मोटापा: भूमण्डलीय समाज का विमर्श
मोटापा समस्या के रूप में मानव विकास के इतिहास मे एक नया प्रकरण है। पिछले छह दशकों में सामाजिक, आर्थिक और तकनीकी बदलावों से दुनिया के लगभग प्रत्येक भागों मे जीवन जीने का तरीका पूर्ण रूप से बदल गया है जिससे मोटापे का भी तीव्रता से विस्तार हुआ है। विश्व स्वास्थ्य संगठन के अनुसार, 1975 से अभी तक मोटे लोगों की संख्या मे तीन गुणी बढ़ोतरी हुई है। 2016 मे 190 करोड़ वयस्क (18 साल से ऊपर) ज्यादा वजन के थे और उनमे से 65 करोड़ मोटे थे।
अब बच्चों मे भी इसके प्रकोप मे वृद्धि देखी जा रही है। और तो और अभी के कोरोना काल मे, कोविड-19 से संक्रमित होने के लिए, हृदय, श्वास और धमनियों की बीमारियों के साथ-साथ मोटापे को भी एक महत्वपूर्ण कारक माना जा रहा है। मोटे लोग जिन्हें डायबिटीज़ और उच्च रक्तचाप की शिकायत है, उनके कोरोना से संक्रमित होने की सम्भावना भी अधिक मानी जाती है। अधिक वजन और मोटापा क्या है? विश्व स्वास्थ्य संगठन के मानकों के अनुसार, मानव शरीर मे अत्यधिक चर्बी जमा होना जो स्वास्थ्य के लिए प्रतिकूल हो, मोटापा है। इसे मापने के लिए व्यक्ति का बी. एम. आई. इंडेक्स निकाला जाता है। 25 से 29 बी. एम. आई. अधिक वजन को प्रदर्शित करता है और 30 से अधिक बी. एम. आई. मोटापे को बताता है।
समकालीन शोध बताते हैं कि मोटापे का बहुत ही तीव्र भूमण्डलीकरण हो रहा है जिसके कारण इसके देखने समझने के प्रति एक नया दृष्टिकोण उत्पन्न हुआ है। भूमण्डलीकरण और उदारीकरण से पहले इसके प्रति एक भिन्न धारणा थी, जैसे कि यह सम्पन्नता का प्रतीक था। पिछले तीन दशकों से मोटापे को एक विकार के रूप में देखा जा रहा है। जहाँ भूमण्डलीकरण से पहले मोटापा उत्पादकता, अमीरी आदि का पर्याय समझा जाता था, वहीं अब इसको अवांछनीयता मान लिया गया है। और तो और समकालीन चिकित्सा पद्ति में यह एक गम्भीर बीमारी का स्रोत माना जाता है। इसको समझना या इसके बारे में स्पष्ट रूप से कुछ भी कहना सरल नहीं है।
यह एक अत्यंत ही जटिल विषय है जिसमें मूलरुप से भावनात्मक, मनोवैज्ञानिक, और सामाजिक आयाम भी अन्तर्निहित हैं। इसके कारणों को समझना और भी जटिल है। हाल ही में फिजी में हुए एक शोध से यह निष्कर्ष निकलता है कि भूमण्डलीकरण के बाद, टेलीविजन, सोशल मीडिया, और जनसम्पर्क के नए तकनीकों के माध्यम से कैसे पाश्चात्य की एक विचारधारा का गैर-पाश्चात्य देशों में निरन्तर प्रसार किया जा रहा है। और कैसे इन माध्यमों द्वारा, पाश्चात्य रिवाजों, मूल्यों, संस्कृतियों का आरोपण गैर-पाश्चात्य संस्कृतियों पर किया जा रहा है। इस पूरे प्रक्रिया का प्रभाव मोटापे और पतलेपन की अवधारणा पर भी पड़ा है। कैसे स्वास्थ्य के अन्य विषयों के साथ-साथ मोटापे को एक ‘हेल्थ के पैथोलॉजी’ के रूप में परिभाषित किया जाता है।
अब संस्कृति के बदलाव की चर्चा करतें है जो हमें अचम्भित करता है और यह सोचने पर बाध्य करता है कि प्राचीन संस्कृतियाँ मानव शरीर के विभिन्न प्रकार को या कि मोटापे को कैसे देखती थीं। इस उत्तर पर चर्चा से पूर्व हमें यह जानना होगा कि प्राचीन संस्कृतियों का अध्ययन करने के लिए उनके द्वारा पर्यावरण पर छाप ही है जिनसे हम उनके बारे में जान सकते है। इन छापों में पुराने पुरावशेष और मानव अवशेष आते है। उत्खनन में कहीं मानव कंकाल और अस्थियां भी पायी गयी हैं। किन्तु ये सभी पुरावशेष और मानव अवशेष मोटापे के किसी एक संस्कृति या संस्कृतियों के बारे में कुछ भी बताने में अपूर्ण है। इनकी तुलना में, इन अवशेषों द्वारा प्राचीन काल के लोगों की लम्बाई और शरीर का अनुमान लगाना अधिक सरल है।
परन्तु इसके द्वारा किसी प्राचीन व्यक्ति के भार या मोटापे का अंदाजा लगाना कठिन है। किसी भी मनुष्य की अस्थियों के माध्यम से उसका वजन पता नहीं किया जा सकता है, क्योंकि एक तो अस्थियों के साथ मांस और चर्बी कोशिकायें वजन बनाने में महत्वपूर्ण होती हैं। जो कि मरने के बाद जल्द ही नष्ट हो जाती हैं। और दूसरा अस्थियों का अपना भी भार होता है, जो कि कुछ भी हो सकता है, जैसे कि एक छोटा व्यक्ति एक लम्बे व्यक्ति से भारी हो सकता है, क्योंकि टिश्यू और फैट मांस पेशियों के अलावा, अस्थियाँ भी मानव शरीर के वजन बनाने में जिम्मेदार होती हैं। पुरातात्विक विधि से इसके बारे में पता करना कठिन है, अतः इसके लिए हमें अपनी दृष्टि कुछ अन्य अवशेषों की ओर करनी होगी, जैसे की पुरावशेष, प्राचीन मानव द्वारा छोड़े गए अवशेष इत्यादि।
विल्लेंडोर्फ वीनस की एक प्रसिद्ध पुरातात्विक अवशेष है जो प्राचीन समय में मोटापे के बारे में बताता है। ये अवशेष मुख्यत: 50000 से 10000 साल पहले के यूरोप और मध्य एशिया के उत्तर पुरापाषाण काल के हैं। 1908 में ऑस्ट्रिया मे खोजी गयी यह एक 11 सेंटीमीटर लाईम स्टोन से गढ़ी मूर्ति है। इसको लाल रंग से सुसज्जित किया गया है। इसका काल लगभग 25000 से 27000 साल पहले का है। इसके शरीर की बनावट परिपूर्ण है और शारीरिक रूप से सही है, परन्तु इसका चेहरा और सिर का भाग एक टोपी से ढका हुआ है। परन्तु एक चीज है जो प्रमुखता लिए है: वह महज भरे-पूरे बदन से ज्यादा है। वह मोटी है। इसकी खोज के उपरांत से ही, वीनस को कई तरहों से परिभाषित किया जाता रहा है।
इसे कभी उत्पादकता की देवी तो कभी मात्र एक खिलौना, तो कभी गर्भवती महिला के सीखने का उपकरण बताया गया है। लेकिन पूर्ण रूप से जानकारी के अभाव मे इसके निर्धारण में अभी दावे के साथ कुछ कहना कठिन है। इसी संदर्भ मे, लगभग 10000 साल के अंतराल मे 200 से ज्यादा विशिष्ट मूर्तियाँ यूरोप और मध्य एशिया से मिली हैं। यद्दपि सभी कलाकृतियाँ महिला के रूप को ही बताती हैं तब भी सभी अलग-अलग शरीर के प्रकार को प्रतिबिंबित करती हैं। सभी मोटी नहीं हैं। इसीलिए यह पक्के तौर पर नहीं कहा जा सकता की ये मोटापे को प्रदर्शित करती है।
कुछ और प्रसिद्ध कलाकृतियाँ नव पाषाण काल की है जो की माल्टा और पास की द्वीपों में पाई गयी हैं। लगभग 5000 साल पहले की यह मूर्तियाँ जो की माल्टा की मोटी स्त्रियाँ (fat ladies of malta) के नाम से प्रसिद्ध हैं, बैठी और लेटी हुई स्त्रियों के कलाकृतियों को दर्शाती हैं। कईयों के सिर गायब है। और जहाँ कहीं भी सिर है तो वो बाकी शरीर के अनुपात में बहुत ही छोटे रूप में है। किसी के भी गर्भवती होने का पता नहीं चलता, फिर भी सभी अत्यधिक वजन वाली हैं। अधिकांश माल्टा कलाकृतियाँ दफ़नाने के स्थान और पूजा स्थलों पर मिली हैं। इसलिए पूजा और धार्मिक अनुष्ठानों में इनके प्रयोग की सम्भावना को नकारा नहीं जा सकता।
लेकिन पुरुषों का क्या? क्या पूर्व के इन अवशेषों मे मोटे पुरुषों का कोई सुराग़ मिलता है? एक गौटेमाला की जेड पत्थर की कलाकृति है जिसको ‘फ्लैट लार्ड या फ्रॉग’ कहा जाता है। 700 ईस्वी की यह मूर्ति संभवतः किसी विशेष व्यक्ति की ही रही होगी। क्योंकि आम लोगों की कलाकृतियों में जेड पत्थर का प्रयोग नहीं होता था। वह मोटा भी है।
वीनस, मोटी माल्टा, और मोटा लॉर्ड और फ्रॉग, यह प्रमाणित करते हैं कि प्राचीनतम समाज में मोटापे के प्रति कोई नकारात्मक भाव नहीं था। मानव समाज के अध्ययन हमें बतातें हैं कि कुछ मात्रा मे मोटापा लगभग सभी मानव सभ्यताओं में उपस्थित रहा है, सिवाए उन समुदायों को छोड़ कर जो कि हमेशा से ही संसाधनों के अभाव वाले वातावरण में ही रहें हैं। यह भी कहा जा सकता है कि मोटे लोगो की कभी पूजा भी की जाती होगी, तो कभी बुरी दृष्टि से भी देखा जाता होगा, तो कभी उन लोगों को सामान्य रूप से लिया जाता होगा।
लेकिन फिजी का मानव वैज्ञानिक अध्ययन हमे बताता है कि सांस्कृतिक अवधारणाएँ, पहले के समय के समाज की अपेक्षा, समकालीन समय में अधिक संकुचित और कम विविधता पूर्ण होती जा रही है। शारीरिक और सौन्दर्य मानकों में यह समरूप शरीर के निर्माण को प्रोत्साहन दे रहा है और निस्संदेह बाजार की बे-लगाम शक्तियाँ समाज के पारंपरिक सोच, सौन्दर्य, स्वास्थ्य के साथ-साथ सम्पूर्ण चेतना को निर्धारित कर रही है। हमे एक बहुत गहन और बहुआयामी सामाजिक-सांस्कृतिक बोध के साथ इन समस्याओं पर विमर्श करना होगा।
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