हाँ और ना के बीच

ये सड़क कहाँ जाती है?

 

अपने प्रिय लेखक रेणु जी के ‘मैला आँचल’ उपन्यास की ये पंक्तियाँ पढ़ रही थी “बालदेव अब जान रहते इन चिट्ठियों को नहीं दे सकता। इन चिट्ठियों को देखते ही जमाहिरलाल नेहरू जी बावनदास को मेनिस्टर बना देंगे, नहीं तो डिल्ली जरूर बुला लेंगे।” लिहाजा बावनदास द्वारा गांगुली जी को सौंपने के लिए दी हुई चिट्ठियाँ बालदेव जलाने की मंशा से आग में डालने लगते हैं। वह धरोहर तो लछमी किसी तरह बचा लेती है। स्वाधीनता मिलने के बाद बालदेव को पूछा न जाए और बावनदास की इतनी पूछ हो, इस ईर्ष्या की आग में सब आदर्श जलाते हुए, जिस लछमी ने अपनी आँख से देखा हो, उसे मुँह कैसे दिखाएं, इसलिए ठानते हैं “वह अब अपने गाँव में रहेगा, अपने समाज में, अपनी जाति में रहेगा।….जाति बहुत बड़ी चीज है।….जाति की बात ऐसी है कि सभी बड़े-बड़े लीडर अपनी-अपनी जाति की पाटी में हैं।…यह तो राजनीति है। लछमी क्या समझेगी।”

लछमियाँ कहाँ समझती हैं? आम आदमी कहाँ समझता है? उसे तो ‘समझदार लोगों’ ने जो जातिवादी और रूढ़िवादी चाल-चलन सिखाए वही उसने जीवन में उतार लिए। देश के आजाद होने के साथ थोड़ी-थोड़ी आजादी अपनी-अपनी स्थिति के अनुसार आम लोगों तक पहुँची तो उनके दामन में भी जरा-मरा आ गई और उसके साथ थोड़ा-मोड़ा लोकतंत्र और आधुनिकता की हवा भी।

आर्थिक-सामाजिक-राजनीतिक स्थितियों के कारण गाँव से निकल कर शहरों में बसे इन करोड़ों कामगारों का मानसिक रसायन अब बदलने लगा था। जाति और परंपराओं की जकड़बंदियाँ ढीली पड़ने लगी थीं।

ऐसे अनेक लोगों में से एक हमारे अपार्टमेंट में इस्तरी करने और गाड़ियों की सफाई का काम करने वाला कैलाश भी था। सुबह की सैर के समय वह परिसर में दिखता और रात के खाने के बाद चहलकदमी करते हुए भी वहीं नज़र आता था। 8 साल पहले जब यहाँ रहना शुरु किया, पहली मुलाकात उसी से हुई। बड़े जोश के साथ उसने मुझे अपार्टमेंट की सब सुविधाओं और गतिविधियों से परिचित कराया और वह किन कामों के लिए किस समय उपलब्ध होता है, विस्तार से बताया। “पंद्रह साल हो गये मुझे यहाँ काम करते। सब जानते हैं मुझे। किसी से पूछ कर देखो, जो कोई कह दे कि मैंने कभी एक बार भी कामचोरी की हो, नागा किया हो या मजाल है जो मेरे रहते सुई भी किसी की गायब हुई हो।”

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गुजरते वक्त के साथ उसकी खुशी और संतोष में इजाफा होता गया। पत्नी आई। कमाई दुगनी हुई। दो बच्चे हुए, जिनमें से एक, गोलू शरीर से थोड़ा लाचार था। उसकी शिक्षा सामान्य स्कूलों में संभव नहीं थी। सम्पन्न घर में पैदा होता तो वह भी शिक्षा प्राप्त कर पाता। पर जो सम्भव नहीं था, वह कैलाश ने दूर तक न सोचा और न ही इस मलाल को कलेजे में गहरे धँसने दिया। गोलू भी उसकी इस्तरी की मेज के आस-पास ही खेलता नजर आता। छोटा बेटा, प्रकाश साफ-सुथरी यूनीफॉर्म पहन कर पानी की बॉटल कंधे पर टाँग कर स्कूल जाया करता। उसे स्कूल छोड़ते-लाते वक्त कैलाश की साईकिल एक निराली मौज में बलखाती हुई सी चलती थी। सड़क पर और एक सुनहरे भविष्य की ओर ले जाने वाली पगडंडियों पर एक साथ दौड़ रही हो मानो। इसीलिए तो गोलू को घिसटता देखकर भी उसके चेहरे पर शिकन नहीं आती थी। उसके खाने-पीने-पहनने-खेलने का भी वह भरसक ध्यान रखता था।

‘मैला आँचल’ का उक्त हिस्सा पढ़ रही थी, जब दरवाजे की घंटी बजी। दरवाजा खोला तो कैलाश को सामने पा कर बड़ी खुशी हुई। लॉकडाउन होने के बाद से न जाने कहाँ नदारद था। पहले तो दो-चार बार गेट में फोन करके पूछा कि कैलाश कहाँ है? उसका नम्बर लेकर दो बार उसके पड़ोसी के पेटीएम पर पैसे भी भेजे, और कहा कि कोई जरूरत पड़ने पर फ़ोन करे। बच्चों के लिए अपनी भतीजियों की कुछ किताबें भी उसके लिए गेट पर छोड़ दी थीं। कुछ रोज तक तो उसके हाल-चाल पता चले और किताबों के शौकीन बच्चों की चहक भरी आवाजें भी सुनाई पड़ीं। अक्षरों को न पहचानने पर भी कैलाश उन पर इस तरह अंगुलियाँ फिराया करता था मानो ग्रहण कर पा रहा हो।

बच्चों के साथ बच्चा बना कैलाश सचमुच कुछ शब्दों की लिखत अब पहचानने भी लगा था। पहचानता कैसे नहीं, इन नन्ही-नन्ही असंख्य डोंगियों में सवार होकर ही तो उसके बच्चे उस तरह की जिंदगी तक पहुँचने वाले थे, जैसी अब तक वह तथाकथित सभ्य लोगों को जीते देखता आया है। उनकी जिंदगानियों को सम्भव बनाने के लिए खुद को हँसी-खुशी खपाता आया है। अब यह जिंदगानी उसकी अपनी बेल पर खिलेगी। इन्हीं अक्षरों की खुराक पा कर। इन्हें कैसे नकार दे वह। कुछ मन की आँखों से पढ़ लेता है, कुछ उंगलियों के स्पर्श और शब्दों के रंग-रूप से, कुछ प्रकाश से मिली जानकारियों के सहारे।

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आज उसके अभिवादन में पहले जैसा उत्साह नहीं था। चेहरा पिचका हुआ था, बदन कुछ सिकुड़ा हुआ और आँखों में वह चमक नहीं जो खुद पर भरोसा होने और मेहनत के बाद भरपूर नींद लेने से आती है। क्या-क्या किया, बताते हुए उसने पहले अभाव की बातें बताईं कि जमापूँजी तो थी नहीं। वर्तमान की गुजर-बसर ठीक-ठाक हो जाती थी। मगर इतना तो कभी नहीं हुआ कि जमा किया जाए। कोई पक्की नौकरी भी नहीं थी कि लॉकडाउन के दौरान गुजर लायक कुछ मिलता। सो शुरू में कभी सब्जी की रेहड़ी लगाई, कभी कुछ और किया। पर धीरे-धीरे अपने लोगों के बीच यह बात उसके मन में घर करती रही कि वह अमुक जात है और अमुक जात के लोग किस-किस काम में हाथ नहीं लगाते। कौन-कौन जातियों से ऊपर माने जाते हैं और अपने जात भाइयों के बीच उसकी कितनी पूछ है। पिछले 8 सालों में उसने कभी अपनी जाति की कोई बात नहीं की थी। अब वह मेरी भी जानना चाह रहा था और अपनी पहचान, अपनी गरिमा जाति और रीति-रिवाजों से ही प्राप्त करने की कोशिश कर रहा था। उसका हर कर्म अपनी बिरादरी के अनुमोदन पर निर्भर ही नहीं कर रहा था बल्कि कुछ अतिरिक्त कर दिखा उन्हें प्रभावित करने की उसकी इच्छा जोर मार रही थी।

बच्चों की किताबों और पढ़ाई-लिखाई के बारे में उसने एक शब्द भी नहीं कहा। मुझे टीचर समझ कर वह इतना कुछ पूछा-बताया करता था। गोलू और प्रकाश के सामने अबोध दिखना नहीं चाहता था इसलिए बहुत कुछ मुझसे पूछ लिया करता था। अब पूछे जाने पर भी उसने ठंडा सा जवाब दे दिया जैसे किताबें महज कागज हों, एक बेजान चीज, जिन पर समय जाया करना समझदारी न हो।

यह सुन कर मुझे झटका लगा कि प्रकाश का स्कूल छूट गया है और वह भी कुछ-कुछ काम करता है। अब सारे लोग इस तरह के कामों में लगे हैं, जो बह कर ऐसी कोई धारा नहीं बनाते जिसकी दिशा भविष्य की ओर जाती हो। कड़ी मेहनत से उनके पेट बमुश्किल ही भर पा रहे हैं। फिर भी बिरादरी के मिथ्या गौरव बोध से उसकी आवाज तनी हुई थी। समान स्थिति वाले उसके जैसे कई लोग मिलकर सामूहिकता की ताकत से कुछ कर लेंगे, इसकी क्षीण आशा भी नहीं जग रही थी। भविष्य के उसके सपनों के बारे में बात छेड़ने पर बोला कि यहाँ क्या रखा है, हमारे देस में तो जो होगा अच्छा ही होगा। गोलू भी बड़ा हो रहा है। दो-चार साल में किसी गरीब सी लड़की से उसका ब्याह कर देंगे तो वह उसकी और घर की देख-रेख कर लेगी।

यह कौन सा कैलाश खड़ा है मेरे सामने? लछमियां कहाँ कुछ समझती हैं? बालदेव चनरपट्टी जा कर क्या यही सब करने वाला था गाँधीवादी जीवन जीने के बाद? कैलाश भी तो अपनी ईमानदारी और जुझारूपन से खुद को परिभाषित किया करता था। आज वह बिरादरी के किसी रिवाज के तहत कोई अनुष्ठान करने के लिए पैसे ले जाने आया है।पत्नी ने लाख मना किया कि गोलू के लिए रहने दो। हमारे बीच तय हुआ था कि जितने भी वह डालेगी, उतने मैं अपनी ओर से डाला करूंगी। तो वह कभी 100, 200, 500 डालते रहती थी। उसे गोलू का इलाज करवाना था। पर वे पैसे अब उसकी चचेरी बहन की सगाई में लड़के वालों को नेग चढ़ाने के लिए काम आएंगे। जिन सामाजिक बेड़ियों को ढीला पड़ने में इतने साल लगे थे, क्या वे फंदे फिर कसने लगे हैं? एक सरकारी फरमान रातों-रात घरों से निकाल कर गाँव की ओर जाने वाली सड़कों पर तो ला खड़ा कर सकता है,  पर क्या परम्परा की पुरानी जकड़बदियों की ओर भी ? यह मानने को जी नहीं करता। इस बार बालदेव, कैलाश, चिट्ठियों के उस पार के लोगो, तुम्हीं समझो यह सब। लछमियाँ यह नहीं समझना चाहतीं कि तुम्हें ये जकड़बंदियाँ क्यों इतनी रास आती हैं। हाँ, इनसे बाहर निकलने के संघर्ष में जो तूफान आएंगे, उनका सामना करने में वे पूरा साथ देंगी।

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रश्मि रावत

लेखिका दिल्ली विश्वविद्यालय के एक कॉलेज में अध्यापन और प्रतिष्ठित पत्रिकाओं में नियमित लेखन करती हैं। सम्पर्क- +918383029438, rasatsaagar@gmail.com
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