रामपुर की रामकहानी

जाति जाति में जाति

रामपुर की रामकहानी-8

मेरे टोले पर कोईराना पट्टी के लोग ब्राह्मणों के घर भी भोजन नहीं करते थे। सभी शाकाहारी थे। सभी कंठीधारी थे। जबकि ब्राह्मणों में कई लोग माँस-मछली खाते थे। लॉक डाउन के बाद गाँव गया तो लगभग ढाई महीने रह गया। इसी बीच दसई काका (रामदास मौर्य) के पोते दुर्गेश का तिलक पड़ा। न्योता आया और भोजन करने गया। पड़ोस का मामला था। बचपन भी इन्हीं लोगों के साथ गुजरा था। पुड़ी-सब्जी पुलाव, दो तीन तरह की सब्जियाँ, चटनी, मिठाई और अंत में आइसक्रीम भी। बुफे सिस्टम की व्यवस्था थी। गाँवों में बुफे सिस्टम तो पहुँचा है किन्तु बुफे सिस्टम से भोजन करने का सलीका नहीं पहुँचा है। भोजन पर लोग टूट पड़े थे, खास तौर पर बच्चे। मैं हताश मुद्रा में देख रहा था। दसई काका की नजर मुझपर पड़ी। उन्होंने समीप आकर मुझसे कान में कहा, “थोड़ी देर रुकि जाS। हम अलग से व्यवस्था करत हईँ।”

मुझे सुकून मिला और मैं वहाँ बेठे-बैठे भोजन करने वालों की गतिविधि का आनंद लेने लगा। ‘जय गुरदेव’ कहते हुए रामबृंद आकर मेरे बगल में बैठ गए। वे जयगुरुदेव के भक्त हैं। मेरे साथ नियमित मार्निक वाक करने वाले वही हैं। खान-पान का खास ख्याल रखते हैं। दसई काका द्वारा मुझसे पूछते ही कि, “क्या हम दही-चिउड़ा खाना पसंद करेंगे?” रामबृंद ने तपाक से अपनी सहमति दे दी। यद्यपि मैं शाम को दही खाने से परहेज करता हूँ, किन्तु वहाँ की व्यवस्था देखकर और रामबृंद की इच्छा का ख्याल करके चुप्पी साधे रहा। दसई काका मंतव्य समझ रहे थे। वे जानते हैं कि दही-चिउड़ा ब्राह्मणों की कमजोरी है।

मैंने अपने गाँव में पहली बार देखा भोजन निकालने और खाने में कोई जाति-भेद नहीं। जजई भैया भी उसी में से निकालकर सबके साथ खा रहे थे और उसी में से गाँव के ब्राह्मण, ठाकुर, बनिया, कोइरी, मुसलमान आदि सभी जाति के लोग। जजई भैया जाति के धरिकार हैं। पहले गाँव में चमार जाति के लोग अपने को धरिकारों से ऊँचा मानते थे। दलित जातियों में भी स्तर-भेद। किन्तु आज भोजन में समाजवाद देखकर मैं आश्चर्यचकित था। छुआछूत की जिस घृणित व्यवस्था को समाप्त करने के लिए सदियों से इसी क्षेत्र के बुद्ध, गोरख, रैदास और कबीर से लेकर आधुनिक युग के मुंशी प्रेमचंद, स्वामी अछूतानंद और महापंडित राहुल सांकृत्यायन तक आजीवन संघर्ष करते रहे, उसे हमारी बाजारवादी व्यवस्था ने देखते-देखते नेस्तनाबूद कर दिया। भोजन का तरीका भी बदला और सलीका भी। पहले अतिथियों को आदर के साथ बैठाया जाता था। भोजन परोसने वाले दूसरे लोग होते थे। वे एक-एक व्यक्ति से पूछ-पूछ कर आग्रह के साथ खिलाते थे। खिलाने की प्रक्रिया में भी प्रेम और आदर की चाशनी मिली रहती थी, लेकिन इसी के साथ जातिवाद की जहरीली हवा भी पूरे समाज को विषाक्त बनाए हुए थी। बुफे सिस्टम की व्यावहारिकता ने सदियों से चले आ रहे और सड़ चुके सारे ताने बाने को उलट-पलट कर रख दिया है। विकासवादियों ने इसीलिए पूँजीवाद को सामंतवाद से आगे की मंजिल कहा है। सामंती मूल्यों को तो जाना ही जाना है। इससे मुक्त हुए बिना पूँजीवाद भी अपने असली रूप में नहीं आ सकता।

मुझे सुखदेव काका के साथ की स्मृतियाँ एक-एक कर याद आने लगीं। सुखदेव काका जाति के चमार थे। उन्होंने बीस साल तक हमारे घर की हलवाही की थी। केदार काका के टोले पर दक्खिन चमरउटी में घुसने पर शुरू में ही उनका घर पड़ता था। छोटा सा घर। मिट्टी की दीवाल और उसपर छप्पर। घर के भीतर घुसने के लिए झुकना पड़ता था। अमूमन मुझे उनको बुलाने के लिए उनके घर जाना पड़ता। मैं कभी भी उनके घर के भीतर नहीं गया। दरवाजे पर पहुँचते ही उन्हें पुकारता, “काका SS, काका बाड़ S होओ।।” और काकी बाहर आतीं। साँवले रंग और छरहरे बदन वाली काकी का उनके पति से जोड़ी जमती नहीं थी। काका नाटे कद के थे, काकी से लगभग एक बिस्ता छोटे। उमर भी थोड़ी ज्यादा। किन्तु दोनो में तालमेल खूब था। दोनों को झगड़ते मैंने कभी नहीं देखा।

केदार काका के टोले पर ही नहीं, बड़का टोले पर भी चमारों की बस्ती अलग थी, गाँव के दक्षिण तरफ। उसे ‘चमरौटी’ या ‘चमटोली’ कहा जाता था। सूअर पालना तथा दूसरों के घरों में मजदूरी करना उनकी जीविका के प्रमुख साधन थे। बड़के टोले की चमरउटी की ओर से यदा-कदा जोर-जोर से सूअर के चिंचिआने की आवाज आती रहती थी। कभी-कभी सूअर को कहीं ले जाना होता तो लोग उसके पैरों को रस्सियों से बाँधकर किसी बाँस में उल्टा लटका देते थे और दो आदमी आगे-पीछे टाँगकर ले जाते थे। ऐसी दशा में सूअर का थूथन भी रस्सियों से कसकर बाँध दिया जाता था ताकि उसकी आवाज न निकल सके, फिर भी रह-रह कर उसकी चीख निकल ही पड़ती थी। ऐसे दृश्य देखकर मैं पागल सा हो जाता था। बँधे मुँह, उल्टा लटके सूअर की दर्दीली चीखें सुनकर मैं बुरी तरह परेशान हो जाता था। लोग कहते थे कि सूअर बड़ा चिम्मर जानवर है, जल्दी मरता ही नहीं। किन्तु उससे मुक्ति का मेरे पास कोई रास्ता नहीं था। सूअर चराने वाले बच्चे हम लोगों को देखकर कभी-कभी चिढ़ाते हुए कहते थे, “बाभन देवता, सुअर चरौता, एक लेंड़ पवता, दाल में डरता, दूसरे लेंड़ चिरौरी करता।”

सदियों से दबाए गए चमारों के बच्चों के भीतर की खीझ इस बहाने भी यदा-कदा निकला करती थी।
पशुओं के मरने पर उन्हें टाँगकर सरेह में ले जाना और उनका चमड़ा उतारना भी चमारों का ही काम था। आखिर ‘चमार’ शब्द तो ‘चर्मकार’ का ही तद्भव है। चमड़ा उतर जाने के बाद पशु के शरीर को ‘डाँगर’ कहा जाता था। डाँगर को तो एक-दो दिन में ही गिद्ध सफाचट कर जाते थे। मृत पशु को सरेह में रखने के साथ ही गिद्ध न जाने कहाँ से आकर आस-पास मडराने लगते। लोग कहा करते थे कि गिद्धों की दृष्टि अस्सी कोस तक जाती है। मेरे बाग में एक कोने पर आम का एक पेड़ था जिसपर गिद्ध आम तौर पर बैठा करते थे। उसका नाम पड़ गया था ‘गिधहवा’। उसके नीचे जाने में डर लगता था। न जाने कब ऊपर से गिद्ध का बीट सिर पर आ गिरे। नीचे सफेद बीट बिछा रहता था। धीरे-धीरे वह ठूँठ होने लगा था। अब तो गिद्धों की प्रजाति ही विलुप्त हो चुकी है।

मृत पशु जिनका होता उन्हें चमड़ा उतारने वाला व्यक्ति एक जोड़ी जूता बनाकर देता। मृत पशु का यही मूल्य होता। मैंने देखा था बाउजी ऐसे जूते को चौबीस घंटे तक सरसों के तेल में डुबोकर छोड़ देते तब जाकर वह पहनने लायक हो पाता। महाप्राण निराला ने ‘सरोज स्मृति’ में ‘चमरौधे जूते’ वालों की अच्छी खबर ली है।

चमरउटी की महिलाएं सवर्ण घर की महिलाओं के शरीर की मालिश करतीं, बच्चा पैदा करतीं और लरिकोर महिलाओं की सेवा टहल करतीं। उन्हें गँवहिन कहा जाता। उन दिनों बच्चा पैदा करने के लिए न तो महिलाओं को लोग अस्पताल ले जाते और न अस्पताल से कोई नर्स ही आती। गँवहिन सबकुछ संपन्न कर लेतीं। यहाँ तक की घर में इस्तेमाल किए जाने वाले हँसिए या पँहसुल से नाड़ा भी काट देती। इन्हीं कारणों से बहुत से बच्चों की ‘जमोघ’ (कोई काल्पनिक भूत) के छूने से असमय ही मौत हो जाती। हम दोनों भाइयों और तीनों बहनों का जन्म गाँव की गँवहिन की देख रेख में ही हुआ है और घर के हँसिए से ही नार काटा गया है, किन्तु हम बँच गए। हाँ, हमारी सबसे बड़ी बहन जरूर जमोघ के छूने से मर गई थी, ऐसा मेरी माँ कहती थी। बाद में लोग सतर्क हो गए और नाड़ा काटने के लिए नए ब्लेड का इस्तेमाल होने लगा।

मैंने चमरउटी की महिलाओं को खेतों में बाली बीनते और खलिहानों से ‘गोबरहा’ जुटाते भी देखा है। दरअसल गेहूँ की फसल जब तैयार हो जाती और फसल से अनाज बाहर निकालने के लिए खलिहान में बैलों से दँवरी होती तो चलते-चलते बैल गेहूँ की बालियाँ भी खाते जाते। दँवरी चलने वाले बैलों को छूट होती थी नीचे बिछी हुई फसल खाने की। उनके मुँह में जाबा नहीं लगाया जाता था। ऐसी दशा में बैल गेहूँ की बालियाँ खाने के बाद जब गोबर करते थे तो गोबर के साथ उनके द्वारा खाया गया गेहूँ भी बाहर आ जाता था ज्यादातर बिना पचे। चमरउटी की महिलाएं ऐसे गोबर को इकट्ठा करतीं और उसे पानी से धोकर उसमें का अनाज संचित कर लेतीं जो उनके खाने के काम आता। गोबर से निकाले जाने के कारण इस अनाज को ‘गोबरहा’ कहा जाता। एक बार सुखदेव काका की पड़ोसन मेरे खलिहान से ‘गोबरहा’ के लिए गोबर बटोर रही थी तो बाऊजी ने उससे पूछा था, “एकर रोटी मीठ होला?” तो जवाब सुखदेव काका की पत्नी ने दिया था, “नाईं बड़का जन, हमके त तनिको नींक नाईं लागेला।” वे बाऊजी को ‘बड़का जन’ कहकर पुकारती थीं। सुखदेव काका से बाऊजी उम्र में बड़े जो थे।

उन दिनों हल-बैल खेत में पहुँचने के बाद ही सूरज निकलता था। अँधेरा रहते ही सुखदेव काका मेरे घर आ जाते थे। तब तक बैल खाकर तैयार रहते थे। बाऊजी सुकवा उगने से पहले ही बैलों को नाद पर लगा देते थे और उनका सानी-पानी कर देते थे। लगभग नौ बजे मेरी ड्यूटी होती थी सुखदेव काका के लिए खेत में नहारी( नाश्ता) पहुँचाने की। इसे ‘नहारी का जून’ कहा ही जाता था। नहारी में उबला हुआ चना या मटर या अरहर या मसूर अथवा भूजा अथवा चार पाँच रोटियों के बराबर एक मोटी रोटी, जिसके साथ नमक, हरी मिर्च और लहसुन की चटनी होती थी, और एक लोटा पानी। सुखदेव काका दो कच्चे प्याज की फरमाइश जरूर करते थे। जबतक वे नहारी करते, मुझे प्रतीक्षा करनी पड़ती थी। नहारी खाने के बाद मुझे अपने लोटे से ऊपर से पानी का धार गिराना पड़ता था और दोनो हाथों से चुल्लू बनाकर सुखदेव काका पानी पीते थे। पानी पीते समय वे भली -भाँति इस बात का ख्याल रखते थे कि कहीं हमारा लोटा उनसे छू न जाय। वे अपेक्षित दूरी हमेशा बनाए रखते थे।

सुकुलाइन ने तो एक बार अपना भुजिया किया हुआ पूरा धान पड़ोस के मुस्लिम परिवार को ही दे दिया था क्योंकि उनकी मुस्लिम पड़ोसन की मुर्गी ने बाहर चारपाई पर सूख रहे उनके भुजिया धान में चोंच डालकर जूठा कर दिया था। सुकुलाइन के अनुसार मुर्गी के चोंच डालने से धान का पूरा भुजिया ही अपवित्र हो गया था जिसे वे खा नहीं सकते थे।
बरसात के दिनों में नहारी पहुँचाने में मुझे ज्यादा खुशी होती थी क्योंकि मुझे पानी नहीं ले जाना पड़ता था। सुखदेव काका नहारी खाकर खेत में लगा पानी ही पी लेते थे। कभी-कभी तो धान के खेत में पानी के ऊपर काई जमी होती थी और वे अपनी हथेली से काई हटाकर नीचे का पानी चुल्लू भरकर पी लेते थे। इसके बावजूद सुखदेव काका को बीमार होते मैंने नहीं देखा। इतना खटने के बाद पूरे दिन की मजदूरी निश्चित थी दो रजिया धान या एक रजिया गेहूँ। गेहूँ नहीं हो तो उसकी जगह पर अरहर, मसूर, चना आदि भी दिया जा सकता था। किन्तु मात्रा वही एक रजिया। ( एक रजिया में लगभग पौने दो किलो गेहूँ होता था।) सुखदेव काका लगभग सत्तर साल के होकर दिवंगत हुए थे, मेरे बाऊजी के निधन के बाद।

चमारों को अब ‘हरिजन’ कहा जाता है। चकबंदी के दौरान गाँव के भूमिहीनों को अपने आवास के लिए जमीन मिली थी। इस योजना का सबसे ज्यादा लाभ हरिजन बस्ती वालों को ही मिला क्योंकि भूमिहीन भी वही थे। अब हरिजन बस्ती में ज्यादातर घर पक्के बन चुके हैं। उनके बच्चे गाँव या गाँव से बाहर कोई न कोई व्यवसाय करते हैं। आरक्षण के लाभ से कुछेक सरकारी नौकरी भी कर रहे हैं। सुश्री मायावती के मुख्यमंत्रित्व काल में मेरे गाँव की हरिजन बस्ती का एक बड़ा हिस्सा बौद्ध बन गया। रामचंद्र बौद्ध की इसमें मुख्य भूमिका रही। उनके प्रयास से गाँव के उत्तर तरफ एक बौद्ध मंदिर भी बन चुका है। हालांकि, अब वहाँ चहल-पहल कम रहती है।
अब मेरे गाँव में न सूअर पाले जाते हैं और न उनकी चिंचिआहट ही सुनाई देती है। इस बार मैंने देखा बिजाधर भैया के पोते की शादी में बारात की बिदाई करती हुई मेरे गाँव की महिलाएं सज-धज कर डीजे की धुन पर थिरक रही थीं। उनके उल्लास में जातिभेद और ऊँच-नीच की गंध नहीं थी। बिजाधर भैया के पोते का घर दक्षिण तरफ ही है किन्तु अब हम उसे चमरउटी नहीं कहते।

मैं कह सकता हूँ कि आज मेरे गाँव में जाति का जो रूप बचा हुआ है उसका कारण सिर्फ यह है कि उसे आज की राजनीति ने गोद ले लिया है। वह उन्हें संरक्षण दे रही है। उसे पाल-पोस रही है। सुना है, बिहार में जातिगत जनगणना कराने का निर्णय सर्वसम्मति ले लिया गया है। इसके बाद वहाँ माँग होगी कि जातियों की संख्या के अनुपात में आरक्षण दिया जाय। निश्चित ही आने वाले दिनों में उत्तरप्रदेश में भी यह होगा। क्या इस रास्ते चलकर जाति -प्रथा खत्म हो सकती है? हर्गिज नहीं। अकारण नहीं है कि यहाँ चुनाव में टिकट का आवंटन जातियों की जनसंख्या और उनके वर्चस्व को देखकर किया जाता है।

बिहार और उत्तर प्रदेश जैसे पिछड़े प्रान्तों की सरकारों ने जाति-व्यवस्था को बनाए रखने के लिए बड़े ही सुनियोजित प्रयास किए हैं। उदाहरणार्थ उत्तर प्रदेश सरकार ने संभवत: नाम के साथ उनकी जाति का उल्लेख करना अनिवार्य कर दिया है। मुझे अच्छी तरह पता है कि राजस्थान की एक जाति है ‘मीणा’। उसका नाम अनुसूचित जनजाति की सूची में हैं, जिसका परिणाम है कि अनुसूचित जनजाति के लिए निर्धारित आरक्षण का अधिकांश लाभ इसी ‘मीणा’ जाति को मिल रहा है। दूसरी जनजाति के जो लोग जंगलों-पहाड़ों में रहते हैं और सही अर्थों में आरक्षण के लिए पात्र हैं, उनतक आरक्षण का लाभ नहीं पहुँच रहा है। इसी तरह दलितों के भीतर भी एक क्रीमीलेयर पैदा हुआ है। प्रबुद्ध बनने वाले दलित लेखकों की नजर भी अपने भीतर की इन विसंगतियों पर नहीं पहुँच रही है, या वे इसे जानबूझकर नजरंदाज कर रहे हैं।

कहा जा सकता है कि आज हमारे गाँव में दलित और सवर्ण का स्तर-भेद समाप्त हो चुका है। सामाजिक हैसियत के निर्धारण का पैमाना सिर्फ आर्थिक है, और इस पैमाने पर गाँव के सवर्ण कहीं नहीं टिकते। उनकी दशा आज पहले के दलितों जैसी हो चुकी है।

एक ओर छूआछूत का अंत तो दूसरी ओर धार्मिक आडंबरों और पाखंडों का बेतहासा विस्तार। जो राजनीति जातिवाद को पालपोस रही है वही धार्मिक आडंबरों को भी प्रश्रय दे रही है। गाँव में कई नए मंदिर भी बने हैं और मस्जिद भी। इन मंदिरों और मस्जिदों में तो धार्मिक अनुष्ठान होते ही रहते हैं आए दिन लोगों के घरों में भी कीर्तन, भागवत, देवी जागरण आदि होते रहते हैं। चकित करने वाली बात यह है कि कीर्तन जैसे अनुष्ठानों में घर का मालिक अमूमन शामिल नहीं होता। कुछ प्रोफेशनल ग्रुप हैं जो पैसे लेकर ठेके पर कीर्तन गाते रहते हैं। भगवान का नाम भी पैसे के हवाले ठेके पर। बाजारवाद का यह रूप अद्भुत है।

हर व्यवस्था अपने भीतर की खामियों के कारण ही नष्ट होती है। पूँजीवाद ने सदियों पुरानी जाति-प्रथा जैसी घृणित व्यवस्था का अंत किया, यह उसकी बहुत बड़ी देन है। लेकिन आज भी तरह तरह के धार्मिक पाखंड और अंधविश्वास विज्ञान को मुँह चिढ़ा रहे हैं। विकास को अवरुद्ध कर रहे हैं। गाँव में अधिकाँश लोग ऐसे ही हैं जो मेहनत-मजदूरी करके, पेट काटकर किसी तरह कुछ पैसे बचाते हैं और फिर उसे कीर्तन, भगवती जागरण, भागवत या तीर्थ यात्रा करके पुण्य कमाने के नाम पर गवाँ देते हैं। सावन आते ही झुंड के झुंड काँवरिये दिखाई देने लगते हैं और हमारी सरकारें इनपर फूलों की वर्षी करती है, हमारे नेता इन्हें प्रोत्साहित करते हैं। हालांकि किसी मंत्री, सांसद या विधायक, किसी अधिकारी या पूँजीपति या उनके सुपुत्रों को काँवर ढोते मेंने नहीं देखा है। बहरहाल, जबतक ये सामंती मूल्य समाप्त नहीं होंगे हम अपने खुशहाल गाँव की कल्पना को साकार नहीं कर सकेंगे

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अमरनाथ

लेखक कलकत्ता विश्वविद्यालय के पूर्व प्रोफेसर और हिन्दी विभागाध्यक्ष हैं। +919433009898, amarnath.cu@gmail.com
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