मुद्दा

स्त्री जो नदी के दर्द को समझती है

 

नदी दिवस और बेटी दिवस का साथ साथ आना अपने आप में एक बड़ा प्रतीक है। दिवस विशेष उन्हीं को समर्पित होता है जो जीवन में विशेष मायने रखते हैं। साथ ही यह भी ध्यान में रहे कि दिवस विशेष मनाया जाना अपने आप में इस बात का द्योतक है कि वे संकट में हैं। उनका होना जितना जरूरी है उससे भी ज्यादा जरूरी उनकी अहमियत को पहचानने का भाव होना जरूरी है। बेटियाँ और नदियाँ जीवन और सभ्यता का आधार हैं। इनको बचाने का संकल्प साल में एक दिन लेने से काम नहीं चलने वाला है। ये दोनों वाकई बहुत मुश्किल में हैं। धरती पर आने से पहले ही माँ के गर्भ में बेटी को बचाना जरूरी है। धरती पर आने के बाद उससे भी अधिक। ठीक उसी तरह नदी को पहाड़ों में उनके उद्गम स्थल पर बचाना जितना जरूरी है उससे भी अधिक मैदानों में। सुमित्रानंदन पंत ने अपने जीवन के लगभग आखिरी साक्षात्कार में, यह पूछे जाने पर कि दोबारा जिन्दगी मिलने पर क्या देखने की कल्पना करते हैं, तो उनका जवाब था कि वे स्त्री को बिना किसी भय के स्वाधीन विचरण करते देखना चाहते हैं। बेटियों के साथ आए दिन होने वाले अत्याचारों की खबर पढ़कर पंत जी की इस कल्पना का निहितार्थ समझ में आ सकता है।

भवभूति के ‘उत्तररामचरित’ के तीसरे अंक की शुरुआत दो नदियों के प्रवेश से होती है। एक नदी हैं मुरला और दूसरी हैं तमसा। मुरला नदी बताती हैं कि उन्हें अगस्त मुनि की पत्नी लोपामुद्रा ने गोदावरी के पास एक संदेश देने के लिए कहा है। संदर्भ यह है  है कि सीता के परित्याग के बाद राम अन्दर ही अन्दर इतने विचलित और आहत हैं कि वे सीता के साथ पंचवटी में बिताए समय की स्मृतियों को पुनः जीने के लिए गोदावरी तट पर स्थित पंचवटी आ सकते हैं। संदेश का मूल यही था कि,”यदि किसी समय श्रीराम शोकवश निश्चेतन हो जाएँ तो आप उन्हें अपनी तरंगों के शीकरों से शीतल और पदमकेशर के सुगंध से सुगंधित पवनों द्वारा पुनः सचेतन कर देना।Rejuvenation of life line Extinct River Tamsa in Ayodhya jagran special

तमसा नदी को यह बात उचित नहीं लगती और यह कहती हैं कि ,”रामभद्र के संजीवन का उपाय तो मूल रूप में ही समीप स्थित है। “मुरला के कैसे का जवाब तमसा इन शब्दों में देती हैं,”जब लक्ष्मण वाल्मीकि मुनि के तपोवन के पास सीता का परित्याग करके लौट गये तब सीता देवी ने प्रसव वेदना की पीड़ा को सहन न कर सकने के कारण, दुखाभिभूत हो कर अपने को गंगा के प्रवाह में फेंक दिया। उसी समय दो बच्चों की उत्पति हुई। तत्काल भगवती भागीरथी और पृथ्वी माता ने उन दोनों बच्चों और सीता को अपनी गोद में ग्रहण कर लिया और उन्हें पाताल देश में पहुंचा दिया। जब दोनों बच्चों ने स्तन पान छोड़ा, उन्हें ले कर गंगा देवी स्वयं महर्षि वाल्मीकि को अर्पित कर दिया।”

इस पूरे प्रकरण में भारत के दो बड़े सांस्कृतिक प्रतीकों के साथ दो बड़ी नदियों की कथा शामिल है। भारतीय संस्कृति की प्रतीक सीता की करुण गाथा में धरती और गंगा के मानवीय पक्ष की भूमिका। दक्षिण की गंगा गोदावरी भी शामिल हैं। खास बात यह है कि सीता के दुख की कथा में चार नदियाँ शामिल हैं। बेटियों और नदियों के संबंध को समर्पित भवभूति के इस महान रूपक को याद करते हुए दुनिया की सभी बेटियों और नदियों को इस अवसर पर याद किया जाना चाहिए। मेरा अनुमान है कि दुनिया भर के साहित्य और लोक कथाओं को बेटी और नदी के इस रिश्ते ने अगर भिन्न भिन्न रूपों में सबसे ज्यादा आकर्षित और प्रभावित किया है तो इसके ठोस ऐतिहासिक और सांस्कृतिक आधार हैं। जीवन देने वाले हमेशा साथ होते हैं। जायसी के शब्दों में करतार के सबसे प्रिय और निकट के लोग।

आज यह भी चिंता का विषय है कि ढेर सारी नदियाँ सिर्फ बरसाती नदी बन कर रह गई हैं। लेकिन स्त्रियों की आंखे ऐसी नदी बन गईं हैं जिनकी बरसात कभी खत्म नहीं होती।  सुना है कि फल्गु को सीता मैया ने यही शाप दिया था कि वह सिर्फ मौसमी नदी बन कर रह जाएँ। मेरा मन इस बात पर यकीन नहीं करता। कोई स्त्री किसी नदी को शाप नहीं दे सकती। जिस स्त्री के जीवन में नदियों की इतनी गहरी भूमिका हो वह यह काम नहीं कर सकती। स्त्री को नदी के खिलाफ खड़ा करना किसी पुरुष मन की साजिश हो सकती है।बेटी दिवस Archives - Puri Dunia | पूरी दुनिया

उम्मीद है कि धरती पर वह दिन कभी नहीं आए जिस दिन उस पर बेटियों और नदियों की आवाज और आवाजाही ही बंद हो जाए। भयभीत बेटी और नदी दोनों हमारी सभ्यता पर सबसे बड़े सवाल हैं।
हमने अपनी दादी को बेटी के रूप में नहीं देखा था। हम शायद अपनी बेटियों को दादी के रूप में नहीं देख सकेंगे। क्या फर्क पड़ता है? हर स्त्री अन्ततः एक बेटी होती है। एक माँ होती है। उस पर एक सृष्टि की रचना और रक्षा का भार होता है। शमशेर जी ने लिखा है कि ,”स्त्री बचपने से ही सयानी होती है क्योंकि उसे एक माँ होना होता है। “जाहिर है जिसे इतनी बड़ी जिम्मेदारी निभानी हो उसे नादानी से जल्दी बाहर निकलना होता है। इसके विपरीत पुरुष को शमशेर जी ने घालू माना है। मुख्य सौदे के साथ पारचून की दुकान से मुफ्त में माँग ली गई कोई गैर जरूरी चीज, जिसके बिना भी काम चल सकता है। लेकिन अजीब विडंबना है कि घलुए ने मूल को ही अपने से कमतर आंकने का भ्रम पाल लिया!

हमने गोमुख में गंगा को नहीं देखा। हमने गंगासागर भी नहीं देखा। क्या फर्क पड़ता है। गंगा हों या कर्मनाशा हर नदी अन्ततः एक नदी होती है। सभ्यता की जीवनरेखा। नदियों की तरफ पीठ खड़ा करके नहीं उनकी तरफ हाथ जोड़कर नगरों को खड़ा होना होगा। अपना कचरा अपने पास संभालना ही सभ्यता की निशानी है। उसे नदियों में फेंकना नहीं। अपना कचरा, अपने घर का हो या मन का अपने स्तर पर ही निपटाना होगा। बेटियों और नदियों को इन कचरों से बचाना होगा।

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गजेन्द्र पाठक

लेखक हिन्दी विभाग, हैदराबाद विश्वविद्यालय, हैदराबाद में प्रोफेसर हैं| सम्पर्क- +918374701410, gpathak.jnu@gmail.com
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