गुजारिश कर रहा हूँ और गोहार लगा रहा हूँ। भारतीय जीवन-धारा और चिन्तन-परम्परा को लगातार ध्वस्त करने वाले इरादों को भी हम ठीक-ठाक ढंग से पहचान पाएँगे। जनतन्त्र और आज़ादी के हत्यारों को भी हम समझ पाएँगे। अँधेरे को पवित्र करने का छल, मानवीय मूल्यों को ठिकाने लगा देने का मनोविज्ञान आख़िर क्या संदेश दे रहा है। सामूहिक रूप से मौते हो रहीं हैं और इनके रोकथाम का कोई प्रबन्धन नहीं। हम ऊपर-ऊपर से ख़ुश रहने की कोशिश करते हैं; एक-दूसरे की भलाई के लिए दुआ कर रहे हैं।

           मैं इस देश का एक दु:खी नागरिक केवल अपील ही तो कर पा रहा है। मित्रो, जब जिन्दगी दाँव पर लगी हो तो शब्दों के भीतर चल रहे छल, छद्म, कपट, प्रपंच और धोखे को हम सभी को मिल-जुलकर देखना पड़ता है और यहीं से विकास की राहें फूटती हैं। हैवानियत और क्रूरता का अखण्ड पाठ और नाच जारी है। समय हमारा इम्तिहान ले रहा है। नरेश सक्सेना की पंक्तियाँ पढ़ें— ‘’एक चावल परख लेना नाकाफी होता है/ अचानक एक पूरा समाज पतीले में खदबदाते चावलों में/ बदल जाता है।/ शक्ल धोखा दे सकती है/ पोशाक बदली जा सकती है/ लेकिन भाषा भेद खोल देती है।‘’

फोटो सोर्स : BBC

     जिस समय और जीवन की वास्तविकता में हम हैं, उसने हमारे होश उड़ा रखे हैं। कोरोना वायरस ने हमें इस यथार्थ तक पहुँचा दिया है कि आज हैं कल रहेंगे या नहीं। इसी मनोविज्ञान के चलते अस्तित्ववादी, दार्शनिकता सामने आई थी; दूसरे विश्व युद्ध के दौर में। जितने शास्त्र और लोक की धाराएँ होती हैं, वे जिन्दगी के लिए ही होती हैं। जिन्दगी ही उसमें हँसती-मुस्कुराती नाचती-गाती है। मनोविज्ञानों को और उसकी प्रक्रियाओं को हम जीवन की विविधताओं से जानते-पहचानते हैं। इस दौर में मैं हिटलर का मेरा संघर्ष (Mein Kamp) यानी उनकी आत्मकथा पढ़ रहा हूँ। एडोल्फ हिटलर कैसे भयानक राष्ट्रवाद को लेकर प्रकट हुआ था। उसके भीतर तानाशाहियत का रूप अँगड़ाई ले रहा था; उसका जीवन आत्महत्या के अन्त तक पहुँच सका था। उसका कथन पढ़ें— ‘’अपनी जाति के रक्‍़त को दूषित होने से बचाने के लिए सफल प्रयास करने वाला राष्ट्र निश्चय ही एक चक्रवर्ती सम्राट बनता है। हमें यह हमेशा याद रखना चाहिए कि सफलता वीरों के ही चरण चूमती है, और यही विश्वास हमें जीवन के संघर्ष में हतोत्साहित नहीं होने देता।‘’

        इस प्रसंग को किसी भी तरह अनदेखा नहीं किया जा सकता। हमारे देश का मनोविज्ञान तानाशाही परिधियों के एकदम निकट यात्रा कर रहा है। सच तो यह है कि मनोविज्ञान पर जो प्रयोग किए गये हैं, वे पहले अनुमानों के आधार पर फिर जिन्दगी के संदर्भ में प्रायोगिक परीक्षण के आधार पर। मन एक रहस्यलोक है। उसकी त्रिज्यायें और त्रिकोणमिति भी होती है। मन के क्रियाकलापों से कोई बहुत ज्‍़यादा समय तक छिप नहीं सकता। यह एकदम सच है। मनोविज्ञान ने संसार में चल रही अनेक अवधारणाओं (कंसेप्ट) को सिरे से बदल दिया है। सोचिए, सिंगमेंट फ्रायड, युंग एडलर की खोजों ने और प्रयोगों ने सेक्स के संबन्ध में बड़े क्रांतिकारी और युगांतर परिवर्तन किये। 

जाहिर है कि लोग ऊपर से पवित्रता के गाजे-बाजे बहुत बजाते हैं; जबकि उनका आंतरिक मनोविज्ञान बेहद निम्‍न स्तर का होता है। वे अपनी गन्दी इच्छाएँ काफ़ी समय तक छिपाए रहते हैं। इसी को मैंने दोगला मनोविज्ञान या अकृत्रिम मनोविज्ञान कहा है। सुनता आ रहा हूँ कि मन एक रहस्यलोक है, उसमें अच्छे तत्त्व भी होते हैं और विस्फोटक चीजें भी धड़ल्ले से निवास करती हैं। यह इसलिए कहा गया है कि साधु के भीतर शैतान छिपा है और शैतान में साधु। मनुष्य में दोनों धाराएँ रहती हैं। चाहें तो उसे प्रवृत्ति भी कह सकते हैं। मैं इसे मनोविज्ञान या साइकोलॉजी के संदर्भ में नहीं कह रहा। केवल व्यावहारिक संदर्भ में ही निवेदित कर रहा हूँ।

        मन बड़ा ‘पाजी’ होता है। उसके गुंताड़े अजीब-अजीब होते हैं। वह घायल भी होता है तो अपने को छिपाकर जनकल्याण की दार्शनिकता बघारता है। जाहिर है कि असली मनोविज्ञान को देर तक छिपाया नहीं जा सकता। लोगों को केवल भरमाया जा सकता है। मन की त्रिकोणमिति होती है। कभी-कभी वह दिखता कुछ है और करता कुछ है; यानी ‘कहीं पे निगाहें कहीं पर निशाना।‘ अंततोगत्वा उसकी मानसिकता नए-नए नरक निर्मित करती रहती है। मन की खोहों में छिपकर अपने मनोविज्ञान और मनोसंरचना के ‘खुदगर्ज’ इलाकों में अपनी विकृतियों को छिपा लेता है। दु:खद पक्ष है कि ग़लत मनोविज्ञान को भी तर्कों के रूप में गढ़कर नैतिकता की दुहाई दी जाती है। दल-बदलू नेता और खरीदे गये नेता और आस्था से सिकुड़े लोग भी पवित्रता की कवायद करते आप देख सकते हैं।

          सच्चा आदमी बेचैन रहता है और अंदर-ही-अंदर टूटता-बिखरता है। खराब और निकृष्ट आदमी तिकड़मबाजी और अन्य आवरणों में लोगों को बिंधाए और फँसाए रहते हैं और तरह-तरह की बमबारी करते हैं। सच्चे आदमी के भीतर भाँति-भाँति के बवंडर होते हैं और दिन-रात बेचैनी उनका पीछा नहीं छोड़ती। ख़राब आदमी की क्रूरताएँ कभी भी अच्छों को जीने नहीं देतीं। आजकल ‘फाल्स’ कैरेक्टर निष्ठाओं को लीप रहे हैं। आचरणों को उन्होंने गाड़ दिया है। हमारी समूची जंग दिमाग़ में लड़ी जा रही है।

मनोविज्ञान में दोहरापन और दोगलापन ज्‍़यादा होने लगा है। यह शायद समय, समाज की वास्तविकता का ही तंतु है। निरन्तर आत्मा गायब होने लगी है और घायल भी। इस दौर में एक चिन्तक, विचारक और जीवन से जुड़े से लोग आपदाओं में फँसे हैं। समूचा दर्शन और समझाइश की अनंत स्थितियों के बावजूद एक खटका भी बना रहता है। एक ओर दुआएँ हैं और दूसरी ओर हठधर्मिता। एक ओर जीवन है, दूसरी ओर मौतों का तांडव। लोग तरह तरह के सवाल उछालते हैं। हम किसी राजनीतिक समूह से कोरोना वायरस के बारे में क्यों सवाल पूछें? जो सत्ता में है और जिसकी जिम्मेदारी है, उसी से पूछा जाएगा कि दरअसल क्या किया जा रहा है?

        हम उदाहरणों में नहीं जीना चाहते। इधर साँसें बंद हो रहीं हैं और उधर सरकारें सत्ता-विरोधियों और विरोधी पार्टियों पर दोषारोपण करते हुए ‘आत्ममुग्धता का खेल’ खेल रही हैं। हम विचार कर रहे हैं; पुनर्विचार कर रहे हैं; लेकिन क्या शब्दों की दुनिया से बाहर आकर उसे कर्म के क्षेत्र में बदल रहे हैं। हम मनुष्य की कर्मठता सूझ-बूझ और अस्मिता को अनदेखा नहीं कर रहे? एक जमाने में पंडित नेहरू का तिलिस्म काम कर रहा था। उनके प्रति एक सम्मोहन चिपका हुआ था। यही इंदिरा गाँधी के साथ कनेक्ट था। बदले हुए समय में, जिसमें झूठ-ही-झूठ है और ब्लफ-ही-ब्लफ है। कोई कब तक मौतों के फैले कार्य-व्यवहार को देखेगा। कारखाने सत्ता के भी होते हैं। मानवीय मूल्यों, सम्बन्धों में जो गिरावट का ग्राफ तेजी से बढ़ा है। और जहर बुझे तीर जनता के संवेदना-संसार में धँसा दिये गये हैं। भ्रष्टाचार संवेदनहीनता, जनतांत्रिक मूल्यों का विघटन सब कुछ को तहस-नहस कर रहा है। अभी तक जिनकी आँखों में भ्रम के जाले थे। वे विकास-लीलाओं में सुखी, सुखद जीवन की परिकल्पना में आप्लावित थे। उनके भी अंदरूनी कपाट खुल चुके हैं।

         हम सचमुच आत्मनिर्भरता से आँखें मिला रहे हैं। इस तरह की अव्यवस्था और कुप्रबन्धन ने सब कुछ बेशर्मी से उजागर कर दिया है। पुण्य लूटने मंदिर-मंदिर खेलने, कुंभ-स्नान का पुण्य लूटने में और वोट बैंक साधने में हमने मौतों को अंगीकार कर लिया। चुनावी चक्रव्यूह के कारण समूची संवैधानिक संस्थाएँ तानाशाही मनोविज्ञान की कैद में हैं। इस दौर में ऐसी स्थितियाँ बन रहीं हैं कि कुछ कहते नहीं बन रहा। हिटलर का मनोविज्ञान भारतीय जीवन-मूल्यों और सांस्कृतिक आस्थाओं को चकनाचूर कर रहा है। कभी बिस्मार्क ने कहा था कि राजनीति समर्थ पुरुष की कला है। उसमें अपने आप में जुड़ गया है कि इस समर्थता के लिए शायद न तो मनुष्यता की जरूरत है, न नैतिकता की। तथाकथित राष्ट्रवाद ने सभी मूल्यों को ठिकाने लगा दिया है। हिटलर की आत्मा नाच रही है। भारतीय जीवन-संदर्भों को निरन्तर ख़त्म करने की लीला जारी है। हिटलर अभी मरा नहीं; क्योंकि वह अपने मनोविज्ञान में सदाबहार है।

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सेवाराम त्रिपाठी

लेखक वरिष्ठ साहित्यकार हैं। सम्पर्क +919425185272, sevaramtripathi@gmail.com
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