
हिन्दी प्रेम का एक नाम : डॉ. फादर कामिल बुल्के
भाषा कोई भी हो, माँ समान होती है। उसके प्रति आदर, प्रेम और श्रद्धा, माँ समान ही लोग रखते हैं। वह इसलिए कि उसके द्वारा बोले गए शब्द, उसे जीवन देते हैं। जो जितना शब्द और उससे उत्पन्न भाषा को समृद्ध करता है, उसकी सेवा करता है, वह उतना ही यश प्राप्त करता है और कीर्तिमान बनता है। इसी सेवा-भाव सम्मान का ‘हिन्दी’ के लिए एक नाम है -‘डॉक्टर फादर कामिल बुल्के’।
उनका जन्म 01 सितम्बर 1909 में बेल्जियम के राम्सकापेल्ले नोकोहिस्ट (Ramskapelle knokkeheist) गाँव में हुआ था। वे बचपन से मेधावी और दार्शनिक प्रवृत्ति के थे। इस कारण इंजीनियरिंग की शिक्षा के बाद दर्शनशास्त्र की पढ़ाई की और अध्यात्म के क्षेत्र में मिशनरी कार्य से जुड़ गए।
मिशनरी कार्य में जुड़ने के उपरान्त, उसी के प्रचार प्रसार के लिए सन् 1935 में भारत आए। यहाँ आकर वे यहाँ की भाषा हिन्दी, वेद भाषा संस्कृत को जब जान पाए तो प्रभावित हुए बिना नहीं रहे। किन्तु जब उन्होंने देखा कि यहाँ के, अपने आपको पढ़े-लिखे कहने वाले लोग, अंग्रेजी बोलना अपनी शान समझते हैं तो उन्हें बड़ा आश्चर्य हुआ। उन्होंने देखा यहाँ की अपनी भाषा,वेद की भाषा, अपने ही घर में अपेक्षित है। वे लोग जो शिक्षाविद् कहलाते हैं, वे भी यहाँ के आम जुबान ‘हिन्दी’ बोलने में झिझक महसूस करते हैं। तब उन्होंने निश्चय किया कि मैं यहाँ की भाषा पर महारथ हासिल करूँगा।
यहीं से फादर कामिल बुल्के का हिन्दी और संस्कृत की ‘माँ’ समान सेवा आरम्भ हुई। इसके लिए सर्वप्रथम उन्होंने कलकत्ता यूनिवर्सिटी से 1942-44 के सत्र में संस्कृत से एम.ए. की डिग्री हासिल की। इसके उपरान्त सारा जीवन हिन्दी को समर्पित करने का मन बना लिया।
तब ‘हिन्दी वह हिन्दी थी जो सर्वप्रथम 1918 में सबसे पहले सरकारी कामकाज की भाषा बनी। इस सम्बन्ध में इतिहासविदों का मानना है कि राजस्थान के भरतपुर रियासत के युवा शासक महाराजा किशन सिंह ने जब अपने शासन की बागडोर संभाली तो उस समय काम-काज की भाषा उर्दू थी और वे चाहते थे कि यह भाषा हिन्दी में परिवर्तित हो जाए। इसलिए उन्होंने पहला निर्देश अपने कर्मचारियों को दिया कि वे तीन महीने के भीतर हिन्दी सीख लें और राजकार्य इसी भाषा में करें।
उनके इस निर्देश से हिन्दी का मार्ग प्रशस्त हुआ। इतना ही नहीं उनके सत्ता की बागडोर संभालने से पूर्व 12 सितम्बर 1912 में जो ‘श्री हिन्दी साहित्य समिति’ की स्थापना की गई थी, उसके सांस्कृतिक और राजनैतिक पुनरुत्थान पर भी उन्होंने बल दिया और भवन निर्माण के लिए अनुदान दिया। वे एक ऐसे शासक रहे जिन्होंने हिन्दी के विकास के लिए ‘हिन्दी साहित्य सम्मेलन प्रयाग’ का 17 वां अधिवेशन 1927 में 29 मार्च से 31 मार्च तक आयोजित करवाया। इस अधिवेशन का सभापतित्व जहाँ इतिहासविद् डॉ.गौरी शंकर हीराचंद ओझा ने किया, वहीं गुरुदेव रविंद्र नाथ ठाकुर, महामना मदन मोहन मालवीय, पुरुषोत्तम दास टंडन जैसी महान हस्तियों ने भाग लेकर इसे सफल बनाया।
बावजूद इसके उर्दू और अंग्रेजी की अहमियत बनी ही रही। बोलचाल की भाषा हिन्दी में गर्माहट आनी चाहिए थी, लेकिन नहीं आई और फादर कामिल बुल्के ने इसे परखा और अपना कदम इसके विकास के लिए आगे बढ़ाया। उन्होंने हिन्दी के क्षेत्र में ‘राम कथा उत्पत्ति और विकास’ पर 1945 से 1949 तक शोध कार्य किया, फलस्वरुप इलाहाबाद यूनिवर्सिटी से पीएच.डी. की डिग्री हासिल की। इसके उपरान्त 1951 में वे हिन्दी प्रमोशन के लिए नेशनल कमीशन के सदस्य चुने गए। इसी वर्ष उन्हें इंडियन सिटीजनशिप मिली और वे पूर्णत: भारतीय होकर रह गए।
डॉ. फादर कामिल बुल्के जब मिशनरी कार्य से भारत आए थे तो उनका कार्य क्षेत्र राँची के आस-पास का इलाका था। यहाँ हिन्दी की दयनीय स्थिति को देख, पुरुलिया रोड के आस-पास के शिक्षण संस्थानों में जाकर अंग्रेजी के साथ-साथ हिन्दी के प्रति लगाव पैदा करने का कार्य किया। पुरूलिया रोड और उसके आस-पास का इलाका उन्हें इतना भाया कि बाद में इसी रोड के ‘मनरेसा हाउस’ में उन्होंने अपना निवास बना लिया।
भारत सरकार द्वारा 01 सितम्बर 2008 की घोषणा के अनुसार आज पुरुलिया रोड का नाम “डॉ. फादर कामिल बुल्के” पथ है। डॉ. फादर कामिल बुल्के के पास चूंकि इंजीनियरिंग की डिग्री भी थी, इसलिए गणित का भी उन्हें अच्छा ज्ञान था। इस ज्ञान का उपयोग उन्होंने शुरू-शुरू में 5 वर्षों तक गुमला कॉलेज में गणित का अध्यापक बनाकर किया लेकिन हिन्दी के प्रति प्रेम, संस्कृत के प्रति श्रद्धा ने उन्हें 1949 में सेंट जेवियर कॉलेज, राँची के संस्कृत का विभागाध्यक्ष बना डाला जहाँ वे आगे चलकर हिन्दी के विभागाध्यक्ष भी हुए।
उनके इस हिन्दी प्रेम को देखकर डॉ. कमल बोस ने कहा था- “फादर का हिन्दी प्रेम, हम सब की चेतना से सहज जुड़ा हुआ है” डॉ. कमल बोस के इस कथन का अर्थ लोगों को तब समझ में आया जब भाषा के संदर्भ में अपने एक वक्तव्य में स्वयं फादर बुल्के ने संस्कृत भाषा को महारानी, हिन्दी भाषा को बहुरानी और अंग्रेजी को नौकरानी कहा। ऐसा कहने वाले विरले ही मिलते हैं।
यह उनका हिन्दी के प्रति प्रेम ही था, जो भारत सरकार ने 1974 में हिन्दी भाषा के लिए उन्हें ‘पद्म भूषण’ का सम्मान दिया और बाद में दूसरे सदस्य के रूप में ‘भारत रत्न’ की उपाधि उपाधि प्रदान की।
डॉ. फादर कामिल बुल्के की प्रमुख कृतियां- ‘मुक्ति दाता’ (1942), ‘न्याय वैशेषिक’ (1947), ‘राम कथा, उत्पत्ति और विकास’ (1950), ‘राम कथा और तुलसीदास’ (1977), ‘नया विधान’ (1977) और ‘अंग्रेजी-हिन्दी-कोश’ (1981)। इन सबों के अतिरिक्त ‘मातर लिंक’ के प्रसिद्ध नाटक ‘ब्लू -वर्ल्ड’ का हिन्दी रूपांतरण ‘नील पंछी’ के नाम से भी किया। किन्तु ‘अंग्रेजी-हिन्दी कोश’ अपने आप में एक ऐसा ‘शब्द-कोश’ है जिससे हिन्दी सीखी जा सकती है। इस कोश के प्राक्कथन में स्वयं उन्होंने लिखा है- “यह कोश प्रमुख रूप से हिन्दी सीखने वालों की समस्याएं दूर करने के उद्देश्य से लिखा गया है और अनुवादक निश्चय ही इससे बहुत लाभान्वित होंगे। वास्तव में यह ‘शब्दकोश’ सिर्फ ‘शब्दकोश’ ही नहीं, एक अमर नाम है- ‘कामिल बुल्के’।
आज डॉ. फादर कामिल बुल्के नहीं है, उन्होंने 13 अगस्त 1982 को पुरुलिया रोड स्थित मनरेसा हाउस में अपनी आंखें बंद कर ली, इहलोक को त्याग दिया किन्तु आज भी उनका नाम अमर है। उनके नाम पर यहाँ एक प्रसिद्ध पुस्तकालय है।यहाँ सदा ही हिन्दी की अर्थवत्ता, हिन्दी का भाषण-संस्कार और बुल्के के योगदान पर शोध कार्य चलता रहता है। इतना ही नहीं 1983 में स्थापित वहाँ एक फादर कामिल बुल्के शोध संस्थान भी है जिससे अब तक हिन्दी और संस्कृत में 350 से भी अधिक छात्र पीएच. डी कर चुके हैं। कहते हैं- “ये ज़मीं वही है, ये आसमाँ वही है,
एक सितारा लुट गया, बांकी निशां वही है”
और हम उनके बांकी निशां के रूप में अमूल्य धरोहर ‘शब्दकोश’ और ‘राम कथा, उत्पत्ति और विकास’ को सदा याद रखते हुए यह कहने से नहीं चूकेंगे कि भाषा के क्षेत्र में हिन्दी प्रेम का अगर कोई नाम है तो वह है- ‘डॉ. फादर कामिल बुल्के’।