शिक्षा

मुक्तिकामी शिक्षा का विचार और डॉ. बी.आर. अम्बेडकर

 

शिक्षा, संघर्ष और संगठन

बीसवीं सदी के भारत में जिन विचारकों और राजनेताओं ने दलित समुदाय, शोषित और वंचित वर्गों के उत्थान के लिए जीवनपर्यंत काम किया, उनमें डॉ. बी.आर. अम्बेडकर (1891-1956) अग्रणी हैं। डॉ. अम्बेडकर का समूचा जीवन ही उनकी राजनीतिक प्रतिबद्धता और सामाजिक सरोकारों की गवाही देता है। ध्यान देने की बात है कि जोतिबा फुले, सावित्रीबाई फुले सरीखे अपने पूर्ववर्ती विचारकों की तरह ही डॉ. अम्बेडकर ने शिक्षा के महत्त्व को बख़ूबी पहचाना। उन्होंने शिक्षा को सामाजिक क्रान्ति के वाहक के रूप में देखा। अकारण नहीं कि डॉ. अम्बेडकर ने ‘शिक्षा, संघर्ष और संगठन’ तिहरी धारणा पर ज़ोर दिया था।

डॉ. बी.आर. अम्बेडकर ने दलित आन्दोलनों में संघर्ष और त्याग की महत्ता को रेखांकित करते हुए दलित समुदाय को एक संदेश दिया था, जो जय भीम के 13 अप्रैल, 1947 के अंक में छपा था। इस संदेश में उन्होंने आग के रूपक का इस्तेमाल करते हुए कहा कि ‘जिस तरह आग शुद्धता और शक्ति देती है, उसी तरह संघर्ष और बलिदान भी शुद्धता और शक्ति देते हैं। कोई भी दमित-शोषित समुदाय या व्यक्ति तब तक महानता हासिल नहीं कर सकता जब तक कि वह त्याग और बलिदान के लिए तत्पर न हो।’

दलित आन्दोलन की सांस्कृतिक राजनीति और उसकी विरासत पर विचार करते हुए राजनीतिक विश्लेषक व आलोचक डी.आर. नागराज ने अपने एक व्याख्यान में बीसवीं सदी में दलित आन्दोलन के इतिहास को तीन चरणों में बांटकर देखा था। पहला चरण बीसवीं सदी के आरम्भ से लेकर तीसरे दशक तक फैला हुआ है। दूसरा चरण जो 1930 से आरम्भ होकर 1972 तक विस्तृत है। यह चरण अम्बेडकरवादी राजनीति और दलित आन्दोलन के एकजुट होने का समय है। दलित आन्दोलन का तीसरा चरण महाराष्ट्र में 1972 में दलित पैन्थर्स की स्थापना से शुरू होता है और धीरे-धीरे देशव्यापी बन जाता है। इन तीनों चरणों में दलित आन्दोलन की सबसे उल्लेखनीय रणनीति के बारे में नागराज लिखते हैं कि यह रणनीति रही है ‘निराशा के सांस्कृतिक सिद्धान्त को आशा की राजनीति से जोड़ने की’। नागराज का तात्पर्य यह है कि दलित आन्दोलन ने हिन्दू समाज-संस्कृति से मिली अवमानना से निराशा का सांस्कृतिक सिद्धान्त गढ़ा। और फिर निराशा के इस सांस्कृतिक सिद्धान्त को अधिकारों की सकारात्मक राजनीति से जोड़ते हुए सामाजिक न्याय व गरिमा की तलाश करते हुए उम्मीदों की राजनीति पर बल दिया।

उल्लेखनीय है कि वर्ष 1946 के चुनावों में शेड्यूल्ड कास्ट्स फ़ेडरेशन की पराजय के बाद डॉ. अम्बेडकर ने जय भीम  में 12 मार्च 1946 को प्रकाशित अपने संदेश में कुछ यही बात कही थी। डॉ. अम्बेडकर का कहना था कि ‘फ़ेडरेशन की पराजय के बाद कुछ लोगों ने फ़ेडरेशन का साथ छोड़ दिया, तो कुछ ने फ़ेडरेशन में अपना विश्वास ही खो दिया। मैं इस पराजयवादी मानसिकता में विश्वास नहीं रखता। सिर्फ़ चुनावों में सीटें जीतना ही फ़ेडरेशन का लक्ष्य कभी नहीं रहा। चुनाव में जीत हासिल करना तो अपने लक्ष्य की पूर्ति हेतु एक साधन भर है। हमारा असली लक्ष्य तो उन लोगों की सेवा करना है, जिनके लिए फ़ेडरेशन की स्थापना हुई थी।’

1942 के ऑल इंडिया डिप्रेस्ड क्लास कान्फ्रेंस में और उससे भी पहले बहिष्कृत हितकारिणी सभा की स्थापना के समय डॉ. बी.आर. अम्बेडकर ने “शिक्षा, संघर्ष और संगठन” का नारा दिया था। जुलाई 1942 में नागपुर में आयोजित हुए आल इंडिया डिप्रेस्ड क्लास कॉन्फ्रेंस में डॉ. अम्बेडकर शामिल हुए थे। इसी कॉन्फ्रेंस में 19 जुलाई 1942 को ‘आल इंडिया शेड्यूल्ड कास्ट्स फ़ेडरेशन’ की स्थापना का निर्णय लिया गया। सितम्बर 1942 में तैयार किए गए फ़ेडरेशन के संविधान में भी शिक्षा, संघर्ष और संगठन को तरजीह दी गयी थी। फ़ेडरेशन के प्रमुख उद्देश्य थे : भारत में अनुसूचित जाति के लोगों को संगठित करना, उन्हें शिक्षित करना और उनकी सामाजिक, आर्थिक, राजनीतिक आज़ादी के लिए संघर्ष करना; उनके लिए अवसर की समानता सुनिश्चित करना; किसानों, खेतिहर मजदूरों और श्रमिकों को संगठित करना; देश के अलग-अलग हिस्सों में अनुसूचित जातियों पर होने वाले अत्याचारों का रेकॉर्ड तैयार करना।

शिक्षा का प्रश्न और डॉ. बी.आर. अम्बेडकर

दलितों के विकास में और उनकी सर्वांगीण प्रगति में शिक्षा की भूमिका कितनी अहम है, इसका अहसास डॉ. बी.आर. अम्बेडकर को भलीभाँति था। इसीलिए उन्होंने दलितों को साक्षर बनाने और उनके बीच शिक्षा के प्रचार-प्रसार हेतु हरसम्भव प्रयास किए। मार्च 1924 में डॉ. अम्बेडकर ने बंबई के दामोदर हॉल में एक बैठक आयोजित की, जिसमें उन्होंने दलितों के मुद्दों को सार्वजनिक रूप से उठाने और उनकी समस्याओं को सरकार के सामने प्रस्तुत करने के लिए एक संगठन के निर्माण का प्रस्ताव रखा। इस संगठन का नाम भी उन्होंने ही सुझाया था – ‘बहिष्कृत हितकारिणी सभा’। जिसे वहाँ उपस्थित सभी लोगों ने स्वीकार किया।

आख़िरकार, चार महीने बाद 20 जुलाई, 1924 को ‘बहिष्कृत हितकारिणी सभा’ की स्थापना हुई, जिसका आदर्श था ‘शिक्षा, संघर्ष और संगठन’ (एजुकेट, एजिटेट, ऑर्गनाइज़)। सभा के उद्देश्यों में निम्न बातें शामिल थीं :  दलित समुदाय के बीच शिक्षा के प्रसार के उद्देश्य से हॉस्टलों की स्थापना और अन्य ज़रूरी कदम उठाना; लाइब्रेरी, सोशल सेंटर और स्टडी सर्किल बनाकर दलितों के बीच सांस्कृतिक जागृति और राजनीतिक चेतना का प्रचार-प्रसार; औद्योगिक प्रशिक्षण केन्द्रों और कृषि स्कूलों की स्थापना कर दलितों की आर्थिक स्थिति में सुधार लाना।Amrit Ukey: इनडिपेंडेंट लेबर पार्टी ...

बहिष्कृत हितकारिणी सभा की स्थापना के बारह वर्ष बाद 1936 में डॉ. अम्बेडकर ने ‘इंडिपेंडेंट लेबर पार्टी’ की स्थापना की। टाइम्स ऑफ इंडिया को दिये गए एक साक्षात्कार में उन्होंने इंडिपेंडेंट लेबर पार्टी की स्थापना और उसके उद्देश्यों पर प्रकाश डाला था। इन उद्देश्यों में आर्थिक, प्रशासनिक, सामाजिक उद्देश्यों के साथ-साथ शिक्षा भी शामिल थी। शिक्षा के संदर्भ में लेबर पार्टी की नीति के बारे में डॉ. अम्बेडकर ने निम्न बातें कहीं : मुफ्त और अनिवार्य प्राथमिक शिक्षा; सभी लोगों को साक्षर बनाने के लिए वयस्क शिक्षा की योजना; तकनीकी शिक्षा पर विशेष ज़ोर; शैक्षणिक रूप से पिछड़े समुदायों के छात्रों के लिए भारत में और विदेशों में उच्च शिक्षा प्राप्त करने हेतु राज्य द्वारा सुविधाएँ मुहैया कराना; प्रेसीडेंसियों में विश्वविद्यालयी शिक्षा को पुनर्गठित करना और शिक्षण कार्य से जुड़े हुए क्षेत्रीय विश्वविद्यालयों की स्थापना करना।

शहरों में रहकर पढ़ाई करने वाले दलित छात्रों के लिए छात्रावास का उपलब्ध न होना, तब भी एक बड़ी समस्या थी। दुर्भाग्य से यह समस्या आज़ादी के सात दशक बीतने के बाद आज भी बनी हुई है। जून 1928 में डॉ. अम्बेडकर ने ऐसे दो छात्रावासों की स्थापना की थी और साथ ही ‘डिप्रेस्ड क्लासेज़ एजुकेशन सोसाइटी’ का गठन किया। उन्होंने बंबई प्रांत की सरकार से ‘डिप्रेस्ड क्लासेज़ एजुकेशन सोसाइटी’ द्वारा दलित छात्रों के लिए छात्रावासों के संचालन हेतु आर्थिक सहायता भी मांगी। अक्टूबर 1928 में बंबई सरकार ने डॉ. अम्बेडकर के प्रस्ताव पर ध्यान देते हुए दलित छात्रों के लिए पाँच ऐसे छात्रावासों की योजना को मंजूरी दी। कुछ जिला बोर्डों और नगरपालिकाओं ने भी दलित छात्रों के लिए छात्रावास-निर्माण और उनकी स्कूल फीस कम करने में दिलचस्पी दिखाई। डॉ. अम्बेडकर ने अपने भाषणों में दलितों में आत्म-सम्मान की भावना जगाने पर लगातार बल दिया। उनका कहना था कि ‘अनवरत कठिन संघर्ष के जरिये ही वह शक्ति और आत्म-विश्वास जुटता है, जिससे व्यक्ति का आत्म-सम्मान बढ़ता है।’डॉ. आंबेडकर यांच्या पी.ई.सोसायटीला 200 ...

इसी तरह 8 जुलाई 1945 को डॉ. अम्बेडकर ने बंबई में ‘पीपुल्स एजुकेशन सोसाइटी’ की स्थापना की। इस सोसाइटी का प्रबन्धन बौद्धों के हाथ में था और इसका उद्देश्य गरीबों और बौद्ध समुदाय के लोगों के लिए विविध स्तरों पर मसलन, माध्यमिक स्कूल, कॉलेज, तकनीकी शिक्षा के संस्थानों की उपलब्धता सुनिश्चित करना और उन्हें आर्थिक सहयोग और प्रोत्साहन देना था।

दलितों में आत्म-सम्मान की भावना जगाने और उनकी शिक्षा पर बल देने के डॉ. अम्बेडकर के विचार काफी हद तक बुकर टी. वाशिंगटन जैसे उन अश्वेत समुदाय के नेताओं से मिलते हैं, जिन्होंने अश्वेत समुदाय के लिए शिक्षा और आर्थिक सशक्तिकरण को मताधिकार से भी ज्यादे अहमियत दी थी। यहाँ प्रख्यात विचारक और डॉ. अम्बेडकर के शिक्षक रहे जॉन डिवी की किताब डेमोक्रेसी एँड एजुकेशन (1916) का ज़िक्र भी ज़रूरी है। बता दें कि यह किताब डॉ. अम्बेडकर के कोलंबिया विश्वविद्यालय में रहते हुए ही छपी थी।

जॉन डिवी ने शिक्षा को जीवन की एक ज़रूरत और सामाजिक प्रक्रिया के तौर पर देखा। उनके लिए समाज में और सामाजिक जीवन में संचार और संप्रेषण की महत्त्वपूर्ण भूमिका थी। उक्त किताब में जॉन डिवी ने लिखा है कि ‘जो महत्त्व पोषण और प्रजनन का शारीरिक जीवन में है, ठीक वही महत्त्व शिक्षा का मनुष्य के सामाजिक जीवन में है। संप्रेषण के उपयुक्त साधन का इस्तेमाल करते हुए, शिक्षा का संचार विभिन्न सामाजिक समूहों के बीच किया जाना चाहिए। संचार वह प्रक्रिया है जिसके जरिये अनुभवों को साझा किया जाता है, जिससे वे सभी के अनुभवों का हिस्सा बन जाएँ।’

जॉन डिवी ने शैक्षणिक अनुभवों की समानता को ऐसे साधन के रूप में देखा, जो नागरिकों को व्यक्तिगत स्वतन्त्रता के योग्य बनाने के साथ ही उन्हें सामुदायिक सक्षमता में कारगर योगदान के लिए भी तैयार कर सकेगी। उनके लिए शिक्षा की गुणवत्ता वह मापक थी जिसके जरिए सामाजिक लक्ष्यों पर बहस करने के साथ ही, इस बात का अंदाज़ा भी लगाया जा सकता है कि भिन्न-भिन्न सामाजिक समूहों ने इन सामाजिक लक्ष्यों को किस हद तक हासिल किया है। डिवी के अनुसार, शिक्षा का मूल कर्तव्य हर व्यक्ति को उसके सहज विकास के लिए तैयार करना और उसे सामाजिक रूप से सक्षम बनाना था। उन्होंने शिक्षा के विचार को एक ऐसे विचार के रूप में देखा, जो अनुभवों के आधार पर लगातार पुनर्निर्मित होता है।

बंबई विधान परिषद में शिक्षा का प्रश्न और डॉ. बी.आर. अम्बेडकर

डॉ. अम्बेडकर ने बंबई विधान परिषद का सदस्य रहते हुए भी सदन में शिक्षा से जुड़े सवालों पर बेबाकी से अपनी राय रखी। ये सवाल प्राथमिक शिक्षा से लेकर उच्च शिक्षा तक से सम्बन्धित थे। 12 मार्च 1927 को शिक्षा सम्बन्धी अनुदानों पर टिप्पणी करते हुए डॉ. अम्बेडकर ने हिंदुस्तान में शिक्षा के क्षेत्र में हो रही धीमी प्रगति पर अपनी चिन्ता जाहिर की। प्राथमिक स्तर पर ही छात्रों द्वारा मजबूरी में स्कूल छोड़ने के बारे में उन्होंने कहा कि ‘प्राथमिक स्कूल में प्रवेश लेने वाले हर सौ बच्चों में से केवल 18 ही कक्षा चार तक पहुँच पाते हैं।’ शिक्षा के व्यापारीकरण पर चिन्ता जताते हुए उन्होंने कहा कि सरकार का यह कर्तव्य है कि वह शिक्षा को सभी के पहुँच में होने को सुनिश्चित करे। उन्होंने शिक्षा को हरसम्भव स्तर तरीके और जितना हो सके उतना सस्ता करने पर ज़ोर दिया। इस उद्देश्य की पूर्ति हेतु उन्होंने सरकार से प्राथमिक शिक्षा पर अधिक बजट देने का आग्रह किया।

प्रेसीडेंसियों में विभिन्न समुदायों के शैक्षणिक स्तर में असमानता पर चिन्ता जाहिर करते हुए डॉ. अम्बेडकर ने पिछड़े समुदायों को शिक्षित करने पर विशेष बल दिया। साथ ही, उन्होंने प्राथमिक शिक्षा की ज़िम्मेदारी स्थानीय निकायों या नगरपालिकाओं को देने का पुरजोर विरोध करते हुए कहा कि इन संस्थाओं में ऐसे लोग हैं, जिनका शिक्षा की दुनिया से कोई वास्ता नहीं है। लिहाजा वे शिक्षा की बेहतरी के लिए कुछ करने में रुचि नहीं दिखाते।

इसी प्रकार डॉ. अम्बेडकर ने बंबई विधान परिषद में अक्टूबर 1927 में बंबई विश्वविद्यालय अधिनियम संशोधन विधेयक पर बोलते हुए विश्वविद्यालयों व कॉलेजों के सम्बन्ध, विश्वविद्यालय में दी जाने वाली शिक्षा के संदर्भ में अपनी राय रखी। ग्यारह वर्ष बाद अप्रैल 1938 बंबई विधान परिषद में ही प्राथमिक शिक्षा अधिनियम (संशोधन) विधेयक पर हो रही चर्चा में भाग लेते हुए डॉ. अम्बेडकर ने प्राथमिक शिक्षा को समावेशी बनाने पर ज़ोर दिया। लोकतान्त्रिक देशों में शिक्षा के निजीकरण के विरुद्ध मार्क्सवादी विचारक अंतोनियो ग्राम्शी ने भी शिक्षा के क्षेत्र में सरकारों की भूमिका पर बल दिया क्योंकि सरकारें जाति या समूह का भेदभाव किए बिना सर्वसमावेशी शिक्षा की पहल करने में महत्त्वपूर्ण भूमिका अदा कर सकती हैं।

ज्ञान और सत्ता का सम्बन्ध तथा उच्च शिक्षा 

डॉ. बी.आर. अम्बेडकर ने 1944 में पूना स्थित ‘अम्बेडकर स्कूल ऑफ पॉलिटिक्स’ की वार्षिक पत्रिका द मराठा फर्स्ट एनुअल जर्नल को दिये अपने संदेश में ज्ञान और सत्ता के सम्बन्धों के बारे में अपने विचार जाहिर किए थे। उनका कहना था कि ‘मैंने हमेशा यह माना है कि जीवन के हर क्षेत्र में ज्ञान ही सत्ता है। अनुसूचित जातियों को आज़ादी और मुक्ति के अपने लक्ष्य में तब तक कामयाबी नहीं मिलेगी, जब तक वे ज्ञान के सागर में गोते नहीं लगाएँगी’। बता दें कि अम्बेडकर स्कूल ऑफ पॉलिटिक्स की स्थापना 30 जुलाई, 1944 को हुई थी और इसका उद्देश्य था ‘शिक्षा, सेवा और त्याग’।

दिसम्बर 1946 में हुए आल इंडिया शेड्यूल्ड कास्ट्स स्टूडेंट्स फ़ेडरेशन के दूसरे सम्मेलन में डॉ. अम्बेडकर शामिल तो नहीं हो सके थे। पर छात्रों को दिये अपने संदेश में अम्बेडकर ने कहा कि हमारे छात्रों को अध्ययन के साथ-साथ नेतृत्व संभालने के लिए भी तैयार रहना चाहिए। डॉ. अम्बेडकर ने छात्र प्रतिनिधियों से दो बातें ध्यान में रखने को कहा :

पहला, उन्हें यह साबित कर दिखाना है कि समान अवसर मिलने पर वे बौद्धिक प्रतिभा और कार्य-क्षमता में किसी से कमतर नहीं हैं। और दूसरा, उन्हें साबित करना होगा कि वे सिर्फ़ व्यक्तिगत समृद्धि और खुशियों का रास्ता नहीं चुनेंगे, बल्कि वे अपने समुदाय को मुक्ति दिलाने में, उसे सामाजिक-आर्थिक रूप से सशक्त बनाने में और सम्मान दिलाने की दिशा में उसका नेतृत्व करेंगे।

उल्लेखनीय है कि नागपुर में 25-27 दिसम्बर, 1946 के दौरान हुए आल इंडिया शेड्यूल्ड कास्ट्स स्टूडेंट्स फ़ेडरेशन के इस सम्मेलन की अध्यक्षता जोगेन्द्रनाथ मण्डल ने की थी। शेड्यूल्ड कास्ट्स स्टूडेंट्स फ़ेडरेशन की स्थापना बंबई में मई 1945 में हुई थी और तभी इसका पहला सम्मेलन भी आयोजित हुआ था। उक्त सम्मेलन में देश भर से प्रतिनिधि के तौर पर तीन हजार छात्र और पाँच सौ छात्राएँ सम्मिलित हुई थीं। जिनमें संयुक्त प्रांत, मध्य प्रांत व बरार, दिल्ली, बंगाल और हैदराबाद के प्रतिनिधि शामिल थे।

पिछड़े और वंचित समुदायों की प्रगति के लिए डॉ. अम्बेडकर ने राजनीति और शिक्षा दोनों को समान महत्त्व दिया। ‘मराठा मंदिर’ के 23 मार्च 1947 के विशेषांक में प्रकाशित अपने एक संदेश में डॉ. अम्बेडकर ने कहा कि पिछड़े समुदायों को अगर दमन से बचना है तो उन्हें राजनीति और शिक्षा दोनों को अपनी प्राथमिकताओं में रखना होगा। उन्होंने कहा कि यह भी ध्यान रखना होगा कि ‘शिक्षा से अन्ततः मेरा तात्पर्य उच्च शिक्षा से है क्योंकि उच्च शिक्षा ही किसी समुदाय के व्यक्ति को नीति-निर्माण से जुड़े महत्त्वपूर्ण पदों तक पहुँचा सकती है। जहाँ से वह अपने समुदाय के व्यक्तियों पर होने वाले अन्याय को रोक सकता है।’ डॉ. अम्बेडकर का कहना था कि भारतीय समाज में जो विषमता व्याप्त है, वह महज प्राथमिक शिक्षा के प्रसार से नहीं दूर होगी। यह विषमता तभी दूर होगी, जब ‘ऐसी शिक्षा नीति प्रभाव में आएगी, जिसमें गैर-ब्राह्मणों को इतना शिक्षित किया जाये कि वे उच्च पदों पर ब्राह्मणों के एकाधिकार को तोड़ सकें।’

यहाँ फ्रांसीसी दार्शनिक पिएर बोर्दियो की चर्चा करना अप्रासंगिक न होगा। बोर्दियो का मानना था कि समकालीन समाजों में अकादमिक संस्थाएँ ही धीरे-धीरे वह प्रमुख स्थान बन जाती हैं, जहाँ से सामाजिक वर्चस्व को पारिभाषित किया जाता है और जहाँ उसकी निर्मिति होती है। अपनी प्रसिद्ध किताब होमो एकेडमिकस में बोर्दियो ने यह दर्शाया था कि अकादमिक दुनिया, विश्वविद्यालय और उच्च शिक्षण संस्थान महज विमर्श और संवाद के इदारे नहीं हैं, ये सत्ता के दायरे भी हैं। बोर्दियो ने विश्वविद्यालय और अकादमिक दुनिया के अपने अध्ययन में यह दिखाया कि पूँजी और सत्ता के सम्बन्ध, उनके अन्तर्विरोध और उनके बीच सम्बन्धों के लगातार बदलते पैटर्न उच्च शिक्षा को गहरे प्रभावित करते हैं।

डॉ. अम्बेडकर का कहना था कि शिक्षा का उद्देश्य विद्यार्थियों को इस बात के लिए तैयार करना है कि वे ख़ुद पर प्रभुत्वशाली संस्कृति द्वारा थोपी जा रही शिक्षण-व्यवस्था का प्रतिरोध कर सकें। डॉ. अम्बेडकर और जोतिबा फुले दोनों ने ही दलित समुदाय के शोषण और दमन के विरुद्ध चल रहे संघर्ष में शिक्षा की मुख्य भूमिका को बार-बार रेखांकित किया है। मुक्तिदाई शिक्षा और संवाद की ज़रूरत पर बल देते हुए जोतिबा फुले और डॉ. अम्बेडकर ने संवादपरक शिक्षण-पद्धति का पुरजोर समर्थन किया था। उनका मानना था कि हमें तार्किक ढंग से संस्कृति की शिक्षण पद्धति (पेडागॉजी ऑफ कल्चर) पर सोचना होगा, ताकि हम यह जान सकें कि ज्ञान के उत्पादन व उसके प्रसार के जरिये, सत्ता कैसे काम करती है।

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शुभनीत कौशिक

लेखक सतीश चंद्र कॉलेज, बलिया में इतिहास के शिक्षक हैं तथा इतिहास और साहित्य में गहरी दिलचस्पी रखते हैं। kaushikshubhneet@gmail.com
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