मेहनतकश जनता के लेखक थे फणीश्वरनाथ रेणु
हिन्दी के महान कथाकार फणीश्वरनाथ रेणु अगर होते तो आज 4 मार्च, 2021 को पूरे सौ साल के होते! बिहार के अररिया जिला में फारबिसगंज के निकट औराही हिंगना गाँव में 4 मार्च, 1921 को जन्मे हिन्दी के महान कथा शिल्पी फणीश्वरनाथ रेणु को आज उनके जन्मशताब्दी दिवस पर याद करना एक अद्भुत अनुभूति का एहसास और दर्शन दोनों है।
रेणु जी को पहचान और प्रसिद्धि 1954 ई. में ‛मैला आँचल’ के प्रकाशन के साथ मिली। जबकि इस उपन्यास के प्रकाशन से लगभग दस वर्ष पूर्व उनकी पहली कहानी ‛बट बाबा’ 27 अगस्त, 1944 ई. को कलकत्ता से निकलनेवाली साप्ताहिक पत्रिका ‛विश्वमित्र’ में छप चुकी थी। सन 1944 ई. से 1954 ई. के बीच विभिन्न पत्र-पत्रिकाओं में उनकी लगभग पंद्रह कहानियाँ प्रकाशित हो चुकी थीं। किन्तु इन कहानियों के आधार पर हिन्दी जगत में रेणु जी को न कोई महत्व का स्थान मिल सका था और न बाद में उनकी प्रसिद्धि के आधार पर इन कहानियों का महत्वपूर्ण कहानियों के रूप में कोई विशेष उल्लेख हो सका है।
वस्तुतः ‛मैला आँचल’ के प्रकाशन ने यकायक रेणु जी को हिन्दी के बड़े कथाकार के रूप में स्थापित कर दिया। प्रेमचंद के बाद हिन्दी कथा के केन्द्र से गाँव लगभग गायब हो चुका था। रेणु जी ने इस उपन्यास में गाँव, लोक जीवन, किसान, उसकी भाषा, संस्कृति, उसके सुख-दुःख, उसके संघर्ष, उसके स्वप्न को फिर से कथा के केन्द्र में लाकर खड़ा कर दिया और आँचलिकता की एक अवधारणा के साथ अँचल विशेष को ही नायक के रूप में स्थापित कर दिया है।
यह उपन्यास तब एक उत्कृष्ट आँचलिक उपन्यास होने की वजह से ही विशिष्ट नहीं था बल्कि यह अपने पूर्ववर्ती और अपने समकालीन उपन्यासों के स्वरूपों से अलग होने के कारण भी विशिष्ट था। रेणु जी ने इसमें उपन्यास की कथात्मक परम्परा को तोड़कर अलग-अलग कथांशों में बांटा था जिसे जोड़ने वाला कोई कथा-सूत्र नहीं था बल्कि पूरा परिवेश मिलकर उसे एक सूत्र में जोड़ता था। यह हिन्दी उपन्यास का एक नया स्वरूप था जिसने भारतीय साहित्य को एक नई दिशा दिखायी। बावज़ूद इसके, इस उपन्यास को इसकी प्रसिद्धि की वजहों के साथ इसके विवादों के कारणों लिए भी याद किया जाना चाहिये।
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रेणु जी ने ‛मैला आँचल’ के बाद 1957 ई. में दूसरा महत्वपूर्ण उपन्यास ‛परती : परिकथा’ लिखा जिसमें कोशी अँचल के समस्त सामाजिक, राजनीतिक, आर्थिक व सांस्कृतिक जीवन को उसकी सम्पूर्ण वास्तविकता के साथ चित्रित करने का यत्न हुआ है। इस उपन्यास को भी ‛मैला आँचल’ की तरह ही काफी प्रसिद्धि मिली। अनेक आलोचकों का मत रहा है कि ‛परती : परिकथा’ अपेक्षाकृत ‛मैला आँचल’ से श्रेष्ठ रचना है। रेणु जी ने सन 1963 ई. में दीर्घतपा, सन 1966 ई. में कितने चौराहे, 1975 ई. में जुलूस जैसे अन्य उपन्यासों की रचना की। उनके निधन के पश्चात 1979 ई. में ‛पल्टू बाबू रोड’ जैसा उपन्यास प्रकाशित हुआ जो सन 1959 ई. से 1960 ई. के बीच ‛ज्योत्स्ना’ पत्रिका में धारावाहिक रूप में प्रकाशित हो चुका था।
रेणु जी को ‛मैला आँचल’ और ‛परती:परिकथा’ जैसे उपन्यासों से जितनी प्रसिद्धि मिली है उतनी ही प्रसिद्धि उनकी अनेक कहानियों से भी मिली है। सन 1954 ई. में ‛मैला आँचल’ के प्रकाशन के बाद रेणु जी की कहानियों में भी निखार पैदा हुआ है। संभवतः इसलिए सन 1955 ई. में ‛निकष’ में नये ढ़ंग की कहानी ‛रसप्रिया’ प्रकाशित होती है, सन 1956 ई. में ‛कहानी’ पत्रिका में ‛लालपान की बेगम’ और अगले साल पटना से प्रकाशित होने वाली पत्रिका ‛अपरम्परा’ में ‛तीसरी कसम उर्फ मारे गये गुलफाम’ प्रकाशित हुई। सन 1959 ई. में उनकी कहानियों का एक संग्रह ‛ठुमरी’ नाम से प्रकाशित हुआ जिसमें उनकी रसप्रिया, लालपन की बेगम, तीसरी कसम, पंचलाइट, सिरपंचमी का सगुन, तीर्थोदक, तीन बिंदिया, ठेस और नित्यलीला जैसी नौ बेहतरीन कहानियां शामिल हुई हैं।
सन 1966 ई. में उनकी कहानियों का दूसरा संग्रह ‛आदिम रात्रि की महक’ प्रकाशित हुई जिसमें संवदिया, एक आदिम रात्रि की महक, आत्मसाक्षी, जलवा आदि कहानियां शामिल हैं। रेणु जी की अंतिम कहानी ‛अगिनखोर’ सन 1972 ई. में दिल्ली से प्रकाशित ‛दैनिक हिंदुस्तान’ में छपी। इस प्रकार उन्होंने अपने 28 वर्षों की कहानी लेखन के काल में एक से बढ़कर एक कहानियां लिखीं जिनकी कुल संख्या 63 ठहरती हैं। रेणु जी ने कथा साहित्य के अतिरिक्त कुछ महत्वपूर्ण रिपोर्ताज भी लिखा है जिनमें ऋणजल-धनजल, नेपाली क्रांतिकथा, वनतुलसी की गंध, श्रुत अश्रुत पूर्वे हैं। उनकी पहचान कहानी, उपन्यास और रिपोर्ताज लेखक के रूप में अवश्य रही है, किन्तु यहाँ यह भी उल्लेखनीय है कि उन्होंने अपने लेखन की शुरुआत कविता लेखन से की है। उन्होंने कुल तीस कविताएं लिखी हैं जिनमें अट्ठाईस हिन्दी में, एक बांग्ला और एक मैथिली में।
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एक लेखक के तौर पर रेणु जी को जो मुकाम हासिल हो सका है उसके पीछे उनके सामाजिक और राजनीतिक जीवन का महत्वपूर्ण योग है। रेणु जी सामाजिक और राजनीतिक रूप से बेहद सक्रिय व्यक्ति थे। वे जनता के जीवन से, विशेषकर ग्रामीण जनता के जीवन से गहराई से जुड़े हुए थे। जनता का सवाल चाहे आँचलिक हो या औपनिवेशिक, राष्ट्रीय सीमाओं के भीतर हो या बाहर, रेणु जी उससे प्रत्यक्ष रूप से टकराते थे। सन 1942 ई. में ‛भारत छोड़ो आन्दोलन’ में सक्रिय भूमिका निभाने के कारण उन्हें दो वर्ष भागलपुर जेल में बंद रहना पड़ा।
रेणु जी नेपाल के दो जनांदोलनों में सक्रिय रूप से जुड़े थे। सन 1947 ई. में वे नेपाल के विराटनगर में मिल मालिकों के विरुद्ध मजदूरों के आन्दोलन में शामिल थे। इन पूँजीपति मिल मालिकों को नेपाल की राणाशाही का समर्थन प्राप्त था। इसलिए ये मिल मजदूरों का निर्मम शोषण करते थे। मिल में काम करनेवाले मजदूरों को उनका संगठन बनाने का भी अधिकार नहीं था। ऐसे में, रेणु जी ने गुप्त रूप से मजदूरों को संगठित करके 4 मार्च 1947 से विराटनगर के मिल मालिकों के विरुद्ध ऐतिहासिक आन्दोलन शुरू कर दिया। इस आन्दोलन को नेतृत्व देने के लिए उन्होंने कोइराला-बंधुओं को भी साथ लाया था। इसमें कई लोग राणाशाही की गोलियों से मारे गये। रेणु जी भी बुरी तरह जख्मी हुए थे। यह आन्दोलन काफी व्यापक हो चुका था, लोग सड़कों पर उतर चुके थे लेकिन अंततः इसे राणाशाही द्वारा दबा दिया गया। यह आन्दोलन आगे चलकर नेपाल की राणाशाही के लिए अंत का आरम्भ साबित हुआ।
नेपाल में राणाशाही के खिलाफ दूसरा सशस्त्र आन्दोलन 1950 ई. के अंतिम दिनों में शुरू हुआ जिसके परिणामस्वरूप 1951 ई. में राणाशाही का अंत और प्रजातंत्र की स्थापना हुई थी। इस सशस्त्र क्रांति में रेणु जी पार्कर कलम के साथ पिस्तौल लेकर अपनी सक्रिय भूमिका निभा रहे थे। कहते हैं कि इस आन्दोलन में जाने से पहले रेणु जी को उनकी पत्नी लतिका जी ने अपनी ओर से आत्मरक्षार्थ एक पिस्तौल दिया था। इसी आन्दोलन में उन्होंने तारिणी प्रसाद कोइराला के साथ मिलकर स्वतंत्र प्रजातंत्र नेपाल रेडियो की स्थापना की थी।
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रेणु जी ने बिहार में भी कई किसान आन्दोलनों में हिस्सा लिया था। 25 नवम्बर 1949 को पटना में किसानों का ऐतिहासिक आन्दोलन हुआ था। इसमें वे हजारो किसानों के साथ पूर्णिया से 350 किलोमीटर की पैदल यात्रा कर पटना पहुँचे थे। जबकि इन दिनों उनकी तबियत बहुत खराब थी। पूर्णिया से पटना तक किसानों का यह पैदल मार्च उनके लिए ‛नये सवेरे की आशा’ थी, यानी मजदूर-किसानों के राज्य की स्थापना। इसे ही रेणु जी ‛सुराज’ कहते थे।
रेणु जी इसी ‛सुराज’ के लिए कलम चलाते हैं, इसी ‛सुराज’ के लिए जेल जाते हैं, इसी ‛सुराज’ के लिए हजारो किसानों के साथ बीमार होते हुए भी सड़कों पर पैदल चलते हैं, इसी ‛सुराज’ के लिए अकालग्रस्त लोगों को राहत पहुँचाते हैं, इसी ‛सुराज’ के लिए बाढ़ में डूबे लोगों को बचाने के लिए नाव चलाते हैं, इसी ‛सुराज’ के लिए जब उन्हें लगता है कि सदन में पहुँचने के लिए चुनाव लड़ना जरूरी है तो उसी नाव को चुनाव-चिन्ह बनाकर निर्दलीय चुनाव लड़ते हैं, इसी ‛सुराज’ के लिए उन्होंने गोली खायी और इसी ‛सुराज’ के लिए उन्होंने पिस्तौल उठायी। इसलिए अंततः आज उन्हीं के शब्द उन्हें समर्पित….
अरे ज़िन्दगी है किरांती से, किरांती में बिताये जा
दुनिया के पूँजीवाद को, दुनिया से मिटाये जा।
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