शिक्षा

बदहाल शिक्षा की अन्तहीन कहानी

 

मुझे भारत के कई शहरों में रहने का अवसर मिला- छोटे, मँझोले शहर, महानगर, उत्तर-दक्षिण-पूर्वी भारत के शहर…! महानगरों और मँझोले शहरों में शिक्षा के बड़े-बड़े संस्थान हैं। लेकिन छोटे, मँझोले शहरों और महानगरों को जो एक चीज आज के समय में समरूप बनाती है- वो है वहाँ मौजूद कोचिंग की अस्त-व्यस्त बसी दुनिया जो शहर के भीतर एक और शहर के होने का अहसास कराती है। सब जानते हैं, कुछ शहर तो आज वहाँ के कोचिंग कारखाने के कारण ही जाने जाते हैं। वे सारी जगहें जहाँ सरकारी शिक्षा संस्थान नहीं पहुँचे, निजी कोचिंग की दुनिया वहाँ आज मजे में आबाद है। भारतीय शिक्षा व्यवस्था का बड़ा हिस्सा आज इन कोचिंग संस्थानों द्वारा अतिक्रमित किया जा चुका है।

कुछेक चुनिन्दा सरकारी विद्यालयों को छोड़ दिया जाए तो आज सरकारी विद्यालय में वही अभिभावक अपने बच्चों का दाखिला करवाते हैं, जो निजी विद्यालयों के खर्चे नहीं उठा सकते। सरकारी विद्यालयों में हो रहे दाखिले की एक सचाई आज यह भी है कि बहुत सारे अभिभावक वहाँ अपने बच्चों का नाम इसलिए लिखवाते हैं ताकि पोशाक, सायकिल, अनाज और पैसे के रूप में मिलने वाली सरकारी इमदाद हासिल की जा सके; बाकी वही बच्चे किसी निजी विद्यालय में पढ़ रहे होते हैं। हाल ही में बिहार के शिक्षा विभाग के अधिकारी रह चुके केशव कुमार पाठक ने इस बाबत नियमों में फेरबदल कर विद्यार्थियों की उपस्थिति को अनिवार्य कर दिया था और लगातार तीन दिन की अनुपस्थिति पाए जाने पर विद्यार्थियों का नाम काटा जा रहा था। इस पूरे प्रकरण के पीछे वही जुगाड़ काम कर रहा था कि सरकारी मदद के लिए नाम तो सरकारी विद्यालय में रहे लेकिन पढ़ाई निजी विद्यालयों से की जाए। यह पूरा वाकया स्पष्ट करने के लिए काफी है कि विद्यालय स्तर की शिक्षा की सरकारी व्यवस्था अब समाज का विश्वास खो चुकी है। और यह बाजार की एक बड़ी जीत है।

निजी विद्यालयों की पूरी व्यवस्था किसी कम्पनी की तरह संचालित होती है। भारतीय कॉर्पोरेट की चमकती हुई दुनिया का सबसे रोशन हिस्सा आज निजी संस्थानों के जाल से बुना जा रहा है। बड़े-बड़े पूंजीपतियों, नेताओं और कम्पनियों का पैसा इसे ताकत और हर तरह का संरक्षण दे रहा है। भारतीय अर्थव्यवस्था का एक बड़ा और गुप्त गल्ला आज इनसे बन रहा है। यह पूरा तन्त्र विशुद्ध रूप से व्यावसायिक हो चुका है। इसका प्रमाण आज किसी भी अभिभावक से मिल सकता है- जिसके बच्चे निजी विद्यालयों में पढ़ रहे हैं। आए दिन अनाप-शनाप स्कीम के तहत पैसे की उगाही करना, फीस में मनमानी बढ़ोतरी करना, विद्यालय में किताब, कॉपी, ड्रेस, जूते-मोजे आदि बेचना हरेक निजी विद्यालय की नीति बन चुकी है। गर्मी की छुट्टी में बच्चे विद्यालय नहीं जाते हैं। विद्यालय की बसें कहीं और कमाई कर रही होती हैं या खड़ी रहती हैं लेकिन फिर भी छुट्टी के महीने का बस किराया ये निजी विद्यालय सभी विद्यार्थियों से वसूलते हैं। बस का किराया मनमाना होता है जबकि उन्हीं बसों में बच्चों को किसी निर्जीव सामान की तरह ठूस दिया जाता है और इस तथ्य की तस्दीक भारत के किसी शहर की सड़क पर सुबह-सुबह निकल जाने पर कोई भी कर सकता है।

विद्यालय की फीस जमा करने में देरी होने पर ये छोटे-छोटे बच्चों को सबके सामने जलील करते हैं, उन्हें कक्षाओं-परीक्षाओं में शामिल होने से रोकते हैं। इस तरह ये निजी विद्यालय भारत में एक आहत भारत का निर्माण कर रहे हैं जिसके घाव बड़े गहरे और अमिट से हैं। बचपन की ऐसी हानि कल के भारत पर चोट है। आए दिन विश्व गुरु बनने का शोर बढ़ता जा रहा है लेकिन इस शोर में ये कोई नहीं बता रहा कि ऐसी लूट-खसोट भरी शिक्षा व्यवस्था से निकला हुआ विद्यार्थी देश और समाज को कहाँ लेकर जाएगा! पहले के सरकारी विद्यालयों की दीवार पर और आज भी कहीं-कहीं यह इबारत खुदी होती है कि ‘शिक्षार्थ आइए, सेवार्थ जाइए।’ लेकिन अब सेवार्थ जाने का प्रश्न ही नहीं है।

शिक्षा पाने का पूरा मॉडल जब व्यावसायिक हो चुका है तो संस्थाओं से विद्यार्थी नहीं उत्पाद निकल रहे हैं जिसे सरकार और वर्ल्ड बैंक ‘मानव संसाधन’ कहती-समझती है। मैं उन दिनों की याददिहानी कराना चाहूँगा जब सरकारी विद्यालय के जलवे थे। जिन्हें उन दिनों का स्मरण है वे जानते हैं कि जब सरकारी विद्यालय और संस्थानों में अच्छी पढ़ाई होती थी तब कोचिंग की दुनिया का अस्तित्व बराए-नाम था। धीरे-धीरे सरकारी विद्यालयों की जड़ों को हिलाया गया और ठीक उनके सामने निजी विद्यालयों की दुनिया को बसाया गया। ये निजी विद्यालय अपने साथ कोचिंग की जादुई छड़ी लेकर आबाद होते गए। एक सरकारी व्यवस्था की कब्र पर चालाक निजी उद्यम ने लाभ के दो नये लश्कर बना लिए और आज वह लश्कर दिनों-दिन विशाल, मजबूत और प्रभावकारी होता जा रहा है। यह एक नए किस्म का उपनिवेश है जिसमें आज की अधिकांश भारतीय आबादी पीस रही है।

देश अभी 78 वां स्वाधीनता दिवस मना रहा है। देश अमृत काल के उत्सव में भी डूबा हुआ है। विश्वगुरु बनने के संकल्प ने देश को बेचैन कर रखा है। और यह सही समय है कि निजी पूंजी के बोझ से दबती-घुटती जा रही भारतीय शिक्षा व्यवस्था के बारे में ईमानदारी से सोचा जाए।         

व्यवसाय कोई बुरी चीज नहीं है लेकिन शिक्षा व्यवसाय के लिए नहीं बनी है। बाजार का चरित्र इसलिए आज मनुष्य विरोधी है कि उसने हर चीज को खरीद-बिक्री की लिस्ट में डाल दिया है। हर चीज व्यवसाय के तहत है और व्यवसाय के तहत होने से हर चीज से मुनाफा कमाया जा सकता है। व्यवसाय ‘उत्तरजीविता के सिद्धांत’ पर काम करता है। जीवविज्ञान का यह विकासवादी सिद्धांत व्यवसाय का भी मूलमन्त्र है। जाहिर है मुनाफा कमाने के लिए निजी संस्थान कुछ भी करेंगे। और फिर यहीं से बाजार में बने रहने की शर्त पर निजी संस्थान वह सब कुछ करते हैं जिन्हें अनैतिक, गैर-कानूनी या गर्हित कहा जाता है। ‘कोटा फैक्ट्री’, ‘प्लेसिबो’, ‘एन इंजिनियर ड्रीम’, ’12th फेल’ जैसी फिल्मों, डॉक्यूमेन्ट्रीज, सीरिज आदि में हमें शिक्षा और पूंजी के गठजोड़ से पनपे जरायम दुनिया की कई परतें दिखाई देती हैं। लेकिन असीमित धैर्य धारित यह समाज सब कुछ नष्ट होने तक चुपचाप अनासक्त भाव से बर्दाश्त किए जा रहा है। निजी विद्यालयों और कोचिंग संस्थानों द्वारा किए जा रहे आर्थिक, मानसिक दोहन के सापेक्ष देश में इसके प्रतिकार की चेष्टा न के बराबर है।

जहां निजी संस्थान दिन दूनी रात ‘आठ गुनी’ भाव से विस्तार पा रहे हैं, वहीं सरकारी संस्थान कई तरह के नीतिगत अड़चनों को झेलते हुए बेहाल हुए जा रहे हैं। वे फण्ड की कमी से लगातार जूझ रहे हैं। जब तक वे कम फण्ड में किसी तरह प्रबन्ध करने लायक होते हैं तब तक फिर आने वाले वर्ष में पिछले वर्ष की तुलना में और फण्ड कटिंग हो जाती है। आज लगभग सभी सरकारी शिक्षा संस्थान पर्याप्त कार्यबल (वर्क फोर्स) की कमी से भी जूझ रहे हैं। सेवानिवृत्ति तय है लेकिन नए लोगों की भर्तियाँ तय नहीं है। नए लोगों की भर्तियों के अनियमित होने से कार्यबल में असंतुलन पैदा होता है और यह असंतुलन संस्थान की क्षमता को बुरी तरह प्रभावित करता है। संस्थान की पेशेवर छवि धीरे-धीरे इससे खराब होती चली जाती है और समाज बिना पूरे खेल को समझे इकतरफा दोषारोपण पर उतर आता है। ऐसे में सरकारी संस्थानों की बेबसी की कोई सीमा नहीं रह जाती। वह दोतरफा चोट खाकर अपने पुराने समय को याद कर समाज के आत्मघाती रवैये पर सिर धुन रहा होता है।

सरकारी संस्थान को कमजोर करने वाला तीसरा महत्वपूर्ण कारण उसके भीतर फैला भ्रष्टाचार है। सरकारी संस्थानों में काम करने वाले बहुत से कर्मी घुन की भूमिका में होते हैं। बिना परिचय-कमीशन-पैरवी आदि के इन संस्थाओं में आज मामूली काम कराना भी मुश्किल है। सारा सम्बन्ध और सच एक तरफ और पैसे का जोर एक तरफ…! मुझे कवि विनय सौरभ की कविता ‘यह वही दुनिया थी’ का ध्यान आ रहा है-“…पिता के कुछ सरकारी पैसे थे,/ उनकी निकासी के वास्ते उनके दफ्तर में जाना पड़ा हमें/ और बार-बार जाना पड़ा!/ आखिरकार रो दिए हम/ वहाँ हवा भी रुपए मांगती थी काम के एवज में!” कविता का मूल विषय दुनिया के बदसूरत और निर्मम हो चले चेहरे को फोकस में लाना है जबकि घूस की यह बात महज एक नुक्ता भर है लेकिन फिलहाल मेरा अभिप्रेत यही नुक्ता है।

शिक्षा की ऐसी स्थिति के साथ देश के बेहतर भविष्य की कामना करना दिल बहलाने जैसा भी नहीं है। यह कोई आजकल की परिघटना नहीं है। यह एक प्रक्रिया है जो सालों से घटित हो रही है और पानी खतरे के निशान की ओर चढ़ता जा रहा है

.

Show More

दिव्यानंद

लेखक तिलका माँझी भागलपुर विश्वविद्यालय के हिन्दी विभाग में असिस्टेंट प्रोफेसर हैं। सम्पर्क +918332997175, angiradevmp@gmail.com
4.1 27 votes
Article Rating
Subscribe
Notify of
guest

4 Comments
Oldest
Newest Most Voted
Inline Feedbacks
View all comments

Related Articles

Back to top button
4
0
Would love your thoughts, please comment.x
()
x