
आठ कविताएँ : पंकज चतुर्वेदी
पंकज चतुर्वेदी
जन्म: 24 अगस्त, 1971; इटावा (उ.प्र.)।
शिक्षा: एम.ए. (हिन्दी), एम.फिल.,पी-एच.डी.।
हिन्दी के महत्त्वपूर्ण कवि और आलोचक। कविता के लिए भारतभूषण अग्रवाल स्मृति पुरस्कार, आलोचना के लिए देवीशंकर अवस्थी सम्मान और उत्तर प्रदेश हिन्दी संस्थान के रामचन्द्र शुक्ल पुरस्कार से सम्मानित। कविता और आलोचना की कई पुस्तकें प्रकाशित।
सम्प्रति: वी.एस.एस.डी. कॉलेज, कानपुर में अध्यापन।
सम्पर्क: +919425614005 cidrpankaj@gmail.com
विचारपरक कविताओं को साधना आसान काम नहीं होता। इस कोशिश में कभी विचार विलुप्त हो जाता है और कभी कविता खो जाती है। लेकिन पंकज चतुर्वेदी ने हमेशा की तरह अपनी छोटी-छोटी कविताओं में विचार और काव्यात्मकता का ज़रूरी संतुलन साधा है। यही नहीं, बहुत मानीख़ेज़ इशारों में वे वह सब कुछ कह जाते हैं जो कविता में अमूमन संभव नहीं होता। वे भाषा पर बात करते हैं और राजनीति के विद्रूप पर टिप्पणी कर जाते हैं।
लगभग इन सारी कविताओं में बहुत तीखा व्यंग्य है- कवि के वैचारिक प्रतिरोध को साकार करता हुआ। किसान सुनकर खालिस्तान समझने वाले कौन लोग हैं, यह उन्हें बताने की ज़रूरत नहीं पड़ती। वे बहुत सूक्ष्मता से किसान आंदोलन के प्रतिरोधी स्वर को अवैध बताने की कोशिश की भी खिल्ली उड़ा देते हैं। बल्कि ‘पवित्र-अपवित्र’ शीर्षक कविता एक तात्कालिक प्रसंग को एक बड़े वैचारिक पाखंड को उजागर करने का माध्यम बना डालती है। यह बाजार और सत्ता की जुगलबंदी के विरुद्ध कवि का अपना प्रतिरोध है जिसमें राजा के मंसूबे बिल्कुल नग्न रूप से सामने आ जा रहे हैं। इन छोटी-छोटी कविताओं में व्यंग्य का तीखापन भी है, विचार की गहराई भी और तात्कालिक प्रतिरोध का व्याकरण भी। ये हमारे समय की महत्वपूर्ण कविताएं हैं। – प्रियदर्शन

1.दीदी !
भाषा भी क्या जादुई चीज़ है
एक सूबे की मुख्यमंत्री को
जिस तरह ‘दीदी’ पुकारते हैं
आला हुक्मरान
हम सुनते ही जान जाते हैं :
यह किसी भाई की आवाज़ नहीं
.
2.इरादा अच्छा नहीं होता
इरादा अच्छा नहीं होता
तो इंद्रियों से
चूक हो जाती है
आप कहते हैं
‘किसान’
उन्हें सुनायी पड़ता है
‘खालिस्तान’
.
3.भूल
किसानों का सहारा
दो बैलों की जोड़ी
किसी ज़माने में
कांग्रेस का
चुनाव निशान थी
बाद में उसकी जगह
हाथ आ गया
उसी हाथ पर खिला
कमल का फूल
कैसी विकट भूल !
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4.किसान ख़ुशहाल नहीं होंगे
किसान ख़ुशहाल नहीं होंगे
तो हिन्दुस्तान नहीं होगा
जिन लोगों की ज़मीं नहीं है
प्रिय आसमान नहीं होगा
फ़ासीवादी अगर रह गये
सकल संविधान नहीं होगा
तुम आज के ही हुक्मराँ हो
कल यह सम्मान नहीं होगा
.
5.पवित्र अपवित्र
किसान पवित्र हैं
किसानों के समर्थक
अपवित्र हैं
किसान आंदोलन पवित्र है
आंदोलन की माँगें
अपवित्र हैं
विदेशी व्यापारी पवित्र हैं
विदेशी विचार अपवित्र हैं
और अन्त में
राजा ने कहा :
हम पवित्र हैं
हमारे अनुयायी पवित्र हैं
मगर जो हमसे असहमत हैं
न सिर्फ़ यह कि वे अपवित्र हैं
बल्कि देश के ख़िलाफ़
साज़िश भी कर रहे हैं
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6.और क्या चाहिए
कँटीले तार
कंक्रीट की दीवार
स्टील की लाठियाँ
सड़कों में खाइयाँ
आर सी सी में गहरे
बिछाई गयी कीलें
आँखों के पानी की
सूखी हुई झीलें
राजधानी में अवाम
फ़रियाद लेकर
जा न सके
वहाँ से कोई
उससे मिलने आ न सके
राशन पहुँचा न सके
और क्या चाहिए
मुकम्मल लोकतंत्र है
.
7.एक सितम है
नये कृषि क़ानूनों के ख़िलाफ़
इस आज़ाद मुल्क में किसान
दिल्ली पहुँचने के लिए
जूझ रहे हैं
आँसू गैस, वाटर कैनन, बैरीकेडिंग…
क्या नहीं आज़माया जा रहा
कि वे चुपचाप लौट जाएँ
अपनी माँग न रख पाएँ
जो सबसे ग़रीब
और निहत्था है
सर्वाधिक असह्य है
इस समय
कोरोना वायरस क्या है?
क्या वह आततायी के
रवैये से
अलग कोई चीज़ है?
एक सितम है
जब रोज़ हो रही मौतों की
या ख़ुदकुशी की ख़बर
या मौत ख़ुद चली आती है
उससे कम नहीं है वह
जब कोई दर्द भरी बात
सुनी नहीं जाती है
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8.आतशबाज़ी
लोगों से दिया जलाने को
कहा गया था
मगर उन्होंने बाक़ायदा
आतशबाज़ी की है
अज्ञान का एक समुद्र है
जिसमें झिलमिल
किसी विपत्ति-सा
तिर रहा है
कोरोना का जहाज़
.