साहित्य

लुगदी साहित्य बनाम गम्भीर साहित्य

 

इन दिनों हिन्दी साहित्य जगत में लुगदी साहित्य बनाम गम्भीर साहित्य पर खूब बहस चल रही है। लुगदी साहित्य क्या है, लुगदी साहित्य किसे कहते हैं, इसे  लोग-बाग बेहतर समझते हैं। इसके अर्थ और  व्युत्पत्ति पर विचार करना, श्रोता या पाठक की समझ को कम करके आँकने जैसा काम है। लुगदी साहित्य की लोकप्रियता के कारण लोग इसे लोकप्रिय साहित्य भी कहा करते हैं। लुगदी साहित्य को जो समझते हैं, वे इसे साहित्य और आम आदमी के बीच का पुल मानते हैं।

महत्त्वपूर्ण सवाल है  कि साहित्य जगत में लुगदी साहित्य बनाम गम्भीर साहित्य की बहस समाज में कहाँ से और क्यों शुरू हुई? हंस पत्रिका के ‘ रहस्य -अपराध-वार्ता विशेषांक, 2017 ‘ में अतिथि सम्पादक गौतम सान्याल ने अपने सम्पादकीय में लिखा है, “प्रश्न उठता है कि अत्याधुनिक अपराध-साहित्य के दायरे में किसी न किसी साहित्यिक-विमर्श का कोई पन्ना क्या हिन्दी में खुलता है या खुल सकता है? मेरा दावा है कि खुल सकता है, सच कहूँ तो खुल रहा है। निवेदन है कि ऐसे दर्जनभर सम्भावित विमर्शों में से एक को चुन कर  ‘आलेख खण्ड में’ प्रस्तुत किया गया है  मंशा यही कि हिन्दी में भी कुछ ऐसी बातें पैदा की जाएँ, जो कि पश्चिम की विपुल सामग्री का अतिक्रमण कर जाए, या कम से कम उसके सामने प्रश्नचिह्न-सा खड़ा हो जाए।”

हंस  के उस विशेषांक में कथाकार संजीव, अवधेश प्रीत, एसआर हरनोट, जयश्री राय,  विवेक मिश्र, रणेन्द्र,  पंकज मित्र आदि हिन्दी के प्रमुख कथाकारों की कहानियों को रखा गया है। मुख्तसर बात इतनी कि पश्चिम में इस विषय पर विपुल सामग्री उपलब्ध है। पश्चिम में अगाथा क्रिस्टी और आर्थर कानन डॉयल जैसे कई लेखकों ने जासूसी उपन्यासों के साहित्यिक स्तर को काफ़ी ऊँचा उठा दिया था। इस श्रेणी में मशहूर अमेरिकन उपन्यासकार लुइसा मे एल्काट और ब्रिटिश उपन्यासकार जे के राउलिंग  की ‘हैरी पॉटर’ और ‘द फिलॉसोफर स्टोन’ भी शामिल है।

बांग्ला भाषा में कुछ लेखकों ने जासूसी गल्प द्वारा ऐसे उत्कृष्ट मनोरंजक साहित्य के स्तर को ऊपर उठाने का काम किया, जिसमें किसी हद तक सामाजिक यथार्थ और मनोवैज्ञानिक गुत्थियाँ भी उत्कृष्ट ढंग से चित्रित होती थीं। शरदिन्दु बंद्योपाध्याय का पात्र ‘ब्योमकेश बक्शी’ टी.वी. सीरियल बनने के पहले ही बंगाल के घर-घर में लोकप्रिय हो चुका था। जासूसी कहानियों में सत्यजीत रे ने भी सफलतापूर्वक हाथ आजमाया था और उनके जासूस ‘फेलू दा’ की भी घर-घर में लोकप्रियता थी।

हिन्दी के आलोचक /  इतिहासकार रहस्य-रोमांच, तिलस्मी-ऐय्यारी के  उपन्यासों का साहित्य के इतिहास  में उल्लेख करते रहे हैं, लेकिन वे इसका महत्व स्वीकार करने में  एकमत नहीं रहे हैं। हिन्दी साहित्य के कुछ आलोचक  तिलिस्मी उपन्यासों को कोरी प्रेम-कल्पना, अलिफ- लैला आदि की किस्सागोई के आख्यानों से ओत-प्रोत मानते  हैं, वहीं कुछ आलोचक साहित्य संदर्भ को लेकर इससे जुड़ते रहने के पक्ष में हैं। आचार्य  रामचंद्र शुक्ल, हजारी प्रसाद द्विवेदी जैसे हिन्दी के मूर्धन्य इतिहास लेखक पहली कोटि में आते हैं,  तो दूसरी कोटि में हमें चंद्रबली सिंह,  प्रदीप सक्सेना जैसे आलोचक मिलते हैं,  जो इन उपन्यासों का पुनर्मूल्यांकन करते हुए नए संदर्भों की आवश्यकताओं को बल देते हैं। देवकी नन्दन खत्री की तिलस्मी और ऐय्यारी वाली रचनाओं पर एक अध्ययन डॉ. प्रदीप सक्सेना का है,  जो यह स्थापना प्रस्तुत करता है कि इन कृतियों में कथात्मक ताना-बाना है और इस विन्यास के माध्यम से औपनिवेशिक सत्ता के विरोध का एक नाट्य रचा गया है, या एक फंतासी बुनी गयी है।

लुगदी साहित्य की एक श्रेणी के रूप में जासूसी उपन्यासों की बात करें तो इस मामले में इब्ने सफ़ी को एक ‘ट्रेण्ड सेटर’ कहा जा सकता है। हिन्दी भाषा के विस्तार और विकास में गोपाल राम गहमरी का योगदान देवकीनंदन खत्री से कम नहीं था, जिन्होंने हिन्दी में जासूसी उपन्यासों के लेखन की शुरुआत की थी। गोपाल राम गहमरी के जासूसी उपन्यासों के बाद दशकों तक कुछ लेखकों द्वारा छिटपुट जासूसी उपन्यास लिखे जाते रहे, जिनमें प्रमुख रूप से सेक्स-प्रसंग होते थे   असरार अहमद-उर्फ़ इब्ने सफ़ी ने इस दिशा में  साफ-सुथरे जासूसी उपन्यासों की शुरुआत की, जिनमें हास्य के प्रसंग होते थे,  लेकिन अश्लीलता बिल्कुल नहीं होती थी।  उनके उपन्यास पहले उर्दू में छपे, फिर हिन्दी में छपने लगे। जासूसी उपन्यासों में इब्ने सफ़ी जैसी लोकप्रियता फिर किसी और लेखक को नहीं मिली। इसके बाद किसी हद तक कर्नल रंजीत चर्चित रहे, पर जल्द ही उनके उपन्यासों में भी सेक्स-प्रसंगों की छौंक-बघार  नज़र आने लगी। साहित्य में सेक्स अवांछित नहीं है, लेकिन उसका समुचित प्रयोग अथवा संतुलन जरूरी है। हिन्दी-उर्दू में समान रूप से स्थापित साहित्यकारों में से एक साहित्यकार – कृश्नचन्दर ने ‘हांगकांग की हसीना’ नाम से एक जासूसी उपन्यास लिखा भी तो वह एक चलताऊ जासूसी उपन्यास से आगे अपना कोई विशेष साहित्यिक मूल्य स्थापित नहीं कर पाया। लुगदी साहित्य के दायरे में शुरुआती दौर का सर्वाधिक चर्चित नाम कुशवाहा कान्त का था, हालाँकि उनके रूमानी उपन्यासों में प्राय: परम्पराभंजन का भी एक पक्ष हुआ करता था और उन्होंने एक उपन्यास ‘लाल रेखा’ ऐसा भी लिखा था,  जो क्रान्तिकारी राष्ट्रीय आन्दोलन पर केन्द्रित था।

1960 और 1970 के दशकों में गुलशन नन्दा लुगदी साहित्य या फुटपाथिया साहित्य नामधारी सस्ते लोकप्रिय साहित्य की दुनिया के बेताज़ बादशाह रहे। गुलशन नन्दा के बाद रानू, राजवंश, वेद प्रकाश शर्मा, सुरेन्द्र मोहन पाठक, वेद प्रकाश काम्बोज, ओमप्रकाश शर्मा, अनिल मोहन, मनोज आदि पिछले पचास वर्षों के दौरान लुगदी साहित्य के शीर्षस्थ रचनाकार रहे हैं। वेद प्रकाश शर्मा के बहुचर्चित उपन्यास ‘वर्दी वाला गुण्डा’ की पहले ही दिन 15 लाख प्रतियाँ बिक गयी थीं। सुरेन्द्र मोहन पाठक के एक-एक उपन्यास के एक-एक संस्करण 30 हजार से अधिक प्रतियों तक हुआ करते थे   लुगदी साहित्य के इतिहास में एक महत्वपूर्ण नाम प्यारे लाल आवारा का भी है। साठ के दशक में उनकी तूती बोलती थी। इलाहाबाद के रूपसी प्रकाशन से वे हर माह ‘रूपसी’ नामक पुस्तकाकार मासिक पत्रिका निकालते थे। राजकमल चौधरी का विवादास्पद उपन्यास ‘देहगाथा’ सबसे पहले ‘सुनो ब्रजनारी’ नाम से ‘रूपसी’ में ही प्रकाशित हुआ था। लुगदी साहित्य में एक महत्वपूर्ण नाम ओमप्रकाश शर्मा का भी है। उपन्यासों का लेखन शुरू करने से पहले वे एक कारख़ाना मज़दूर थे और ट्रेड यूनियन आन्दोलन में सक्रिय थे। गुलशन नंदा, वेद प्रकाश शर्मा और सुरेंद्र मोहन पाठक जैसे लेखकों के इतने चाहने वाले होते थे कि मांग के मुताबिक इनकी किताब की प्रतियाँ छापनी मुश्किल हो जाती थीं। इन पर बनी फिल्में भीं खूब कमाई करती थीं और सुपरहिट साबित होती थीं। फिर भी कभी इन उपन्यासकारों या किताबों की गिनती सीरियस साहित्य में नहीं हुई। इन्हें हमेशा लुगदी साहित्य ही कहा गया।

अब इसी लुगदी साहित्य पर नई बहस छिड़ गई है। इस बार मामला शुरू हुआ है दीन दयाल उपाध्याय विश्वविद्यालय गोरखपुर से।  आइए जानते क्या है लुगदी साहित्य और इस पर विवाद क्यों छिड़ा है। इस बहस का प्रमुख कारण है लुगदी साहित्य या पल्प लिटेरचर को  पाठ्यक्रम में शामिल किया जाना। पूरी सच्चाई को जाने बगैर इस विषय पर बहस करना बेमानी है।
गोरखपुर के पंडित दीनदयाल उपाध्याय विश्वविद्यालय के हिन्दी विभाग और दिल्ली विश्वविद्यालय के अंग्रेजी विभाग से इस बहस की शुरुआत होती है।
दीन दयाल उपाध्याय विश्वविद्यालय गोरखपुर के एम ए हिन्दी साहित्य के पाठ्यक्रम में पल्प लिटेरचर अथवा पोपुलर लिटेरचर को ” वैकल्पिक के रूप में ” शामिल किया गया है। पोपुलर लिटरेचर वहाँ के पाठ्यक्रम का पांचवां पत्र है। दीन दयाल उपाध्याय गोरखपुर विवि में नए सत्र से लुगदी साहित्य के लोकप्रिय उपन्यासकार मसलन सुरेंद्र मोहन पाठक, वेद प्रकाश शर्मा और गुलशन नंदा के कुछ उपन्यासों को शामिल किया गया है।

नए सत्र से पल्प लिटेरचर को वहां के पाठ्यक्रम में शामिल किए जाने के बाद से इन चर्चाओं का बाजार बेहद गर्म है।  वेद प्रकाश शर्मा,सुरेंद्र पाठक और गुलशन नंदा के उपन्यासों को पाठ्यक्रम में शामिल करने को लोग गलत मान रहे हैं, वहीं विश्वविद्यालय के प्रोफेसर इसे शोध का विषय मानते हैं। इस मुद्दे पर छात्रों की राय अलग-अलग है। इसको लेकर प्रोफेसर, साहित्यकार और छात्रों के बीच एक बहस छिड़ चुकी है।

दूसरी तरफ 2017 में तय किया गया है कि दिल्ली यूनिवर्सिटी के छात्र अंग्रेजी के मशहूर लेखक चेतन भगत का नॉवेल ‘फाइव प्वाइंट समवन’ भी पढ़ेंगे। चेतन भगत के इस  नॉवेल को इंग्लिश ऑनर्स के “पोपुलर फिक्शन कोर्स” में शामिल किए जाने की योजना बन गई  है। दिल्ली यूनिवर्सिटी के अंग्रेजी ऑनर्स में प्रावधान किया गया है कि पोपुलर फिक्शन जनरल इलेक्टिव का एक हिस्सा होगा, जो च्वाइस बेस्ड होगा  

इसका आशय यह  है कि दीन दयाल उपाध्याय विश्वविद्यालय गोरखपुर के एम ए हिन्दी साहित्य के पाठ्यक्रम में और दिल्ली यूनिवर्सिटी के अंग्रेजी ऑनर्स कोर्स में पल्प लिटेरचर अथवा पोपुलर लिटेरचर को अनिवार्य नहीं बल्कि वैकल्पिक विषय के रूप में रखा गया है। इसका एक और आशय यह है कि ना तो प्रेमचंद के और प्रेमचंद जैसे साहित्यकारों को हटाकर और न अंग्रेजी के गंभीर साहित्यकारों को हटाकर चेतन भगत के पॉपुलर साहित्य को पढ़ाया जाएगा।…..लेकिन कुछ साहित्यकारों को ये बात हजम नहीं हो रही है। दरअसल उन लोगों का मानना है कि लुगदी साहित्य को पाठ्यक्रम में शामिल किये जाने से छात्रों के नैतिक मूल्यों का हनन होगा। हालांकि बहुत से प्रोफेसर इसके पक्ष में नजर आ रहे हैं।

रॉयल्टी

वर्तमान समय और समाज की दृष्टि से देखें तो चेतन भगत को किशोरवस्था का आइकन माना जाता है। वे अंग्रेज़ी और हिन्दी समाचार पत्रों के लिए कालम भी लिखते हैं। हाल ही में चेतन भगत ने एक साक्षात्कार में कहा है,  “हिन्दी के पाठकों तक पहुँचना बहुत ज़रूरी है, अगर मैं उन तक नहीं पहुँचता हूँ, तो मैं एक भारतीय लेखक नही हूँ। ” विचारणीय है कि पाठ्यक्रम में इसे लुगदी साहित्य ही नाम दिया गया है और इसे गंभीर साहित्य का स्थानापन्न नहीं बनाया गया है  यह एक वैकल्पिक प्रश्नपत्र के रूप में रहेगा और गंभीर साहित्य का स्थान पूर्ववत बना रहेगा। 

एक कहावत प्रसिद्ध है, ” जस केले के पात में, पात पात में पात, तस ज्ञानी की बात में, बात बात में बात। ” लुगदी साहित्य को पाठ्यक्रम में शामिल किए जाने पर बात तो उठ ही रही है। कुछ तो लोग कहेंगे !‌ लोग कह रहे हैं कि लुगदी साहित्य को शिक्षक कैसे पढ़ाएंगे, जिन्होंने उन्हें पढ़ा ही नहीं है।  दूसरे गुलशन नंदा और वेद प्रकाश शर्मा जैसे लोगों को पढ़ाने की क्या जरूरत है? लुगदी साहित्य गंभीर साहित्य से अधिक और त्वरित मनोरंजन तो दे सकता है, पर उसकी तरह सामाजिक व मानवीय यथार्थ का सजीव प्रतिबिंबन नहीं कर सकता है और ना ही पाठक के लिए चिंतन, मनन और विचार का दिशा संकेत कर पाता है। किसी भी साहित्य कसौटी पर प्रेमचंद और वेद प्रकाश शर्मा और कुशवाहा कांत, जैनेंद्र और गुलशन नंदा या धर्मवीर भारती और रानू के साहित्य को एक श्रेणी में नहीं रखा जा सकता है।

सवाल यह भी उठाया जाता है कि किसी भी मानदंड का मानदंड क्या है? लुगदी शब्द के साथ साहित्य शब्द जोड़ दिया जाता है।  क्या परंपरागत ढांचे में हम ऐसी चर्चित कृतियों को साहित्य का दर्जा दे सकते हैं?

अनेक यूनिवर्सिटी में पत्रकारिता, सिनेमा और प्रयोजनमूलक हिन्दी जैसे विषयों को पाठ्यक्रम में शामिल किया गया है,  जिसे शिक्षकों ने नहीं पढ़ा है, लेकिन विषय वस्तु का ज्ञान प्राप्त करके उन्हें पढ़ाना पढ़ रहा है या नहीं?

हिन्दी सिनेमा के इतिहास पर जब भी बात होगी तो उसमें ‘ शोले ‘ फिल्म की चर्चा जरूर होगी। ऐसा नहीं है की सिनेमा के इतिहास में केवल निशांत, मंथन, अर्ध सत्य,  आंधी जैसी साहित्यिक फिल्मों पर ही केवल विचार किया जाएगा। ठीक उसी प्रकार जब लुगदी साहित्य की चर्चा होगी तो गुलशन नंदा और वेद प्रकाश शर्मा जैसे लोगों को नजरअंदाज नहीं किया जा सकेगा।

लुगदी साहित्य का क्षेत्र भी बहुत विस्तृत है और सभी को एक ही स्तर से देखना शायद उचित नहीं होगा। उदाहरण के लिए इब्ने सफी के लगभग सभी उपन्यास में अश्लीलता, अतिरंजित हिंसा या फरेब को बढ़ावा देने वाले प्रकरण नहीं हैं।

वैसे देखा जाए तो इस्मत चुगताई की लिहाफ, मंटो की खोल दो, यशपाल की फूलो का कुर्ता आदि कहानियों पर ना केवल अश्लीलता के आरोप लगते रहे हैं, वरन कुछ के विरुद्ध कोर्ट में मुकदमे भी चले हैं। इसी प्रकार कालिदास के कुमार संभव एवं मेघदूत के कई श्लोक, भर्तृहरि का श्रृंगार शतक एवं दिनकर की उर्वशी के कतिपय अंश  कुछ लोगों को ‘इरोटिक’ लग सकते हैं।

लुगदी साहित्य को लेकर इन दिनों जो एक नया विमर्श चलन में है, उसमें कुछ साहित्यकार इसकी  लोकप्रियता को ही साहित्यिक मूल्य का मानदंड बनाकर पेश कर रहे हैं। वे इसकी व्यापक पहुँच और  प्रभाव को पैमाना बनाकर उन्नत कलात्मक स्तर के कम पहुँच वाले साहित्य की भर्त्सना करने पर आमादा दीख रहे हैं। यह बेहद बचकानी और हास्यास्पद बात है।उच्च स्तरीय साहित्य को यथासम्भव व्यापक लोगों तक पहुँच बनानी चाहिए, और  कई बार इसमें सफलता भी मिल सकती है, पर लोकप्रियता को कलात्मक-वैचारिक स्तर का पैमाना नहीं बनाया जा सकता। लुगदी साहित्य को स्तरीय साहित्य का दर्जा़ कभी नहीं मिल सकता।

मेरा उद्देश्य लुगदी साहित्य को गंभीर साहित्य के समकक्ष खड़ा करना नहीं है परन्तु उसे तिरस्कृत न किए जाने से है। इस बात से इन्कार नहीं किया जा सकता कि जाने-अनजाने लुगदी साहित्य भी अपने समय और समाज का ही रूपक रचता है। उसमें सामाजिक यथार्थ की फ़न्तासी का संधान अवश्य किया जा सकता है। इन अर्थों और सन्दर्भों में, लुगदी साहित्य समाजशास्त्रीय अध्ययन और सामाजिक-ऐतिहासिक अध्ययन की बेहद उपयोगी सामग्री है, इसमें कतई कोई सन्देह नहीं है

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रविशंकर सिंह

लेखक सेवामुक्त प्राध्यापक और हिन्दी के कथाकार हैं। सम्पर्क +917908569540, ravishankarsingh1958@gmail.com
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