शिक्षा

माफिया के शिकंजे में उच्च शिक्षा

 

इस समय उच्च शिक्षा के क्षेत्र में एनटीए नामक संस्था की चर्चा सबसे अधिक हो रही है। सड़क से लेकर संसद तक इसके कारनामों का विरोध हो रहा है। समझने की बात है कि इस संस्था के सहारे वर्तमान शासक समुदाय शिक्षा के स्वरूप को बुनियादी रूप से बदल देने के हिंसक और आपराधिक अभियान में संलग्न हैं। इस संस्था की कार्यपद्धति के सहारे समझा जा सकता है कि किस तरह समूची उच्च शिक्षा मुट्ठी भर अमीरों और उनकी सुविधा के लिए बने माफिया तन्त्र के हवाले की जा रही है। इसमें नये समय की नीतियों के अनुरूप नियमित कर्मचारी बहुत ही कम हैं। इसका बहुतेरा काम ठेके पर होता है।

स्वाभाविक रूप से ठेके उनको ही मिलते हैं जो उससे प्राप्य लाभ का एक हिस्सा नीति निर्णायकों को पहले ही प्रदान कर देते हैं। फिर इस नुकसान की भरपाई के लिए वे प्रश्न पत्र ऊँची कीमत पर बेचते हैं। इन प्रश्न पत्रों को खरीदने की हैसियत देश की आबादी के बहुत ही छोटे समूह के पास होती है। हैसियत के अतिरिक्त इसके लिए सुरक्षित सम्पर्कजाल से निकटता भी आवश्यक है। इस जाल का हमारे समाज के स्वभाव के अनुरूप न केवल वर्गीय बल्कि लैंगिक और जातीय चरित्र भी होता है। नतीजा यह निकलता है कि समाज के ऊपरी तबके के लोग ही खुली होड़ की जगह इस तरह की गारंटीशुदा प्रणाली के सहारे इस ऊँच-नीच का पुनरुत्पादन करते हैं।

सबसे पहली बात कि यह संस्था सरकार द्वारा गठित या सार्वजनिक संस्थाओं के समक्ष उत्तरदायी संस्था नहीं है। यह रजिस्ट्रार ऑफ सोसाइटीज के पास एक पंजीकृत सोसाइटी मात्र है। इस तरह की एक गैर जवाबदेह संस्था को सभी तरह की प्रतियोगी परीक्षाओं के आयोजन का दायित्व सौंप दिया गया है। इस प्रकरण में कुछ बुनियादी बातों को याद करना उचित होगा। जब केन्द्र सरकार ने तीन कृषि कानून पारित किये थे तो इस बात की ओर ध्यान गया कि कृषि राज्य सूची का विषय है। उसी तरह इस बात को अपने लिए ही दोहराना अप्रासंगिक न होगा कि शिक्षा भी राज्य का विषय है। कृषि की स्थानीय विविधता की तरह ही शिक्षा के माध्यम भाषा की विविधता के कारण इसे राज्य का विषय रखा गया है। बाद में एक संशोधन के जरिये इसे समवर्ती सूची में लाया गया लेकिन केन्द्र की सूची में इसे रखने में अब भी परहेज बरता जाता है।

इसके साथ ही यह भी याद दिलाना अनुचित न होगा कि सभी विश्वविद्यालय स्वायत्त संस्थान होते हैं। केन्द्रीय विश्वविद्यालयों की स्थापना संसद में पारित अध्यादेशों के आधार पर होती है और लगभग यही प्रक्रिया प्रान्तीय विश्वविद्यालयों के मामले में प्रान्तीय प्रतिनिधि सभाओं द्वारा अपनायी जाती है। इसका सीधा सा कारण यह है कि जिस भूगोल में वे अवस्थित होते हैं वहाँ के शिक्षार्थियों की आवश्यकता और उनकी पृष्ठभूमि के हिसाब से उनके लिए बोधगम्य पाठ्यक्रम का निर्माण किया जाता है।

वर्तमान शिक्षा व्यवस्था की समस्याएँ

इस संस्था ने उच्च शिक्षा की बर्बादी के लिए गंगोत्री से शुरुआत की। देश की सबसे प्रतिष्ठित संस्था जेएनयू को नष्ट करने के संकल्प का भागीदार होने के नाते वर्तमान शासन के दुलारे बन चुके पूर्व कुलपति ने इस संस्था को जेएनयू की प्रवेश परीक्षा का दायित्व प्रदान किया। इस पवित्र काम के लिए दोनों संस्थाओं के बीच कोई लिखित समझौता भी नहीं हुआ। जेएनयू के मुखिया का एनटीए का सदस्य होना ही पर्याप्त समझा गया। सरकारी कामकाज में अनौपचारिकता के प्रवेश का इससे उत्तम उदाहरण और क्या हो सकता है! पूँजी के साथ सरकार के इस गंठजोड़ की मौजूदगी पहले भी थी। हम सभी जानते हैं कि रिलायंस के दबाव से मन्त्री बनाये या हटाये जाते थे लेकिन थोड़ा लाज-लिहाज भी बरता जाता था। अब तो सरकार ने पूरी बेशर्मी के साथ देश के संसाधनों की तरह शिक्षा को भी माफियागिरी के हवाले कर दिया है।

जियो विश्वविद्यालय के बारे में अब कोई नहीं जानता लेकिन एक समय भारत सरकार ने उसे भारी सरकारी मदद के लिए चुना था। शिक्षा के इस माफियाकरण का सीधा रिश्ता पूँजी के वर्तमान संकट से है। अन्य उत्पादक गतिविधियों के जोखिम उठाने की जगह निजी पूँजी ने स्वास्थ्य और शिक्षा में निवेश किया है क्योंकि इसमें सस्ती कीमत पर लाभकारी जगहों पर लगभग मुफ्त जमीन और अन्य सुविधाएँ मिल जाती हैं। निजी अस्पतालों ने जिस तरह सरकारी अस्पतालों के चिकित्सकों को अपने यहाँ रखकर सरकारी व्यवस्था को पलीता लगाया था वही काम अब विश्वविद्यालयी स्तर पर हो रहा है और सारी सरकारी तन्त्र इसके लिए मददगार की भूमिका निभा रहा है।

विभिन्न सरकारी विश्वविद्यालयों ने सरकार की चाहत के अनुरूप इस संस्था को प्रवेश परीक्षा का दायित्व सौंप दिया। आश्चर्य कि जो संस्था केन्द्रीय विश्वविद्यालयों की प्रवेश परीक्षा के लिए बनी थी उससे ही प्रान्तीय विश्वविद्यालयों ने भी शान की बात समझकर अपनी प्रवेश परीक्षा भी करानी शुरू कर दी। प्रवेश परीक्षा की विविधता को समाहित न कर पाने के कारण यह संस्था इस काम में पूरी तरह अक्षम साबित हुई और प्रवेश की पूर्व परीक्षित समयबद्ध प्रक्रिया का भट्ठा बैठ गया। नतीजतन जिन विद्यार्थियों को समय से सरकारी विश्वविद्यालयों में प्रवेश नहीं मिल सका वे निजी विश्वविद्यालयों की ओर उन्मुख हुए।

ऊपर जिस संस्था का हम जिक्र कर रहे थे उसने न केवल विद्यार्थियों के चयन की परीक्षा का दायित्व सम्भाल लिया बल्कि अध्यापकों की पात्रता परीक्षा का दायित्व भी उसके पास आ गया। यही नहीं शोधार्थियों की शोधवृत्ति की परीक्षा भी यही संस्था संचालित करने लगी। उच्च शिक्षा के संस्थानों की स्वायत्तता और प्रान्तीय स्तर की विविधताओं पर बुलडोजर चलाकर इस पैमाने का केन्द्रीकरण शायद ही पहले कभी हुआ होगा। इसकी शुरुआत के पीछे राष्ट्रीय की ऐसी धारणा है जिसके मूल में एकरूपता है। कहने की जरूरत नहीं कि यह प्रचण्ड दमनकारी एकरूपता अपना दायरा फैलाती जा रही है। इसका प्रसार भोजन, परिधान, संस्कृति से लेकर भाषा तक हो चला है। जिस तरह वैश्विक के नाम पर पाश्चात्य और उसमें भी अमेरिकी को थोपा जाता रहा है उसी तरह राष्ट्रीय को हिन्दी, शाकाहार, साड़ी-धोती, हिंदू और उत्तर भारतीयता ही परिभाषित करती है। शिक्षा के क्षेत्र में ऊपर से थोपी गयी इस राष्ट्रीयता को लागू करने का एक महत्त्वपूर्ण उपकरण यह संस्था भी है। इस संस्था के जरिये शिक्षा के निजीकरण को नया आयाम मिला है।  

इस संस्था की आमदनी का भ्रष्टाचार के अतिरिक्त सबसे बड़ा स्रोत परीक्षार्थियों के आवेदन का शुल्क है। इसका परिणाम यह कि आवेदन के शुल्क की बेतहाशा बढ़ोत्तरी के साथ ही तमाम अन्य प्रक्रियाओं का शुल्क भी वसूला जाता है। यहाँ तक कि परीक्षा को बार-बार निरस्त करने और परीक्षाफल की गड़बड़ियों को दुरुस्त करने का शुल्क वसूलने का निहित स्वार्थ भी पैदा हो जाता है। जान-बूझकर ऐसी गड़बड़ियाँ की जाती हैं जिनको दुरुस्त कराने के आवेदन से अतिरिक्त कमाई हासिल हो सके। फिलहाल इस संस्था ने जो नहीं किया अथवा निरस्त किया उसकी चर्चा छोड़कर हम उसने जो परीक्षा करायी उसका जायजा लेते हैं। चिकित्सा संस्थानों में डाक्टरी की पढ़ाई के लिए नीट नामक जो परीक्षा हुई उसके भ्रष्टाचार की कहानी तो अविश्वसनीय है और वर्तमान शासक दल के रसूखदार लोगों या उनके निकट के लोगों की इसमें संलिप्तता के सबूत सब कहीं मौजूद हैं। अद्भुत बात तो यह थी कि उसका परिणाम जिस दिन घोषित होना था उसके बहुत पहले ही लोकसभा चुनाव परिणामों के दिन ही उसे घोषित कर दिया गया। शायद ऐसा दोनों के महत्त्व और तौर-तरीकों की समानता दिखाने के लिए किया गया हो!

इस परीक्षा के आयोजन और गड़बड़ी की इतनी बड़ी कहानियाँ हैं कि रहस्य रोमांच का सृजनात्मक लेखन भी शर्मा जाय। जिस परीक्षा केन्द्र से सबसे अधिक सर्वोच्च अंक पाप्त करने वाले विद्यार्थियों ने परीक्षा दी वहाँ वे हजारों किलोमीटर दूर से आये। उनमें से कुछ ने दस-दस लाख रुपयों का नकद भुगतान किया था और खाली चेक भी दिये थे। इस परीक्षा केन्द्र को पहले की परीक्षा के आयोजन में गड़बड़ी की वजह से उच्च न्यायालय द्वारा अर्थदण्ड दिया गया था। जिस तरह एक समय सारे रास्ते रोम को जाया करते थे उसी तरह आजकल देश के पश्चिमी भाग का एक ही प्रान्त समस्त आर्थिक गड़बड़ियों का उद्गम बना हुआ है। समूचे देश के किसी भी आयोजन के ठेके उसी प्रान्त के धन्नासेठों को मिल रहे हैं जिस प्रान्त से देश के प्रधानमन्त्री और गृहमन्त्री का रिश्ता है। सरकारी बैंकों का कर्ज लेकर विदेश भागने का रेकार्ड भी उसी प्रदेश के अमीरों के नाम है। इस परीक्षा में हुई धांधली तो केवल उस व्यापक सड़ांध की झलक भर है जिसका विस्तार लगभग प्रत्येक संस्था तक हो चुका है। पूँजी, राजनीति और प्रशासन की शिक्षा माफिया के साथ मिलीभगत के इतने रूपक इस समय पैदा हुए हैं कि उनकी गिनती भी मुश्किल है।

इस नये तन्त्र ने कोचिंग की अवैध संस्कृति को परवान चढ़ा दिया है। इनका धन्धा परीक्षा उत्तीर्ण कराने की गारंटी पर टिका होता है। इनमें अवैध पूँजी निवेश होता है और सरकारी संरक्षण में इसकी दिन दूनी रात चौगुनी उन्नति होती रहती है। कोचिंग सेंटरों के राजस्थान स्थित केन्द्र से चुने गये सांसद की दोनों पुत्रियों का संघ लोक सेवा आयोग के जरिये चयन कहने के लिए कुछ भी नहीं छोड़ता। शिक्षण संस्थानों के कामकाज पर अब अध्यापकों का कोई नियन्त्रण नहीं रह गया है। प्रवेश की परीक्षा कोई अन्य संस्था करा रही है, पाठ्यक्रम भी विश्वविद्यालय अनुदान आयोग बना रहा है और शिक्षा संस्थानों को क्रमश: निजी पूँजी के खूंखार चंगुल में सौंपा जा रहा है जिसको अपनी कमाई के लिए कोई भी अपराध करने में जरा भी हिचक नहीं होती। अध्यापकों की प्रन्नति के लिए प्रकाशनों का भी इसी तरह का निजी और अवैध तन्त्र खड़ा हो गया है जिसमें कोई प्रकाशक अपनी पत्रिका को गुणवत्तापूर्ण पत्रिकाओं की सूची में मान्यता दिलवा लेता है और फिर उसमें आलेख प्रकाशित करने हेतु धन की वसूली करता रहता है। यह सब आगामी समय में समाज के निचले तबकों के उच्च शिक्षा में प्रवेश की आकाँक्षा को नकारात्मक रूप से प्रभावित करेगा

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गोपाल प्रधान

लेखक वरिष्ठ आलोचक और अम्बेडकर विश्वविद्यालय, दिल्ली में प्राध्यापक हैं। सम्पर्क- gopaljeepradhan@gmail.com
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