कृत्रिम बुद्धिमत्ता का बढ़ता दायरा
दुनिया के इतिहास में यूँ तो कई क्रान्तियाँ हुई जिससे दुनिया के अलग-अलग कोनों की समाज व्यवस्था और राजनीतिक गठन हमेशा के लिए बदल गयी पर ऐसी क्रान्ति जिससे सिर्फ एक समाज नहीं बल्कि पूरी दुनिया का नक्शा और व्यवस्था बदल गयी हो, ये सिर्फ औद्यौगिक क्रान्ति से ही संभव हो पाया हैं। आज हम एक नयी तकनीकी क्रान्ति के युग में जी रहे हैं जो है कृत्रिम बुद्धिमत्ता की क्रान्ति।
कृत्रिम बुद्धिमत्ता कोई नई तकनीक नहीं है, बल्कि 1950 के दशक में एआई की शब्दावाली के साथ-साथ इसके सिद्धांतों को परिभाषित किया गया था, इसके बाद से ना सिर्फ कम्प्यूटर बल्कि अनेकों उद्योगों, रक्षा और पर्यावरण जैसे क्षेत्रों में एआई का उपयोग पूर्वसूचना और गंभीर निर्णयों में इंसानी चूक को कम करने के लिए किया जाता रहा है। यह कहने की जरूरत नहीं है कि इस तकनीक के कई फायदे हैं और इसकी वजह से इन क्षेत्रों का तेजी से विकास भी हो पाया है। पिछले एक दशक में यह तकनीक हमारे जीवन का एक अभिन्न अंग बन गयी है। जब भी आप फोन में एक मेल या मैसेज लिखते हैं और आपका अगला लिखे जाना वाला शब्द फोन स्वंय से बता दे या आप गाना सुनें और आपका अगला पसंदीदा गाना खुद सुना दे इन सब चीजों में एआई यानि कृत्रिम बुद्धिमत्ता का प्रयोग हो रहा है।
रोजमर्रा की जिन्दगी में एआई का दखल मोटे तौर पर दो कारणों से संभव हो पाया है- पहला आधुनिक कम्प्यूटरों में बेहतर क्षमता; दूसरा हर इंसान के हाथ में मोबाइल जैसे उपकरण जो ‘बिग डाटा’ उपलब्ध करवाते हैं जिससे कंपनियां अपने एआई मॉडल्स को और बेहतर बना सकती हैं। आप हेलो के बाद डियर लिखते हैं या आप कोक स्टूडियो के लोकगीत सुनना पसंद करते हैं, यह जानकारी आपके फोन ने ही एआई को दी है। इसी क्रम में, ‘जेन एआई’, भी एक ऐसी तकनीक आई है जो ना सिर्फ शब्दों का सुझाव देती है बल्कि आपके लिए पूरा मैसेज खुद भी लिख सकती है। यही नहीं, अब जरूरी नहीं कि आप अपनी भावनाओं का इजहार करने के लिये किशोर कुमार का गाना भेजे, आप खुद भी अपना गाना बना सकते हैं इसके लिए बस आपको एआई को बताना है कि आपकी भावनाएँ क्या है? चाहे आपकी भावनाएँ कितनी भी जटिल हो, एआई आपके लिए गाना बना देगा।
कृत्रिम बुद्धिमत्ता और खासकर ‘जेन एआई’ की इस तकनीक ने दुनिया भर में एक सनसनी फैला दी है। दुनिया के हर कोने में इस तकनीक के होने वाले दूरगामी प्रभाव पर चर्चा की जा रही है जो लाजमी भी है। इस तकनीक का सबसे बड़ा फायदा यह है कि संसाधनों की कमी के बावजूद इस तकनीक की मदद से हर कोई अपनी कल्पना को अमल में ला सकता है और इससे उम्मीद की जाती है कि समाज में अमीर और गरीब के बीच एक लेवल प्लेइंग फील्ड यानि कि निष्पक्ष प्रतिस्पर्धा या अवसर प्रदान किये जा सकते हैं। इन्ही सम्भावनाओं की वजह से ऐसी उम्मीद की जा रही है कि शिक्षा के क्षेत्र में ये तकनीक बहुत मददगार साबित होगी।
कई विचारकों का ये भी मानना है कि अब तो कक्षा, विद्यालय और कॉलेज की बिल्डिंग्स की ज़रुरत ही नहीं होगी बल्कि उपकरणों से हम सारा ज्ञान हासिल कर पाएँगे। शिक्षक इस परिस्थिति से अवगत होंगे कि छात्र अब परीक्षा समय में एआई मॉडल्स जैसे चैट जीपीटी का इस्तेमाल करते हैं जिससे उन्हें लम्बी किताबें पढ़ने की ज़रुरत नहीं रह जाती बल्कि वो सवाल लिखते हैं और चैट जीपीटी उन्हें संक्षेप या विस्तार में उनके सवालों का जवाब दे देती हैं। अब जब तकनीक का हस्तक्षेप छात्रों के जीवन में इतना बढ़ गया है तो ये सवाल उठाना भी जरूरी है कि क्या ये तकनीक शिक्षा व्यवस्था को बेहतरी की तरफ ले जा रही है या छात्रों के बुनियादी कौशल को भी कमजोर कर रही है?
यह तो स्वाभाविक है कि नई पीढ़ी के छात्र अपनी समस्याओं को सुलझाने के लिए नये समाधानों या नई तकनीक का उपयोग करे और जब कॉलेज के नये पाठ्यक्रम इतने पुराने हो कि उनमें जो किताबें सुझाई गयी हैं वो अब प्रकाशित ही नहीं होती और पुस्तकालय में या तो वो किताबें उपलब्ध नहीं है और हैं तो पचास छात्रों के बीच एक किताब ही उपलब्ध हो तो छात्र आखिर क्या करे? छात्र ऐसे परिवारों से आते हैं जहां एक सरकारी कॉलेज की फीस और रोजाना का सरकारी बस का किराया भी एक बोझ है। हां, मोबाइल आज ज्यादातर छात्रों के पास उपलब्ध हैं, शिक्षा की जरूरतें हमेशा कुछ लेखों को पढ़कर पूरी नहीं हो सकती।
आंखों, दिमाग पर पड़ रहे बोझ की दिक्कतों के अलावा सबसे महत्वपूर्ण सवाल ये है कि क्या यह उचित है कि हमारी युवा पीढ़ी शिक्षा के लिए संघर्ष करे? सवाल यह भी है कि शिक्षा का आकलन आखिरकार सिर्फ इस बात से तो नहीं हो सकता कि परीक्षा में किसने कितने नंबर लाये पर शिक्षा की एक जरूरी भूमिका समाज को दिशा देने में भी है और किताबों से कल्पना को नये आयाम मिलते हैं, नये विचारों से परिचय होता है और सोच की बेहतरी के लिए अच्छी किताबों का प्रभाव जरूरी हैं। अगर छात्र चैट जीपीटी से जवाब याद कर परीक्षा में लिख आएँगे, तो परीक्षा में तो सफल हो जाएँगे, पर क्या वो क्या अपनी पढ़ने, लिखने और बौद्धिक क्षमता को सशक्त कर पाएँगे जो कॉलेज के बाद आजीविका के लिये भी जरूरी है?
मेरा ये बिलकुल भी मानना नहीं है कि छात्रों को एआई जैसी नई तकनीक का उपयोग नहीं करना चाहिए। कृत्रिम बुद्धिमत्ता हमारे भविष्य को परिभाषित करेगी इसलिये जरूरी है कि छात्र इससे परिचित हों, इसके सही उपयोग को जाने और इससे बेहतर भविष्य को दिशा दे सके। हमारे देश में ज्यादातर छात्र भले ही चैट जीपीटी का प्रयोग परीक्षा में बेहतर जवाब लिखने के लिए कर रहे हैं पर हमारे देश में ऐसे विद्यालय भी मौजूद है जहां प्राथमिक शिक्षा के छात्र कृत्रिम बुद्धिमता से जुड़े बुनियादी अवधारणाओं जैसे मशीन लर्निंग, डेटा प्रोसेसिंग, कोडिंग सीख रहे हैं और नये एआई मॉडल्स का निर्माण कर रहे हैं। यह कहने की जरूरत नहीं है कि ऐसे विश्वस्तरीय विश्वविद्यालयों के पास संसाधनों की कमी नहीं है और दुनिया के बेहतरीन विशेषज्ञ उपलब्ध हैं।
मेरा सवाल सिर्फ इतना है कि ये सुविधाएँ ज्यादा से ज्यादा छात्रों के पास उपलब्ध क्यों नहीं है? इन भविष्य की सुविधाओं को तो छोड़ दें, दिल्ली विश्विद्यालय के कुछ गिने चुने कॉलेज या नयी उभरती हुई प्राइवेट विश्वविद्यालयों को छोड़ दें तो देश में ज्यादातर छात्रों के पास शिक्षा की बुनियादी सुविधाएँ भी नहीं हैं। देश के देहात के शिक्षा संस्थानों में तो शौचालय भी नये हैं जिनमें नल से पानी की व्यवस्था नहीं है, कक्षाओं में पंखे नहीं हैं, छात्रों के पास कक्षाओं में पर्याप्त जगह नहीं है, पुस्तकालय में किताबें नहीं हैं; और ऐसे अवसर नहीं हैं जहां वो पाठ्यक्रम से हटकर अपनी और क्षमताओं को निखार सके और अपने अनुभवों से सीखकर एक बेहतर भविष्य के समाज का निर्माण कर सके। छात्र चैट जीपीटी का उपयोग जरूर कर रहे हैं लेकिन वो चैट जीपीटी के पीछे का विज्ञान शायद नहीं समझ पा रहे हैं और इसीलिए वो इस तकनीक को अपनी जरूरतों के हिसाब से ढाल नहीं पाएँगे। जो इन तकनीकों को अपने अनुसार ढ़ाल ले रहे हैं वो शायद देश के सबसे पिछले वर्ग के छात्रों की परिस्थितियों से अनजान हैं।
सच है कि आधुनिक विज्ञान और कृत्रिम बुद्धिमत्ता जैसी तकनीक हमारी जिन्दगी को आसान कर पाएगी पर यह भी उतना ही सच है कि तकनीक हमारे समाज में विभाजन की जड़ों को और भी गहरा कर देगी। कृत्रिम बुद्धिमत्ता के सन्दर्भ में ये सवाल इसलिए भी जरूरी है कि यह तकनीक न सिर्फ समाज को आकार देगी बल्कि यह समाज से प्रभावित हो कर खुद को नित नये ढंग से परिभाषित भी करेगी और अगर समय रहते मानवीय हस्तक्षेप से यह सुनिश्चित नहीं किया गया कि तकनीक सब वर्गों को समान रूप से तामील करे तो यह तकनीक और इसे समझने वाले लोग सर्वोपरि हो जाएँगे। आज जो लोग संसाधन संपन्न हैं वे कल भी रहेंगे पर बाकि मेहनतकश छात्र जो निम्न और मध्यम वर्ग से आते हैं वे अपने भविष्य को बेहतर नहीं कर पाएँगे।
बहुत संभव है कि तमाम विषम परिस्थितियों के बावजूद कोई एक सफल कहानी लिख पाए पर क्या यह सबका हक नहीं है? यह भी याद रखा जाए कि तकनीक समाज को समान और बेहतर तब ही बना सकती है जब समाज में तकनीक के साथ आधारभूत संरचना मौजूद हो, अन्यथा तकनीक का फायदा एक वर्ग तक ही सीमित रह जाएगा।