साहित्य

विज्ञान और साहित्य

 

भारतीय मानस आदिकाल से तपस्या, हवन, पूजन आदि क्रियाओं द्वारा  दैवीय शक्तियों को सिद्ध कर एक असाधारण सामर्थ्य की कल्पना करता रहा है। लेकिन उस समय की सामाजिक व्यवस्था ऐसी थी कि सारे चमत्कार ऋषियों, राजाओं और राजकुमारों के पास ही रहते थे। कुछ-कुछ दैत्यों के पास भी होते थे। भारतीय प्राचीन साहित्य में इन चमत्कारों और शक्तियों का भरपूर प्रयोग हुआ है। प्राचीन और मध्यकालीन भारतीय साहित्य की बात करें तो बहुत से उन्नत किस्म के मारक अस्त्रों की कल्पना युद्धों के वर्णन में दिखती है। महाभारत, रामायण आदि ग्रंथों में युद्ध में प्रयुक्त विशेष अस्त्र-शस्त्र जो पारंपारिक अस्त्रों की उत्पादन प्रक्रिया से भिन्न दैवीय वरदान के रूप में प्राप्त होते थे उनकी तुलना आज के अत्याधुनिक अस्त्रों से की जा सकती है।

इसी तरह रामायण में प्रयुक्त पुष्पक विमान किसी छोटे हेलीकॉप्टर या ड्रोन की तरह लगता है। आकाशवाणी का भी कई जगह जिक्र आता है। कुछ इस तरह जैसे पास ही कहीं से कोई पब्लिक एड्रेस सिस्टम की तरह उद्घोषणा कर रहा हो। महाभारत में संजय जब धृतराष्ट्र को युद्ध का आँखों देखा हाल सुनाता है तो आज का टेलिविजन के प्रसारण जैसा लगता है। औषधि विज्ञान की तो ऐसी चमत्कारिक स्थितियाँ हैं कि जीता हुआ व्यक्ति लोप हो जाए, मरा हुआ पुन: जिन्दा हो जाए, एक शरीर के दो टुकड़े और पुन: दो के एक हो जाएं। अंग प्रत्यारोपण की भी दिलचस्प कल्पना है। मनुष्य धड़ पर हस्तिमस्तिष्क। सम-अनुपात भी नहीं। कुल मिलाकर मन्तव्य यह कि विज्ञान, जो कि यथार्थ और सुविचारित स्वाध्याय तथा मेधा द्वारा नये नये आविष्कार करता है वह भारतीय प्राचीन ग्रंथों में शक्ति और वरदान की तरह प्रयुक्त होता है। लेकिन वर्णित इन चीजों के कोई प्रमाण नहीं मिलते हैं न सुसीगत विवरण, डिजाइन, न प्रक्रिया, न ही अवशेष।

ध्यातव्य है आदिम मनुष्य अनेक क्रियाओं और घटनाओं के कारणों को नहीं जान पाता था। वह अज्ञानवश समझता था कि इनके पीछे कोई अदृश्य शक्ति है। वर्षा, बिजली, रोग, चक्रवात, भूकंप, वृक्षपात, विपत्ति आदि अज्ञात तथा अज्ञेय देव, भूत, प्रेत और पिशाचों के प्रकोप के परिणाम माने जाते थे। ज्ञान का प्रकाश हो जाने पर भी ऐसे विचार विलीन नहीं हुए, प्रत्युत ये अंधविश्वास जनजीवन में व्याप्त हो गये। आदिकाल में मनुष्य का क्रिया क्षेत्र संकुचित था। इसलिए अंधविश्वासों की संख्या भी अल्प थी। ज्यों ज्यों मनुष्य की क्रियाओं का विस्तार हुआ त्यों-त्यों अंधविश्वासों का जाल भी फैलता गया और इनके अनेक भेद-प्रभेद हो गए। अंधविश्वास सार्वदेशिक और सार्वकालिक हैं। विज्ञान के प्रकाश में भी ये छिपे रहते हैं। इनका कभी सर्वथा उच्छेद नहीं होता। जादू, टोना, शकुन, मुहूर्त, मणि, ताबीज आदि अंधविश्वास की संतति हैं। जीवों की बलि देना भी इन अंधविश्वासों में शामिल है इन सबके अंतस्तल में कुछ धार्मिक भाव हैं, परंतु इन भावों का सीधा-सीधा विश्लेषण नहीं हो सकता। असल में इनमें तर्कशून्य विश्वास है। मध्य युग में यह विश्वास प्रचलित था कि ऐसा कोई काम नहीं है जो मंत्र द्वारा सिद्ध न हो सकता हो। असफलताएँ अपवाद मानी जाती थीं। आज के वैज्ञानिक युग में भी लोग टोना-टोटके, तंत्र-मंत्र और अंधविश्वास से जकड़े हुए हैं। समाज का बड़ा हिस्सा विज्ञान का इस्तेमाल कर सुविधाएं महसूस करता है, लेकिन वह वैज्ञानिक चेतना से मुक्त रहना चाहता है। वैज्ञानिक चेतना का संबंध केवल तकनीक का विकास और किसी आविष्कार भर नहीं होता है, बल्कि वह किसी के भी आम जीवन में दिनभर के क्रियाकलापों व सक्रियताओं से जुड़ा होता है। आमतौर पर यह मान लिया जाता है कि जो आधुनितम तकनीक के जरिए काम करते हैं, वे वैज्ञानिक चेतना से लैस होंगे। लेकिन ऐसा होता नहीं है।

ध्यान देने की बात है कि भारतीय संविधान में उल्लिखित नागरिकों के दस मूल कर्तव्यों में से एक कहता है कि भारत के प्रत्येक नागरिक का यह कर्तव्य होगा कि वह वैज्ञानिक दृष्टिकोण, मानववाद और ज्ञानार्जन तथा सुधार की भावना का विकास करे। इस सामान्य से लगते प्रगतिशील प्रावधान पर यदि हर नागरिक अमल कर ले तो हमारा समाज कूढ़मगज से वैज्ञानिक मन हो जाएगा। किन्तु इस वैज्ञानिक-तार्किक समय में हमारे देश में धर्म भावना और कर्मकांड का बढ़ता आलोड़न तो उलट सत्य ही सामने रखता है। आज अनेक अवैज्ञानिक, अंधविश्वासी घटनाएं और जोर पकड़ रही हैं जो हमारे संविधान की भावना को मुंह चिढ़ाती हैं। देव-घरों (बाबाओं के आश्रम ?) में श्रद्धालुओं की रिकार्ड तोड़ भीड़ उमड़ रही है। हमारे देश में आज आस्थावादी लोग नए सिरे से बुद्धि, विवेक, तर्क, विज्ञान भौतिक यथार्थ आदि का निषेध कर समाजिक जड़ता व यथास्थितिवाद के पोषण का अभियान चला रहे हैं।

यह भी सच है कि आज विज्ञान हमारी जीवन शैली का एक अभिन्न अंग है। आज बहुत कुछ समाज के सामने हैं। यद्यपि आज भी सत्ताधारी वर्ग के स्वार्थ हैं। सम्पन्नता की जीत है और सामर्थ्य का बोलबाला है परंतु फिर भी विज्ञान हमारे दैनिक जीवन में एक महत्वपूर्ण भूमिका का निर्वाह करने लगा है। यातायात के आधुनिक साधन, प्रौद्योगिकी का विकास, सूचना प्रौद्योगिकी, आर्टिफीशियल इंटेलीजेंस, उद्योग धंधे, तरह-तरह के उत्पादन, बिजली और संचार माध्यम, रसायन एवं औषधि विज्ञान हमारे दैनंदिन जीवन का अंग बन चुके हैं। जाहिर है समाज पर विज्ञान की इतनी बड़ी पकड़ को साहित्यकार भी नजर अंदाज नहीं कर सकता। प्रत्यक्ष एवं परोक्ष रूप से हमारी चेतना को वैज्ञानिक अनुसंधान प्रभावित कर रहे हैं। अत: साहित्य सृजन को भी वह प्रत्यक्ष या परोक्ष रूप से प्रभावित कर रहे हैं। हाँ उनका सीधा-सीधा उपयोग साहित्य में उस रूप में दृष्टव्य नहीं है कि हमें लगे कि यह साहित्य वैज्ञानिक युग का प्रतिबिम्ब है। वैज्ञानिक घटनाओं, उपकरणों, प्रकल्पों को लेकर उपन्यास, कहानियां, कविताएं, निबंध आदि दुनिया भर में रचे गये हैं।  वैज्ञानिक साहित्य अब प्रचुर मात्रा में उपलब्ध है। हमारी अपनी मातृ भाषाओं में भी उपलब्ध है। अनुवाद तो हैं ही।

सन 1820 में पश्चिमी देशों में प्रभावी विज्ञान-कथा लेखन आरम्भ हुआ। आगे 1898 में प्रसिद्ध विज्ञान-कथा लेखक एच.जी. वेल्स का विश्व प्रसिद्ध विज्ञान उपन्यास ‘द वार ऑव द वल्डर्स’ छपा, वेल्स ने ही ‘द टाईम मशीन’ और ‘द इनविजिविल मैन’ लिखकर इस क्षेत्र में धूम मचायी। जार्ज ऑरवेल का प्रख्यात विज्ञान उपन्यास ‘1984’ सन् 1949 में प्रकाशित हुआ। इसका विश्व की अनेक भाषाओं में अनुवाद हो चुका है। जूल्स वर्न (1829-1905) के 20,000 लीग्स अण्डर सी’, ‘जर्नी टू द सेंटर ऑव अर्थ’ उपन्यास प्रौद्योगिकी के विकास की सटीक भविष्यवाणी के रूप में प्रसिद्ध हुए।

भारत में वैज्ञानिक चेतना के विकास के लिये जग्रदीश चंद्र बोस,  गुणाकर मुले, यशपाल आदि ने काम किया गौहर रजा इसी परंपरा को आगे बढ़ा रहे हैं। गोविंद पानसरे, नरेन्द्र दाभोलकर जैसे लोगों ने वैज्ञानिक आधार पर अंधविश्वासों की असलियत बताने का काम किया। इसकी कीमत उन्हें जान देकर चुकानी पड़ी।

हिंदी में, शुकदेव प्रसाद, देवेंद्र मेवाड़ी, राजेंद्र नागदेव, राजेश जैन आदि वैज्ञानिक साहित्य लिख रहे हैं लेकिन वैज्ञानिक चेतना के विकास की ओर इनका ध्यान नहीं है।

विज्ञान और साहित्य के अंर्तसंबंधों की बात जब की जाती है तब यह ध्यान अवश्य रखा जाना चाहिए कि विज्ञान, विज्ञान है कला, कला। यहाँ बात मैं अंर्तसंबंधों की कर हूँ, स्थूल संबंधों की नहीं। साहित्य पर विज्ञान का प्रभाव रूपांतरित होकर पड़ता है सीधा नहीं। हाँ कहीं कभी यदि भावभूमि की जगह दृश्य चित्रण होता है तब अवश्य वैज्ञानिक उपकरण या दृश्य साहित्य में अंकित होते हैं जिन्हें साहित्यकार देखता सुनता है। आचार्य महावीर प्रसाद द्विवेदी के शब्दों में, “ज्ञान राशि के संचित कोष ही का नाम साहित्य है।” इस कथन से यह स्पष्ट होता है कि साहित्य और जीवन का आपस में गहरा संबंध है। साहित्य का आधार जीवन है। प्रत्येक देश का साहित्य वहाँ के समाज के ऊपर ही आश्रित रहता है। एक सच्चा साहित्यकार कभी भी समाज अथवा युग की उपेक्षा नहीं कर सकता। यदि वह समाज की उपेक्षा कर, कल्पना में विचरण करता हुआ साहित्य-रचना करता है तो उसका साहित्य कभी भी शाश्वत रूप धारण नहीं करता और न ही उसमें समाज का अस्तित्व घोषित होता है। साहित्य ही अपने समाज का स्वर और संगीत है। अन्धकार वहीं जहाँ आदित्य नहीं है। मुर्दा है वह देश, जहां साहित्य नहीं है। दिनकर जी कहते हैं -कवि और वैज्ञानिक के बीच समता क्या है , भेद क्या है ? समता सिर्फ एक बात को लेकर है कि कवि और वैज्ञानिक , दोनों प्रेरणा के आलोक में काम करते हैं । जैसे संसार की सभी श्रेष्ठं कविताएँ प्रेरणा की कौंध से जनमी हैं , उसी प्रकार विज्ञान के भी आविष्कार प्रेरणा की कौंध से उत्पन्न होते हैं । सत्य की झलक पाने के लिए यह आवश्यक है कि हमारी चेतना की सुई ठीक ध्रुव की ओर हो । यह अवस्था समाधि और एकाग्रता से प्राप्त होती है । इसी अवस्था में पहुँचने पर कवि को कविता सूझती है और वैज्ञानिक को आविष्कार सूझता है । लेकिन इस एक साम्य के बाद मुझे कविता और विज्ञान के बीच भेद – ही – भेद दिखाई देते हैं । वैज्ञानिक नियम की खोज में रहता है , शब्दों का व्यवहार वह सुनिश्चित अर्थ के लिए करता है और उसकी हर चीज परिभाषित होती है। किन्तु कविता मनुष्य के जिस अनुभूति – क्षेत्र से आती है , उसकी परिभाषा नहीं दी जा सकती । और शब्द को सुनिश्चित अर्थ कवि कैसे देगा ? वह तो विचार और शब्द , शब्द और उसके अर्थ के बीच भटकता रहता है।

हिन्दी कविता की बात करें तो साठ के दशक में प्रयोगवाद के तहत वैज्ञानिक चिंतन तथा चित्रण की अनेकों कविताएं लिखी गई परंतु विज्ञान की मूलभावना को पकड़ने वाले कवि बहुत कम थे। गजानन माधव मुक्तिबोध उन गिने चुने कवियों में थे जिन्होंने विज्ञान और फैंटेसी के आधुनिक तथा कलात्मक बिंब और भाव कविता में लिए। उनकी एक कविता ‘मुझे मालूम नहीं’ में मनुष्य की उस असहायता का चित्रण है जिसमें वह यथास्थिति तोड़ नहीं पाता। वह दूसरों के बने नियमों तथा संकेतों से चलता है। उसका स्वयं का सोच दूसरों के सोच पर आधारित होता है। दूसरों का सोच सत्ता के आसपास का चरित्र होता है। सत्ता अपने को स्थापित करने के लिए मनुष्य के सोच की स्थिरीकरण करती है। परन्तु मनुष्य की चेतना कभी कभी चिंगारी की भांति इस बात का अहसास कराती है कि वह जो सामने का सत्य है उससे आगे भी कुछ है। संवेदनहीन होते व्यक्ति की संवेदना को वह चिंगारी पल भर के लिए जागृत करती है।

कोई फिर कहता कि देख लो-

देह में तुम्हारे परमाणु केन्द्रों के आसपास

अपने गोलपथ पर घूमते हैं अंगारे

घूमते हैं इलेक्ट्रॉन निज रश्मि-रथ पर

बहुत खुश होता हूँ निज से कि

यद्यपि सांचे में ढ़ली हुई मूर्ति में मजबूत

फिर भी हूँ देवदूत

इलेक्ट्रॉन – रश्मियों में बंधे हुए अणुओं का पुंजीभूत

एक महाभूत में

ऋण एक राशि का वर्गमूल

साक्षात् ऋण धन तड़ित् की चिनगियों का

आत्मजात प्रकाश हूँ निज शूल

गणित के नियमों की सरहदें लाँघना

स्वयं के प्रति नित जागना भयानक अनुभव

फिर भी मैं करता हूँ कोशिश

एक धन एक से पुन: एक बनाने का यत्न है अविरत !

(संग्रह : चाँद का मुँह टेढ़ा है, पृष्ठ – ७४)

मुक्तिबोध गणित, भौतिकी और नक्षत्र विज्ञान की बात करते-करते क्रूर व्यंग्य करते हैं उन तथाकथित महापण्डितों पर जो अपने अहंकार के मद में रूढ़ियों में जकड़े पड़े हैं। इसी में उनका स्वार्थ पुष्पित पल्लवित होता है। उनका तेज उनका प्रभामण्डल चकाचौंध तो पैदा कर सकता है पर विकासमान नहीं है और जो अवधारणा विकासवान नहीं है वह कालान्तर में नष्ट हो जाती है। ऐसी अवधारणाएं, ऐसी मान्यताएं, ऐसी क्रियाएं जो रूढ़िग्रस्त हैं, वे अवैज्ञानिक हैं। मुक्तिबोध न केवल विज्ञान तथा वैज्ञानिक शब्दावली का चमत्कृत कर देने की हद तक उपयोग करते हैं बल्कि वैज्ञानिक बिम्बों तथा प्रत्ययों के माध्यम से अवैज्ञानिक सोच की निडर होकर तीव्र भर्त्सना भी करते हैं। मनुष्यता की वकालत, समाज की बुराइयों तथा सड़ांघ को मिटाने का आवाहन करते हुए वह कहते हैं :-

भागो लपको, पीटो-पीटो

कि पियो दुख का विष

उस मनुष्य-आमिष-आशी की जिह्वा काटो

पियो कष्ट, खाओ आपत्ति-धतूरा, भागो विश्व तराशो,

देखो तो उस दिशा बीच सड़क में बड़ा खुला है एक अंधेरा छेद

एक अंधेरा गोल-गोल वह निचला-निचला भेद,

जिसके गहरे-गहरे तल में गहरा गन्दा कीच

उसमें फँसो मनुष्य

घुसो अंधेरे जल में गन्दे जल की गैल

स्याह भूत से बनो, सनो तुम मैन-होल से मनों निकालो मैल (भूरी भूरी खाक धूल, पृष्ठ-७५)

मुक्तिबोध की कविता ‘भविष्यधारा’ की इन पंक्तियों में एक बड़े सीवर का चित्र है। मनुष्यता, मानवीय गुण, परोपकार की भावना, सामाजिक सरोकार लगता है जैसे एक बड़ी सीवर लाइन की तलहटी में समा गये हैं। मूल्यहीन समाज, चारों तरफ फैला गहन अंधकार, अनाचार, यह सब कैसे साफ होगा इसके लिए ‘मैन होल’ से सीवर लाइन में घुसना होगा, भूत की तरह बनना और सनना होगा कीचड़ में तभी मनों मैल निकल पायेगा।

समाज में व्याप्त बुराइयों, असंगतियों, विसंगतियों को आसानी से तो कदापि नहीं मिटाया जा सकता। उसके लिए तो बहुत बड़े प्रयत्न की आवश्यकता है, लगन की आवश्यकता है, इच्छाशक्ति की आवश्यकता है। महज रोते रहने से ही तो समाज में व्याप्त असमानता और असहजता दूर नहीं हो सकती। उसके लिए पौरूष, सामर्थ्य और मनोबल वांछित है तभी मैल निकाला जा सकता है। यह कार्य इतना आसान नहीं है इसमें बहुत लोगों को लगना होगा। यह वैज्ञानिक सोच की परिणति है, अन्यथा बड़े इत्मीनान से कोई गीत गा सकता है कि सुबह जरूर आयेगी सुबह का इन्तजार कर। यानि सब कुछ भाग्य पर छोड़ दो। कभी न कभी बुराइयाँ भी दूर हो ही जायेंगी चाहे तब तक मनुष्यता ही विनाश के कगार पर पहुँच जाये।

निश्चित रूप से वैज्ञानिक सोच और उसकी साहित्यक परिणति ही साहित्य की वह लोकमंगला धारा है जिससे मनुष्य विकासकामी और प्रगतिकामी बनता है अन्यथा अर्नगल, दिशाहीन और अस्पष्ट साहित्य, यथार्थ से कोसों दूर मानव को कूप मण्डूक बनने में ही मदद करता है। वह साहित्य अवैज्ञानिक साहित्य होता है जो कुण्ठाओं, विकृतियों और दृष्टिहीनता से भरा होता है। वैज्ञानिक सोच न केवल तर्कों पर आधारित होता है बल्कि यथार्थ, भौतिक प्रयोग तथा गणितीय और सांख्यकीय निष्कर्षों पर आधारित होता है। साहित्य के संदर्भ में ये निष्कर्ष सीधे गणितीय तथ्यों पर आधारित नहीं माने जा सकते। मनुष्य की अपनी एक जैविक पहचान है वैचारिक अस्मिता है। और अपने सहधर्मी, सहयोगी तथा सहकर्मी के ऊपर आश्रित होने का, विश्वास करने का, उससे स्नेह करने का भावनात्मक, और वैचारिक आधार भी है। अत: वैज्ञानिक साहित्य की अवधारणा विज्ञान की शब्दावली, नियम या तथ्य मानने और उन्हें साहित्य में उतारने की कतई नहीं है यह तो मात्र एक विषय है। इससे कहीं आगे वैज्ञानिक साहित्य विज्ञान सम्मत यथार्थ और आदर्श तथा मानवीय संबंधों की भावभूमि पर ही रचा जा सकता है। मानवीय गरिमा, मानवीय चरित्र का उदात्तीकरण और लोकमंगल मोटे मोटे प्रत्यय है जो वैज्ञानिक साहित्य में समाविष्ट होते हैं। इन्हें जितनी अधिक कलात्मकता और अनुभूति की प्रगाढ़ता से साहित्य में उतारा जा सकता है वही साहित्यकार की सफलता का मानदण्ड होता हे।

वैज्ञानिक साहित्य का एक स्थूल पक्ष भी है यथार्थ, और उसका वैचारिक चित्रण जैसे कि रिपोर्ताज, डायरी, लेख, राजनीतिक आलेख इत्यादि। हिन्दी के आधुनिक साहित्य में यह सब विविध आयाम आज परिलक्षित होते हैं। तमाम विश्लेषण और सोच विचार के बाद रचनाकार का सोच और उसके मनोभाव एक ऐसी आधारभूमि को तलाश लेते हैं जो उसे सही और श्रेष्ठ प्रतीत होती है। यहाँ रचनाकार एक निस्संग और निष्प्राण दृष्टा की तरह चुप नहीं बैठा रहता बल्कि वह अपनी भूमिका तय कर लेता है और वह पक्षधरता के साथ सृजन करता है। विचार और वैचारिक पक्षधरता, विश्लेषण और निष्कर्ष की वैज्ञानिक विधि का अनुसरण करते हैं। सर्वेश्वर दयाल सक्सेना की कविता ‘धूल’ का उदाहरण लें :-

तुम धूल हो पैरों से रौंदी हुई धूल

बेचैन हवा के साथ उठो आँधी बन उनकी आँखों में पड़ो जिनके पैरों के नीचे हो

यह पक्षधरता दलित और शोषित के प्रति ही क्यूं है? क्योंकि समाज में मनुष्य और मनुष्य के बीच एक बहुत बड़ी दूरी है। एक शोषित है दूसरा शोषक। वैज्ञानिक साहित्य मानव की बराबरी की वकालत करता है। वह आँख बन्द करके रूढ़ियों का अनुसरण नहीं करने देता वह चेतना को जागृत करता है। और कवि धूल को आँधी के साथ उड़ने की स्वाभाविक क्रिया और उसकी परिणति से आगाह कराता है। पक्षधरता के बाद प्रतिबद्धता भी वैज्ञानिक विचारधारा की अनुगामिनी हुई है।

यह प्रतिबद्धता किसी द्रोणाचार्य की कौरवों के साथ प्रतिबद्धता नहीं है। न ही सत्ता की इजोरदार, अपराधी तत्वों और बहुराष्ट्रीय कम्पनियों और खुले बाजार के लिए प्रतिबद्धता है क्योंकि विनाश और विकास दोनों ही विज्ञान ने आसान बनाए हैं।

आज भारतीय राजनीतिक सत्ता विनाश की प्रतिबद्धता से संचालित है परंतु एक रचनाकार की प्रतिबद्धता मानव के अस्तित्व, बहुजन हिताय और बहुजन सुखाय तथा सृष्टि के कल्याण की प्रतिबद्धता है। मूल्यहीनता, दृष्टिहीनता और स्वार्थलिप्सा के प्रति नहीं। जनकवि ‘शील’ की प्रार्थना के साथ कि ‘ हे दिशा सर्वहारा विवेक’ वैज्ञानिक चिंतन और साहित्यिक सरोकारों की कुंद पड़ी चेतना को झंकृत करने की आवश्यकता है :-

पद-दलित देश कुचला जन-बल,

दल-बदलू शासक, पतन प्रबल

चर्चित कानूनी सन्निपात,

बढ़ रही भेड़ियों की जमात

सोचो! यह किसकी राजनीति

यह लूट, अपहरण, बलात्कार

है किस दर्शन के चमत्कार?

किन मानव मूल्यों का प्रतिफल

दे रहे इज़ारेदार सबक

महंगाई दिन दिन आक्रामक

तब लोग किस तरह पेट भरें

किस तरह जियें किस तरह मरें?

विज्ञान और साहित्य का अंर्तसम्बन्ध शरीर और आत्मा (चेतना) का अंर्तसम्बन्ध है। वह मन और शरीर के सम्बन्ध से भिन्न है वहीं आत्मा और परमात्मा के रहस्यवादी सम्बन्धों से भी इसका कोई मेल नहीं। आज जब विज्ञान ने मनुष्य की प्रकृति पर विजय के रूप में अपनी ध्वजा लहराई है यहीं वह कई तरह से-अभिशाप बनकर भी उभर रहा है। परमाणु अस्त्र, रासायनिक एवं जैविक अस्त्र तथा बहुत सी अन्य आपदाओं का जनक भी है विज्ञान। साहित्य विज्ञान की इस अच्छाई बुराई को आत्मा के रूप में प्रतिष्ठित कर मानव की सौन्दर्यदृष्टि को निरंतर निखारने का यत्न करते रहने की जिम्मेदारी से निश्चित ही नहीं बच सकता। स्वस्थ मूल्य, स्वस्थ वातावरण और स्वस्थ समाज के निर्माण के लिए स्वस्थ वैज्ञानिक साहित्य आवश्यक है

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शैलेन्द्र चौहान

लेखक स्वतन्त्र पत्रकार हैं। सम्पर्क +917838897877, shailendrachauhan@hotmail.com
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