सृजनलोक

नौ कविताएँ : अर्चना लार्क

 

नाम: अर्चना त्रिपाठी ‘अर्चना लार्क’ नाम से लेखन।
जन्म: 7 जुलाई, 1988
निवास स्थान: सुलतानपुर, उत्तर प्रदेश।
पता: रोहिणी 18, नई दिल्ली।
शैक्षणिक योग्यता:
स्नातक – इलाहाबाद युनिवर्सिटी, परास्नातक- बीएचयू, यूजीसी नेट, एम फिल (गोल्ड मेडल), पीएचडी: महात्मा गांधी अंतरराष्ट्रीय हिंदी विश्वविद्यालय वर्धा, महाराष्ट्र।

पद: असिस्टेंट प्रोफेसर (अस्थायी), दिल्ली वि.

शिक्षण: तीन साल का शिक्षण अनुभव।

विशेष:

1.कविताएं प्रकाशित: नया ज्ञानोदय, वर्तमान साहित्य, परिकथा इत्यादि।
2. विभिन्न नाटकों में अभिनय।
3. मुहावरे लघु फिल्म में अभिनय (यू ट्यूब पर उपलब्ध)
4. विभिन्न राष्ट्रीय एवं अंतरराष्ट्रीय संगोष्ठियों में पत्र वाचन और प्रकाशन।

सदानीरा, समालोचन, जानकी पुल, बिजूका में कविताएं प्रकाशित। जनसत्ता अखबार में गद्य लेखन प्रकाशित।

अर्चना लार्क नई कवयित्रियों में उभरता हुआ नाम है। उनकी कविताओं का मूल स्वर है- उदग्र जिजीविषा। वे उम्मीद को जिलाए रखती हैं और मृत्यु तक को जीवन का अंत नहीं मानतीं- ‘ पृथ्वी सांस भरती है/एक आशा बची रहती है/मृत्यु अंत नहीं है’ कहते हुए वे उस उम्मीद को ज़िन्दगी का पर्याय बनाती हैं जिसमें कल का भरोसा है – चिड़िया के चंचु से/छूट जाता है तिनका/एक गीत गाती है/उड़ती फिरती है/शाम होते जब पक्षी घर को लौटते हैं/देखती है/और उम्मीद रखती है/एक दिन उठा लेगी तिनका/बना लेगी घोसला।’

अर्चना की कविताओं में एक स्त्री का स्वाभाविक प्रतिरोध है, पर प्रेम की ध्वनि बहुत गहरी है और जीवन में परस्परता की उतनी ही तीव्र आकांक्षा भी। इस आकांक्षा में ‘ प्रेम पाने को खुद में लौटना है’, क्योंकि आज प्रेम प्रेमियों की ज़िद से अधिक कुछ नहीं रह गया है। इन कविताओं का मुहावरा सधा हुआ है और बिम्ब हमारे जाने पहचाने होते हैं जिनमें काव्यार्थ को साधती हुईं वे अपने से सम्वाद करती हैं। इस सम्वाद में जितनी गहरी जीवनासक्ति है,उतनी ही तीव्र ‘ अंधेरे’ को पहचान कर उससे भिड़ने की कुव्वत भी।

कह सकते हैं कि इस कवयित्री में बहुत सम्भावनाएँ हैं जो भविष्य में हमें फलित होती अवश्य दिखेंगी।  —ज्योतिष जोशी

1. मृत्यु एक संदेश है

ये दुनियां नहीं रहेगी फिर भी
बचे रहेंगे पुष्प
प्रेमी के कानों में गूंजने की अभिलाषा लिए
बच्चे की किलकारी की आस लिए
वर्षा की ओट में आंख मिचौली करते ओस के लिए
रिश्ते फरिश्ते सब छूट जाते हैं
लेकिन दूर देश से एक चिड़िया फड़फड़ाती है फुर्र
पृथ्वी सांस भरती है
एक आशा बची रहती है
मृत्यु अंत नहीं
सुगंधित फूल है
जो चारों ओर बिखरता
जीवन की चिट्ठी लिए भ्रमणशील है
मृत्यु एक संदेश है!

2. एक मिनट का खेल

एक मिनट का मौन
जब भी कहा जाता है
हर कोई गि न रहा होता है समय
और फिर मौन बदल जाता है शोरगुल में
एक मिनट का मौन गायब हो जाता है
सिर्फ एक मिनट में
अपने शव के पास उमड़ी भीड़ को देख
व्यक्ति और मर जाता है
मृत्यु वाकई पहला और अंतिम सत्य है
और माफ करें मुझे मरने में ज़रा समय लग गया।

3. राख हो चुकी लड़की

शब्द शून्य हो रहे
आवाज़ कमजोर है
समाज खो चुका है अपनी भाषा
माहौल में सिसकी है
राख हो चुकी एक लड़की हवा में तैर रही है
एक लड़की जिसने आज ही दुनिया को अलविदा कहा
प्यारी लड़की तुम और तुम जैसी बहुत सी
अंत तक बनी रहेंगी अपनी आवाज़ में
अपनी राख में।

4. चिड़िया

चिड़िया के चंचु से
छूट जाता है तिनका
एक गीत गाती है
उड़ती फिरती है
शाम होते पक्षी जब घर को लौटते हैं
देखती है
और उम्मीद रखती है
एक दिन उठा लेगी तिनका
बना लेगी घोंसला
घर-संसार से अधिक
वो गीत के बारे में सोचती है
बनाती है जीवन-प्रेम का संगीत
चिड़ियों के बीच वो चिड़ियों जैसी नहीं रह पाती है!

5. आर्य मृत्यु को कैसे देखते हो!

आर्य!
मृत्यु आने वाली है
पिता बच्चा हो गया है
और बेटी मां
अपने स्तन से दूध पिलाती बेटी
ढहते बरगद को थाम लेती है
खड़कती पत्तियां शांत स्थिर
मृत्यु आ गई है
चेहरे खिले हैं
आगे कई कदम एक हुए हैं
दो शरीर एक जान
होंठ एकमेक
खत्म होती सांस के बीच
सांस भरती ये ज़िंदा तस्वीरें
क्या अब भी मुंह चिढ़ाती हैं!
श्रेष्ठ! मृत्यु से पहले कितनी बार शर्म से मरते हो?
कहो मृत्यु को अब कैसे देखते हो!

6. बरसात और स्त्री

बरसात हो रही है
तुम भीग रही हो
लो बिखर गए न पन्ने
एक तस्वीर जो अटक गई है छज्जे पर
धीरे से उतारना
उसके कोने में बची है तुम्हारी स्मित हंसी
वो पंक्ति भी जिसमें तुम प्रेम में ही शर्त नहीं रखतीं
जीवन के फलसफे भी ख़ुद तय करती हो
तुम ख़ुद को पसंद करती हो
तुम्हारा स्वाद बचा रह गया है
उसे सहेज लो
सुनो इस बार भविष्य की ओर पीठ न करना
तह कर लो सब सामान
अगली बरसात जल्द ही होगी।

7. होना होगा

आंसू को आग
क्षमा को विद्रोह
शब्द को तीखी मिर्च
विचार को मनुष्य होना होगा
ख़ारिज एक शब्द नहीं हथौड़ा है
मादा की जगह लिखना होगा
सृष्टि, मोहब्बत,
जीने की कला
शीशे की नोक पर जिजीविषा
मनुष्य लिखना नहीं
मनुष्य होना होगा।

8. अंधेरा कितना कुछ कहता है

अंधेरा कितना कुछ कहता है
अंधेरे की पदचाप सुनी है कभी
महीन सी ध्वनि होती है
जिसमें मिलन का उत्साह बिछोह का क्रंदन
एक लम्बी चुप्पी और गहरा रास्ता
जो दिखाई नहीं सुनाई देता है
अंधेरा कितना कुछ कहता है
पर क्या सब दर्ज़ हो पाता है!

9. ख़ुद की हो गई 

मैंने
प्रेमियों की आंखों में प्रेम नहीं
ज़िद देखी
प्रेम पाने को लौटती रही ख़ुद में
और एक दिन ख़ुद की हो गई...
.

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सबलोग

लोक चेतना का राष्ट्रीय मासिक सम्पादक- किशन कालजयी
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