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शतरंज के खिलाड़ी: कहानी बनाम सिनेमा
इधर ‘शतरंज के खिलाड़ी’ को दोबारा देखने के मौका निकल आया। और इस बार देखते हुए इस बात का भान हुआ कि कहानी भले प्रेमचंद की रही हो, लेकिन सिनेमा के धरातल पर वह प्रेमचंद से ज्यादा सत्यजित राय की ठहरती है। कहानी को बरतने में सत्यजित राय ने जितनी छूट ली है, उसके कारण प्रेमचंद की कहानी का प्लाॅट भर ही फिल्म में रह गया है। सत्यजित राय ने जिस तबीयत और तसल्ली से इस कहानी को रूपहले पर्दे पर उतारा है, वह इस बात की तस्दीक करता है कि जब एक उस्ताद दूसरे उस्ताद से मिलता है तो कैसे ‘मास्टर पीस’ बनता है। मुझे खुद हैरत है कि इससे पहले इस बात की ओर घ्यान क्यों नहीं गया कि सत्यजित राय ने प्रेमचंद की कहानी में कितने बदलाव किये?
कथा में की गयी तब्दीलियाँ प्रेमचंद और सत्यजित राय दोनों के कद को बढ़ाने वाले साबित हुए। यद्यपि सत्यजित राय ने प्रेमचंद की कहानी सद्गति पर भी फिल्म बनाई है। और उस कहानी को बरतने में उन्होंने नाम मात्र की छूट ली है। लेकिन फिल्म ‘शतरंज के खिलाड़ी’ तो एक स्तर पर प्रेमचंद से ज्यादा सत्यजित राय की रचना जान पड़ती है। ऐसा नहीं कि इस ओर हिन्दी समाज का ध्यान ना गया हो, लेकिन इसका संज्ञान सबसे सही तरीके से कवि कुंवर नारायण ने लिया था। ऐसा वे इसलिए कर सके थे क्योंकि इस फिल्म के निर्माण के क्रम में सत्यजित राय और उनकी मुलाकात हुई थी। और सत्यजित राय ने ‘शतरंज के खिलाड़ी’ को बनाने के क्रम में लखनऊ की नवाबी संस्कृति को केन्द्र में रखने पर जोर दिया था।
कुंवर नारायण सत्यजित राय के नजरिये से सहमत नहीं थे। कुंवर नारायण बताते हैं कि सत्यजित राय पर उन दिनों ‘गुजिश्ता लखनऊ’ किताब का ऐसा असर था कि वे ‘शतरंज के खिलाड़ी’ के बहाने लखनवी नवाबी तहजीब को फिल्माना चाहते थे। और ऐसा सत्यजित राय ने अपनी फिल्म में किया भी है। यह जो नजरिया है, यहीं से ‘शतरंज के खिलाड़ी’ फिल्म के बतौर थोड़ी अलग राह पकड़ती है। प्रेमचंद की कहानी के मूल मर्म को सुरक्षित और संरक्षित रखते हुए सत्यजित राय कहानी की हदों का अतिक्रमण करते हैं। इस कहानी में वे ऐसी गुंजाइशें पैदा करते हैं, जिसे फिल्म और कहानी को साथ-साथ देखे बिना महसूस नहीं किया जा सकता है।
लार्ड डलहौजी की हड़प नीति को ‘एनिमेशन’ और अमिताभ बच्चन के ‘वाॅयस ओवर’ से वह जिस कदर फिल्माते हैं, वह उनके सिनेमाई चेतना और विषय के साथ तादात्म्य को दर्शाने के लिए पर्याप्त है। बल्कि फिल्म की शुरूआत का यह ‘एनिमेशन’ और ‘वाॅयस ओवर’ फिल्म के आखिरी दृश्य में अवध रूपी चेरी के डलहौजी द्वारा गटक लिये जाने के साथ पूरा होता है। इतना नहीं फिल्म के ओपनिंग सीन में मिर्जा और मीर शतरंज की बिसात पर अपनी फौजों को लड़ाते दिखते हैं। और फिल्म के अंत में नवाब की असल फौज लड़े बगैर हथियार डाल देती है। मिर्जा सज्जाद अली और मीर रौशन अली लड़ नहीं रहे हैं, खेल रहे हैं। वे असली नहीं अक्ल के घोड़े दौड़ाना पसंद करते हैं। उसी शुरूआत में यह बात भी कमेंट्री के बतौर आती है कि मीर साहब बादशाह बचाइये, बादशाह गया तो खेल खत्म। फिल्म के आखिरी दृश्य को देखें तो यह साफ हो जाता है कि इस फिल्म की कितनी साफ परिकल्पना सत्यजित राय के मन मस्तिष्क में रही होगी।
फिल्म के ओपनिंग सीन में मिर्जा और मीर शतरंज की बिसात पर अपनी फौजों को लड़ाते दिखते हैं। और फिल्म के अंत में नवाब की असल फौज लड़े बगैर हथियार डाल देती है। मिर्जा सज्जाद अली और मीर रौशन अली लड़ नहीं रहे हैं, खेल रहे हैं। वे असली नहीं अक्ल के घोड़े दौड़ाना पसंद करते हैं। उसी शुरूआत में यह बात भी कमेंट्री के बतौर आती है कि मीर साहब बादशाह बचाइये, बादशाह गया तो खेल खत्म। फिल्म के आखिरी दृश्य को देखें तो यह साफ हो जाता है कि इस फिल्म की कितनी साफ परिकल्पना सत्यजित राय के मन मस्तिष्क में रही होगी।
फिल्म इस बात को रेखांकित करती है कि नवाब वाजिद अली शाह ही रंगीले नहीं थे बल्कि उनकी रियाया भी उतनी ही शौकीन थी। यथा प्रजा तथा राजा और यथा राजा तथा प्रजा की बात को सत्यजित राय चरितार्थ करते हैं, इस नोट के साथ कि नवाब को राज-काज के अलावा हर तरह का शौक है।मौके के अनुरूप कपड़े पहनने का शौक है, कभी-कभार दरबार सजाने का शौक है। दोस्ती निभाने के लिए खजाने खोल देने का शौक है। कविता करने का शौक है। उनके इन शौकों को देखकर जनरल अपने सार्जेण्ट से पूछता है कि नवाब कवितायें अच्छी लिखता है या फिर बादशाह है इसलिए रियाया उसकी तारीफ करती है?
नवाब की दिनचर्या जानकर औट्रम साफ-साफ यह कहता है कि उसके शौकों को देखकर लगता नहीं है कि वह शासन कर सकता है, ऐसे शासन किया ही नहीं जा सकता है। इसलिए औट्रम अवध की बादशाहत से नवाब को अपदस्थ करना चाहता है। औट्रम की मंशा जानने के बाद नवाब अपने दरबारियों से जो बातें करता है, वह भी कम दिलचस्प नहीं है। वाजिद अली शाह फरमाते हैं कि ‘एक बादशाह बादशाहत ना करे तो क्या करे आखिर? अगर हम बादशाहत के लायक नहीं थे, तो हमारी रियाया को यह बात आकर हमसे कहनी चाहिए थी। हम उसी वक्त यह तख्त और ताज छोड़ देते। लेकिन उन्होंने कभी हमसे यह नहीं कहा क्यों? क्योंकि हमने कभी उनसे अपनी असलियत नहीं छिपाई।
और अगर हमारी रियाया हमसे नाखुश है तो उसे अवध छोड़ कर अंग्रेजों के वहाँ जाकर शरण लेना चाहिए था। नवाब की गद्दी जानी जब लगभग तयशुदा है तो नवाब की माँ बेगम के सामने अंग्रेजों इस पेशकश के साथ जाते हैं कि ‘हमारी गर्वनमेंट जो कदम उठा रही है, उसका शानदार मुआवजा भी आपको दे रही है। बेगम का जवाब है कि ‘हमें मुआवजा नहीं चाहिए। इंसाफ चाहिए।’ अचानक इस वाक्य को सुनकर इस समय चल रहे किसान आन्दोलन की याद आ जाती है। मतलब आज के वक्त में ‘शतरंज के खिलाड़ी’ देखते हुए लगता ही नहीं है कि यह किसी पुराने दौर की बात है। यह सिलसिला यहीं नहीं थमता जेनरल, नवाब के बाद रियाया के हिस्से भी जो बातें हैं। वह भी आज के संदर्भ में कम प्रासंगिक नहीं है।
मिर्जा से मीर पूछते हैं कि ‘अमां मिर्जा साहब लोग अफवाहें क्यों फैलाते हैं?’ मिर्जा का जवाब है ‘हर सवाल का जवाब मौजूद है ढूंढनेवाला चाहिए।’ मीर को जब अपने घर का होश नहीं है तो शहर का क्या होश रहेगा? गौर से देखने पर सत्यजित राय एक पोलिटिकल क्रिटीक रचते नजर आते हैं, जो आज अपने वक्त से ज्यादा अर्थपूर्ण और प्रासंगिक जान पड़ता है। हमारे वक्त में नवाब, बेगम, मिर्जा, जेनरल सब बदले हुए रूप में फिर से जिंदा होते जान पड़ते हैं। इस काम को सत्यजित राय ने मूल पाठ से रचनात्मक छूट लेकर साकार किया है। फिल्म एप्रीशिएशन की निगाह से इस फिल्म को देखें तो यह फिल्म कई मोर्चों पर बेनजीर जान पड़ती है। पटकथा और संवाद के धरातल पर तो यह किसी संदर्भ की तरह है। कैसे एक-एक दृश्यों को जतन से बुना गया है कि प्रेमचंद की मूल कथा का मर्म भी अक्षुण्ण रहे और अपनी ध्वन्यात्मकता में यह युगों की सीमा को भी लांघ जाये।
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फिल्म के अंत में जब यह वाक्य आता है कि ‘वजीर साहब आप हट जाइये मल्लिका विक्टोरिया तशरीफ ला रही है।’ तो फिल्म के बीच में आया वह दृश्य फिर से साकार हो जाता है जिसमें शतरंज खेलने के अंग्रेजी तरीके पर बात हो रही है और मीर और मिर्जा अंग्रेजी तरीके से खेले जाने वाले शतरंज का मजाक बना रहे हैं। जबकि वे खुद शतरंज की बिसात पर मामूली मोहरों से भी गये गुजरे हालात में पहुँच चुके हैं। इसलिए सत्यजित राय फिल्म के अंत में प्रेमचंद की कहानी में प्रस्तावित अंत का अनुकरण नहीं करते हैं। वे मीर और मिर्जा को जिंदा रख कर एक बड़ा संदेश देते हैं। और वह यह कि ऐसी रियाया खुद के लिए भी मरना-मारना नहीं कर सकती है। इनके लिए जिंदा रहना ही सबसे बड़ी नेमत है।
यह अकारण नहीं है कि मिर्जा अंत में यह बात कहते हैं कि ‘मुँह छिपाने के लिए अँधेरा जरूरी है, मीर साहब।’ कहना इतना भर है कि प्रेमचंद 1924 में 1856 की कहानी लिख रहे थे। सत्यजित राय 1977 में उस पर फिल्म बनाते हैं। 120 साल पहले के हालात पर बनी एक फिल्म अपने बनने के 144 साल बाद भी प्रासंगिक हो उठती है, तो उसे फिर से देखना तो बनता है। देखिये शायद उसमें हमारे वक्त का अक्स नजर आये। नजर आये कोई नवाब वाजिद अली शाह जिसे अब तक हम तुगलक समझते आये थे।