- राजकुमार कुम्भज
इस चुनावी-वर्ष के दौरान केंद्र की नरेंद्र मोदी सरकार सांसद –निधि ख़र्च करने में तेज़ी लाना चाहती है, ताकि संसदीय क्षेत्र के विकास-कार्य ज़मीन पर दिखाई दें. इस संदर्भ में केंद्र-सरकार सभी राज्यों में पूरा ज़ोर लगा रही है. लोकसभा और राज्यसभा के सभी सांसदों को अभी अपने संपूर्ण कार्यकाल में ख़र्च करने के लिए 21,125 करोड़ रुपये बतौर सांसद-निधि आबंटित किये जाते है. ताज़ा आंकड़ों के मुताबिक इस बार आम लोगों के विकास पर ख़र्च होने वाली सांसद-निधि के तक़रीबन बारह हज़ार करोड़ रुपये ख़र्च ही नहीं हुए हैं. दोनों सदनों के माननीय सांसद तक़रीबन पाँच हज़ार करोड़ रूपए जब ख़र्च ही नहीं कर पाए, तो अगली किस्त के सात हज़ार करोड़ भी रुक गए. प्रति सांसद, प्रति वर्ष पाँच करोड़ की सांसद-निधि का अधिकार होता है, किंतु सांसद निधि को ज़िला स्तर का कोई जूनियर आई.ए.एस अधिकारी नियंत्रित करता है, लेकिन पारदर्शिता और जवाबदारी का अभाव बना हुआ है.
सब जानते हैं कि सांसद-निधि ने इस देश की राजनीति और प्रशासन को जितना प्रदूषित किया है, उतना शायद ही किसी अन्य ने किया होगा. सांसद निधि की उपयोगिता को लेकर चाहे जैसे दावे किये जाएँ, लेकिन सच्चाई यही है कि इसने राजनीति और प्रशासन की साख पर बट्टा लगाने का ही काम किया है.
सांसद-निधि ख़र्च करने के संबंध में एक व्यवस्था यह दी गई है कि सांसद का कार्यकाल ख़त्म होने के बाद अठारह माह के भीतर विकास – कार्य पूरा करना होता है, लेकिन माननीय सांसदों की ग़ैर-ज़िम्मेदारी का आलम ये है कि चौदहवीं और पंद्रहवीं लोकसभा और राज्यसभा के कुल 1156 सांसदों की सांसद-निधि का ख़र्च – खाता अभी तक बंद नहीं हुआ है. हैरानी होती है कि अपना कार्यकाल समाप्त हो जाने के बाद भी, इन सांसदों ने, सांसद-निधि से होने वाले विकास कार्यों से संबंधित ज़रूरी कागज़ात तक जमा करने की ज़िम्मेदारी नहीं निभाई है. कहा जा रहा है कि सांसद निधि के संदर्भ में अब पारदर्शिता और जबाबदेही तय करने के लिए ठोस क़ानूनी ढांचा विकसित किया जाएगा. इसके लिए केंद्रीय सूचना आयोग की ओर से लोकसभा अध्यक्ष तथा राज्यसभा सभापित से विस्तृत विचार विमर्श किया जा रहा है.
केंद्रीय सूचना आयोग अपनी सिफ़ारिश में चाहता है कि विशेष कर्तव्य व अनिवार्य पारदर्शिता दायित्व, कर्तव्य के उल्लघन की परिभाषा, नियम और नियम न बताने के अतिरिक्त कोष से संबंधित कर्तव्यों के पालन में लापरवाही तथा उन नियमों व नियमनों का उल्लंघन करने के लिए जवाबदेही तय की जाए. आयोग यह भी चाहता है कि क़ानूनी ढाँचे में शामिल क़दमों के तहत सृजित संपत्तियों का पता नहीं चलने, सांसदों के निजी कार्यों के लिए कोष का इस्तेमाल, कार्य के लिए अयोग्य एजेंसियों की सिफ़ारिश, निजी ट्रस्ट को धन का डायवर्शन और सांसदनिधि के अंतर्गत सांसदों अथवा उनके रिश्तेदारों को लाभ पहुँचाने वाले कार्यों की सिफ़ारिश पर रोक लगाने जैसे मुद्दे शामिल किए जाएँ. एक प्रावधान यह भी शामिल किया जा सकता हैकि अपना कार्यकाल समाप्त होने पर प्रत्येक सांसद कानूनीतौर पर सांसद निधि के तहत किए गए कार्यों की व्यापक समीक्षा रिपोर्ट लोकसभा अध्यक्ष अथवा राज्यसभा सभापति को सौंपे, ताकि इस तरह का विवरण माँगने पर जनता को, जनता की जानकारी दी जा सके. सांसद निधि भी आख़िर जन-धन ही तो है.
इस दौरान आर ही ये ख़बर थोड़ा आश्वस्त करती है कि सांसद निधि से होने वाले विकास कार्यों की निगरानी के लिए सरकार जियोग्राफिकल इन्फार्मेशन तकनीक अपनाने जा रही है और सांसद निधि के लिए ज़िम्मेदार प्रशासनिक अधिकारीयों को प्रशिक्षित करने का काम भी शुरू कर रही है, इस सबसे ऐसा प्रतीत होता है कि सांसदनिधि क्रियान्वयन से जुड़ी तमाम दिक्कतों को जल्द ही दूर कर लिया जाएगा, लेकिन उस सदाबहार रिश्वतखोरी और कमीशनखोरी का क्या होगा, जो स्वतंत्रता – प्राप्ति के बाद से गहरी जड़ें जमा चुकी हैं? फिर उस राजनीतिक-पारिवारिकता को कैसे रोकेंगे, जिसमें सांसद निधि के अंतर्गत आने वाले विकास कार्य करने वाला ठेकेदार, प्राय: एक सक्षम कार्यकर्ता भी होता है? तब यह कैसे कहा जा सकता है कि सांसद निधि, प्रशासन और राजनीति दोनों को एक साथ प्रदूषित नहीं करती है? कौन नहीं जानता है कि सांसद निधि में से सांसद और प्राशासनिक अधिकारी का हिस्सा स्वतः ही घर पहुँचा दिया जाता है? याद रखा जा सकता है कि सी.ए.जी. और अदालतों ने समय – समय पर सांसदनिधि को लेकर प्रतिकूल टिप्पणियाँ क्यों की हैं?
वर्ष 1993 में जब प्रथमतःसांसद निधि का प्रावधान लागू किया गया था,तब उसी वर्ष वकील राम जेठमलानी ने तत्कालीन प्रधानमंत्री पी.वी. नरसिम्हाराव पर यह आरोप लगाया था कि उन्होंने शेयर दलाल हर्षद मेहता से एक करोड़ रुपये लिए हैं. तभी चमत्कार हुआ कि सांसद निधि प्रावधान का काम त्वरित गति से होने लगा और 2 दिसम्बर 1993 को संयुक्त संसदीय समिति की अंतरिम रिपोर्ट स्वीकार कर ली गई. एक करोड़ रुपये की सांसद निधि प्रावधान का यह पहला स्वीकार था. माकपा के सांसद निर्मलकांत मुख़र्जी ने इसका विरोध करते हुए तब कहा था कि हमने तो ऐसी कोई माँग ही नहीं की थी. तत्कालीन वित्तमंत्री मनमोहन सिंह तब विदेशी दौर पर थे, किंतु इस सबके ख़िलाफ़ थे, लेकिन यह बात दीगर कैसे हो सकती है कि जब मनमोहन सिंह खुद प्रधानमंत्री बने तो उन्होंने वर्ष 2011 में सांसदनिधि पाँच करोड़ रुपये कर दी. इससे पहले तत्कालीन प्रधानमंत्री अटलबिहारी बाजपयी इसी निधि को समाप्त करने की सोच रहे थे, चूंकि वीरप्पा मोइली के नेतृतव वाली प्रशासनिक सुधार समिति इसे समाप्त करने की सिफारिश कर चुकी थी, लेकिन अटलजी न सिर्फ़ पीछे हट गए, बल्कि उन्होंने सांसदनिधि की राशि एक करोड़ से बढ़ाकर दो करोड़ रुपये सालाना कर दी. पूछा जाना चाहिए कि करोड़ों की सांसद निधि आख़िर कहाँ चली जाती है?
जिस सांसद निधि को पी.वी. नरसिम्हाराव ने एक करोड़, अटलबिहारी वाजपेयी ने दो करोड़ और डॉ. मनमोहनसिंह ने पाँच करोड़ किया, उसी सांसद निधि के लिए कई सांसद मांग कर रहे हैं कि अब यह राशि पचास करोड़ रुपये कर दी जाना चाहिए, ताकि सांसद आदर्श-ग्राम योजना का क्रियान्वयन किंचित सुविधाजनक हो सके. गनीमत है कि मोदी सरकार ने इस मांग को अभी तक तो स्वीकार नहीं किया है, लेकिन संशय होता है कि वह थर्ड पार्टी ऑडिट की अपनी घोषणा भी तो क्यों लागू नहीं कर पा रही है ? अन्यथा नहीं है कि घोटालों के लिए कुख्यात हो चुकी सांसद निधि ने राजनीति और लोकतंत्र के विश्वास को दागदार ही अधिक किया है, जिसे नियंत्रित करना अब किसी के लिए भी संभव नहीं रह गया है. ज़ाहिर है कि थर्ड पार्टी सोशन ऑडिट के नतीज़े न सिर्फ़ सांसद निधि मसले पर चौंकाएँगे, बल्कि शर्मनाक भी हो सकते हैं. दो मत नहीं कि अपवाद मिल सकते हैं.
सांसदनिधि का नियंत्रण तथा संचालन आमतौर पर ज़िला स्तर का कोई नवनियुक्त प्रशासनिक अधिकारी करता है. उक्त नवनियुक्त आई.ए.एस. को तो कमीशन आदि के बारे में कुछ पता नहीं होता है, किंतु अगर अपवाद छोड़ दें तो उसके समूचे दफ्तर का कमीशन तय रहता है. अर्थात् अपने सेवाकाल के प्रारंभिक वर्षों में ही उसे घूसखोरी का ‘महाज्ञान’ दे दिया जाता है. कभी-कभी तो खुद सांसद भी भिन्न-भिन्न कारणों से अफ़सर को मज़बूर करते हैं. इस तरह यह सांसद निधि आई.ए.एस के लिए भ्रष्टाचार की प्रथम पाठशाला बन जाता है. अफसर के दफ्तर द्वारा तीस फीसदी तक का कमीशन लिए जाने की बात सामने आई है.
ज़्यादातर मामलों में यही बात उजागर हुई है कि हमारे सांसद इस सांसद-निधि का इस्तेमाल कुछ ऐसे कामों में कर लेते हैं, जो कि इस निधि के अंतर्गत नहीं कराए जा सकते हैं और मनमानी करते हुए हिसाब तक नहीं देते हैं. ये बातें घपलों की आशंका को जन्म देती हैं. सवाल उठाने का कारण यही है कि सांसद निधि के इस्तेमाल में पारदर्शिता और जवाबदेही का अभाव बना हुआ है. इसीलिए हर कोई ज़िम्मेदारी से बच निकलता है. ऐसे में सवाल यही है कि सांसद-निधि के इस्तेमाल में पारदर्शिता और ज़िम्मेदारी क्यों नहीं तय होना चाहिए? क्या सांसद निधि जन-धन नहीं है?
लेखक प्रसिद्द साहित्यकार हैं|
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