
वरिष्ठजनों की व्यवस्था को विनम्र श्रद्वांजलि
श्रवण कुमार की कहानी पौराणिक मिथकों में एक आदर्श मिथक के रूप में विद्यमान रही है। हर मां-बाप की यही कामना होती है कि बेटा हो तो श्रवण कुमार की तरह। लेकिन श्रवण कुमार तो दूर आज कल के अधिकांश संतानों में न्यूनतम इंसानियत भी नहीं बची है, जिसके कई उदाहरण आये दिन मिलते रहते हैं। ऐसी ही एक घटना गया, बिहार के एक वरिष्ठजन की सामने आयी। 75 वर्षीय वृद्ध महिला के पति की मृत्यु 17 साल पहले हो गई। महिला और उनके पति की तबीयत अक्सर खराब रहने के कारण पैसे के लेन-देन की सारी जानकारी इनके पति बड़ी बेटी को देकर ही अक्सर किया करते थें। खाते तक में बेटी का ही नाम पति के साथ जुड़ा हुआ था। पति-पत्नी दोनों को लगता था कि एक बार बेटा धोखा दे सकता है, लेकिन बेटी कभी धोखा नहीं दे सकती । वे भी तब, जब वह सबसे ज्यादा लाडली और विश्वसनीय हो।
पति की मृत्यु के कुछ समय बाद ही इस महिला ने जमा पूंजी से बड़ी बेटी की शादी अपने और छोटे बेटे के दम पर बड़ी मशक्कत के बाद संपन्न कराई। बेटी की शादी के कुछ समय बाद ही इस महिला के मंझले बेटे की भी हृदयघात से मृत्यु हो गई और अचानक से इस बेटे के परिवार की जिम्मेदारी भी वृद्ध महिला के कंधों पर ही आ गई। कुछ समय तक सबकुछ ठीक चल रहा था, लेकिन धीरे-धीरे बेटे-बहू और बेटी-दामाद को यह डर सताने लगा कि कहीं मां उनके ऊपर बोझ न बन जाये और पिता की पूरी जमा पूंजी खर्च न कर दे। इस कारण साजिश रचकर पहले तो बड़े बेटे और इंजीनियर पोते ने मां के उस फ्लैट पर कब्जा जमा लिया, जिसमें किरायेदार लगाकर दो पैसे का जुगाड़ हो पाता था और फिर पूरे बैंक में रखे जमा पूंजी पर ऑबजेक्शन लगा दिया। बेटी पहले से ही योजना बना कर सभी खाते को अपने हिसाब से संचालित कर रही थी और मौका मिलते ही संयुक्त खाताधारक होने का उसने फायदा उठाया। महिला के पोते और बेटी ने बैंक में आवेदन लिखकर दे दिया कि वृद्धा को पैसा न निकालने दिया जाये। इस आवेदन में यह भी लिखा था कि वृद्ध महिला बैंक से पैसा निकालने की कोशिश कर रही थी, जिसकी सूचना बैंक के कर्मचारी द्वारा मुझे (बेटी) दी गई।
इन साजिशों का खुलासा तब हुआ, जब महिला महीने भर बाद अपने इलाज और मंझले बेटे के परिवार के लिए पैसा निकालने गई। यह घटना बैंक ऑफ बड़ोदा, स्वराज्यपुरी रोड, गया की है। जब महिला को इस बात की खबर लगी तो वह पूरी तरह से टूट गई। उसके पास जीवनयापन का यही जरिया था। उसके लिए संतानों का ऐसा पतित रूप असहनीय था। उसने हिम्मत जुटाकर बैंक वालों से पूछा कि मैं प्रथम खाताधारक और वरिष्ठजन हूँ, फिर बिना सूचना के मेरी अनुपस्थिति में खाते को कैसे फ्रीज कर दिया गया? मैं पैसा निकालने आयी, तब आपने मेरी बेटी को सूचना दी, तो मुझे क्यों नहीं दी? लेकिन संवेदनहीन बैंक मैनेजर के कानों पर जूं तक नहीं रेंगी और वह कहता रहा कोर्ट से ऑर्डर लेकर आईये।
इस घटना की जानकारी एक अधिवक्ता और तथाकथित सामाजिक कार्यकर्ता को हुई। उन्होंने वृद्ध असहाय महिला से इसकी शिकायत ‘वन स्टॉप सेंटर’ में करने कहा, जहां के अध्यक्ष जिलाधिकारी होते हैं। वहां शिकायत करने पर ठीक अदालत के तर्ज पर तारीखें मिलने लगी। एक तारीख से दूसरे तारीख के बीच दो-तीन महीनों का फासला रहता। हर तारीख पर दोनों पक्षों को बुलाया जाता और लीपा-पोती करके छोड़ दिया जाता। अंतत: न तो यहां से कोई फैसला दिया गया और न ही कोई रिपोर्ट। महिला की हताशा-निराशा एक बार फिर बढ़ गई। वह लगातार रोती-बिलखती, रही लेकिन किसी को तरस नहीं आयी।
फिर वृद्ध महिला ने घटना की शिकायत मुख्यमंत्री ग्रिवांस सेल में की। लेकिन यहां भी निराशा ही हाथ लगी। यहां से मामला लोक शिकायत को भेजी गई, लेकिन वहां भी कोई ठोस कार्यवाही नहीं हुई। फिर इसकी शिकायत कलेक्टर, एसपी, डीजीपी, मानवाधिकार आयोग, बैंक के उच्च अधिकारियों और 14567 हेल्पलाईन नंबर को दी गई, लेकिन कहीं से कोई सहायता नहीं मिली। इस बीच बौखलाये बेटे-बहू, बेटी-दामाद और पोते ने महिला पर कई बार जानलेवा हमला किया। इसकी सूचना वृद्ध महिला द्वारा कई बार सिविल लाईन थाना, गया में की गई, लेकिन यहां से भी कोई कार्यवाही नहीं की गई। एक दिन तो महिला की संझली बहू ने पहले खूब झगड़ा किया और फिर थोड़ी देर बाद महिला के बड़े और संझले बेटे ने शराब के नशे में महिला के गर्दन को दबाने की कोशिश की और लाठी से वार कर दिया। महिला के गर्दन पर नाखून से नोंचने के निशान भी थें और खून भी बह रहा था। आसपास के अधिकांश लोग तमाशबिन बने रहें, लेकिन कोई मदद के लिए सामने नहीं आया। पूरी घटना पास के सीसी टीवी कैमरे में भी कैद हुई।
पुलिस को सूचना दी गई तो पुलिस भी रूचि नहीं ले रही थी। कई बार फोन करने के बाद पुलिस घटना स्थल पर पहुंची, लेकिन वृद्ध के मामले को दरकिनार करके, शराब के मामले पर टिक गई। फिर संझले बेटे को शराब पीने के जुर्म में गिरफ्तार करके ले गई। रात के 12 बजे तक महिला को थाने में बैठाकर रखा गया ताकि शराब पीकर मारपीट के शिकायत के लिए अच्छी खासी रकम वसूल की जाये। सुबह फिर 7 बजे ही पुलिस घर पर पहुंच गई और थाने चलकर आगे की कार्यवाही में शामिल होने के लिए दबाव बनाने लगी। महिला ने बहुत विनती की कि मेरी तबीयत खराब है, मुझे नाश्ता करके दवा लेने दीजिए, लेकिन किसी ने एक न सुनी और तुरंत थाने पहुंचने की हिदायत देकर चले गये। वृद्ध महिला के थाने पहुंचते ही थानेदार ने शिकायत वापस लेने का दबाव बनाया और फिर महिला के शराबी बेटे को भारी-भरकम जुर्माने के साथ रिहा कर दिया। यहां कार्यवाही सिर्फ शराब के मामले में हुई। वृद्ध संरक्षण अधिनियम के तहत ऐसे संतानों पर दंड और जुर्माने का प्रावधान है, लेकिन उन पर कोई कार्यवाही नहीं हुई। इन सब से महिला पूरी तरह टूट गई और अवसाद में जीवनयापन कर रही हैं। व्यवस्था के इस आलम को देखते हुए इनके संतानों की निरंकुशता और भी बढ़ गई और इन्हें लगातार प्रताडि़त किया जा रहा है।
ऐसी ही एक घटना ओड़िसा में एक मित्र के घर की सामने आयी, जहां बेटी-दामाद ने वृद्ध विधवा महिला की पूरी संपत्ति हड़पने की कोशिश की। इस घटना से यह महिला इतनी आहत हुई की हृदयघात से उनकी मृत्यु हो गई। दिनभर गाड़ी का चालान बनाना और शराब के मामले पर सख्त कार्यवाही करके पैसे की वसूली करना बिहार पुलिस का मुख्य काम हो गया है, बाकी किसी अपराध में आमतौर पर यह तत्परता नहीं दिखती।
बुजुर्गों को ऐसी ही प्रताड़नाओं से मुक्त करने के लिए संयुक्त राष्ट्र ने 14 दिसम्बर, 1990 को यह निर्णय लिया कि प्रतिवर्ष 1 अक्टूबर को ‘अंतरराष्ट्रीय बुजुर्ग दिवस’ मनाया जायेगा। पहली बार यह 1 अक्टूबर, 1991 को मनाया गया। वृद्धों की समस्या पर ‘संयुक्त राष्ट्र महासभा’ में सर्वप्रथम अर्जेंटीना ने विश्व का ध्यान आकर्षित किया था। भारत में वृद्धों की सेवा और उनकी रक्षा के लिए कई क़ानून और नियम बनाए गए हैं। केंद्र सरकार ने वरिष्ठ नागरिकों के आरोग्यता और कल्याण को बढ़ावा देने के लिए वर्ष 1999 में वृद्ध सदस्यों के लिए राष्ट्रीय नीति तैयार की। इसके साथ ही 2007 में ‘माता-पिता एवं वरिष्ठ नागरिक भरण-पोषण विधेयक’ संसद में पारित किया गया है। सरकार 14567 हेल्पलाईन के जरिये भी वरिष्ठ नागरिकों को मदद पहुंचाने की कोशिश कर रही है।
गौरतलब है कि सारी सुविधाएं अथवा व्यवस्थाएं धरातल पर सही से संचालित नहीं हो पा रही है। ऐसे मामलों को घरेलू बताकर कोई कार्यवाही नहीं की जाती, जबतक खून-खराबा अथवा कोई हिंसक घटना नहीं घट जाती है। बहुत मुश्किल से कोई मां-बाप अपने बच्चों के खिलाफ आवाज उठा पाते हैं, लेकिन प्रशासन का यह रूख वृद्धों के मनोबल को तोड़ देता है। अंतत: वे वृद्धा आश्रम जाने को मजबूर हो जाते हैं या फिर अपने-आप को मौत के मुंह में धकेल देते हैं।
अखबारों और समाचारों की सुर्खियों में वृद्धों की हत्या और लूट-मार की खबरें लगातार देखी जाती है। वृद्धाश्रमों की बढ़ती संख्या और इसमें बढ़ते वृद्ध इस बात के सबूत हैं कि वृद्धों के हालात चिंताजनक है। इसलिए यह बेहद जरूरी है कि समाज के इस मजबूत स्तंभ को संरक्षित रखने के लिए सही दिशा में प्रयास किया जाये और मौजूदा कानून को पूरी सख्ती से लागू किया जाये। साथ, ही वैसे लोग जो ऐसे कानूनों पर कार्यवाही नहीं करते, उनके लिए कठोर सजा और कारावास का प्रावधान होना चाहिए। तभी ऐसे दिवस की सार्थकता होगी।