मुद्दा

असमानता की उपादेयता?

 

कोरोना क्या आया, भेद खुल गए। भेद जो खुले, वे भेद नहीं थे। जगजाहिर था, मगर ढंका तुपा था। जैसा चल रहा था, चल रहा था। जो चल रहा था, वही सामान्य था। व्यवस्था अपनी तरह से काम कर रही थी, अर्थव्यवस्था अपनी तरह से। सुधारक अपनी तरह से और बुद्धिजीवी अपनी तरह से। इन सब की अपनी तरह में एक ऐसा सामंजस्य बना रहता है, कि अनुकूलन  से सब संतुष्ट होते रहते हैं। चूंकि अनुकूलन से काम चलता रहता है, मूल स्थिति में  मौलिक परिवर्तन की चिंता काटती नहीं है ।

अब यह समझना है कि वह मूल स्थिति क्या है? मूल स्थिति को समझने से पहले यह समझने की कोशिश करते हैं कि मूल स्थिति को समझने की जरूरत क्यों आ पड़ी है? जरूरत ऐसे आ पड़ी कि कोरोना आया और आनन फानन में सब बंद हो गया। यह कोई बुरी बात नहीं थी। इस आनन फानन के पीछे मकसद यह था कि लोगों की जान बचाई जा सके। यह एक पवित्र मकसद था। मानव सभ्यता के इतिहास में यह पहला अवसर है कि मनुष्य के जान की इतनी परवाह की गई हो।

मगर दिक्कत तब हुई कि आदमी को बचाने की चिंता में उत्पादन और व्यवसाय भी चलता रहे, इस पर गौर नहीं किया गया। नतीजा यह निकला कि एक नहीं, सभी देशों की सांस फूलने लगी। और यह बात खुल गई कि दुनिया में ऐसा कोई देश नहीं है जो अपने नागरिकों को बिठा कर छह महीने भोजन करा सके। फिर क्या मतलब रह गया बड़ी अर्थव्यवस्था या छोटी अर्थव्यवस्था का? क्या मतलब रह गया विकास दर और जीडीपी का?

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अर्थव्यवस्था लड़खड़ाई और सांस ऐसी फूलने लगी कि इसकी वजह से व्यवस्था के सामने यह सवाल आ गया कि वह आदमी की जान बचाए या अर्थव्यवस्था बचाए? व्यवस्था ने फिर चिर परिचित  अनुकूलन का फार्मूला निकाला। थोड़ी अर्थव्यवस्था बचे, आदमी भी थोड़ा बचे। थोड़ी अर्थव्यवस्था मरे, आदमी भी थोड़ा मरे। जिस अर्थव्यवस्था में हम फलफूल रहे हैं या लुट मर रहे हैं, उसके पास अनुकूलन के अलावा और कोई चारा नहीं है।

क्या इस लूटमार अर्थव्यवस्था के विकल्प की चिंता कहीं हो रही है? कहीं नहीं हो रही है। चिंता यह हो रही है कि इसी अर्थव्यवस्था को, जोकि ठप्प हो गई है, कैसे बहाल  किया जाय। इसके लिए सारी मशक्कत की जा रही है। ख्वाब यह है कि इसके बहाल होते ही हम स्वस्थ हो जाएंगे और उसी रास्ते चल पड़ेंगे, जिस रास्ते चलते रहे हैं।

जिस रास्ते वर्तमान अर्थव्यवस्था चलती है, उससे असमानता पैदा होती है। यह अनजाने में नहीं होती, मकसद पूर्ण तरीके से होती है। असमानता पैदा करने का क्या मकसद हो सकता हैं? समझने की कोशिश करते हैं। असमानता बाजार मूल्य पैदा करती है। कैसे करती है?

कल्पना कीजिए कि भारत में असमानता नहीं है, सब समान हो गये हैं। सभी की कमाई एक जैसी है, जीवन स्तर भी एक जैसा है।

अब वस्तुस्थिति देखिए। उदाहरण के लिए हम ईंट भट्ठे को चुनते हैं। ईंट भट्ठों में जब पक कर  तैयार ईंट निकलती है, तो सभी एक स्तर की नहीं होती है। तीन या चार स्तर की निकलती है :  ए, बी, सी और डी। अब चूंकि सभी खरीदारों की आर्थिक स्थिति एक समान है, इस लिए हर कोई सर्वोत्तम खरीदना चाहेगा। इसका मतलब यह निकला कि शेष तीन स्तर का कोई बाजार मूल्य नहीं है। हर श्रेणी के उत्पाद का बाजार मूल्य बने, इसके लिए क्या यह अनिवार्य नहीं है कि असमानता रहे? बल्कि अनिवार्य तो यह है कि असमानता के भी कई स्तर  हों। यह पहला मकसद हुआ। ऐसे हल होता है हर श्रेणी के उत्पाद के बाजार मूल्य की समस्या।

क्या इसी उदाहरण से बात बन गई या एक मिसाल और देखी जाए। चलिए चिकेन या बकरे की दुकान पर। चिकेन या बकरे के शरीर के ऐसे कई हिस्से होते हैं जिन्हें सामान्य खरीदार नहीं लेता है या लेने से बचता है। लेकिन ऐसे खरीदार भी आते हैं जो उन बचे खुचे हिस्से को खुशी खुशी ले जाते  है, क्यों कि उनकी क्रय क्षमता वैसी ही है।

चूंकि समझने की यात्रा पर निकले हैं, आगे चलते हैं, थोड़ा और समझ लेते हैं। अब मात्रा के स्तर पर समझते हैं। मान लेते हैं जिंदा चिकेन का बजन एक किलोग्राम है। ड्रेसिंग करने के बाद छ सौ ग्राम मांस निकलता है। बाकी चार सौ ग्राम में दो सौ ग्राम पंख हैं और दौ सौ ग्राम अन्य हिस्से हैं। अगर असमानता नहीं होगी तो इन चार सौ ग्राम का कोई खरीदार नहीं होगा। लेकिन अभी असमानता है, यह बिकती है। यानी इसका बाजार मूल्य है।

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अब बाजार मूल्य की मात्रा पर गौर कीजिए। मान लेते हैं कि पंख वाला हिस्सा दस रुपये और अन्य हिस्सा बीस रुपए प्रति किलो की दर से बिकता है। हिसाब लगा कर हम पाते हैं कि इन चार सौ ग्राम की औसत कीमत छह रुपये हैं। यानी हर एक किलो चिकेन पर छह रुपए का बाजार मूल्य बनता है।

अब हिसाब लगाइए कैलकुलेटर निकाल कर कि भारत में रोज कितना किलो ग्राम चिकेन बिकता है। उस हिसाब से साल भर में कुल कितना केजी चिकेन बिकता है। जितना बिकता है उस पर छह रुपये प्रति किलो के हिसाब से जोड़िए और बताइए कि कितनी बड़ी रकम बनती है।

आपकी आंखें फटी की फटी रह जा सकती हैं। निश्चित रूप से यह रकम करोड़ों में है। अभी आपने एक आइटम का हिसाब लगाया है । मुहावरे में बात करें तो हजारों आइटम हैं। और बाजार मूल्य की राशि बहुत बड़ी है। यह राशि बाजार में हरकत करती है असमानता की वजह से। ध्यान रहे हम और आप बाजारमुखी अर्थव्यवस्था के नागरिक हैं, क्या असमानता मिटाना जरूरी है?

अब दूसरा मकसद देखते हैं। सभी की आय समान है, इसका अर्थ यह हुआ कि काम किसी भी स्तर का कोई करे, वेतन समान होगा। लेकिन जब अलग अलग श्रेणी के उत्पाद का बाजार मूल्य चाहिए ही तो श्रम सब धान बाइस पसेरी के भाव से तो नहीं चलेगा। अधिकांश श्रम सस्ता मिलता रहे, इसके लिए भी असमानता परम काम्य है। अगर असमानता नहीं होगी तो श्रम के बाजार का कारक तत्व कमजोर पड़ेगा।

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इसीलिए बाजारमुखी अर्थव्यवस्था श्रम में विभाजन और श्रम विभाजन दोनों करती है। आप जानते हैं कि श्रम विभाजन के माध्यम से श्रम का बाजार मूल्य तय किया जाता है। श्रम में विभाजन से भी ही ऐसा ही किया जाता है। मसलन श्वेत श्रम और अश्वेत श्रम, पुरुष श्रम और स्त्री श्रम। फुटकर श्रम और एकमुश्त श्रम। संगठित श्रम और असंगठित श्रम। अलाना श्रम और फलाना श्रम।

बाजारमुखी अर्थव्यवस्था में श्रम की खरीदारों की व्यवस्था की ओर से विभाजन के नए नए मौके बनाए जाते हैं। श्रम के स्तर पर भी और सांस्कृतिक और सामाजिक स्तर पर भी। विभाजन से असमानता फलती फूलती है। यह सब इसलिए किया जाता है कि श्रम का बाजार सस्ता बना रहे। श्रम के बाजार में कोई उछाल न आए। सस्ता श्रम एक इनायत है। इसका लाभ केवल उच्च वर्ग को ही नहीं मिलता है। हम मध्यवर्ग के लोगों को भी खूब मिलता है। हम मध्यवर्ग सस्ते श्रम से अपने जीवन को न केवल आरामदायक बनाते हैं, सामाजिक स्तर पर भी विशिष्ट बनते हैं। क्या असमानता खत्म करना जरूरी है?

तो यह सिद्ध हो गया कि असमानता की उपादेयता है। लेकिन असमानता मिटाओ और समानता लाओ की मांग उठती रहती है। सैकड़ों साल से। समानता तो नहीं आई, बल्कि असमानता बढ़ती ही गई है। भारत में यह असमानता इतनी बढ़ गई कि अभी लॉकडाउन की शुरुआत से ही उसके भयावह दृश्य बार बार सामने आने लगे। ऐसा न समझा जाए कि उन करुण दृश्यों को देखकर यह सुगबुगाहट शुरू हो गई हो कि चलो अर्थव्यवस्था पलटी जाए। नहीं, कहीं कुछ नहीं।

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देर सबेर यह लूटमार अर्थव्यवस्था पटरी पर आ जाएगी। विकास दर भी दुरुस्त हो जाएगी और जीडीपी भी। लेकिन खुशहाली नहीं आएगी, भूखमरी नहीं मिटेगी। असमानता बनी रहेगी। बढ़ती रहेगी। गरीब और गरीब होता जाएगा और पैसा कुछ लोगों के पास सिमटता जाएगा। भयावह और करुण दृश्य बंद नहीं होंगे, आते रहेंगे।  उन्हें  टांट के नीचे छुपाना पड़ेगा। कोरोना और लॉकडाउन का आभार इतना तो बनता ही है कि उसने घाव उघाड़ कर  दिखा दिया है। आपको दर्द भी हो रहा है, फिर भी अगर कोई सुगबुगाहट नहीं हैं तो यह मानना पड़ेगा कि धरती और मनुष्य की बेहतरी के लिए हमारे पास कोई वैकल्पिक परियोजना नहीं है। क्या यह शुभ संकेत हैं ?

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मृत्युंजय श्रीवास्तव

लेखक प्रबुद्ध साहित्यकार, अनुवादक एवं रंगकर्मी हैं। सम्पर्क- +919433076174, mrityunjoy.kolkata@gmail.com
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