उपन्यास में मिथक के प्रयोग
उपन्यास शब्द ‘उप’ तथा ‘न्यास’ के योग से बना है जिसका अर्थ है निकट रखी हुई वस्तु अर्थात् वह वस्तु या कृति जिसे पढ़ कर ऐसा लगे कि वह हमारी ही है, इसमें हमारे ही जीवन का प्रतिबिंब है, इसमें हमारी ही कथा, हमारी ही भाषा में कही गई है। आधुनिक युग में जिस साहित्य विशेष के लिए इस शब्द का प्रयोग किया जाता है, उसकी प्रकृति को स्पष्ट करने के लिए यह शब्द सर्वथा उपयुक्त है।
उपन्यास आधुनिक युग की उपज है – उस युग की, जिसका दृष्टिकोण सर्वथा व्यक्तिवादी हो गया है। समष्टि को दबाकर व्यक्ति उपर उठ आया है। इन्हीं परिस्थितियों का फल हमारा उपन्यास साहित्य है। उपन्यास वास्तविक जीवन की काल्पनिक कथा है। उपन्यास सम्राट मुंशी प्रेमचंद के अनुसार – “मैं उपन्यास को मानव चरित्र का चित्र मात्र समझता हूँ। मानव चरित्र पर प्रकाश डालना और उसके रहस्यों को खोलना ही उपन्यास का मूल उद्देश्य है।” 1 न्यू इंगलिश डिक्शनरी में उपन्यास की परिभाषा देते हुए कहा गया है- “उपन्यास वृहत आकार का गद्य आख्यान या वृतांत है जिसके अन्तर्गत वास्तविक जीवन के प्रतिनिधित्व का दावा करने वाले पात्रो और कार्यो को कथानक में चित्रित किया जाता है।” 2
वस्तुतः ये सब परिभाषाएं एक ही बात पर जोर देती है कि उपन्यास में मानव जीवन का प्रतिनिधित्व हो, घटनाएँ श्रृंखलाबद्ध हों तथा वास्तविकता की सेवा में नियोजित कल्पना हो।
उपन्यास की सर्वमान्य परिभाषा देना संभव नहीं है परन्तु व्यापक दृष्टि से कहा जा सकता है कि यह गद्य साहित्य का एक अन्यतम रूप है जिसका आधार कथा है – चाहे वह मनुष्यों की हो या मनुष्येत्तर जीव की अथवा चाहे वह सच्ची हो या कल्पित। कौतुहल की सृष्टि तथा मानवीय मनोवेगों के उद्दीपन द्वारा उसमें रोचकता तथा किसी सिद्धांत सम्बन्धी विचारों की उत्तेजना द्वारा उसमें गरिमा का समावेश वांछनीय है। आज उपन्यास साहित्य की अत्यंत ही विकसित विधा है। यही कारण है कि आज विभिन्न मिथकों से संबंधित उपन्यास लिखे जा रहे हैं।
उपन्यास की मिथक से संरचनात्मक समानता उसके मुक्तिदायी प्रभाव में प्रकट होता है। श्रेष्ठ उपन्यासकार समाजिक मूल्यों एवं व्यवस्थाओं का विद्रूप मात्र प्रस्तुत नहीं करता है वरन् उनका समाधान भी प्रस्तुत करता है। “अंग्रेजी के उपन्यासों डेनियल डी. फो. का ‘रोबिन्सन क्रूसो’, जोनाथन स्विफट का ‘गुलीवर्स ट्रैवल्स ” तथा फलाबेयर का ‘मादाम बोमारि ‘ आदि में जो मिथक संचरित हो रहें है, वे किसी विशिष्ट दर्शन पद्धति का विद्रूप प्रस्तुत करते हैं, किन्तु इस कथा में वैसा पाठक भी रस लेता है जिसने दर्शन शास्त्र के इतिहास का अध्ययन नहीं किया है। वे मिथकों का दोहन करते है। मिथकों के इस दोहन के पश्चात् उपन्यास के उद्देश्य एकाएक जादू की पुड़िया की तरह प्रकट हो जाते है और पाठक चमकृत हो जाते हैं। इस प्रकार मिथक वह काम कर दिखाता है जो हमें इस गोचर संसार में असंभव प्रतीत होता है।” 3
हिन्दी में मिथकीय आस्था को आधार बनाकर लिखे गए उपन्यासों की संख्या बहुत कम है। वस्तुत: आस्था का संबंध व्यक्ति की निजता से हुआ करता है और वही मौलिकता का भी उद्भव स्रोत है।
“हिन्दी उपन्यास अपने उद्भव और विकास में प्रायः ही परोपजीवी रहा है। आरम्भ में बंगला के कुछ उपन्यासों का अनुवाद किया गया है। मूल लेखक बंकिम बाबू स्वयं अंग्रेजी के उपन्यासकारों से प्रभावित थे। हिन्दी में भी मौलिक उपन्यासों की सर्जना अंग्रेजी के अनुकरण पर हुई।”4 आगे चलकर पौराणिक और ऐतिहासिक कथा सामाग्री को लेकर जो उपन्यास रचे गये उसमें मिथकों का प्रचुर मात्रा में प्रयोग हुआ है। कुछ उल्लेखनीय लेखकों के नाम इस प्रकार है- हजारी प्रसाद द्विवेदी, रांगेय राघव, आचार्य चतुरसेन शास्त्री, गुरूदत्त और भगवती चरण वर्मा आदि।
हिन्दी साहित्य में मिथक शब्द का प्रथम प्रयोग आचार्य हजारी द्विवेदी ने ही किया है। इनका लेखन सांस्कृतिक आस्था और औदात्य का उज्जवल उदाहरण है। ‘वाणभट्ट की आत्मकथा’, ‘पुनर्नवा’, ‘ चारू चन्द्रलेख’ और ‘अनामदास का पौथा’ ये चार उनके श्रेष्ठ मिथकीय उपन्यास हैं। इन उपन्यासों में इतिहास और मिथकों का अद्भुत सम्मिश्रण है।
रांगेय राघव का क्षेत्र सुदूर अतीत रहा है। उनकी रूचि अतीत की नवीन प्रगतिशील व्याख्या करने में समर्थ रही है। ‘अंधेरा रास्ता’ या ‘ महायात्रा’ नामक विशालकाय उपन्यास में उन्होंने प्रागैतिहासिक युग की घटनाओं को आधुनिक दृष्टि से कथाबद्ध किया है। उनके अन्य उपन्यासों ‘ मुर्दों का टीला’ और ‘जब आवेगी काली घटा’ आदि उपन्यासों में मिथकीय वस्तुभूमियों की आधिकारिक अथवा प्रासंगिक रूप से कोई कमी नहीं है। धर्मवीर भारती का ‘सूरज का सातवां घोड़ा’ पूर्णतः मिथकीय उपन्यास है।
आचार्य चतुर सेन शास्त्री के उपन्यासों में भी मिथकों को परखा जा सकता है। ‘वयंरक्षाम’ में उन्होंनें पौराणिक कथाओं के द्वारा आधुनिक समस्याओं को उजागर करने का प्रयास किया है। ‘खग्रास’ नामक उपन्यास में अंतरिक्ष सम्बन्धी मिथक को बखूबी मूल्यांकित किया जा सकता है।
गुरूदत्त ने भी ढेर सारे मिथकीय विश्वासों पर आधारित उपन्यास लिखे हैं। उन्होंने बौद्ध मिथकों, पुराण मिथकों तथा इतिहास के मिथकों का सफल प्रयोग किया है। उनके ‘प्रारब्ध और पुरूषार्थ’ में ऐतिहासिक मिथकों को परखा जा सकता है।
नरेंद्र कोहली के- ‘दीक्षा’, ‘अवसर’ , ‘संघर्ष की ओर’ और ‘युद्ध’ – चारों उपन्यासों में राम कथा के मिथक को बिल्कुल आधुनिक संदर्भ में प्रस्तुत किया गया है। इसी तरह श्री लालशुक्ल के ‘राग दरबारी’ में राजनीतिक मिथक का सफल प्रयोग हुआ है।
मनोहर श्याम जोशी के ‘कुरू – कुरू स्वाहा’ में जो व्यंग्य है, उसे राजनीतिक मिथक के अन्तर्गत रखा जा सकता है। इसी प्रसंग में यादवेन्द्र शर्मा ‘चन्द्र’ का ‘एक और मुख्यमंत्री’ सफल राजनीतिक मिथक वाला उपन्यास है। लक्ष्मीकांत वर्मा के ‘एक खाली कुर्सी की आत्मा’ में भी राजनीतिक मिथकों को परखा जा सकता है।
इनके अतिरिक्त शिव प्रसाद सिंह की ‘अलग-अलग बैतरणी’, ‘गली आगे मुड़ती है’ तथा ‘नीला चांद’ में भी मिथकों को परखा जा सकता है। प्रसिद्ध आंचलिक उपन्यासकार फणीश्वरनाथ ‘रेणु’ और नागार्जुन के उपन्यासों में लोक मिथकों का प्रयोग प्रचुर मात्रा में हुआ है। रेणु के ‘मैलाआंचल’, ‘परती परिकथा’, ‘जुलूस’ तथा ‘दीर्घतपा’ में लोक मिथकों का खूब प्रयोग हुआ है। नागार्जुन के ‘बाबा बटेसर नाथ’, ‘बलचनमा’ और ‘पारो‘ में भी लोक मिथकों का खूब प्रयोग हुआ है।
अंत में निष्कर्ष रूप में कहा जा सकता है कि उपन्यासों में भी मिथकों के खूब प्रयोग हुए है और हो रहे हैं। उपन्यासों में जीवन की विद्रुपताओं को दिखाने में मिथक एक कारगर हथियार सिद्ध हो रहे हैं।
संदर्भ :-
- कुछ विचार – पृष्ठ – 38 साहित्य शास्त्र तथा समालोचन के सरल आयाम, डॉ. मिथिलेशरण मित्तल तथा प्रो. उर्मिलेश कुमार शंखधार (बरेली) स्टूडेंट स्टोर, 1976 पृष्ठ – 218 से उद्धत।
- वही, पृष्ठ – 219 से उद्धत
- जगदीश प्रसाद श्री वास्तव मिथकीय कल्पना और आधुनिक काव्य, पृष्ठ 334
4.रामचंद्र तिवारी, हिन्दी का गद्य साहित्य पृ० 105-107, मिथकीय कल्पना और आधुनिक काव्य जगदीश प्रसाद श्री वास्तव पृष्ठ 334 से उद्धत।