पॉक्सो की व्याख्या बनाम न्याय-प्रक्रिया पर प्रश्नचिह्न
बॉम्बे उच्च न्यायालय की नागपुर पीठ द्वारा पिछले दिनों 2016 में दर्ज एक मामले में दिए गए निर्णय ने न सिर्फ सम्बन्धित न्यायाधीश की न्यायिक समझ; बल्कि पूरी की पूरी न्याय-प्रक्रिया पर ही गंभीर सवाल खड़े कर दिए हैं। अपने इस अत्यंत विवादस्पद और असंवेदनशील निर्णय में नागपुर एकल पीठ की न्यायमूर्ति पुष्पा गनेडीवाला ने पॉक्सो एक्ट को ‘पुनर्परिभाषित’ करते हुए उसकी बहुत सीमित और प्रतिगामी व्याख्या की है। उन्होंने 12 वर्षीय एक बच्ची पर हुए यौन हमले के लिए नागपुर सत्र न्यायालय द्वारा पॉक्सो एक्ट के तहत दोषी ठहराए गए 39 वर्षीय व्यक्ति सतीश बंधु रगड़े को इस अपराध-मुक्त करते हुए उसे भारतीय दंड संहिता की धारा 354 (किसी महिला के जबरन शीलभंग) के अंतर्गत दोषी ठहराया है।
उन्होंने पॉक्सो एक्ट लागू करने के लिए यौन मंशा के साथ “त्वचा से त्वचा के संपर्क” की अनिवार्यता को अपने इस निर्णय का आधार बनाया है। उनके अनुसार चूँकि घटना के समय बच्ची ने टॉप पहना हुआ था, इसलिए आरोपित द्वारा उसके वक्षस्थल को दबाने के बावजूद पॉक्सो एक्ट नहीं लगाया जा सकता, क्योंकि आरोपित ने बच्ची का शारीरिक स्पर्श नहीं किया था। यह निर्णय पॉक्सो एक्ट की सीमित समझ और इस कानून में अन्तर्निहित भावना की घोर उपेक्षा का परिणाम है। पॉक्सो एक्ट की यह परिभाषा इस अर्थ में विशेष रूप से ख़तरनाक और परेशान करने वाली है कि बच्चों पर होने वाले यौन हमलों से सम्बन्धित मामलों में निचली अदालतों के लिए भविष्य में एक उदाहरण बन सकती है।
यह परिभाषा इसलिए भी बेचैन करती है क्योंकि यह उत्पीड़ित के संरक्षण की जगह उत्पीड़क को संरक्षण प्रदान करती है। उल्लेखनीय है कि उपरोक्त अपराध के लिए पॉक्सो एक्ट के अनुभाग 8 के तहत 3 साल कारावास की सजा दी गयी थी, जबकि भा द सं की धारा 354 के अंतर्गत मात्र एक वर्ष के कारावास की ही सजा दी गयी है। गौरतलब यह भी है की नागपुर सत्र न्यायालय द्वारा भी जाने-अनजाने एक महत्वपूर्ण तथ्य की अनदेखी की गयी। घटना के समय पीड़िता बच्ची की आयु 12 वर्ष से कम थी।
इसलिए आरोपित को पॉक्सो एक्ट के अनुभाग 9 के अंतर्गत दोषी ठहराया जाना चाहिए था। अनुभाग 9 के अंतर्गत दोषसिद्धि होने पर न्यूनतम 5 वर्ष के कारावास का प्रावधान है। ये निर्णय न्याय-व्यवस्था और न्यायिक-प्रक्रिया की सीमाओं को भी उजागर करते हैं। इसलिए बार-बार न्याय-व्यवस्था के सुधार और न्यायिक-प्रक्रिया को अधिक संवेदनशील, समयबद्ध और जवाबदेह बनाये जाने की माँग उठती रहती है।
इस मामले का स्वतः संज्ञान लेते हुए केंद्र सरकार ने अटॉर्नी जनरल के के वेणुगोपाल के माध्यम से तुरंत हस्तक्षेप किया और उच्चतम न्यायालय में अपील दायर करते हुए इस प्रतिगामी निर्णय पर रोक लगाकर इसकी समीक्षा की माँग की। भारत के प्रधान न्यायाधीश न्यायमूर्ति एस ए बोबडे की अध्यक्षता वाली उच्चतम न्यायालय की पीठ ने इस निर्णय पर रोक लगा दी है। माननीय उच्चतम न्यायालय ने न सिर्फ इस निर्णय के खिलाफ याचिका दायर करने की अनुमति दी है बल्कि महाराष्ट्र सरकार और आरोपित को दो सप्ताह बाद होने वाली अगली सुनवाई के लिए नोटिस भी जारी कर दिया है। केंद्र सरकार और माननीय उच्चतम न्यायालय द्वारा इस मामले का संज्ञान लिया जाना स्वागत योग्य है।
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इस असावधानीपूर्वक दिये गये अपरिपक्व निर्णय से गलत नज़ीर कायम होने की आशंका पैदा हो गयी थी। इसलिए इस गलती को ठीक किया जाना बेहद जरूरी है। राष्ट्रीय बाल अधिकार संरक्षण आयोग ने भी बाल विरोधी इस निर्णय के खिलाफ उच्चतर पीठ में पुनर्विचार याचिका दायर करने के लिए महाराष्ट्र सरकार को निर्देशित किया है। राष्ट्रीय महिला आयोग भी इस निर्णय के खिलाफ मुखर है।
तमाम बाल अधिकार संरक्षण और महिला अधिकार संगठनों के लम्बे संघर्ष और प्रयासों के परिणामस्वरूप सन् 2012 में प्रोटेक्शन ऑफ़ चिल्ड्रेन फ्रॉम सेक्सुअल ऑफेन्स (पॉक्सो) एक्ट लागू किया गया था। यह कानून 18 वर्ष से कम आयु के मासूमों को यौन उत्पीड़न से बचाने हेतु बनाया गया था। इस कानून में बालक-बालिका दोनों को ही संरक्षण देने का प्रावधान किया गया है। साथ ही, बच्चों की मासूमियत और असुरक्षा के मद्देनज़र उनके यौन उत्पीड़न के दोषी व्यक्तियों के लिए सामान्य से अधिक सख्त सजा का प्रावधान किया गया है।
पॉक्सो एक्ट के अनुभाग 7 के तहत “ जब कोई व्यक्ति यौन मंशा के साथ बच्ची/बच्चे के गुप्तांगों या वक्ष को छूता है या बच्ची/बच्चे से अपने या किसी अन्य व्यक्ति के गुप्तांगों को स्पर्श कराता है या यौन मंशा के साथ कोई अन्य कृत्य करता/कराता है, जिसमें सम्भोग किये बगैर यौन मंशा से शारीरिक संपर्क शामिल हो, उसे यौन हमला/उत्पीड़न” कहा जाता है। न्यायाधीश महोदया ने इसी अनुभाग की व्याख्या करते हुए शारीरिक संपर्क के लिए “त्वचा से त्वचा के संपर्क” की अनिवार्यता पर बल दिया है। इस समस्यापूर्ण व्याख्या के अनुसार तो दस्ताने, अंडरवीयर या कंडोम पहनकर किये जाने वाला यौन उत्पीड़न भी पॉक्सो एक्ट के अंतर्गत नहीं आएगा।
सन् 2018 में संशोधित इस कानून में 12 वर्ष से कम आयु के बच्चों के साथ दुष्कर्म/बलात्कार के दोषी व्यक्ति के लिए मृत्युदंड का प्रावधान जोड़ा गया है। हालाँकि, मृत्युदंड के इस प्रावधान के बारे में बाल संरक्षण और महिला अधिकारों के लिए कार्यरत विभिन्न सामाजिक कार्यकर्ताओं और संगठनों में सहमति नहीं है। इससे असहमत लोगों का मत यह है कि इस प्रावधान से यौन अपराधियों द्वारा बच्चों की हत्या की सम्भावना बढ़ जाएगी। सजा को बहुत अधिक सख्त करने की जगह जाँच प्रक्रिया और न्याय-व्यवस्था को दुरुस्त करने की कहीं अधिक आवश्यकता है। इन दोनों की खामी की वजह से ही न सिर्फ न्याय मिलने में देरी होती है, बल्कि दोषसिद्धि की दर भी निराशाजनक रूप से अत्यंत कम है।
यह कानून नाबालिग बच्चों को यौन उत्पीड़न/हमले, पोर्नोग्राफी आदि से संरक्षण प्रदान करने के लिए अस्तित्व में आया था। निश्चय ही, कोई भी कानून अपराधों की रोकथाम और समस्या के समाधान का एकमात्र तरीका नहीं है, बल्कि एक तरीका मात्र है। अपराध के लिए समुचित और समयबद्ध दंड का प्रावधान न्यायप्रिय और लोकतान्त्रिक समाजों का आधारभूत लक्षण है। जब अपराधी को दंड नहीं मिलता और उत्पीड़ित को समुचित और समयबद्ध न्याय नहीं मिलता तो सामाजिक ढांचा जर्जर होने लगता है। समाज में जंगलराज कायम हो जाता है और अराजकता और अंधेरगर्दी बढ़ती चली जाती है। इसलिए कहा जाता है कि न्याय मिलने में देरी न्याय न मिलने के समान है।
इसमें यह जोड़ने की भी आवश्यकता है कि अपराध के अनुपात में दंड न मिलना भी न्याय न मिलने जैसा ही है। कानून बनाना मात्र समस्या का समाधान नहीं है, कानून का उसकी भावना के अनुरूप समयबद्ध क्रियान्वयन भी उतना ही आवश्यक है। ऐसा न होने से न्याय-व्यवस्था जैसी संस्थाओं के प्रति सामाजिक विश्वास की नींव हिलने लगती है।
भारत में न्याय की प्रतीक्षा कभी न खत्म होने वाली प्रतीक्षा है। अपराधी से ज्यादा शारीरिक-मानसिक उत्पीड़न और आर्थिक शोषण उत्पीड़ित का होता है। दीवानी मामलों को तो छोड़ ही दीजिये, अब तो फौजदारी मामलों के निपटारे में भी पीढ़ियां गुजर जाती हैं। भारत की विलंबित न्यायिक-प्रक्रिया ‘वेटिंग फॉर गोदो’ जैसी हो गयी है। जिला एवं सत्र न्यायालयों से लेकर उच्च और उच्चतम न्यायालयों तक लंबित मामलों की संख्या लाखों में है। पर लंबित मामलों के समयबद्ध निपटारे के लिए कहीं कोई गंभीर पहल या हलचल नहीं दिखाई देती है।
बदलाव या सुधार के लिए कहीं कोई आत्म-मंथन नहीं करता दिखता। खादी और खाकीपोश अपराधियों की बढ़ती संख्या के अनुपात में ही भारतीय न्याय-व्यवस्था से आम भारतीय का भरोसा घटता जा रहा है। अब न्यायालय से न्याय प्राप्त करना उसकी पहली प्राथमिकता न होकर ‘निरुपाय का अंतिम शरण्य’ है। न्यायालयों को लेकर आम भारतीय की मनःस्थिति ‘हारे को हरिनाम’ जैसी है। भारत के अधिकांश उच्च न्यायालयों और उच्चतम न्यायलय में जिस अंग्रेजी भाषा में फैसले सुनाये जाते हैं, वह देश की 95 फीसद जनता के लिए अबूझ पहेली है। भारत की न्याय-व्यवस्था अभी तक औपनिवेशिक शिकंजे में जकड़ी हुयी है। उच्च न्यायालयों और उच्चतम न्यायालयों में न्यायमूर्तियों की चयन-प्रक्रिया को लेकर भी लगातार सवाल उठते रहे हैं।
इन न्यायालयों में न्यायाधीशों का चयन उच्चतम न्यायालय के तीन वरिष्ठतम न्यायाधीशों का कॉलेजियम करता है। यह व्यवस्था अत्यंत आंतरिक, अपवर्जी, असमावेशी और गोपन है। इसपर पारदर्शिता और जवाबदेही के अभाव और पेशेवर योग्यता की उपेक्षा के आरोप गाहे-बगाहे लगते रहते हैं। इसलिए भारत सरकार ने न्याय-व्यवस्था में पारदर्शिता और जवाबदेही सुनिश्चित करने के लिए और न्यायिक-प्रक्रिया को गतिशील, त्वरित, समयबद्ध और वहनीय बनाने के लिए राष्ट्रीय न्यायिक नियुक्ति आयोग गठित करने की पहल की थी। सरकार की यह कोशिश कॉलेजियम व्यवस्था के लाभार्थियों और हिमायतियों को सख्त नागवार लगी और अपनी ‘सुप्रीम’ शक्ति का प्रयोग करते हुए उन्होंने इस प्रस्ताव को ख़ारिज कर दिया। यह देखना सचमुच दिलचस्प होगा कि उच्चतम न्यायालय न सिर्फ उपरोक्त मामले में बल्कि ‘सेल्फ करेक्शन’ की दिशा में कितनी ‘न्यायिक सक्रियता’ दिखाता है!
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