‘स्वाधीनता आन्दोलन और साहित्य’ : हमारे जीवन मूल्य
स्वाधीनता से बढ़कर इस दुनिया में कोई चीज़ नहीं। स्वतन्त्रता है तो सब कुछ है अन्यथा कुछ भी नहीं। यह आजादी का अमृत महोत्सव वर्ष है। पुस्तक का शीर्षक है-स्वाधीनता आन्दोलन और साहित्य। इसे अनुज्ञा बुक्स दिल्ली ने प्रकाशित किया है। वह भी अत्यन्त खूबसूरती के साथ। इसकी विधिवत योजना 16 मार्च 2022 को श्यामबाबू शर्मा ने बड़े उत्साह के साथ मुझसे साझा की थी। अपने तई मैनें उनका हमेशा उत्साहवर्धन ही किया। निराशा का तो कोई प्रश्न ही नहीं? तब से लेकर अब तक यानी किताब प्रकाशन के बाद भी मेरा उनका संवाद जारी है। वे बेहद उत्साही व्यक्ति हैं और उनकी सक्रियता ने हमें एक ठोस आधार और एक बड़ा नेटवर्क भी दिया है। ऐसा न होता तो वे मुझसे इतने लंबे अरसे तक शायद जुड़े ही नहीं रह सकते थे? उनकी कार्यविधि मात्र मुखागर नहीं होती। वे बाकायदे इसके हेतुओं, रूप-रेखाओं को अपनी डायरी में इंद्राज करते रहे हैं। कई तरह की तिथियाँ डालते हैं। जो हमारी बातचीत में अक्सर शामिल होता रहा है। यह कोई अति उत्साही आदमी ही कर सकता है। वे संवाद पर अमल भी किया करते हैं। सक्रियता का आदान-प्रदान भी करते हैं। जब उन्होंने मुझसे बताया तो निश्चय ही आश्चर्य मिश्रित खुशी हुई। उन्होंने मुझे जो मान-सम्मान दिया है, वह सामान्य नहीं महत्वपूर्ण है। उन्होंने मेरी अनुशंसाओं को भलीभांति क्रियान्वित भी किया है। उसके बारे में क्या कहूँ? सोचता हूँ ऐसे आदमी भी इस मायावी महाबाज़ार में ढल रही दुनिया में मौजूद हैं। हम रिश्तों के विखण्डन की त्रासदी भी झेल रहे हैं। खैर, यह एक अलग प्रश्न है।
सच मानिए, मैने अपने किसी मित्र को इस विषयक कभी कोई फ़ोन नहीं किया कि आपको लिखना है। सम्पादक को खुला छोड़ दिया था। यह भी आश्चर्य से कम नहीं है। मेरे मित्रों ने मेरे संदर्भ को इतनी अहमियत दी। इसका सचमुच गर्व है मुझे। लेकिन यह गर्व वाकई में हिन्दू होने जैसा गर्व नहीं है। मैं अपने तई एक चुप्पा किस्म का, एक अदना सा आदमी रहा हूँ। जिसे अपने जीने मरने की कोई ख़बर नहीं। अपनी आत्मा में ही बहता हूँ। साहित्य में कभी कोई धूम-धड़ाका करने की कोशिश भी नहीं करता। 28 मार्च को मैंने उन्हें इस बात के लिए प्रोत्साहित किया कि भारत की विविध भाषाओं में स्वाधीनता आन्दोलन के अवदान को इसमें शामिल किया जाए तो बेहतर होगा। 4 अप्रैल को मैंने सुझाया कि मेरे मित्र और संस्कृत साहित्य के प्रकांड विद्वान प्रोफेसर राधावल्लभ त्रिपाठी जी को इससे जोड़ा जाए और संस्कृत में स्वाधीनता आन्दोलन के जो तमाम रूप रहे हैं उनसे निवेदन किया जाए कि उसे आलेख के रूप में प्रस्तुत करें। मैंने उन्हें त्रिपाठी जी का फोन नंबर उपलब्ध कराया और उनसे सम्पर्क करने को कहा। उसी तरह कन्नड़ भाषी मेरे मित्र हिन्दी के विद्वान प्रोफेसर धरणेंद्र कुरकुरी से अनुरोध करने के लिए कहा कि कन्नड भाषा में स्वाधीनता आन्दोलन को आलेखित करें। 20 अप्रैल को मैंने अपने लिए भी विषय का चयन किया और कई दिक्कतों के बावजूद एक प्रतिज्ञा की तरह उस काम को पूरा किया। अग्रज रामकुमार कृषक जो छंद के भी ज्ञाता है और अत्यन्त समझदार भी। सुधीर विद्यार्थी का नाम सुझाते हुए मैंने उन्हें बताया कि वे स्वाधीनता आन्दोलन के क्रांतिकारी साहित्य के बारे में बेहतर तरीके से लिख सकते हैं। सम्पर्क सूत्र दे रहा हूँ। बातें करें। एक बार ही उनसे लघुपत्रिका समन्वय समिति के आज़मगढ़ अधिवेशन में मिलना हुआ था। पाण्डेय शशिभूषण शीतांशु का भी नाम सुझाया। हालांकि एक बार ही उनसे मिला हूँ बनारस में 1994 में। उनसे भी मैंने आलेख लिखने के लिए कहने का अनुरोध किया। पूर्व में श्यामबाबू इस पुस्तक में कुछ लिखना नहीं चाहते थे। मैंने उन्हें समझाया कि आप ज़रूर लिखें। मैं मित्रों के नाम सुझाता गया, वे सम्पर्क करते रहे। कभी सफल हुए कभी असफल। कुछ और मित्रों-जानकारों के नाम सुझाए। जैसे अग्निशेखर और क्षमा कौल जी का। यह ठीक है कि अपनी विशेष व्यस्तताओं के कारण वे आलेख नहीं लिख सके। मैं सूत्र बताता गया और वे अपने उत्साह में अपनी कार्यविधि में उसे परिणत करते रहे।
इस किताब की विशेषता यही है कि हिंदुस्तानी भाषाओं में स्वाधीनता आन्दोलन के सिलसिले में जो संघर्ष हुए हैं और साहित्य में उसे जिस तरह रेखांकित किया गया है। जिस प्रकार की उसकी विविध छवियां है, उसे सामने लाया जाए। हिन्दी, संस्कृत, मराठी, बांग्ला, कन्नड़, मलयालम, तमिल, तेलुगू, असमिया, मणिपुरी, गुजराती, पंजाबी, सिंधी, कश्मीरी, उड़िया, संथाली, जैसी भाषाओं को इसमें केंद्रित किया जा सका है। इस क़िताब में लोक साहित्य-संस्कृति, सिनेमा, नाटक, उपन्यास, कविता के साथ पत्रकारिता और उसमें स्वाधीनता आन्दोलन के व्यापक परिप्रेक्ष्य को पहचानने का एक विनम्र प्रयास किया गया है। यह मार्च से लेकर जुलाई बाइस तक की महत्त्वपूर्ण रचनायात्रा है। इन पाँच महीनों में जिस उत्साह, उमंग, लगन और श्रद्धा से सम्पादक और लेखक मित्रों ने काम को अंजाम दिया है। वह मेरी निगाह में बेमिसाल है। श्याम बाबू ने जो काम किया है उसी का प्रतिफल है यह क़िताब। यह मौन बहुत कुछ कहता है। इसमें स्वतन्त्रता आन्दोलन का संघर्ष और समर्पण तो है ही उसकी खुशबू और महत्त्व भी है। इसमें स्वाधीन भारत की प्रतिष्ठा, अपार चेतना और उसकी वैचारकी भी है और समूचे देश की विभिन्न भाषाओं में इसकी व्याप्ति के अनेक क्षेत्रों और सोपानों को समेटने का एक सक्षम उद्यम और उपक्रम भी है।
स्वाधीनता आन्दोलन में इस देश का प्रत्येक वर्ग शामिल रहा है। निर्धन, अशिक्षित और असभ्य कहे जाने वाले लोग भी। पर्वतीय इलाकों में भी स्वाधीनता संघर्ष के तमाम रूप उजागर हुए हैं। जीवन के इस व्यापक रूप में देश के सभी लोगों ने कंधा से कंधा मिलाकर गुलामी से मुक्ति के लिए यह दिलचस्प मारक और अमूल्य लड़ाई लड़ी है। अपने प्राणों की आहुतियां दी हैं। क्या जालियांवाला बाग कभी भूला जा सकता है। क्या असहयोग आन्दोलन, भारत छोड़ों आन्दोलन को किसी प्रकार भूला जा सकता है। किस-किस का स्मरण कराऊं। कितने लोग फाँसी के फंदों में झूले। कितनों ने जेल यातनाएं सहीं, गोलियां खाई, कोड़े सहे। अपने खून से, अपनी निष्ठा और लगन से आज़ादी को सींचा। उसके महत्त्वपूर्ण दाय को लहलहाया। वे लोग क्या जानें इसकी कीमत जिन्होंने अपने सगे संबंधियों को, अपने बेटे, भाई, पिता, माता, बुजुर्ग, स्त्रियों को इस आन्दोलन के दौरान खोया नहीं है? और वे लंबी-लंबी हाँकते नज़र आते हैं। आदिवासी, दलित, वंचित, घुमंतू लोग, रोज़-रोज़ कमाने खाने वाले लोग इसमें शामिल रहे हैं। धनी लोग भी शामिल रहे हैं। युवा पीढ़ी को जानना होगा कि यह आज़ादी दीवानगी और संघर्ष से ही कमाई गई है। यह फालतू पड़ी हुई कोई वस्तु नहीं है। वे इसकी कीमत समझें और इसकी सुरक्षा के लिए कुछ उठा न रखें। जुनून नहीं तो आज़ादी नहीं। जुनून नहीं तो जीना नहीं। जुनून और समर्पण नहीं तो लेखन भी नहीं। यह हँसी-ठिठोली का मामला भी नहीं है। ज़मीर ज़िंदा नहीं तो कुछ भी नहीं। यह वह भी सही यह भी सही का मामला तो कत्तई नहीं है। इस देश के रहने वालों के अथक प्रयासों और संघर्षो का प्रतिफल है यह बेसकीमती हमारी आज़ादी। वे गीत हमें आज भी प्रेरणा देते हैं और हमें उत्सा-उमंग से भर देते हैं।” सरफरोशी की तमन्ना अब हमारे दिल में है/ देखना है जोर कितना बाजुए कातिल में है/” दूसरा “अपनी आज़ादी को हम हरगिज़ भुला सकते नहीं /सर कटा सकते हैं लेकिन सर झुका सकते नहीं/”
आज़ादी के अमृत महोत्सव में उस जज्बे को जीवित और जीवन्त रखें। आज़ादी कहीं पड़ी हुई नहीं मिलती। वह लोक कल्याण की असली धुरी है। वह बलिदान मांगती है। वह हमारी अस्मिता है। स्वतन्त्रता संग्राम सेनानियों से इसे हमें सीखना चाहिए। आज़ादी कायम है तो हम हैं। आज़ादी कायम नहीं तो हम भी नहीं हैं। वास्तव में यह सेंतमेंत की दुनिया नहीं है। उसे लाना पड़ता है, निगरानी करनी पड़ती है और सतत कुर्बानी भी देनी पड़ती है। आज़ादी कोई सस्ती चीज़ नहीं है। यह अमूल्य होती है। इसका मूल्य वे जानते हैं जिन्होंने आज़ादी प्राप्ति के लिए गुलामी के खिलाफ़ लड़ाई लड़े थे और जो यह कठिन लड़ाई आज़ादी की सुरक्षा के लिए लड़ रहे हैं। हमें इसकी कदर करनी चाहिए। इसकी अवहेलना नहीं। भारतीय जीवन में इस दौर में अस्मिता की खोज और पहचान एक बेहद ज़रूरी मुद्दा है। भारत ने कभी भी नफ़रत फ़ैलाने का महासंग्राम नहीं लड़ा था। अवहेलना तो देखी थी? अब यह साक्षात हमारे सामने है। संभवतः इसीलिए स्वतन्त्रता और मानवीय मूल्यों की सांसें फूल रही हैं। कभी पण्डित जवाहर लाल नेहरू ने एक तथ्य की ओर हमारा ध्यान केंद्रित किया था कि -“मेरे भीतर पश्चिम और पूर्व का तनाव है, मेरे भीतर प्राचीन और आधुनिकता का तनाव है।” इस मार्के की बात को हमें निरंतर अनुभव करते रहना होगा। इसमें स्वतन्त्रता की वास्तविकता के बीज निहित हैं। इसी से हम वर्तमान और भविष्य की चुनौतियों का सामना कर सकते हैं। स्वाधिनता की लौ मद्धिम पड़ती जा रही है। उसके कारकों को लगातार खोजना होगा?
अभी तो हमें लोकबोलियों में स्वाधीनता आन्दोलन, उसकी अवधारणा को और तमाम संघर्षों और जीवन मूल्यों और धाराओं को ढंग से खोजना है। उसमें लगातार परिवर्तन घटित होते रहे हैं। उसमें अभी भी बहुत कुछ छिपा है और यह सुखप्रद स्थिति है कि संकल्पनिष्ठ श्यामबाबू शर्मा शीघ्र ही इस वास्तविकता को आगे ले जाएंगे। यदि संकल्प ठान लिया जाए तो अनेक बाधाओं के बावजूद उसे हर हाल में पूरा किया जा सकता है। यह जज़्बा अभी भी मौजूद है? स्वाधीनता आन्दोलन केवल कुछ वर्षों की परिघटना नहीं है। हमारे पूर्वजों ने इसके लिए अनथक संघर्ष किए हैं। जब इस क़िताब की तैयारी चल रही थी।उसी समय शर्मा जी को दो स्लिप डिस्क का आघात हुआ था। दिक्कतों के बाद भी वे बिना थमे, बिना रुके और अविचलित भाव से काम में लगे रहे। डटे रहे अपनी प्रतिज्ञा पर अपने लक्ष्य और उद्देश्य पर। कहीं सुना था कि-“मंजिल उन्हीं को मिलती है/ जिनके सपनों में जान होती है/पंखों से कुछ नहीं होता/हौसलों से उड़ान होती है।” उसे जीवन्त होते देखा। ये प्रसंग इसलिए मालूम है कि बहुत पूछने पर मुझसे उन्होनें साझा किए थे। उनकी रचनात्मकता और जीवटता की वजह से किताब आ गई। वे काम को लेकर कमिटेड हैं। संभवतः इसीलिए टेंटेटिव समय में काम पूरा कर ही लिया। उनके भीतर यह फितरत है। अपने वादे के अनुरूप पंद्रह अगस्त को हर हाल में वे पुस्तक ले ही आए।
लोक बोलियों के साहित्य में वह वाचिक हो या गैरवाचिक यानी लिखित, वह हमारी वार्ताओं में रहा हो या यूं ही अन्य किसी माध्यमों में? कुछ लोगों के अवदान हमारे खोजने, खंगालने के बावजूद इतनी जल्दी में मिल नहीं पाए। एक कसक रह-रह कर टीस रही है कि उर्दू, अरबी, फारसी और अन्य भाषाओं को तत्काल हम रेखांकित नहीं कर पाए? उस दौर में कितना साहित्य जब्त किया गया था। उसे भी परिश्रम से खोजना और हर हाल में पाना यानी उपलब्ध करना है। यह आसान काम नहीं है बल्कि बेहद गंभीर और मुश्किल है। क्योंकि आज की तरह हमारे पूर्व समयों में स्वाधीनता आन्दोलन की लड़ाइयां नाम कमाने के लिए, यश प्राप्ति के लिए और किसी तरह के लाभ-लोभ के लिए नहीं लड़ी जाती थीं, जो इस दौर में अभूतपूर्व प्रशंसा के रूप में विकसित हुआ है। साथ ही अपने आपको चमकाने के रूप में संपन्न हो रहा है? स्वतन्त्रता हमारा जीवन मूल्य भी होती है। मौन आराधना भी है और उसको सुरक्षित रखना हमारे जिन्दा रहने से ज्यादा ज़रूरी है। यह अमृत महोत्सव हमें आज़ादी के जश्न मनाने का जितना अवसर देता है, उससे कहीं ज्यादा उसको नए सिरे से पहचानने और पुनर्विचार करने का दायित्व भी सौंपता है। देखना यह है कि यदि हम अपनी सामासिकता, बहु आयामिता को नहीं बचा पाए, और वह नफ़रत क्रूरता निर्लज्जता की भेंट चढ़ गई तो हमारे पुरखों का किया धरा अर्थहीन हो सकता है? इधर बढ़ती कॉरीडोर संस्कृति ने, दिखावे के जलसों ने आत्माओं तक को छलनी करना शुरू कर दिया है? अभी तो कहने को बहुत कुछ है और सहने को बहुत कुछ है। स्वतन्त्रता के तमाम बिखरे सूत्रों को उसके विविध रंगों, सपनों और यथार्थ को विस्तार से समझने की ज़रूरत है। उसकी, असलियत, जड़ों, संस्कृति और लोकबोलियों के आयामों को विराट संदर्भों में टटोलने, सहेजने का भगीरथ प्रयास करना है और उसके लिए गंभीर जतन भी करना है? ये बहुत उलझा हुआ सा मामला है। ठीक-ठीक कहा नहीं जा सकता कि कितना उसे कर पाएंगे। क्योंकि यह तो समय, परिस्थितियों और हमारी कार्यविधि में ही निर्णय हो पाएगा?