हिमांशु कुमार : आधुनिक गाँधीवादी की समाज सेवा
आजाद भारत के असली सितारे – 60
14 जुलाई 2022 को सर्वोच्च न्यायालय ने 2009 के एक मामले में हिमांशु कुमार ( जन्म 12.01.1965) और बारह अन्य लोगों द्वारा दायर एक रिट याचिका को खारिज कर दिया, जिसमें छत्तीसगढ़ के सुकमा जिले (तत्कालीन दंतेवाड़ा) के गाँवों में आदिवासियों की गैर-न्यायिक हत्याओं की स्वतंत्र जाँच की माँग की गई थी। इसके साथ ही सर्वोच्च न्यायालय ने हिमांशु कुमार पर पाँच लाख रुपए का जुर्माना भी लगाया। जस्टिस एएम खानविलकर और जे बी पारदीवाला की पीठ ने मामले की सुनवाई की थी।
दरअसल, हिमांशु कुमार को जिस मामले में सर्वोच्च न्यायालय ने जुर्माना लगाया है उसे गोम्पाड़ नरसंहार के रूप में जाना जाता है। इसमें सितंबर और अक्टूबर 2009 में हुई हिंसा की दो प्रमुख घटनाएं शामिल हैं, जो गोम्पाड और गच्चनपल्ली के गाँवों में हुई थीं। इन घटनाओं में कम से कम 17 आदिवासी मारे गए थे। सर्वोच्च न्यायालय ने इसी नरसंहार से संबंधित याचिका को खारिज करते हुए राज्य सरकार को सुझाव दिया कि छत्तीसगढ़ राज्य / सीबीआई द्वारा याचिकाकर्ताओं के खिलाफ भारतीय दंड संहिता की आपराधिक साजिश रचने की धारा और पुलिस और सुरक्षा बलों पर झूठा आरोप लगाने के लिए आगे की कार्रवाई कर सकती है, जिसमें अन्य धाराएं भी शामिल की जा सकती हैं।
इस फ़ैसले के बाद हिमांशु कुमार ने बीबीसी से कहा,
“यह आदिवासियों के न्याय मांगने के अधिकार पर बड़ा हमला है. अब आदिवासी न्याय मांगने में डरेगा. इससे तो यही साबित होता है कि पहले से ही अन्याय से जूझ रहा आदिवासी अगर अदालत में आएगा तो उसे सजा दी जाएगी. इसके साथ-साथ जो भी आदिवासियों की मदद की कोशिश कर रहे हैं, उन लोगों के भीतर डर पैदा करेगा.”
सुप्रीम कोर्ट के इस निर्णय के बाद हिमांशु कुमार ने अपना बयान भी जारी किया है,
“चंपारण में गाँधी जी से जज ने कहा तुम्हें सौ रुपये के जुर्माने पर छोड़ा जाता है गाँधीजी ने कहा मैं जुर्माना नहीं दूँगा.”
“कोर्ट ने मुझसे कहा पाँच लाख जुर्माना दो तुम्हारा जुर्म यह है तुमने आदिवासियों के लिए इंसाफ माँगा।”
मेरा जवाब है, “मैं जुर्माना नहीं दूँगा।
जुर्माना देने का अर्थ होगा मैं अपनी गलती कबूल कर रहा हूँ। मैं दिल की गहराई से मानता हूँ कि इंसाफ के लिए आवाज उठाना कोई जुर्म नहीं है। यह जुर्म हम बार-बार करेंगे।”
सर्वोच्च न्यायालय के इस आदेश के बाद छत्तीसगढ़ के सुकमा जिले के आदिवासी इलाकों में प्रतिरोध की लहर फैल गयी। अनेक सामाजिक कार्यकर्ता हिमांशु कुमार के पक्ष में खड़े हो गये। ‘छत्तीसगढ़ बचाओ आंदोलन’ की ओर से इस आशय से संबंधित एक प्रेस विज्ञप्ति जारी की गई, जिसमें सुदेश टेकाम, मनीष कुंजाम, बेला भाटिया, नंदकुमार कश्यप, विजय भाई, शालिनी गेरा, रमाकांत बंजारे और आलोक शुक्ला आदि के हस्ताक्षर थे।
इनके अलावा जिला किसान संघ राजनांदगांव, छत्तीसगढ़ मुक्ति मोर्चा (मजदूर कार्यकर्त्ता समिति), आखिल भारतीय आदिवासी महासभा, जन स्वास्थ कर्मचारी यूनियन, भारत जन आन्दोलन, हसदेव अरण्य बचाओ संघर्ष समिति (कोरबा, सरगुजा), माटी (कांकेर), अखिल भारतीय किसान सभा (छत्तीसगढ़ राज्य समिति), छत्तीसगढ़ किसान सभा, किसान संघर्ष समिति (कुरूद), दलित आदिवासी मंच (सोनाखान), गाँव गणराज्य अभियान (सरगुजा), आदिवासी जन वन अधिकार मंच (कांकेर), सफाई कामगार यूनियन, मेहनतकश आवास अधिकार संघ (रायपुर), जशपुर जिला संघर्ष समिति, राष्ट्रीय आदिवासी विकास परिषद (छत्तीसगढ़ इकाई, रायपुर), जशपुर विकास समिति, रिछारिया केम्पेन, भूमि बचाओ संघर्ष समिति (धरमजयगढ़) आदि संगठनों ने भी हिमांशु कुमार को अपना समर्थन दिया।
‘छत्तीसगढ़ बचाओ आंदोलन’ के सदस्यों ने कहा कि “हमारे जैसे नागरिक समाज संगठन और छत्तीसगढ़ में मानवाधिकार आंदोलन से जुड़े लोग इस बात से चिंतित हैं कि इस फैसले ने न्यायिक अदालत में न्याय की खोज को ही एक आपराधिक कृत्य बना दिया है। यह निर्णय छत्तीसगढ़, विशेष रूप से बस्तर में पुलिस और सुरक्षा बलों से जवाबदेही की व्यवस्था के अस्तित्व और मानवाधिकारों की वकालत के लिए खतरा है।”
विज्ञप्ति में आगे कहा गया कि हिमांशु कुमार जो कि इस मामले के पहले याचिकाकर्ता हैं, वे एक गाँधीवादी हैं तथा बस्तर में तीन दशकों से अधिक समय से काम कर रहे हैं। उन्होंने बस्तर के आदिवासी लोगों के खिलाफ मानवाधिकारों के उल्लंघन को उजागर करने में लगातार मदद की है। गोम्पाड़ नरसंहार मामले में अन्य बारह याचिकाकर्ता नरसंहार में मारे गए लोगों के परिवार के सदस्य हैं।
‘छत्तीसगढ़ बचाओ आंदोलन’ के सदस्यों ने कहा है कि “हम यह जानकर व्यथित हैं कि बस्तर में राज्य पुलिस द्वारा आदिवासी व्यक्तियों को नक्सली होने का आरोप और उन पर दमन और बर्बरता, साथ ही मानवाधिकार कार्यकर्ताओं को नक्सल समर्थक के रूप में सताने का दुष्चक्र आज भी बदस्तूर जारी है।“
23 जुलाई 2022 को दिल्ली के प्रेस क्लब में देश की तमाम मशहूर हस्तियों ने इस फ़ैसले को लेकर सुप्रीमकोर्ट की आलोचना की। छत्तीसगढ़ से आयी आदिवासी सामाजिक कार्यकर्ता सोनी सोरी और आज़ाद समाज पार्टी के राष्ट्रीय अध्यक्ष चंद्रशेखर आज़ाद ने हिमांशु कुमार के साथ खुद जेल जाने का ऐलान किया। वहीं प्रख्यात लेखिका अरुंधति राय, मशहूर वकील प्रशांत भूषण और प्रो.नंदिनी सुंदर ने भी अदालती रवैये की कड़ी आलोचना की। हिमांशु कुमार ने कहा कि जिस मामले में उनके ख़िलाफ़ जुर्माना लगा है, उसकी जाँच ही नहीं करायी गयी। अगर पुलिस का फ़ैसला ही अंतिम है तो फिर सुप्रीम कोर्ट की ज़रूरत क्या है।
इस मौके पर हिमांशु कुमार ने कहा कि आज़ादी के बाद एजेंडा था न्याय। ऐसा समाज जहाँ किसी को कोई यातना दे सकता है और कोई रोकने वाला न हो, वह राष्ट्र नहीं हो सकता। अन्याय कभी राष्ट्र का आधार नहीं हो सकता। गाँधी जी ने कहा था कि प्रकृति ने सबको बराबर दिया है। इस विकास के माडल में उसी का विकास होता है जिसमें छीनने की ताकत हो। इस समय सबसे ज्यादा अर्धसैनिक बल आदिवासी क्षेत्र में हैं। ये संसाधनों पर कब्जा करने के लिए अमीरों की तिजोरी भरने के लिए है। आदिवासी क्षेत्रों में युद्ध चल रहा है और पूँजीवाद के साथ ये युद्ध और फैलेगा। उन्होंने कहा कि यह सुप्रीम कोर्ट का नहीं सत्ता से डरे हुए जजों का फैसला है। हम फ़ैसला न मानकर सुप्रीम कोर्ट की इज्जत की रक्षा करेंगे। हम आज़ादी के उन दीवानों के वारिस हैं जो हँसते-हँसते जेल गये।
फिलहाल, यह लेख लिखे जाने तक हिमांशु कुमार ने पाँच लाख का जुर्माना नहीं भरा है और उन्हें गिरफ्तार भी नहीं किया गया है। वे आज भी सामाजिक कामों में लगे हुए हैं।
हिमांशु कुमार का जन्म जिस परिवार में हुआ है वह पूरा परिवार ही स्वतंत्रता संग्राम सेनानी रहा है। पंडित जवाहरलाल नेहरू, इंदिरा गाँधी, लाल बहादुर शास्त्री, चंद्रशेखर, राजनारायण आदि नेता उनके घर आया करते थे। उनका घर स्वाधीनता- सेनानियों का अड्डा था। उनके पिता प्रकाश भाई आरंभ में गरमदल वालों में से थे। सन् 42 के भारत छोड़ो आन्दोलन के दौरान उन्होंने मुजफ्फरनगर रेलवे स्टेशन में आग लगा दी थी। इसके बाद जब पुलिस उनके पीछे पड़ी तो वे भूमिगत हो गए। भूमिगत रहते हुए ही उन्होंने गाँधी जी को पत्र लिखा। इसके बाद गाँधी जी ने उन्हें अपने सेवाग्राम आश्रम में बुला लिया। सेवाग्राम आश्रम में गाँधी जी ने उन्हें जाकिर हुसैन आदि के साथ नई तालीम को संचालित करने का काम सौंपा। गाँधी जी का सपना था कि आजादी मिलने पर गुलामी की शिक्षा भी बदलेगी। दूसरों का शोषण करने वाली शिक्षा नहीं चलेगी। वह कौन सी शिक्षा- पद्धति होगी उसकी परिकल्पना उन्होंने नई तालीम में की है।
बाद में प्रकाश भाई विनोवा के भूदान आन्दोलन से भी जुड़े। उसी भूदान आन्दोलन के दबाव से उत्तर प्रदेश में भूमि हदबंदी (सीलिंग कानून) लागू हुआ। प्रकाश भाई को कैबिनेट मंत्री का दर्जा मिला और दान के रूप में मिली बीस लाख एकड़ जमीन बाँटने का काम उन्हें सौंपा गया। उन्होंने सफलतापूर्वक अपने दायित्व का निर्वाह किया किन्तु वे स्वयं भूमिहीन रहे। यहाँ तक कि उनका अपना कोई मकान भी नहीं था। अपने निधन के बाद भी उन्होंने किसी तरह का कर्मकांड और खर्च करने के लिए भी मना कर दिया था। उन्होंने अपना शरीर भी मेडिकल के छात्रों को शोध के लिये दान दे दिया था।
अपने पिता की विरासत को आगे ले जाने के आग्रही हिमांशु कुमार गाँधी जी की सलाह को ध्यान में रखते हुए गाँवों में जाकर समाज सेवा का कार्य करना चाहते थे। इन्हीं दिनों वे बीना भल्ला के संपर्क में आये। बीना जी का परिवार भी गाँधी के विचारों से प्रभावित था। उनकी दादी की कजिन डॉ. सुशीला नैयर, गाँधी जी की फैमिली डॉक्टर थीं। बाद में वे स्वास्थ्य मंत्री भी रहीं। बीना भल्ला के जीवन का लक्ष्य भी समाज सेवा ही था। इस तरह हिमांशु कुमार और बीना भल्ला ने समाज सेवा के लिए 1992 में विवाह किया और विवाह के बीस दिन बाद ही वे मध्य प्रदेश के दंतेवाड़ा (बस्तर जिला) आ गये। उन दिनों छत्तीसगढ़ राज्य अस्तित्व में नहीं आया था।
दंतेवाड़ा जाने के बाद इस जोड़े ने एक पेड़ के नीचे अपनी जिन्दगी शुरू की। आदिवासियों ने इनके लिए झोंपड़ी बनायी और शुरू हो गया समाजसेवा का कार्य। कुछ ही वर्षों में हिमांशु कुमार ने वहाँ वनवासी चेतना आश्रम की नींव डाली। इस आश्रम ने महिला सशक्तिकरण, सामुदायिक स्वास्थ्य केन्द्र, किसानों की ट्रेनिंग आदि अनेक परियोजनायें शुरू कीं और देखते ही देखते इस आश्रम का विस्तार 16 एकड़ की जमीन में फैल गया। यूनिसेफ के साथ मिलकर उन्होंने बच्चों के कल्याण के लिये कार्य किये। वनवासी आश्रम के समाज कार्य की सफलता का अनुमान इस बात से लगाया जा सकता है कि एक समय वहाँ प्रत्येक गर्भवती महिला को पूरी स्वास्थ्य सुविधा सुलभ थी। प्रसव के दौरान मृत्यु दर शून्य पर पहुँच चुका था। 2005 तक इस आश्रम के पास लगभग एक हजार का स्टाफ हो गया। वे अपने कर्मचारियों को एक करोड़ के आस- पास का वेतन बाँटते थे।
हिमांशु कुमार दिसंबर 2022 में सांस्कृतिक पुनर्निर्माण मिशन द्वारा आयोजित हिन्दी मेला की एक राष्ट्रीय संगोष्ठी में हिस्सा लेने कोलकाता आये थे। उस समय एक बातचीत में उन्होंने बताया कि वर्ष 2005 तक वनवासी चेतना आश्रम का काम बहुत अच्छा चल रहा था। सरकार से उन्हें पर्याप्त सहयोग मिल रहा था। यहाँ तक कि उन्हें ऑनरेरी मैजिस्ट्रेट बनाया गया था। कंज्यूमर फोरम का जज बनाया गया था। अधिकांश सरकारी ट्रेनिंग वनवासी आश्रम में होती थी। किन्तु इसी दौरान नयी आर्थिक नीति आयी। डंकल प्रस्ताव आया। विदेशी पूँजी के लिए देश का दरवाजा खोल दिया गया। अब राज्य का चरित्र एक लोक कल्याणकारी राज्य का न रह कर पूँजी के चाकर का हो गया। सरकार ने ब़ड़ी- बड़ी कंपनियों के लिए जमीन मुहैया कराने के लिए सल्वा जुडूम का गठन और इस्तेमाल किया। यह एक सैन्य अभियान जैसा था। नक्सल उन्मूलन के नाम पर पचपन हजार से भी अधिक आदिवासियों को उनके गाँवों से उजाड़ कर कैम्पों में रखा गया। सैकड़ों गाँव जला दिये गये। इन परिस्थितियों में अनेक पीड़ित व्यक्ति, आदिवासी निरीह लड़कियाँ, बच्चे मदद के लिए वनवासी आश्रम की ओर आये। हिमांशु कुमार भला उन्हें कैसे निराश कर सकते थे? स्वाभाविक रूप से वे यथासंभव उनकी मदद करने लगे। सरकार को जब इस तरह की सूचनाएं मिलने लगीं तो हिमांशु कुमार को इस आशय की नोटिस थमा दी गयी कि उनका वनवासी आश्रम अवैध भूमि पर बना हुआ है। इसके बाद वर्ष 2009 में आश्रम पर बुलडोजर चला दिया गया और दो दिन के भीतर ही सारा आश्रम जमींदोज कर दिया गया।
इसके बाद भी हिमांशु कुमार ने दंतेवाड़ा नहीं छोड़ा और वे एक किराए के फ्लैट में रहकर सामाजिक कार्य करने लगे। इसी दौरान गोम्पाड़ की घटना हुयी। हिमांशु कुमार इस घटना को लेकर सरकार के खिलाफ अदालत गये। फिर नक्सलियों का हमदर्द बताकर सरकार इनके पीछे पड़ गयी। हिमांशु कुमार पर इस दौरान कम से कम पाँच बार हमले हुए। इसी क्रम में एक बार उन्हें सूचना मिली कि उनके ऊपर रात में आक्रमण होने वाला है तो आधी रात को वहाँ से भागकर उन्होंने अपनी जान बचायी।
इसके नौ साल बाद वे फिर से दंतेवाड़ा गये और वहाँ नौ महीना रहे किन्तु इस बार भी उन्हें अपना मकान खाली करना पड़ा और दुबारा भागना पड़ा। आज भी वे बीच- बीच में दंतेवाड़ा जाते रहते हैं और अपनी क्षमतानुसार आदिवासियों के हक की लड़ाई लड़ रहे हैं।
हिमांशु कुमार को अमेरिका और इंग्लैंड की विभिन्न प्रतिष्ठित संस्थाओं में व्याख्यान हेतु भी बुलाया गया और उन्होंने अनेक व्याख्यान दिये। उन्होंने अनेक पदयात्राएं की हैं। उन्होंने दिल्ली से मुंबई तक की सायकिल यात्रा भी की है। सोशल मीडिया, खासतौर पर फेसबुक पर वे लगातार लिखते रहते हैं। उनके लेखन का अंदाज सबसे अलग और बेहद प्रभावशाली होता है क्योंकि उसमें जीवन की सच्चाई होती है।
कोलकाता के हिन्दी मेला में दिया गया उनका व्याख्यान अविस्मरणीय है जहाँ उनसे मेरी पहली और अबतक की एक मात्र भेंट है। हाल में ‘मंथन : सामाजिक, धार्मिक और राजनीतिक लोक हित का’ शीर्षक से उनकी एक पुस्तक भी प्रकाशित हुई है जिसका संपादन और संकलन शिल्पा शर्मा तथा महेशचंद्र वर्मा अज्ञानी ने किया है। इस पुस्तक में सोशल मीडिया पर समय- समय पर की गई उनकी टिपपणियाँ संकलित है। पुस्तक के अंतिम कवर पृष्ठ पर पुस्तक से ली गई उनकी एक टिप्पणी छपी है जो इस प्रकार है,
“इस दुनिया में अमन किसी मजहब के रास्ते नहीं आएगा, बल्कि तर्कशीलता, संविधान, आधुनिक सोच, समानता, मानवाधिकार और धर्मनिरपेक्षता के रास्ते आएगा। इनके बगैर किसी भी मुल्क, किसी भी समाज या पूरी दुनिया में अमन की कल्पना बेमानी है। आप के राजनेता आपकी गलत तरीके से सोचने की कमजोरी का फायदा उठाते हैं। वो आपको युद्ध के लिए भड़काते हैं, आप में नकली राष्ट्रभक्ति पैदा करने के भाषण देते हैं। और ज्यादातर जगहों पर बहुसंख्यकों को अल्पसंख्यकों के खिलाफ भड़काकर सत्ता पर कब्जा किया जाता है। ऐसा भारत में भी होता है, पाकिस्तान में भी होता है, अफ्रीका में भी होता है और अमेरिका में भी इस बार यही खेल खेला गया है।
आप जिस दिन इस हकीकत को कबूल कर लेंगे कि आप का हिन्दू या मुसलमान होना महज एक संयोग है और आपका जन्म दूसरे मजहब में भी हो सकता था, आप सँभल जाएंगे। अपने मजहब का दीवाना मत बनिए, वर्ना बहुत जल्द आप खुद को नफरत के नारे लगाने वाली भीड़ का हिस्सा बना हुआ पाएंगे। हमारा पहला धर्म यही है कि यह समाज बना रहे और समाज के बचे रहने की पहली शर्त यह है कि इसमें किसी को यह महसूस नहीं होना चाहिए कि उसके साथ किसी कारण अन्याय हो रहा है।”
अपने जन्मदिन से दो दिन पहले यानी, 9 जनवरी 2024 को उन्होंने अपने फेसबुक पर लिखा,
“जब सारी दुनिया के बच्चे आधुनिक ज्ञान विज्ञान तर्क और तकनीक में आगे जा रहे हैं, तब मैं अपने बच्चों को मूर्ख बनाने वाला कोई काम नहीं करूँगा। मैं बिल्कुल नहीं चाहूँगा कि मेरे बच्चे काल्पनिक कहानियों को सच मानकर अंधकार, अंधविश्वास और मूर्खता के कीचड़ में डूब जाएं।
मैं बिल्कुल नहीं चाहूँगा कि मेरे बच्चे ऐसी कहानी पर विश्वास करें जिसमें यह बताया गया हो कि बंदर समुद्र के पानी में पत्थर फेंक देते थे और वह तैरने लगते थे। या कोई बंदर पहाड़ हाथ में उठाकर हजारों किलोमीटर तक हवा में उड़ते हुए चला जाता था। या कोई औरत कई किलोमीटर तक लंबा मुँह फैला लेती थी और कोई हवा में उड़ता हुआ उसके मुँह में घुस जाता था और वापस निकल आता था। या हजारों साल पहले हमारे यहाँ मन की गति से उड़ने वाले विमान थे और बाद में हम इतने मूर्ख बन गये कि साइकिल तक अंग्रेजों की बनायी हुई इस्तेमाल की और सूई भी हमारे देश में विदेश से आयी।
क्योंकि मेरे बच्चे जब बुद्धिमान बच्चों से ऐसी बाते करेंगे तो ऐसी बातें बोलने की वजह से मेरे बच्चों की हँसी उड़ायी जाएगी और उन्हें मूर्ख समझा जाएगा।
जिन लाखों करोड़ो भारतीयों को मूर्खता के दलदल में और अंधकार युग में वापस ले जाया जा रहा है, वह अपने बच्चों को किस पिछड़ेपन में ढकेल रहे हैं, भारत के नागरिकों को अभी अंदाजा भी नहीं है।
हमारे बच्चे अंधविश्वास और मूर्खता में डूबकर दुनिया में कितना पीछे रह जाएंगे, भारत ज्ञान विज्ञान व्यापार तकनीक में कितना पीछे जाएगा, इन मूर्खों को कोई अता-पता नहीं है।
पूँजीपतियों द्वारा गद्दी पर बिठाए गए ये दुष्ट राजनीतिज्ञ भारत देश का कितना नुकसान कर रहे हैं यह देख पाने में हमारी जनता बिल्कुल असमर्थ हो गई है।“
हम हिमांशु कुमार को उनके जन्मदिन पर बधाई देते हैं और उनके सुस्वास्थ्य व सतत सक्रियता की कामना करते हैं।