तीन कविताएँ : विनय सौरभ
जन्म: 22 जुलाई 1972, (संथाल परगना के एक गाँव नोनीहाट में)
शिक्षा : टी एन बी कॉलेज़ भागलपुर से स्नातक। भारतीय जनसंचार संस्थान नयी दिल्ली से पत्रकारिता में स्नातकोत्तर डिप्लोमा। देश की शीर्ष पत्र-पत्रिकाओं में लगभग तीन सौ कविताएँ , संस्मरण,लेख आदि प्रकाशित। कविता लेखन के लिए कादम्बिनी का युवा लेखन पुरस्कार, हिन्दी अकादमी, दिल्ली, राष्ट्रभाषा परिषद, राजभाषा विभाग (बिहार सरकार) द्वारा पुरस्कृत कविवर कन्हैया स्मृति सम्मान (1997), सूत्र सम्मान 2004। पहला कविता संग्रह शीघ्र प्रकाश्य।
सम्प्रति: झारखण्ड के सहकारिता विभाग में कार्यरत।
सम्पर्क: पोस्ट नोनीहाट, दुमका-814145 (झारखण्ड)
+917004433479, nonihatkakavi@gmail.com
विनय सौरभ समकालीन युवा कवियों में उल्लेखनीय कवि के रूप में सामने आए हैं। उनकी कविताएं शोर नहीं करतीं और न भाषिक स्फीति का शिकार होती हैं। सहज जीवन में मर्मस्थलों की पहचान के साथ मनुष्यता की वास्तविक चिंताओं को हमसे साझा करते विनय कविता को सम्वाद की लय में ढालते हैं। छीजते हुए मनुष्य, उसके सम्बन्ध और आज के बाजारवादी समय में भौतिक समृद्धि से तय होते रिश्तों को लेकर जहां उनकी कविता ‘गरीब रिश्तेदार’ हमारे मनुष्य होने पर प्रश्न उठाती है- ‘गरीब रिश्तेदारों के ताज़ा हाल हमारे पास नहीं होते/ उनका जिक्र हमारी बातचीत में नहीं आता/ हम हमेशा जल्दी में होते हैं/ और हमारी गाड़ियां उनके दरवाज़े से सीधी गुजर जाती है’, तो ‘आज भी’ कविता स्मृति के सहारे बीते दिनों को याद कर उसमें अपने को खोजने के प्रयत्न का आह्वान करती है – ‘क्या तुम्हें अमरूद आज भी पसन्द होंगे/और भुने हुए चने/ गुड़वाली वह सूखी मिठाई/ जो सब जगह नहीं मिलती?’
स्मृति जिस गहरे बोध और मार्मिकता के साथ इन कविताओं में आकर जीवन के प्रति गहरी आसक्ति उपजाती है, वह उनके समकालीनों में नहीं दिखती। कहना चाहिए कि आज के स्मृति वंचित समय में विनय के रूप में हिन्दी की समकालीन कविता को मानवीय चिंताओं पर दृष्टि रखनेवाला एक ऐसा कवि मिला है जो स्मृति के आयतन में हमारे वर्तमान के संत्रास को देख पाता है और अपने को बचा लेने का आह्वान करता है। – ज्योतिष जोशी
1.मौजूदगी
( ‘वसु’के लिए)
_____
कमरे में पढ़ने की मेज के नीचे दिख रही है
हवाई चप्पल जो वह छोड़ गया है
इस तरह से याद आता है
नवम्बर उन्नीस का वह महीना
किस तरह अचानक वह मुझे मिला था
पुराने पते पर सुन्दर खत की तरह
और जाते दिसम्बर में वह इतना अपना था कि हम मन की अन्दरूनी गिरहें
एक दूसरे के सामने खोल रहे थे
हम रोज विस्मय से भर जाते थे
बातें थीं और खत्म नहीं होती थीं
उनमें कोई खुशबू थी जो रोज फैलती ही जाती थी
हमने अपनी -अपनी घड़ियाँ
अपने दराज में रख ली थीं और समय से बाहर चले गये थे
जब मैं अपने भाई को लेकर
पिछली इन्हीं सर्दियों में एक अस्पताल में था
वह रोज हौसला दिलाता हुआ
हमारा हाल चाल लेता रहा
अब इस कथन पर भरोसा करना मुमकिन था कि दुनिया सचमुच खूबसूरत लोगों से भरी पड़ी है
पिछले महीने जब हल्की धुन्ध में हमारा
वह छोटा -सा स्टेशन लिपटा हुआ था
वह आया गहरे विस्मय की तरह !
मेरा हृदय जागता था उसके प्रेम में
एक उल्लास जो जीवन को गति देता था
रेल से उतरकर जब उसने अपना हाथ मेरे हाथ में दिया और उस वक्त ही मैंने जाना कि प्रेम में आप सबसे पवित्र मनुष्य होते हैं
मैंने उस रेल को देखा जो उसे लेकर आयी थी
वह मुझे उस समय दुनिया की सबसे खूबसूरत शय लगी
मैंने उसे बहुत प्यार से निहारा और शुक्रिया कहा
जब तक वह रहा
हम पहचाने और भूले हुए दृश्यों के भीतर थे
हमारे साथ पहाड़ थे
नदियाँ थीं
कटे हुए धान के पूंज थे
ठण्डी हवाएँ और नर्म धूप थी
साझा करने लायक पुरानी स्मृतियाँ थीं
एक दो पहिया थी और उसके सामने मेरी पीठ थी और मेरे कानों में जीवन राग से भरी आवाज़ें थीं
वह गया-
तो जैसे एक युग बीता हो
सुन्दर संगीत के साहचर्य का
जैसे एक सिनेमा खत्म हो गया हो आपको आँसुओं से भरकर
उसके जाने के बाद
आवाजें चीजें और यह समय सब थम – से गए हैं !
एक शाम मैं उसके लिए
यह हवाई चप्पल लेकर आया था
अब मुझे उसके भीतर उसके पाँव दिखते हैं लगता है वह अभी यहाँ है इसी घर में
अचानक उसकी आवाज आएगी । ,
और कहेगा कि आज कहाँ चलना है विने
कई बार खयाल आया है कि इसे उठाकर डब्बे में बन्द करके कहीं रख दूँ
पर कोई संवाद है हृदय का जो रुक जाएगा
आह ! इसको देखते ही एक सुन्दर फिल्म शुरू होती है मन में
एक सपने का सच हो जाना दिखता है
स्टेशन पर उसको छोड़ने के बाद
विदा होती रेल याद आती है।
यह भी पढ़ें – चार कविताएँ : पूजा यादव
2.आज भी ?
आज तुम्हारी वह ब्लैक एंड वाइट
तस्वीर फिर दिखी है!
भीतर एकाएक साफ पानी वाली
वह पहाड़ी नदी फिर बहने लगी है
महुवे पलाश का वह घर के पास वाला
छोटा सा जंगल फिर उग आया है भीतर
पगडंडियों के सहारे जहाँ
बचपन भागता रहा था हमारा
तुम्हारा वह स्कूल जो
मेरे स्कूल के पड़ोस में था
जहाँ तुम टिफिन के समय अमरूद
और भुने हुए चने के लिए निकलती थीं
तुम्हारी पसन्द की गुड़ की
बनी हुई वह सूखी मिठाई जो शहर से
अक्सर लाते थे तुम्हारे पिता
जिसमें हमारी भी हिस्सेदारी थी
बस अब यह मन
इतना ही जानने की इच्छा से भरा है
कि तुम आज भी बिन्दी लगाती हो क्या ?
एक हिरणी आज भी बसती है
तुम्हारी चपल आँखों में ?
स्कूल की तरह जीवन के डिबेट में
आज भी भाग लेती हो ?
क्या तुम्हें अमरूद आज भी पसंद होंगे
और भुने हुए चने
गुड़ वाली वह सूखी मिठाई
जो सब जगह नहीं मिलती ?
यह भी पढ़ें – छः कविताएँ : मीता दास
3.साइकिल
इस तरह से
बची रह जाती है एक याद !
अभी एक बच्चा जाता दिखा है उमंग में
जैसे इसे गले से लगाये !
आह ! मन में आज भी
एक साइकिल की याद बाक़ी है !
.