वर्तमान शिक्षा व्यवस्था की समस्याएँ
शिक्षा के कई क्षेत्रों में आज भ्रष्टाचार है। वह प्रवेश प्रक्रिया के साथ-साथ अन्य जगहों पर भी है। लेकिन यह भ्रष्टाचार केवल शिक्षा या उसके तन्त्र की वजह से नहीं है। संकट शिक्षा तन्त्र के साथ-साथ समाज का भी है। अभी हमलोगों ने ‘एम्प्लॉयमेंट एँड अनएम्प्लॉयमेंट’ पर एक रिपोर्ट निकाली है। हमारे समाज में करीब 320 मिलियन यानी 32 करोड़ लोग हैं जिनके पास ढंग का काम है लेकिन 28 करोड़ ऐसे लोग हैं जिनके पास ढंग का काम नहीं है या काम बिल्कुल ही नहीं है। 2.4 करोड़ बच्चे जो 15 साल से ऊपर के होते हैं वे हर साल मार्किट में काम ढूँढने आते हैं। 28 करोड़ का पहले से बैकलॉग है और 2.4 करोड़ बच्चे हर साल इसमें नए जुड़ते जा रहे हैं, इन सबको काम चाहिए, नौकरी चाहिए। समाज में आज बेरोजगारी के कारण संघर्ष की स्थिति है। हमारा मानना है कि जो गैर कानूनी काम होते हैं उसके पीछे भी यह वजह है कि लोग चाहते हैं कि किसी-ना-किसी तरह से हमें कोई काम मिल जाए। और इसलिए ऐसा होता है कि जैसे-तैसे कोई भी परीक्षा पास करने की होड़ लग जाती है। इससे समाज में संघर्ष बढ़ा है।
हमारे लिए यह समझना बहुत जरूरी है कि समाज में शिक्षा पद्धति की क्या भूमिका है! आज हमारे यहाँ शिक्षा का स्वरूप पूरी तरह परीक्षा और उसके परिणामों पर केंद्रित है। इस तरह हम पाते हैं कि आज के समय में परीक्षाएँ एक तरह की ‘स्क्रीनिंग मैकेनिज्म’ हैं। और अगर ये परीक्षाएँ सही ढंग से आयोजित नहीं होंगी, उसमें धांधली होगी तो विद्यार्थियों का विश्वास पूरी प्रक्रिया से टूटेगा। इसका परिणाम बहुत दूरगामी होगा। समाज में न्याय की अवधारणा इससे कमजोर पड़ जाएगी। अब तो यह हो चुका है कि धांधली व्यवस्थागत होती जा रही है। ऐसा नहीं कि पहले पेपर लीक नहीं होता था या गड़बड़ी नहीं होती थी पर वह कभी-कभी होता था और छोटे स्तर पर होता था लेकिन अब ऐसा नहीं रहा।
कभी-कभी होने वाली घटना अब सामान्य जैसी होती जा रही है। खबर यह है कि पिछले 10 साल में 70 से भी ज्यादा इम्तहान ऐसे रहे जिनके पर्चे लीक हो गए। इसका असर विद्यार्थियों के परिवार और समाज पर गहरा पड़ता है। इसलिए हमारे लिए यह समझना जरूरी हो गया है कि हम इसको जाने कि पर्चे लीक होने की घटना संस्थागत कैसे हो गयी! आज समाज में सामूहिक हस्तक्षेप निरंतर कम होता जा रहा है। समाज में फैली गड़बड़ी का यह भी एक करण है। आज यह भी देखने में आ रहा है कि बच्चे क्लास कम और कोचिंग ज्यादा कर रहे हैं। कोचिंग आज व्यापार का अड्डा बना हुआ है। यह एक बिजनस है। बिजनस लाभ की स्थिति में ही चल सकता है। इसलिए कोचिंग्स को अच्छे परिणाम चाहिए। इसके लिए फिर वे कई बार गैर कानूनी तरीके अपनाते हैं। पर्चों का लीक होना उनमें से एक है।
आज की हमारी शिक्षा पद्धति में बच्चों का बहुत ज्यादा उत्साह नहीं रह गया है। हमलोग देखते हैं कि बच्चे कुंजी लेकर इम्तहान पास कर लेते हैं। कोचिंग की दुनिया ने समाज में सीखने की व्यापक परिघटना को संकीर्ण बना दिया है। सारा फोकस किसी तरह सफल हो जाने पर आ टिका है। इससे विद्यार्थियों पर दबाव बढ़ा है। वे आत्महत्याएँ कर रहे हैं। वे परिवार को निराश देखना नहीं चाहते हैं। पूरी शिक्षा पद्धति का ढांचा ही ऐसा बना दिया गया जिसने एक समावेशी लक्ष्य की पूर्ति को लगभग असंभव बना दिया है।
अगली बात जिसकी मैं चर्चा करना चाहता हूं वह यह है कि आज हमारे अध्यापकों की स्थिति समाज में कमजोर हो गयी है। इससे हुआ यह है कि शिक्षकों की निष्ठा कमजोर हो गयी है। इसलिए देखा गया है कि जगह-जगह पर शिक्षक भी गलत कामों में संलग्न पाए जाते हैं। आज शिक्षक-विद्यार्थी का सम्बन्ध भी व्यावसायिक होता जा रहा है। इससे शिक्षा के पूरे परिदृश्य पर नकारात्मक प्रभाव पड़ा है । शिक्षा पद्धति के यांत्रिक होने से सीखने की ललक का ह्रास होता जा रहा है। यांत्रिक पद्धति ने हमें कामकाजी जीवन में भी यांत्रिक ही बना दिया है।
पहले विद्यालयों में अमीर, गरीब, मध्यम वर्ग के बच्चे लगभग साथ-साथ पढ़ते थे। इससे उनमें नागरिकता और लोकतन्त्र के भाव सहज ही विकसित हो जाते थे। आज हमारे स्कूलों में गहरा विभाजन हो गया है। अमीर के बच्चे अमीर स्कूल में जाते हैं, मिडिल क्लास के बच्चे मिडिल क्लास स्कूल में जाते हैं, गरीब बच्चे गरीब स्कूलों में जाते हैं। यही विभाजन विद्यालय के बाद फिर कॉलेज और विश्वविद्यालयों में दिखाई देने लगा। अब अमीर बच्चे विदेश चले जाते हैं, वे प्राइवेट सेक्टर में चले जाते हैं। इससे लोकतंत्रीकरण और नागरिक भाव की भूमिका भी कमजोर होती गयी है। इस पूरी प्रक्रिया में शिक्षक की भूमिका एक रोल मॉडल जैसी थी। पहले हमारे यहाँ शिक्षा की भूमिका समाज कल्याण के सन्दर्भ से जुड़ी थी।
परिवर्तन शिक्षा का ध्येय था। कोशिश यह होती थी कि लोकतान्त्रिक मूल्यों और भावों को ज्यादा-से-ज्यादा जगह मिले। आज का तन्त्र ऐसा हो गया है कि सब कुछ यहाँ आज वस्तुकरण का हिस्सा है। इससे डेमोग्राफिक डिविडेंड भी प्रभावित हुआ है। डेमोग्राफिक डिविडेंड का मतलब है कि जो बच्चे पढ़ाई कर रहे हैं, वो जब बड़े होकर काम करेंगे तो उसकी जो प्रोडक्टिविटी है उससे हमारे अर्थव्यवस्था को फायदा होगा लेकिन अगर शिक्षा अच्छी नहीं होगी, बच्चों का मन अगर शिक्षा से हट जाएगा तो डेमोग्राफिक डिविडेंड नहीं मिलेगा। अब सवाल उठता है कि हमारी जो शिक्षा है उसको हम किस प्रकार से निवेशित करें। यह दो तरीके से हो सकता है- सार्वजनिक निवेश और निजी निवेश। हमारे जैसे देश के लिए सार्वजनिक निवेश का कोई विकल्प नहीं है। शिक्षा में निजी निवेश से समाज में गैर-बराबरी बढ़ेगी।
सन् 1991 के बाद उदारीकरण वाली व्यवस्था लागू होने के बाद शिक्षा में निजी निवेश तेजी से बढ़ा है और इसका नुकसान गरीब तबके को हुआ है। हमारे सामने ऐसी भी रिपोर्ट आयी है जिनसे यह पता चलता है कि सरकारी स्कूलों में आज 50% बच्चे पाँचवीं जमात में आकर भी दूसरी-तीसरी कक्षा के गणित के प्रश्नों को हल नहीं कर पाते हैं। आशय यह है कि सरकारी स्कूल कम होते जा रहे हैं और जहाँ हैं भी वहां उनकी स्थिति खराब होती जा रही है। ऐसे में शिक्षा में सरकार का पूर्ण दखल जरूरी है। दूसरी बात यह है कि पहले उच्च शिक्षा में खर्च बेहद मामूली था लेकिन आज वह खर्च लाखों में है। और फिर पर्चे लीक करने के लिए अभ्यर्थी से लाखों रूपये वसूले जा रहे हैं। यही हाल मेडिकल की डिग्री का है जहाँ लाखों रूपये का डोनेशन देकर डिग्री खरीद ली जाती है; तो कुल मिलाकर व्यावसायीकरण के कारण ये बहुत ही प्रॉफिटेबल वेंचर हो गया है। और इसलिए हम देख रहे हैं कि तरह-तरह के नेता और व्यापारी शिक्षा के क्षेत्र में आ गए हैं और उनका काम है कि वे किसी तरह से प्रॉफिट कमाएँ। इसके लिए वो व्यावसायिक शिक्षा को आगे बढ़ा रहे हैं। इस पूरी प्रक्रिया के साथ ही करप्शन जुड़ा हुआ है; क्योंकि अगर इनको और प्रॉफिट कमाना है तो इनको दिखाना पड़ेगा कि इनका रिजल्ट अच्छा है जिससे कि और बच्चे इनके यहाँ आएँ और प्रवेश लें।
2012-13 में मैंने आँका था कि हमारे देश में काले धन की अर्थव्यवस्था करीब 62 प्रतिशत के आसपास है; यानी कि आज की 300 लाख करोड़ की अर्थव्यवस्था में 180 लाख करोड़ काला धन का व्यवहार हो रहा है।
हमारी आज की शिक्षा पद्धति की एक बड़ी चुनौती यह भी है कि हमारे यहाँ शिक्षण और शोध को अलग कर दिया गया है। इसका बुरा असर पड़ा है। सन् 2012 में दिल्ली विश्वविद्यालय के सेंट स्टीफन कॉलेज में स्टूडेंट एक्सचेंज प्रोग्राम के तहत ब्राउन यूनिवर्सिटी से एक विद्यार्थी रिचर्ड थेन आये थे। उन्होंने 2012 में एक लेख लिखा था और उन्होंने उसमें बताया कि जिस प्रकार की शिक्षा स्टीफन कॉलेज में दी जा रही है, वो यहाँ के बच्चों को समझ नहीं आ रही क्योंकि पूरा जोर रटने और परीक्षाओं को किसी तरह पास करने पर है। मैंने भी सन् 1984 में जब जेएनयू में पढ़ाना शुरू किया था तो मैं ओपन बुक एग्जाम लेता था। बच्चे कहते थे कि सर! हम इम्तहान में सोच नहीं पाते हैं; तो जो हमने पढ़ा है, रटा है, प्रश्न उसी के अनुरूप होना चाहिए।
हमलोग आर. एण्ड डी. में काफी कमजोर हैं। आज देश में यह देखना पड़ेगा कि किस प्रकार से पढ़ाना है! इसी के साथ यह भी जुड़ा हुआ है कि हमारे जो शैक्षिक संस्थान हैं, शिक्षाविद हैं वे बहुत ज्यादा नौकरशाही रुझान के हैं। वे सुबह के 10 बजे से शाम के 5 तक काम करने के आदि हैं; तो मतलब कि 5 बज गया और फाइल बन्द हो गयी। सब घर चले गए। ऐसे पढ़ाई-लिखाई नहीं होती है, ऐसे शोध नहीं होता। जो शोध के विचार होते हैं, जो पढ़ाई के विचार होते हैं वे दिमाग में चलते रहते हैं और वह फाइल बन्द नहीं होती। रात में 10 बजे, 11 बजे भी हो सकता है कि वे काम करते रहें। मैं जब प्रिंस्टन यूनिवर्सिटी में फिजिक्स में पी.एच.डी कर रहा था तो मैंने देखा कि हमारे डिपार्टमेन्ट में कई नॉबेल प्राइज विनर्स हैं। उन्होंने बहुत कुछ अचीव कर लिया था, लेकिन फिर भी मैं देखता कि वो रात में 12 बजे, 1 बजे, 2 बजे भी उनके कमरे में लाइट जली हुई है, वे अपना काम कर रहे हैं, वे आगे खोज कर रहे हैं; क्योंकि एक लगन पैदा हो जाती है। आज हुआ क्या है कि हमारी जो शिक्षा पद्धति है उसमें हम अकादमिक लोगों ने नौकरशाह और नेता के लिए काम छोड़ दिया है। जो वे कहते हैं, हम उसको यांत्रिक ढंग से पूरा करते हैं। यह एक बहुत बड़ी कमजोरी आ गई है हमारी शिक्षा पद्धति में।
आशय यह है कि अगर शिक्षा में जोर बाजार की ओर होगा तो ऐसी स्थिति में समाज की चुनौतियों का समाधान नहीं हो पाएगा। और इसी से हमारा जो अलगाव है- समाज में और शिक्षा पद्धति में, वह और ज्यादा बढ़ता चला जाएगा। मुझे गाँधी की याद आती है। उन्होंने कहा था कि हमारी जो शिक्षा पद्धति है वह छात्रों को अलगाव की ओर ले जाती है; इसलिए उन्होंने नई तालीम की बात की थी जहाँ पर कि जो शिक्षा है और जो रोजमर्रा की जिन्दगी है, उसके बीच में लिंक बना रहे। इसलिए मेरा मानना है कि हमारी शिक्षा पद्धति की जो कमजोरियाँ हैं, वे कॉलोनियल पीरियड से लिंक हैं; क्योंकि वहाँ से हमारी जो प्रवृत्ति बनी वो आज भी एक तरह से अस्तित्व में है। ऐसी स्थिति में अगर हमें यूनिवर्सल एजुकेशन देनी है तो उसके लिए फिर हमें खुद को चुनौती देनी होगी। जेएनयू एक उदाहरण है जहाँ पर कि हमने खुद की स्थिति को चुनौती दी और आज उसका परिणाम यह है कि जेएनयू को तरह-तरह से बदनाम किया जा रहा है। कोशिश यह हो रही है कि ऐसे मॉडल को ध्वस्त कर दिया जाए।
मेरा मानना है कि शिक्षा में जो कमजोरियाँ हैं उसको हम ठीक कर सकते हैं। इसके लिए हमें दृष्टिकोण को बदलना होगा। यहाँ राजनीतिक इच्छाशक्ति की भी आवश्यकता है पर वो इच्छाशक्ति कहाँ से आएगी? वो हमारी राजनीतिक अर्थव्यवस्था से जुड़ी है जहाँ कि बड़े-बड़े बिजनेसमैन हैं, जो पूंजीपति हैं, इलीट समाज है और वो नहीं चाहता कि अच्छी शिक्षा नीचे तक जाए। अगर आप देखें तो विक्रम सेठ का जो ‘अ सुटेबल बॉय’ है, उसमें उन्होंने बताया है कि 1950 के दशक में जो राजनीति थी, वह गरीब बच्चों को अच्छी शिक्षा से वंचित रखना चाहती थी। 1976-77 में जब मैं रूरल डेवलेपमेंट के सिलसिले में होशंगाबाद गया था। वहाँ पर जब हम गरीब बच्चों को पढ़ाते थे तो वहाँ का जमींदार कहता था कि अगर आप बच्चों को पढ़ा दोगे तो हमारे यहाँ काम कौन करेगा! इसलिए मेरा मानना है कि अगर हमें अपने भविष्य के बारे में चिन्ता करनी है और खासकर इस वैश्विक दुनिया में जहाँ पर आर. एण्ड डी. की हवा है तो हमें शिक्षा को पहले पायदान पर रखना होगा। उसके लिए संसाधन हमारे पास पर्याप्त हैं। संसाधनों की कमी नहीं है। कमी है तो राजनीतिक इच्छाशक्ति की।
प्रस्तुति : डॉ. दिव्यानन्द
वि.वि. हिन्दी विभाग
तिलका माँझी भागलपुर विश्वविद्यालय
भागलपुर, बिहार