नई वाली हिन्दी के कारनामे
रवीन्द्र कालिया के दौर में युवा पीढ़ी का एक शोर मचा था। फिर एक युवा पीढ़ी भी सामने आई थी। अब दुबारा एक वैसा ही शोर ‘नई वाली हिन्दी’ के नाम पर साहित्यिक हलकों में फिर से है। विशेषकर सोशल मीडिया में इस ‘नई वाली हिन्दी’ की धूम है। कायदन इस ‘नई वाली हिन्दी’ से आशय क्या है? इससे आशय ‘फिक्शन’ के उस ‘जॉनर’ से है जो हिन्दी में चेतन भगत मार्का साहित्य का पर्याय हो गया है। चेतन भगत ने अपनी किताबों के जरिये जो व्यवसायिक सफलता हासिल की है, ‘नई वाली हिन्दी’ उसी रास्ते हिन्दी में चलने की कोशिश कर रही है। इसलिए चेतन मार्का अंग्रेजी की जो खासियत थी, उसे तो यह धारण किये हुए है ही कई और बातों इसने अपने ढंग से जोड़ा भी है। मसलन् इस देश में हिन्दी जितने ढंग से बोली जाती है, अंग्रेजी नहीं। हिन्दी की उन स्थानीय छौंकों के साथ यथाप्रसंग अंग्रेजी को पिरोते चलना इस नई वाली हिन्दी की एक अदा है, जो इसे पाठकीय संप्रेषण के धरातल पर एक ताजगी प्रदान करती है। भाषागत शुचिता और शुद्धतावादी आग्रहों से मुक्त यह हिन्दी संप्रेषण के स्तर पर मजा को बुनने में यकीन रखती है। एक स्तर पर यह आज की युवा पीढ़ी के भाषा बोध के निकट पड़ती है। भाषा के जिस फ्यूशन को हम ‘हिंग्लिश’ या ‘इंदी’ कहते हैं, ‘नई वाली हिन्दी’ में यह तो शामिल है ही, जो इसमें नया है, वह है स्थानीय प्रभावों के कारण हिन्दी में आई तब्दीलियाँ, जो अमूमन बोलचाल तक सीमित थी। ‘नई वाली हिन्दी’ उसे बोलबाजी को साहित्य के पन्नों तक खींच लाई है।
‘नई वाली हिन्दी’ ने जो एक और काम किया है और वह यह कि मुख्यधारा के हिन्दी साहित्य में कैशोर्य और युवापने के संक्रमण काल को लेकर अलग से कोई साहित्य मौजूद नहीं था। था भी तो उसका पता साहित्य के गंभीर अध्येताओं को था। उस तक तुक्के से पहुँचना गैर साहित्यिक पृष्ठभूमि वाले के लिए सहज नहीं था। इसने उस आयुवर्ग के लिए एक ‘जॉनर’ ही खड़ा कर दिया है। इससे हुआ यह है कि गैर साहित्यिक पृष्ठभूमि वाला एक बड़ा वर्ग जो इन चीजों का आनंद लेना चाहता था, उसके लिए बकायदा एक प्रोडक्ट बाजार में है, जिसे आप ‘नई वाली हिन्दी’ के नाम पर देख-पढ़ सकते हैं। इसमें आपको मैनेजमेंट, आई टी, देश के अलग-अलग अकादमिक संस्थानों में उनके हॉस्टल्स में रहने-पढ़ने के अनुभव देखने को मिल सकते हैं। करियर और मोहब्बत के संघर्ष की झांकियाँ देखने को मिल सकती है। इंजिनियरिंग, मेडिकल, आई टी, मैनेजमेंट, सिविल सर्विस की तैयारी के किस्से मिल सकते हैं। इस तरह से देखें तो मुख्यधारा के साहित्य ने जो जगह छोड़ रखी थी, ‘नई वाली हिन्दी’ ने उसे भरने का काम किया है। उससे बढ़ कर बात यह कि इसने अपना एक नया पाठक वर्ग भी खड़ा किया है और इस पाठक वर्ग को खड़ा करने में सोशल मीडिया की अहम भूमिका रही है।
‘नई वाली हिन्दी’ ने सोशल मीडिया को अपने पक्ष में कैसे इस्तेमाल किया जाये, इसका बकायदा एक शास्त्र प्रस्तावित कर दिया है। विज्ञापन, विपनन, विक्रय के पुराने और पारंपरिक तरीकों से इतर इस ‘जॉनर’ की लगभग हर नई किताब अपने साथ नई किस्म की बिकाऊ हथकंडों के साथ बाजार में आ रही है। किताबों के प्रोमोशन का मामला तो तकरीबन फिल्मों के प्रोमोशन सरीखा हो गया है। किताबों की टीजर रीलिज हो रही है, किताबों के कवर रीलिज हो रहे हैं, किताबों की प्री-बुकिंग तो अब पुरानी बात हो गई है। अब प्री-बुक किताबों पर लेखकों की हस्ताक्षरित प्रतियाँ भिजवाये जाने का चलन है। किताबों के साथ आपके लेखक बनने की संभावनायें बेची जा रही हैं। किताब के आखिर में उपलब्ध फार्म के साथ आप अपनी पांडुलिपि हिन्द युग्म सरीखे प्रकाशकों को भेज सकते हैं। ‘नई वाली हिन्दी’ दिन-रात मार्केटिंग, डिस्ट्रीब्यूशन, एडवर्टाइजिंग के नये तरीके ढूंढने में भी मुब्तिला है। सबसे बड़ी बात इसके लिए ना तो उन्हें किसी आलोचक जैसी संस्था की जरूरत रह गई है और ना उनके लिए इनकी कोई अहमियत रह गई है। इनकी असली ताकत बिक्री के आँकड़े हैं, जो पाठकों पर निर्भर है। और पाठकों तक पहुँचने के इन्होंने नये तौर-तरीके ढूंढ लिए हैं।
साहित्य की मुख्यधारा की किताब का सफर किसी आलोचक के हाथों लोकार्पित होने से शुरू होता था, साहित्यिक पत्रिकाओं में प्रकाशित समीक्षाओं और अकादमिक या लेखक संगठनों द्वारा प्रायोजित संगोष्ठियों के रास्ते वह आगे का सफर तय करती थी। ‘नई वाली हिन्दी’ इन पुराने तौर तरीकों का लोड नहीं लेती है। उसकी कोशिश खुद पाठकों तक उपलब्ध माध्यमों से पहुँचने की हो गई है। लेखक अब खुद सेल्समैन की भूमिका में है। फेसबुक, ट्विटर, व्हाट्स अप के जरिये वह आपके दरवाजे की कॉल बेल बजा रहा है। वह खुद आपको उस पर दो पंक्तियाँ लिख देने का आग्रह कर रहा है। आपकी दो पंक्तियाँ उसे अमेजॉन के ‘बेस्ट रीड्स’ में शामिल करा रही हैं। सांप्रदायिक पत्रकारिता में रोज नये परचम लहराने वाले एक दैनिक अखबार ने तो बकायदा बेस्ट सेलर का एक नया खेल शुरू कर दिया है। मजे की बात यह है कि यह जो बेस्ट सेलर हैं ना ता इसके प्रकाशक यह बताते हैं कि इसकी कितनी प्रतियाँ बिकी हैं, जिसके कारण यह बेस्ट सेलर हुआ है, ना उसके लेखक के पास इस आधार पर रॉयल्टी का कोई दावा मौजूद है। यह मंच के इस्तेमाल के जरिये एक दूसरे को फायदा और वैधता देने की एक अजब सी रीत चल पड़ी है। इस खेल में प्रकाशक और संपादक फायदे में है, नुकसान अगर हो रहा है तो केवल पाठकों का हो रहा है। संगोष्ठियों की जगह अब लिटफेस्ट ने ले ली है। बाजारू हथकंडों की कड़ी में ‘लिटफेस्ट’ एक नये किस्म का चलन है, यह एक नये किस्म की गिरोहबंदी है। साहित्य में यह नये किस्म का प्रपंच है। इस प्रपंच ने फिलहाल तो साहित्यिक बिरादरी में भूचाल ला दिया है। जयपुर लिटरेचर फेस्टिवल जैसे कुछ नामी-गिरामी आयोजनों को छोड़ दें तो छोटे शहरों में देखा-देखी उग आये इन उत्सवों की हालत अच्छी नहीं रही।
‘नई वाली हिन्दी’ अपने साथ नये किस्म के साहित्यिक संस्कार लेकर आई है। अव्वल तो इसका लक्ष्य पाठकों को मजा देना है। ‘वन टाईम रीड’ वाला मामला है। इसलिए किताबों की कीमत से लेकर उसकी पृष्ठ संख्या तक का खास खयाल रखा जा रहा है। हिन्दी के बाजार की एक अच्छी समझ के साथ यह मैदान में है। व्यवसायिक सफलता के नये झंडे गाड़ने में निश्चय ही यह समर्थ है। लेकिन साहित्यिक मूल्यों के धरातल पर भी वह ऐसा ही कुछ रच पायेगी, इसका दूर-दूर तक अनुमान नहीं है। सालजयी इन रचनाओं ने इतना जरूर किया है कि ‘वर्दी वाला गुण्डा’ सरीखे उपन्यासों से ऊपर और ‘गुनाहों का देवता’ के बीच भी अगर कोई जगह हो सकती है, तो उस जगह को अपने लिए आरक्षित करने का काम किया है। कुल मिलाकर कहें तो ‘नई वाली हिन्दी’ अपने नये प्रतिमानों, संस्कारों के साथ आई है, जिसमें बहुत कुछ ऐसा है जो साहित्यिक नहीं है। लेकिन इनके बाजारू हथकंडो को अब हिन्दी के मुख्यधारा के प्रकाशक भी कहीं छिपे तो कहीं खुले तौर पर आजमाते दिख रहे हैं। आनेवाले समय में यह कुछ दिलचस्प मंजर सामने लेकर आयेगी। फिलहाल तो देखना यह है कि यह सिलसिला जाकर थमता कहाँ है!
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