डॉ.अनुज प्रभात
भाषा कोई भी हो, मां समान होती है। उसके प्रति आदर, प्रेम और श्रद्धा,मां समान ही लोग रखते हैं । वह इसलिए कि उसके द्वारा बोले गए शब्द, उसे जीवन देते हैं। जो जितना शब्द और उससे उत्पन्न भाषा को समृद्ध करता है, उसकी सेवा करता है, वह उतना ही यश प्राप्त करता है और कीर्तिमान बनता है । इसी सेवा -भाव सम्मान का ‘हिंदी’ के लिए एक नाम है -‘डॉक्टर फादर कामिल बुल्के’ ।
उनका जन्म 01 सितंबर 1909 में बेल्जियम के राम्सकापेल्ले नोकोहिस्ट ( Ramskapelle knokkeheist) गांव में हुआ था । वे बचपन से मेधावी और दार्शनिक प्रवृत्ति के थे। इस कारण इंजीनियरिंग की शिक्षा के बाद दर्शनशास्त्र की पढ़ाई की और अध्यात्म के क्षेत्र में मिशनरी कार्य से जुड़ गए ।
मिशनरी कार्य में जुड़ने के उपरांत, उसी के प्रचार प्रसार के लिए सन् 1935 में भारत आए। यहां आकर वे यहां की भाषा हिंदी, वेद भाषा संस्कृत को जब जान पाए तो प्रभावित हुए बिना नहीं रहे । किंतु जब उन्होंने देखा कि यहां के, अपने आपको पढ़े -लिखे कहने वाले लोग, अंग्रेजी बोलना अपनी शान समझते हैं तो उन्हें बड़ा आश्चर्य हुआ। उन्होंने देखा – यहां की अपनी भाषा,वेद की भाषा, अपने ही घर में अपेक्षित है। वे लोग जो शिक्षाविद् कहलाते हैं, वे भी यहां के आम जुबान ‘हिंदी’ बोलने में झिझक महसूस करते हैं। तब उन्होंने निश्चय किया कि मैं यहां की भाषा पर महारथ हासिल करूँगा ।
यहीं से फादर कामिल बुल्के का हिंदी और संस्कृत की ‘मां’ समान सेवा आरंभ हुई । इसके लिए सर्वप्रथम उन्होंने कलकत्ता यूनिवर्सिटी से 1942 – 44 के सत्र में संस्कृत से एम.ए. की डिग्री हासिल की। इसके उपरांत सारा जीवन हिंदी को समर्पित करने का मन बना लिया।
तब ‘हिंदी वह हिंदी थी जो सर्वप्रथम 1918 में सबसे पहले सरकारी कामकाज की भाषा बनी। इस संबंध में इतिहासविदो का मानना है कि राजस्थान के भरतपुर रियासत के युवा शासक महाराजा किशन सिंह ने जब अपने शासन की बागडोर संभाली तो उस समय काम-काज की भाषा उर्दू थी और वे चाहते थे कि यह भाषा हिंदी में परिवर्तित हो जाए। इसलिए उन्होंने पहला निर्देश अपने कर्मचारियों को दिया कि वे तीन महीने के भीतर हिंदी सीख लें और राजकार्य इसी भाषा में करें ।
उनके इस निर्देश से हिंदी का मार्ग प्रशस्त हुआ। इतना ही नहीं उनके सत्ता की बागडोर संभालने से पूर्व 12 सितंबर 1912 में जो ‘श्री हिंदी साहित्य समिति’ की स्थापना की गई थी, उसके सांस्कृतिक और राजनैतिक पुनरुत्थान पर भी उन्होंने बल दिया और भवन निर्माण के लिए अनुदान दिया । वे एक ऐसे शासक रहे जिन्होंने हिंदी के विकास के लिए ‘हिंदी साहित्य सम्मेलन प्रयाग’ का 17 वां अधिवेशन 1927 में 29 मार्च से 31 मार्च तक आयोजित करवाया । इस अधिवेशन का सभापतित्व जहां इतिहासविद् डॉ.गौरी शंकर हीराचंद ओझा ने किया, वहीं गुरुदेव रविंद्र नाथ ठाकुर, महामना मदन मोहन मालवीय, पुरुषोत्तम दास टंडन जैसी महान हस्तियों ने भाग लेकर इसे सफल बनाया।
बावजूद इसके उर्दू और अंग्रेजी की अहमियत बनी ही रही। बोलचाल की भाषा हिंदी में गर्माहट आनी चाहिए थी, लेकिन नहीं आई और फादर कामिल बुल्के ने इसे परखा और अपना कदम इसके विकास के लिए आगे बढ़ाया। उन्होंने हिंदी के क्षेत्र में ‘राम कथा उत्पत्ति और विकास’ पर 1945 से 1949 तक शोध कार्य किया,फल स्वरुप इलाहाबाद यूनिवर्सिटी से पीएच.डी. की डिग्री हासिल की। इसके उपरांत 1951 में वे हिंदी प्रमोशन के लिए नेशनल कमीशन के सदस्य चुने गए। इसी वर्ष उन्हें इंडियन सिटीजनशिप मिली और वे पूर्णत: भारतीय होकर रह गए।
डॉ. फादर कामिल बुल्के जब मिशनरी कार्य से भारत आए थे तो उनका कार्य क्षेत्र रांची के आस-पास का इलाका था। यहां हिंदी की दयनीय स्थिति को देख, पुरुलिया रोड के आस-पास के शिक्षण संस्थानों में जाकर अंग्रेजी के साथ-साथ हिंदी के प्रति लगाव पैदा करने का कार्य किया। पुरूलिया रोड और उसके आस-पास का इलाका उन्हें इतना भाया कि बाद में इसी रोड के ‘मनरेसा हाउस’ में उन्होंने अपना निवास बना लिया। भारत सरकार द्वारा 01 सितंबर 2008 की घोषणा के अनुसार आज पुरुलिया रोड का नाम “डॉ.फादर कामिल बुल्के” पथ है।
डॉ. फादर कामिल बुल्के के पास चूंकि इंजीनियरिंग की डिग्री भी थी, इसलिए गणित का भी उन्हें अच्छा ज्ञान था । इस ज्ञान का उपयोग उन्होंने शुरू-शुरू में 5 वर्षों तक गुमला कॉलेज में गणित का अध्यापक बनाकर किया लेकिन हिंदी के प्रति प्रेम, संस्कृत के प्रति श्रद्धा ने उन्हें 1949 में सेंट जेवियर कॉलेज, रांची के संस्कृत का विभागाध्यक्ष बना डाला जहां वे आगे चलकर हिंदी के विभागाध्यक्ष भी हुए ।
उनके इस हिंदी प्रेम को देखकर डॉ.कमल बोस ने कहा था – ” फादर का हिंदी प्रेम, हम सब की चेतना से सहज जुड़ा हुआ है ” डॉ.कमल बोस के इस कथन का अर्थ लोगों को तब समझ में आया जब भाषा के संदर्भ में अपने एक वक्तव्य में स्वयं फादर बुल्के ने संस्कृत भाषा को महारानी, हिंदी भाषा को बहुरानी और अंग्रेजी को नौकरानी कहा । ऐसा कहने वाले विरले ही मिलते हैं।
यह उनका हिंदी के प्रति प्रेम ही था, जो भारत सरकार ने 1974 में हिंदी भाषा के लिए उन्हें ‘पद्म भूषण’ का सम्मान दिया और बाद में दूसरे सदस्य के रूप में ‘भारत रत्न’ की उपाधि उपाधि प्रदान की।
डॉ.फादर कामिल बुल्के की प्रमुख कृतियां – ‘मुक्ति दाता ‘ (1942), ‘न्याय वैशेषिक’ (1947), ‘राम कथा, उत्पत्ति और विकास’ ( 1950 ), ‘राम कथा और तुलसीदास ‘ (1977 ), ‘नया विधान’ (1977 ),और ‘अंग्रेजी- हिंदी -कोश’ (1981)। इन सबों के अतिरिक्त ‘ मातर लिंक ‘ के ल प्रसिद्ध नाटक ‘ब्लू -वर्ल्ड’ का हिंदी रूपांतरण ‘नील पंछी’ के नाम से भी किया। किंतु ‘अंग्रेजी- हिंदी कोश ‘ अपने आप में एक ऐसा ‘शब्द -कोश’ है जिससे हिंदी सीखी जा सकती है। इस कोश के प्राक्कथन में स्वयं उन्होंने लिखा है -” यह कोश प्रमुख रूप से हिंदी सीखने वालों की समस्याएं दूर करने के उद्देश्य से लिखा गया है और अनुवादक निश्चय ही इससे बहुत लाभान्वित होंगे। वास्तव में यह ‘शब्दकोश’ सिर्फ ‘शब्दकोश’ ही नहीं, एक अमर नाम है-‘ कामिल बुल्के’।
आज फादर कामिल बुल्के नहीं है, उन्होंने 13 अगस्त 1982 को पुरुलिया रोड स्थित मनरेसा हाउस में अपनी आंखें बंद कर ली, इहलोक को त्याग दिया किंतु आज भी उनका नाम अमर है । उनके नाम पर यहां एक प्रसिद्ध पुस्तकालय है।यहां सदा ही हिंदी की अर्थवत्ता, हिंदी का भाषण -संस्कार और बुल्के के योगदान पर शोध कार्य चलता रहता है। इतना ही नहीं 1983 में स्थापित वहां एक फादर कामिल बुल्के शोध संस्थान भी है जिससे अब तक हिंदी और संस्कृत में 350 से भी अधिक छात्र पीएच.डी कर चुके हैं। कहते हैं –
“ये ज़मीं वही है, ये आसमां वही है,
एक सितारा लुट गया, बांकी निशां वही है”
और हम उनके बांकी निशां के रूप में अमूल्य धरोहर ‘शब्दकोश’ और ‘राम कथा, उत्पत्ति और विकास’ को सदा याद रखते हुए यह कहने से नहीं चूकेंगे कि भाषा के क्षेत्र में हिंदी प्रेम का अगर कोई नाम है तो वह है- ‘डॉ.फादर कामिल बुल्के’।
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