सृजनलोक

छः कविताएँ : मीता दास

 

  • मीता दास

 

जन्म – 12 जुलाई 1961, जबलपुर (मध्य प्रदेश) । शिक्षा – स्नातक (विज्ञान) । हिन्दी, बांग्ला में कविता, कहानी, लेख, अनुवाद और सम्पादन। अनुवाद की कई पुस्तकें प्रकाशित। हिन्दी की महत्त्वपूर्ण पत्रिकाओं में कविताएँ प्रकाशित।  कई पुरस्कारों से सम्मानित।
सम्पर्क– 63/4 नेहरू नगर पश्चिम , भिलाई , छत्तीसगढ़ -490020
+919131630093, mita.dasroy@gmail.com

mita das

मीता दास की कविताओं से गुजरते हुए :-

मीता दास उन कुछ कवियों में हैं जो अपनी कविता को समय की मार से बचाकर नहीं चलतीं। वे बेझिझक मारक सवाल करती हैं और समय के सामने चुनौती बनकर खड़ी हो जाती हैं। इस अर्थ में ‘ क्या बचेगा ‘ कविता बेधक है जहाँ साफ दिखता है कि देशभक्ति और देश बचाना आज एक ही चीज नहीं है बल्कि एक-दूसरे के विपरित है। इस छोटी कविता में अंतिम सवाल है ‘खेत बचााएँ या जन्मभूमि’।

यहाँ खेत बचाना यानी कि कॉरपोरेट लूट का विरोध और (राम) जन्मभूमि बचाने का मतलब सांप्रदायिक उन्माद का मोहरा हो जाना है। दोनों स्थिति को सामने रखकर वे साहस से सवाल उठाती हैं। यह कविता फासीवाद से सीधा टकराती है। मीता जी की इस कविता में तीन पैराग्राफ हैं। पहले पैरा के अंत में सत्ता को नायक कहा गया है, दूसरे पैरा के अंत में अधिनायक और तीसरे पैरा के अंत में उसे खलनायक कहा गया है। व्यंग्य और गुस्से का इजहार होता है यहाँ।

एक अन्य कविता ‘गोली मारो’ में मीता दास लिखती हैं– ‘गोली मारो एक साधारण सा शब्द है/पर मतलब कई रखता है/मैं समझना चाहती हूँ और/समझाना भी चाहती हूँ/जो …. जानकर भी/अनजान बने बैठे हैं/….आरामगाहों में।’ यह कविता मध्यवर्ग के दोगलेपन की धज्जियाँ उड़ाती है जो अपने आरामगाह में बैठा हर बात पर चाहे वह मजदूरों की इस व्यापक दुर्दशा का सवाल ही क्यों न हो, कह उठता है – गोली मारो। आज जो दुर्दांत समय सामने खड़ा है ऐसे वक्त में मीता दास जैसी कवि का होना मायने रखता है। – रंजीत वर्मा

सम्पर्क-  +91 8800535376  

sketch by pritima vats
स्केच : प्रीतिमा वत्स

1. लाल जुगनू अँधेरी में देखे थे मैंने 

मीता दास

उस रात अँधेरी मुम्बई के फ्लाई ओवर उतरते हुए

मुझे चमकते नजर आये

लाल जुगनुओं के झुण्ड जैसे

जमी पर उतर आए हों

सच !

पर जुगनू की चमक तो फ़क्क सफ़ेद होती है !

तो क्या मुझे भविष्य का भान हो रहा था !

भविष्य देख – समझ पा रही थी ??

आज अँधेरी मुम्बई मुझे नक़्शे में लाल ही दिख रहा है

लाल सुर्ख़ , रक्त जैसा

भयभीत हूँ

अँधेरी मुम्बई वासियों के प्रति

शिवाजी इन्टरनेशनल एयरपोर्ट नजदीक ही है

जहाँ सुरक्षा कर्मियों और टेक्सी चालकों ने ढोया है

संक्रमित मनुष्यों को

इसलिए

सफ़ेद जुगनू मुझे

उस रात लाल नजर आये थे

जलबुझ रहे थे ….. टिमटिम

मुम्बई तुम ठीक रहो

भारत तुम स्वस्थ्य रहो

चले सब कुछ सुचारु रूप से

जुगनुओ तुम फ़क्क सफ़ेद ही उतरो

सपने में सबके

इस महाताण्डव करते

संक्रमण से मेरा गरीब देश

उबर जाए ….

यह भी पढ़ें- चार कविताएँ : पूजा यादव

2.  क्या बचेगा 

हम अपना गणतन्त्र मनाये या बचाएँ

बेहद दुविधा में हूँ जन नायक !

देश बचाएँ या देशभक्ति

बेहद दुविधा में हूँ प्रजा नायक !

धर्म बचाएँ या मठ , पीर – पैगम्बर

बेहद दुविधा में हूँ राष्ट्र नायक !

राष्ट्र भाषा बचाएँ या राष्ट्र

बेहद दुविधा में हूँ अधिनायक !

मातृभाषा बचाएँ या आदि भाषा

बेहद दुविधा में हूँ परिधान नायक !

खेत बचाएँ या जन्मभूमि

बेहद दुविधा में हूँ खलनायक !

.

3. जीनोसाइड

आती हैं खबरें हत्याओं की
आए दिन
मीडिया उछालता है
माफिया के मानिन्द
और सब सोये रहते हैं
चद्दर तान
इक्के – दुक्के बहस
रैली
नाकाम
जहर बुझी तीरें चलती हैं
प्रगतिवाद , वाम , दाम
और धेले भर आँसू
चीत्कार भी
और लूटा / पिटा सा
मानववाद मर जाता है।
.

यह भी पढ़ें- छः कविताएँ : मिथिलेश कुमार राय

4.घर 

अब घरों में घर नहीं रहते ,

रहते हैं काठ के पलंग , आरामदेह सोफा ,

कुशन दार और नर्म फ़र वाले सॉफ्ट टॉय , पलंगपोश,

कसीदेदार और झालरदार पर्दों के पीछे लटकते

ऊपर या किनारे खींचने वाली डोरियाँ घिर्रीदार …

पर खींचते कभी नहीं , न ऊपर न किनारे

जाने क्या हो जाएगा उजागर ऐसा करने से

घर ही तो है !

पर अब घरों में घर नहीं रहते …..

कुर्सी अँटा रहता है बेतरतीब कुछ साफ़, मैले उतरनों से

घर के पुराने आसबाब टकरा जाते हैं आपस में

बेतरतीब तरीकों से ठेंगा दिखाते

दीवारें भी सजी मिलती हैं कभी – कभी पुराने से चेहरों से

कभी तो चेहरे टंगे मिलते हैं दीमक खाये फ्रेमों में …..

नये चेहरे अब घरों में नहीं

कॉरपोरेटों के जाल में या सोशल साइटों में अँटे मिलते हैं

सूट-बूट, टाई में

कभी-कभी झाँक लेते हैं

ऐतिहासिक मीनारों या किलों की ओर

पर वे घरों में झाँक ही नहीं पाते

समय चूक जाता है हमेशा ही इन सब के लिए

उनकी सूची से ।

.

यह भी पढ़ें- सात कविताएँ : जसवीर त्यागी

5. स्मृतियाँ 

मुझे मेरी स्मृतियाँ

एक हारे हुए उस

रेस के घोड़े की तरह मिलीं

जिसे रेस का हिस्सा बनाने की हिचक तो थी ही पर

गोली भी नहीं मार सकते थे

वे मेरे संग पलती रहीं

साथ उठती-बैठती रहीं

कहकहे लगाती,रोती-रुलाती

ठीक अपने खुरों में ठुकी

लोहे के नाल की तरह

मजबूत जीवन का हिस्सा

जिसे मैं वर्त्तमान और भविष्य के

खूँटे में नजर बट्टू सा टांग

निश्चिन्त रहती हूँ ।

००००००००

6. जानने की चाह 

गोली मारो यह एक साधारण शब्द है फिर भी

गोली कौन मार रहा है ,

गोली क्यों मारी मैं जानना चाहती हूँ

गोली – बन्दूक कहाँ हो रही हैं इकट्ठी या इकट्ठी हो चुकी हैं

मैं समझना चाहती हूँ !

गोली मारो एक साधारण सा शब्द है

पर मतलब कई रखता है

मैं समझना चाहती हूँ और

समझाना भी चाहती हूँ

जो …. जानकर भी

अनजान बने बैठे हैं

…… आरामगाहों में ।

००००००

.

Show More

सबलोग

लोक चेतना का राष्ट्रीय मासिक सम्पादक- किशन कालजयी
5 1 vote
Article Rating
Subscribe
Notify of
guest

0 Comments
Oldest
Newest Most Voted
Inline Feedbacks
View all comments

Related Articles

Back to top button
0
Would love your thoughts, please comment.x
()
x