शिक्षा

नयी शिक्षा नीति : उपसंहार

 

स्वामी विवेकानन्द का विचार है कि “मनुष्य की अन्तर्निहित पूर्णता को अभिव्यक्त करना ही शिक्षा है।” महात्मा गाँधी का मानना है कि “शिक्षा का सम्बन्ध बालक और मनुष्य के शरीर,  मन तथा आत्मा के सर्वांगीण और सर्वोत्कृष्ट विकास से है।” यह तो सभी मानते हैं कि शिक्षा किसी भी मानव समुदाय में निरन्तर चलने वाली सामाजिक प्रक्रिया है, जिसका कोई लक्ष्य होता है और जिसके द्वारा  मानव की आन्तरिक शक्तियों का विकास एवं उसके व्यवहार को परिष्कृत किया जाता है। तो निरन्तर चलने वाली प्रक्रिया होने के कारण दुनिया में हर मानव समुदाय समय-समय पर अपनी शिक्षा नीति का निर्धारण करता रहा है और इसी के तहत हमारे देश में नयी शिक्षा नीति के द्वारा छात्रों के ज्ञान और कौशल में वृद्धि कर योग्य नागरिक बनाने की योजना बनायी गयी है।

वर्तमान सरकार द्वारा नयी शिक्षा नीति लाने की घोषणा के बाद से ही इस विषय पर तमाम आलोचनाएँ-प्रत्यालोचनाएँ हुईं और इसके अच्छे-बुरे पक्षों पर लेखों का अम्बार लग गया है। ये  लोकतन्त्र के लिए शुभ संकेत हैं। मैंने भी कुछ लेखों को पढ़ा। किसी से सहमत और किसी से असहमत भी हुआ। कुछ अतिरंजित और भयावह भविष्य की भविष्यवाणी भी की गयी और इसे ऐसे रूप में भी पेश किया गया कि नयी शिक्षा नीति लागू होते ही अनर्थ की शुरुआत हो जाएगी और देश का शैक्षणिक भविष्य अन्धकार के गर्त में धकेल दिया जाएगा। अच्छा ये हुआ है कि इस नीति को लेकर अनवरत चलने वाला कोई धरना-प्रदर्शन नहीं हुआ क्योंकि इस मुद्दे में किसी भी राजनीतिक दल को कोई साक्षात लाभ मिलता नहीं दिखा। इसी से यह भी पता चल गया कि राजनीतिक दल और तथाकथित बुद्धिजीवियों को अपनी शिक्षा नीति की कितनी चिन्ता है।

हमारे देश की प्राचीन शिक्षा पद्धति आध्यात्मिकता पर आधारित थी और शिक्षा का उद्देश्य मोक्ष तथा आत्मबोध के रूप में स्वीकार किया जाता था। विद्वानों का मत है कि भारत की शैक्षणिक एवं सांस्कृतिक परम्परा विश्व इतिहास में प्राचीनतम है। डा अलटेकर का मानना है कि “वैदिक युग से लेकर अबतक भारतवासियों के लिए शिक्षा का अभिप्राय यह रहा है कि शिक्षा प्रकाश का स्रोत है तथा जीवन के विभिन्न कार्यों में यह हमारा मार्ग आलोकित करती है।” यही कारण है कि हमारे महान पूर्वजों ने गुरुकुल शिक्षा पद्धति को अपनाया था और आगे चलकर इसी पद्धति को आधार बनाकर काशी,  नालन्दा,  विक्रमशिला,  तक्षशिला, मिथिला, प्रयाग आदि नगरों को शिक्षा का मुख्य केन्द्र बनाकर उस समय एक कारगर शिक्षानीति का कार्यान्वयन किया गया था जो सफल था। शिक्षकों का विशेष सम्मान होता था और शिक्षक छात्रों के चरित्र-निर्माण पर विशेष बल देते थे। कथा, अभिनय आदि को  शिक्षा के साधन के रूप अपनाया जाता था।

बौद्धों और जैनों ने भी ऐसी ही शिक्षा पद्धति को आधार बनाकर अपनी शिक्षा नीति लागू की थी। यहाँ यह विशेष रूप से ध्यातव्य है कि महात्मा बुद्ध ने जनभाषा/मातृभाषा को ही अपनाने की अनिवार्यता पर बल दिया था और उनके शिक्षाविदों ने इसे ईमानदारी से कार्यान्वित किया था, जबकि संस्कृत भाषा की उपेक्षा भी नहीं की गयी थी। यहाँ यह उल्लेख करना इसलिए प्रासंगिक समझा गया है कि स्वतन्त्रता प्राप्ति के बाद से ही भारतीय मनीषियों का एक बड़ा वर्ग जनभाषा/मातृभाषा को ही शिक्षा का माध्यम बनाने पर बल देता रहा है और आज नयी शिक्षा नीति में भी इसे शामिल करने का प्रस्ताव है जबकि अंग्रेजी भाषा की यहाँ भी उपेक्षा नहीं की गयी है।

मध्य काल में मुस्लिम राज्य स्थापित होने के बाद स्वाभाविक ही इस्लामी शिक्षा का प्रचार-प्रसार हुआ और फारसी भाषा को शिक्षा का माध्यम बनाया गया। चूँकि फारसी जानने वाले ही सरकारी पदों का लाभ ले पाते थे, फलत: भारतीयों का झुकाव फारसी माध्यम की शिक्षा की ओर हुआ। इस समय पहले मकतबों और बाद में मदरसों में धार्मिक शिक्षा की प्रधानता के बावजूद साहित्य, इतिहास, तर्कशास्त्र, गणित, कानून आदि की शिक्षा को नीतियों में समाहित किया गया था। इसके अलावा अध्ययन के प्रति रुचि विकसित करने तथा सदाचारयुक्त धार्मिक शिक्षा को भी अपनाने पर विशेष जोर देकर एक बेहतर समाज की परिकल्पना की गयी थी। दिल्ली, आगरा, जौनपुर, मालवा आदि में मुस्लिम शिक्षा नीतियों के तहत उपयुक्त शिक्षा केन्द्रों की स्थापना की गयी थी। ऐसे समय में विजित साम्राज्य की उपेक्षा के बावजूद संस्कृत और जनभाषा में काव्य, नाटक, व्याकरण, दर्शन ग्रन्थों की रचना और उनकी पढ़ाई-लिखाई अनवरत चलती रही।

हमारे देश में आधुनिक शिक्षा का आगमन यूरोपीय ईसाई धर्म प्रचारकों एवं व्यापारियों के द्वारा सम्भव हुआ। मुख्यतः लार्ड मैकाले की शिक्षा नीतियों को कुछ भारतीय बुद्धिजीवियों के सहयोग से लागू किया गया और स्वाभाविक रूप से शिक्षा का माध्यम अंग्रेजी भाषा को बनाया गया। इस शिक्षा नीति के प्रभाव से असंख्य भारतीयों की आर्थिक स्थिति सुधरने लगी तो अन्य लोगों का भी झुकाव बढ़ता गया। सरकारी सहयोग से यह पद्धति अपनी पटरी पर दौड़ने लगी। आगे चलकर इस नीति में अनेक सुधार भी किए गये, किन्तु माध्यम अंग्रेजी भाषा ही रही, जिससे हमारे देश का बहुत बड़ा वर्ग धीरे-धीरे पिछड़ने लगा। इसी की प्रतिक्रिया में 1870 में तिलक ने पुणे में फर्गयुसन कालेज, 1886 में आर्यसमाजियों ने लाहौर में दयानन्द एंग्लो वैदिक कालेज एवं एनी बेसेंट ने 1898 में काशी में सेन्ट्रल हिन्दू कालेज की स्थापना की।


यह भी पढ़ें – नयी शिक्षा नीति : लागू करने से पहले के कर्तव्य


मैकाले की शिक्षा नीति के उद्देश्य से सभी परिचित हैं। इस पर बहुत कुछ अब लिखने की जरूरत नहीं है। इनकी शिक्षा नीति को सर्वप्रथम ईसाई मिशनरियों ने ही लागू किया था और यही मिशनरी आगे हावी होती गयी, जिसके परिणामस्वरूप आज भी हमारे देश में विभिन्न स्तर के  अंग्रेजी माध्यम के असंख्य विद्यालय खुलते जा रहे हैं तथा सरकारी शिक्षा नीतियों की खुले आम धज्जियाँ उड़ाते हुए अपना वर्चस्व दिनानुदिन बढ़ाते जा रहे हैं। आश्चर्य है कि स्वतन्त्रता प्राप्ति के बाद से सरकारी शिक्षा नीतियों के बावजूद कुकुरमुत्तों की तरह बढ़ते जा रहे इन विद्यालयों के विरोध में किसी भी राजनीतिक दल अथवा तथाकथित बुद्धिजीवियों और बड़े-बड़े शिक्षाविदों ने न तो किसी तरह का आन्दोलन किया और न ही बहुत लम्बा चलने वाला धरना-प्रदर्शन! क्या लोकतन्त्र में शिक्षा के अधिकार के लिए शाहीन बाग और वर्तमान किसान आन्दोलन जैसे विरोध-प्रदर्शन की आवश्यकता नहीं समझी गयी? जबकि यहाँ विरोध हुआ राजभाषा हिन्दी को लेकर। क्या हमारा यही स्वस्थ लोकतन्त्र है? तथ्य तो यह है कि हमारे देश में शिक्षा के गुणात्मक परिवर्तन के लिए हमारे राजनीतिक दलों एवं बुद्धिजीवियों के पास सोचने को समय ही नहीं है, वे केवल और केवल सत्ता के हस्तान्तरण के लिए अपनी सारी ऊर्जा खर्च करते रहते हैं।

नयी शिक्षा नीति 2020 हमारे देश के अन्तरिक्ष वैज्ञानिक के. कस्तूरीरंगन की अध्यक्षता वाली समिति के प्रतिवेदन पर आधारित है। 1986 की शिक्षा नीति के बाद कुछ सुधारों के साथ इसे लागू करने का संकल्प लिया गया है। सरकार की मंशा है कि इस पर सकल घरेलू आय का छह प्रतिशत खर्च किया जाए जो राज्य सरकारों के सहयोग से वांछित है। इस नीति के तहत 5+3+3+4 का मूलमन्त्र तैयार किया गया है। इसकी योजना के अनुसार बच्चों को विद्यालय के प्रति उनके डर एवं झिझक की मनोवृत्ति को दूर कर पढ़ाई के प्रति उनकी गहरी रुचि जाग्रत करनी है। तीन साल की उम्र में उन्हें पूर्व प्राथमिक में रख कर पहली और दूसरी कक्षा बिना परीक्षा के ही पूरी करा दी जाएगी। इसे बुनियादी चरण कहा गया है। इसके बाद के तीन वर्षों में उन्हें तीसरी, चौथी और पाँचवीं कक्षा की शिक्षा पूरी करनी होगी, जिसमें परीक्षा होगी, जिसे प्रारम्भिक चरण कहा गया है और इसे मातृभाषा में पूरा करने का सुझाव दिया गया है। फिर तीन साल का मध्य या उच्च प्राथमिक चरण होगा जिसके अन्तर्गत बच्चे छठी, सातवीं एवं आठवीं कक्षा पूरी करेंगे तथा इस चरण में व्यावसायिक शिक्षा का भी प्रावधान रखा गया है। तत्पश्चात चार साल का उच्च या माध्यमिक चरण होगा। इस चरण में बच्चे नौ, दस, ग्यारह और बारह की कक्षा पूरी करेंगे। विद्यालयी और माध्यमिक चरण में संस्कृत और अन्य भारतीय तथा विदेशी भाषाओं का विकल्प होगा, किन्तु भाषा-चयन की बाध्यता नहीं होगी।

मेरे विचार से इसमें नया ज्यादा कुछ नहीं है। पहले से ही सारे राज्यों के सरकारी विद्यालयों में कुछ इसी प्रकार की व्यवस्था लागू है। जहाँ तक पूर्व प्राथमिक में तीन साल के बच्चों को रखने की बात है, वह भी पूरे देश के निजी विद्यालयों में लागू है। नया यही है कि अब इसे सरकारी विद्यालयों में भी लागू करने की सिफारिश की गयी है जो जरूरी भी है क्योंकि बहुसंख्य बच्चे निजी विद्यालयों में पूर्व नर्सरी, के जी और के जी-1 कर ही रहे हैं तो सरकारी में भी लागू होना ही चाहिए।

सरकारी विद्यालयों में मातृभाषा से बच्चे मैट्रिक अभी भी कर ही रहे हैं। नयी नीति में भी अंग्रेजी का विकल्प है ही, जिसका क्रियान्वयन निजी विद्यालयों में हो ही रहा है, आगे भी होगा, होता रहेगा। छठी से आठवीं के दौरान व्यावसायिक शिक्षा पहले थी ही, बीच में उसे बन्द कर दिया गया था। अब फिर से लागू करने की अनुशंसा है तो यह भी नया नहीं है। निजी विद्यालयों में बच्चे विदेशी भाषा और संस्कृत का विकल्प अभी भी रख ही रहे हैं, जिसे सरकारी में भी रखने की सिफारिश की गयी है जो समानता के लिए जरूरी भी है। यहाँ नयी बात यह है कि बच्चे दसवीं के बाद विज्ञान, कला या वाणिज्य विषय अलग से लेने को बाध्य नहीं होंगे, बल्कि वे स्वेच्छा से कोई भी विषय चुनकर अध्ययन कर सकते हैं। इनके मूल्यांकन के लिए भी तीन स्तर अपनाने की बात की गयी है। पहला स्वमूल्यांकन, दूसरा सहपाठियों का मूल्यांकन और तीसरा शिक्षकों का मूल्यांकन। रटन्त विद्या के स्थान पर सर्जनात्मक प्रतिभा को निखारने पर विशेष बल दिया गया है। यह सराहनीय कदम है।

यहाँ मैं थोड़ा पीछे ले जाना चाहूँगा। 1937 में शिक्षा की एक योजना तैयार की गयी थी जो 1938 में बुनियादी शिक्षा या बेसिक एजुकेशन के नाम से जानी गयी। इस योजना में व्यावसायिक शिक्षा को स्थान दिया गया था जो आजादी के बाद भी वर्षों तक जारी रही। महात्मा गाँधी की सिफारिश से यह नीति कई राज्यों में बरकरार रही, जो धीरे-धीरे काल-कवलित हो गयी। इसे पुनर्जीवित करने की सिफारिश ग्राह्य होनी चाहिए। इसे यह कह कर नहीं टालना चाहिए कि इससे मजदूर और कामगार वर्ग तैयार हो जाएगा।

दरअसल,  गाँधीजी भारतीय शिक्षा को ‘दी बियूटीफूल ट्री’ कहा करते थे। इसका कारण यह था कि बापूजी ने भारत की शिक्षा के बारे में जो कुछ जाना था वह यह था कि हमारे देश में शिक्षा सरकारों के बजाय समाज के अधीन थी। प्रसिद्ध गाँधीवादी चिन्तक डॉ. धर्मपाल ने यह लक्ष्य किया था कि यूरोपीय शिक्षा पद्धति ने न केवल हमारे अर्थशास्त्र और कुटीर उद्योग को समाप्त कर हमारे पूरे अर्थतन्त्र को डस लिया था, बल्कि भारत का सांस्कृतिक, साहित्यिक, नैतिक और आध्यात्मिक विखण्डन भी किया, जिससे भारत अपना भारतपन ही भूल गया और अंग्रेजी शिक्षा से आच्छन्न यहाँ के कुछ बड़े घरानों के लोग भारत भाग्य विधाता बन गये।” उल्लेखनीय है कि गाँधीजी ने बेसिक शिक्षा के माध्यम से शिक्षण विधि को शिक्षण के वास्तविक कार्य-कलापों और अनुभवों पर अनिवार्य रूप से आधारित करने पर जोर दिया था और अंग्रेजी और धर्म की शिक्षा को इससे दूर रखने की पुरजोर सिफारिश की थी। वे बच्चों में मानवीय गुणों के विकास पर बल देते थे। कहना न होगा कि वर्तमान नयी शिक्षा नीति में गाँधीजी के इन्हीं विचारों को पुनर्स्थापित करने के संकल्प को दोहराया गया है।


यह भी पढ़ें – मुक्तिकामी शिक्षा का विचार और डॉ. बी.आर. अम्बेडकर


आजादी के बाद 1948-49 में राधाकृष्ण आयोग, 1953 में मुदालियर आयोग, 1964 में कोठारी आयोग, 1968 में राष्ट्रीय शिक्षा नीति, 1986 में नवीन शिक्षा नीति का जो सफर हमने तय किया है, उसमें समय-समय पर शिक्षा व्यवस्था को सही दिशा देने की गम्भीर कोशिश की गयी। और अब नयी शिक्षा नीति 2020 आई है तो इसे भी देखना चाहिए कि यह नीति किस तरह के गुणात्मक परिवर्तन का मार्ग प्रशस्त करती है। मेरे विचार से हर नयी चीज में कुछ-न-कुछ चुनौतियाँ तो होंगी, किन्तु हमें प्रयोग करते रहना ही चाहिए।

नयी शिक्षा नीति 2020 में विद्यालयी शिक्षा के बाद चार वर्षों की विश्वविद्यालयी शिक्षा की सिफारिश की गयी है। इसमें प्रत्येक वर्ष का एक प्रमाण पत्र देने की बात कही गयी है। पहले वर्ष में सर्टिफिकेट, दूसरे में डिप्लोमा, तीसरे में डिग्री और चौथे में रिसर्च का प्रमाण पत्र दिया जाएगा। एम. फिल. को समाप्त कर दिया गया है। चार साल का स्नातक डिग्री लेने वाले एक साल का स्नातकोत्तर करेंगे और तीन साल वाले दो साल में। इसके बाद वे पी-एच.डी. कर पायेंगे। नयी नीति में एक बात महत्वपूर्ण यह है कि किसी कारण से कोई छात्र पहले साल या दूसरे साल या तीसरे साल पढ़ाई छोड़ देता है तो वह फिर वहीं से शुरू कर सकता है जहाँ से उसने छोड़ा है। इसके अलावा इस नीति में विज्ञान, कला एवं वाणिज्य विषय अलग से लेने की जरूरत नहीं होगी। यह छात्रों की इच्छा पर होगा कि वे विज्ञान के साथ कला या कला के साथ वाणिज्य या वाणिज्य के साथ विज्ञान विषय चुन कर पढ़ाई कर पायेंगे।

यहाँ एक और बात का उल्लेख मैं प्रासंगिक समझता हूँ। वह यह है कि जब सरकार ने शिक्षा के लिए इतनी नीतियाँ बनाईं, उनका क्रियान्वयन किया तो भी शिक्षा में गुणात्मक परिवर्तन की अपेक्षा ज्यादातर संख्यात्मक परिवर्तन ही देखने को क्यों मिला? ऐसा क्यों हुआ कि शिक्षा के क्षेत्र में निजी संस्थाओं की बाढ़ आ गयी और दिनानुदिन समाज का एक खास वर्ग इस दिशा में तरक्की करता गया और देश का अधिकांश समाज पिछड़ता चला गया? इस आपा-धापी में निश्चय ही नीचे के उन वर्गों को भी किंचित लाभ मिला जो किसी तरह वहाँ तक पहुँच पाने में सफल हुए। किन्तु, ऐसे लोग भी धीरे-धीरे अपने को उसी समाज में खपाने लगे, जिसके सम्बन्ध में पहले उनकी राय अच्छी नहीं थी।

मैंने पहले ही यह निवेदन किया है कि कुछ बड़े घराने के लोग ही भारत के भाग्यविधाता बन बैठे थे। ये ही भाग्यविधाता एलीट थे और इन्होंने ही शिक्षा नीति को उसके वास्तविक अंजाम तक पहुँचने में बाधा खड़ी की। इन्हीं की जिद के कारण शिक्षा का केन्द्रीकरण हुआ। शिक्षा बड़े शहरों में केंद्रित होकर रह गयी। बड़े-बड़े शिक्षण संस्थान कुछ खास शहरों की शोभा बन गये। महँगे विद्यालय और धीरे-धीरे महँगे महाविद्यालय तथा विश्वविद्यालय महानगरों और नये बन रहे महानगरों में केंद्रित होने लगे। अब सुदूर कस्बों और देहातों के वे ही बच्चे इसका लाभ उठा पाते थे जो आर्थिक रूप से सक्षम थे। मेधावी छात्र-छात्राओं की प्रतिभा माध्यमिक और उच्च माध्यमिक तक जाते-जाते दम तोड़ने लगी। आर्थिक रूप से सक्षम घरानों के बच्चे शिक्षा की इस चकाचौंध का लाभ उठाकर देश के जिम्मेवार पदों पर आसीन होने लगे। इस होड़ ने भ्रष्टाचार को फलने-फूलने का भरपूर मौका दिया और गाँधी बाबा के अन्त्योदय का सपना धराशायी होने लग गया और हमारी शिक्षा नीति साक्षरता अभियान को भी पूरा नहीं कर पाई। जो पहले एलीटों का विरोध करते थे, वे भी मौका पाकर एलीट होने लगे एवं सरकारी शिक्षा नीति को धता बताकर निहित स्वार्थ के पंक में अपने और अपनों को डुबो दिया।

यही एलीट वर्ग धीरे-धीरे शिक्षा माफिया में बदलने लगे और इनके साथ-साथ छुटभैये लोग भी शैक्षिक अनाचार की बहती गंगा में हाथ धोने लगे। यह बड़ी विद्रूप स्थिति होती गयी, जिस पर से सरकारी व्यवस्था की लगाम धीरे-धीरे फिसलती चली गयी। फलतः सरकारी शिक्षा नीति रचनात्मक होने के बावजूद अपनी सार्थकता सिद्ध नहीं कर पायी। रही-सही कसर बहुराष्ट्रीय कम्पनियों ने पूरी कर दी। परिणामस्वरूप हमारे देश में ‘मडुआ के दोबर’ इंजीनियरिंग कालेज, मेडिकल कालेज और विश्वविद्यालय खुलने लगे और भ्रष्टाचार की उर्वरा शक्ति से पनपे नव धनाढ्य वर्ग के बच्चे बेशुमार पैसों की बदौलत इन शिक्षण संस्थानों का पोषण करने लगे और ये संस्थान प्रति वर्ष एक नया एलीट वर्ग उगलने लगे जो अब तक बदस्तूर जारी है। इन्हें ऐसे कालेजों में भेजने के लिए तरह-तरह के कोचिंग संस्थान खुलने लगे और भारतीय शिक्षा नीति की ऐसी की तैसी खुले आम करने लगे।


यह भी पढ़ें – बालिका शिक्षा के प्रति सोच बदलने की जरूरत


चूँकि इन संस्थानों को चलानेवाले या तो स्वयं राजनेता या उनसे जुड़े उनके सम्बन्धी या उन्हें चन्दा देनेवाले व्यापारी या उनकी चाटुकारिता करने वाले बुद्धिजीवी या उनसे जोगाड़ लगाने वाले छद्म समाजसेवी रहे हैंइसलिए तथाकथित जनता के सेवक सत्ता में रहने के बावजूद  अपनी शिक्षा नीति का मान-मर्दन देखते रहे या करवाते रहे। अब स्थिति यह है कि ‘कुएँ में ही भंग’ पड़ी है तो किसे कहें, कैसे कहें? मैं कुछ वर्षों तक ‘बिहार शिक्षा परियोजना परिषद’ का मानद सदस्य रहा हूँ तो मैंने शिक्षा नीति की दुर्दशा का साक्षात अनुभव किया है।

इस तरह, महाप्रभु मैकाले ने भारतीय समाज की एकता को नष्ट करने तथा वर्णाश्रम कर्म के प्रति घृणा उत्पन्न करने के लिए जो शिक्षा नीति कार्यान्वित की थी, उसकी पौध लहलहा रही है। चूँकि स्वतन्त्रता प्राप्ति के बाद सत्ता ईमानदार स्वतन्त्रता सेनानियों के हाथ से छीन ली गयी और सत्ता पर वे ही लोग धीरे-धीरे काबिज हुए जो समाज में विभिन्न प्रकार के उन्माद फैला कर सत्ता को अपनी मुट्ठी में जकड़े रखने में सफल होते गये तो स्वाभाविक ही जनहित पीछे छूटता गया और निहित स्वार्थ के दानव ने शिक्षा नीति के जनहित वाले उद्देश्य को किसी जगह छुपा कर रख दिया, जिसका उपयोग वे समय-समय पर अपने राजनीतिक उद्देश्य की पूर्ति हेतु करते रहे।

और, आज जब नयी शिक्षा नीति आई है तो स्वभावतः ही शंकाओं को जन्म देने लगी है। फिर भी हम भारतवासी आशा की किरण खोजते हुए इसके सही क्रियान्वयन पर भरोसा रख सकते हैं। अगर सही क्रियान्वयन नहीं हुआ और सत्ता के अन्दर-बाहर के लोग सत्ता हस्तान्तरण के लिए नेपथ्य में कोई गेम खेलते रहे तो इसका भी हश्र ‘ढाक के तीन पात’ वाला ही होकर रह जाएगा

.

Show More

रत्नेश कुमार सिन्हा

लेखक शिक्षक हैं और भाषाविज्ञान में विशेष रुचि रखते हैं। सम्पर्क +918770651147, ratnesh.sinhadps@gmail.com
5 1 vote
Article Rating
Subscribe
Notify of
guest

1 Comment
Oldest
Newest Most Voted
Inline Feedbacks
View all comments

Related Articles

Back to top button
1
0
Would love your thoughts, please comment.x
()
x