हत्यारी और तड़ीपार संभावनाओं के समानांतर
अरसे से सोच रहा हूँ कि कुछ न सोचूँ; लेकिन ऐसा किसी भी तरह हो नहीं पा रहा है कुछ भी न सोचूँ। ससुरा दिमाग़ है कि मानता ही नहीं, सोचता ही है। संभावनाएँ तो आख़िर संभावनाएँ ही हैं। जैसे मरता हुआ कोई आदमी जिसकी धुकधुकी चल रही है और आगे कोई राह नहीं है, वह भी जीवन के बारे में मौन कहाँ रहता है। उठापटक चालू रहती है हमेशा; कोई पास हो या न हो। जब बेहतर आदमी से संभावनाएँ चुकी हुई दिखाई पड़ती हैं तो लोग हत्यारों, तड़ीपारों, हिंसकों, तस्करों और खुदगर्ज़ों, ठगों में संभावनाएँ तलाशने को बाध्य होते हैं।
उनकी नज़र में संभावनाएँ तो हैं ही; चाहे जहाँ हों। उन्हें न शुचिता से कोई लेना-देना होता, न भूखे भेड़ियों से। पात्र-कुपात्र का कोई मतलब नहीं। वे जीवितों का पेट फाड़कर सब कुछ स्वाहा करने वालों में भी उम्मीद तलाश लेते हैं या उनके साथ अटैच हो लेते हैं और बलात्कारियों के जुलूस में शामिल हो जाते हैं। आपदा में प्रबन्धन की तलाश करने वालों से भी वे कदमताल करने लगते हैं। अब हत्या तो कम बात नहीं है; चाहे वह आज़ादी की हो या जनतंत्र की। तस्करी चाहे न्याय की हो या नैतिकताओं की।
नया युग है। बाज़ार फैला है। हर जगह हम नीचता और क्रूरता में, अकेलेपन के वैभव में दु:ख छिपाते हैं और सुखी होने का अनुभव करना चाहते हैं। वक्त लतिया रहा है और हम मौतों के बीच जीवित होने की कोशिश में भिड़े हैं। वक़्त हादसा-दर-हादसा हमारा पीछा कर रहा है। हमारा दर्द समझने की इच्छा है नहीं है किसी के पास। एक ऐसा अमानवीय कृत्य पीछे पड़ा है कि हम अपने आप को भूलने लगे हैं। न किसी में हिम्मत है कि सवाल उठाए और आख़िर उठाए तो कहाँ उठाए। न कोई जवाब देने वाला है, न कोई देश-दुनिया में रहने वाला है। हम विकास का कम्बल ओढ़े, आत्मा के बेचैन इलाकों में आश्वासनों का काढ़ा पीने मे लगे हैं।
लगातार मौतों के कोहराम में चुटकी भर आधुनिकता के सहारे रंगीन चमकीली पन्नियों में सरप्राइज़ गिफ्ट की तरह अवसाद की पैकेजिंग में जीवन को सार्थक करने में जुटे हैं। आँसुओं में नहाए मनुष्यता में रंग-रोगन लगा रहे हैं। अँधेरे समय में हम हार न बजाती सभ्यता को विध्वंस होने के बावजूद तलाश रहे हैं। विमल कुमार की पंक्तियाँ पढ़ें— “वे हत्या को भी अध्यात्म से जोड़ दें/भ्रष्टाचार को ज्ञान-परम्परा से/अपराध को दर्शन से/कुछ भी मुमकिन है।” यह ऐसा समय है कि जो अच्छा है, वह अनुपस्थित है और जो ख़राब है, ग़लत है वह अपने मनोविज्ञान के साथ पूरी तरह हाज़िर है। जो किसी भी तरह नहीं होना चाहिए, वह होगा और जो वाकई में होना चाहिए, वह कभी नहीं होगा।
मैं जब छोटा था, मेरे गाँव में एक हत्या हुई थी। हत्या करने वाला इस बात को कहता-फिरता था। उसके ऊपर हत्या चढ़ी थी। अब उसका भी प्रमोशन हो गया है। हत्यारा सावधानी से सब ठीक-ठाक कर देता है। इसी को गाँव की बोली में हत्यारी चढ़ना कहते हैं। अब तो पूरे देश में हत्यारी चढ़ी हुई है। वह उतरने का नाम नहीं लेती। हम हत्या के जुनून में हैं। बलात्कार के बाद हत्या, मॉब लिंचिंग के बाद हत्या, रेत-उत्खनन रोकने वालों की हत्या। इसी को दूसरे शब्दों में हत्यारी संभावनाएँ मानना चाहिए। कोरोना वायरस उसी का अखंड रूप है। रोकथाम न करना, उचित प्रबन्धन न करना आख़िर क्या है? महात्मा गाँधी की हत्या क्या है? इंदिरा गाँधी, राजीव गाँधी की हत्या क्या है? ये तो कुछ उदाहरण हैं। इनकी एक लम्बी शृंखला है।
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सभी को अपना धर्म प्यारा होता है। उनकी अच्छी भावनाओं और अच्छे मूल्यों की भर्त्सना और हत्या होने लगती है। जैसे पूर्व में कहा जाता था कि आगे राम रखइया है। उसी का गतिशील विस्तार है— पूरे देश में चढ़ी हत्यारी। हत्यारी पहले नाबालिग थी; अब बालिग हो गयी है। आगे राम रखइया है। मूल्य गए वनवास; आगे सब कुछ लुटने की या लूटने की तैयारी है। इसी का जुड़वा भाई है तड़ीपार। इसके पेंदे में हमारे जीवन के विविध आयाम और यथार्थ हैं। चलन शुरू हुआ है कि खुशफहमी में लहालोट कराइए और चीज़ों-स्थितियों भर से नहीं, वास्तविकता और मौलिकता से, विश्वासों से, नैतिकताओं से तड़ीपार हो जाइए। रुपया-पैसा तो है ही। हत्यारी संभावनाओं और तड़ीपार संभावनाओं की दुनिया बड़ी है। हम पाँच-सात मिनट में दो करोड़ को बीस-पच्चीस करोड़ में बदल देने की कूबत रखते हैं।
हमारे जीवन के राष्ट्रीय स्तर पर एक कबाड़खाना है। वहाँ तरह-तरह की चीजें जुटा ली गयी हैं। एक मन का कारखाना स्थापित किया गया है; जो उससे उत्पादित हो, वही महत्त्वपूर्ण हो जाता है। वहाँ गन्दी, मनगढ़ंत चीज़ें ही जगमगाती हैं। घोषित हो रहा है कि वही उस कबाड़ का तापमान है। यही उसकी विलक्षणता है; जिसमें अगड़म-बगड़म सब उपयोगी मान लिया जाता है। जब घूरे के दिन फिरते हैं तब इसी तरह की चमक पैदा होती है। इन सभी की उपस्थिति के मायने उनकी नज़र में अति आवश्यक हैं और उनकी सघनता हर चीज़ का कारगर जवाब है।
लहालोट उदासी और किसी भी तरह जीवित बचे रहना ही बेहतर विकास की राष्ट्रीय निशानी है। एक राग अलापा जा रहा है कि सब ठीक है। यानी सब ठीक होना ही है। हम पिघलते हुए दु:खों में हुक्मरानों के विकास के मानक हैं। हम खुशी झाँकती बेचैन आत्माएँ हैं और सभ्यता, संस्कृति और जीवन के उच्च शिखर भी। हत्या और तड़ीपार संभावनाओं में हम जीते हैं और विकास की राष्ट्रीय त्रिकोणमिति साधते हैं। इधर ऐसा हो रहा है कि कोई शब्द ठीक से अर्थ नहीं प्रकट कर पा रहा है। अर्थ बाँझ बनते जा रहे हैं। उम्मीद भी घोटालों की भेंट चढ़ गयी है। हमारी वर्णमालाएँ आतताइयों के शिकंजे में फँस चुकी हैं; फिर भी हर समय एक सपना जागता है।