शिक्षा

बाजार में इतिहास-शिक्षा

 

पिछले दो दशकों में शिक्षा और विशेषकर इतिहास शिक्षा पर शोध करने वाले कई पाश्चात्य विद्वानों, जैसे, सैम वाइनबर्ग, पीटर सेक्सस, जेम्स लौएन, डेविड कोबरिन, आदि ने ‘हिस्टॉरिकल थिंकिंग’ (ऐतिहासिक विचार) नामक एक श्रेणी का निर्माण किया है। यह श्रेणी शैक्षणिक पद्धति में सम्मिलित होकर विद्यालई शिक्षा में बच्चों को इतिहास लेखन के गुर सिखाती है। मसलन, किसी घटना को ऐतिहासिक महत्ता का कब माना जाए, तथ्यों के आधार की परख कैसे की जाए, प्राथमिक साक्ष्यों को कैसे सन्दर्भित किया जाए, इतिहास में परिवर्तन और निरन्तरता को कैसे जाँचा जाए, आदि। इतिहास की उपयोगिता से आगे निकलकर यह पद्धति बाल मन में तथ्यों की जाँच किए बगैर उन्हें न स्वीकारने की प्रवृत्ति गढ़ रही है। कई संस्थान जैसे कैलिफोर्निया विश्वविद्यालय (लॉस एंजल्स) स्थित ‘नेशनल सेंटर फॉर हिस्ट्री इन द स्कूल्स’ इस काम को आगे बढ़ा रहे हैं।

रुख करते हैं भारत की ओर। आए दिन समाचार-पत्र और टीवी मीडिया राजनेताओं के गलत तथ्यों पर चर्चा मग्न दिखाई देती है। कभी जवाहरलाल नेहरू पर कोई विवादित या झूठा बयान, तो कभी अकबर और औरंगज़ेब पर कोई खबर। हम कई बार वर्तमान की समस्याओं से अधिक इतिहास की समस्याओं से घिरे दिखते हैं। पिछले कुछ वर्षों में “व्हाट्सएप यूनिवर्सिटी” एक बेहद लोकप्रिय जुमला बन चुका है। आशय है कि डिजिटल क्रान्ति के बाद आसानी से मुहैया हुए स्क्रीन पर आने वाली सभी सूचनाओं को पढ़ने वाला सत्य मानता है। वह “इन्फॉर्मेशन”, “डिसइन्फॉर्मेशन”, और “मिसइन्फॉर्मेशन” में अन्तर करने के काबिल नहीं! लेकिन सवाल यह है कि क्या डिजिटल क्रान्ति के साथ सूचनाओं की जन सुलभता और उसकी सुनामी को रोकने के लिए राज्य और सरकार के पास कोई पुख्ता नीति है? इस सवाल को शिक्षा के क्षेत्र तक सीमित रखते हुए विचारा जाए।

राष्ट्रीय शिक्षा नीति (2020) के अन्तर्गत तथ्यों और सूचनाओं की परख कैसे की जाए इसके लिए कोई प्रावधान नहीं है। जब यह शिक्षा नीति प्रकट हुई तब हम कोविड महामारी की चपेट में थे। कोई गोबर से नहा रहा था तो कोई थाली घंटी बजा रहा था। आए दिन नये-नये अवैज्ञानिक दावों का तांता लगा हुआ था। एक धर्म प्रधान समाज में आम नागरिक को केवल संविधान के नाते वैज्ञानिक चेतना से सम्पन्न तो नहीं किया जा सकता। आज जब हथेली में समा जाने वाले मोबाइल फोन पर “गूगल” करके कोई भी सूचना ली जा सकती है तब यह निश्चय कहाँ है कि सूचनाओं की सत्यता की जाँच परख कैसे होगी? इसी रोशनी में हम इतिहास लेखन की राजनीति की एक लम्बी यात्रा पर निकलते हैं।

इतिहास की लड़ाई: हिस्ट्री वार्स

2024 से 1864 की ओर चलते हैं। राजा शिवप्रसाद ने 1864 से 1873 के मध्य तीन जिल्दों में इतिहास तिमिरनाशक (उर्दू में आयींन-ए-तारीख नुमा) नाम की एक लोकप्रिय किताब लिखी थी। किताब में मुस्लिम काल को लेकर जो भी बातें कहीं माँग उससे सर सय्यद अहमद खान मुतासीर नहीं थे और उन्होंने अँग्रेज सरकार से हस्तक्षेप की माँग की। सर सय्यद का दावा था कि मुसलमान काल पर जैसी बातें कहीं गयी हैं उससे सामाजिक सोहार्द बिगड़ेगा। अँग्रेज सरकार को समकालीन सरकारों की तरह कान की बीमारी कम थी। 1877 में सरकार ने ई लेथब्रिज (सचिव) और ईसी बेले (अध्यक्ष) की देखरेख में ब्रिटिश इण्डिया के स्कूलों में इस्तेमाल हो रहे सभी पाठ्यपुस्तकों की जाँच के लिए एक समिति का निर्माण कर दिया। नौ सदस्यी समिति में नारायण डांडेकर और क्रिस्टोदास पाल नाम के दो भारतीय भी थे। समिति ने सभी प्रान्तों के पाठ्यपुस्तकों की जाँच की। इतिहास की प्रचलित पाठ्यपुस्तकों पर विवाद सबसे अधिक था। लिखने वाले भी कई थे। इन लेखकों में अँग्रेज अधिकारी, मिशनरी, और भारतीय राष्ट्रवादी प्रबल थे।

यह स्कूली व्यवस्था समकालीन भारत से भिन्न थी। 20वी सदी के पहले दशक तक अँग्रेजी राज पाठ्यक्रम बनाने में सक्रिय तो था लेकिन पाठ्यपुस्तकों के चयन की स्वतन्त्रता थी। कई सारे विकल्पों में से हेडमास्टर और अभिभावक किसी भी एक दो पुस्तकों के उपयोग पर सहमत हो सकते थे। 1930 के दशक तक इतिहास विश्वविद्यालयों में एक लोकप्रिय विषय था और ईश्वरी प्रसाद, कलिकिंकर दत्ता, कैलाश चन्द्र मन्ना, सतीश चन्द्र विद्याभूषण जैसे कई भारतीय लेखकों की पाठ्यपुस्तकें प्रचलित थीं।

इसके साथ ही स्वतन्त्रता आन्दोलन की अभिव्यक्ति भी अपने चरम पर थी। साथ ही साम्प्रदायिक हिंसा भी। इस बीच एक अजीब सा वाक्य होता है। विभिन्न प्रांतो के लेगीसलेटिव काउंसिलों में एक स्वर गर्जन्ना सुनाई देती है कि सामाजिक सौहार्द इसीलिए बिगड़ता है क्योंकि इतिहास पाठ्यपुस्तकें हिन्दू और मुसलमान संघर्ष का भ्रम पैदा करती है। अब यह बात थोड़ी अटपटी है क्योंकि स्वतन्त्रता के समय तक भारत की कुल साक्षारता दर 12% थी। ‘मास एडुकेशन’ की कोशिशें बेहद कम थी। बाद में 1970 के दशक तक जब एनसीईआरटी की पाठ्यपुस्तकें प्रचालन में आ गयीं तब भी साक्षारता दर महज 45% और 2001 तक 75% थी। इसलिए साम्प्रदायिकता के फैलाव का जिम्मा शिक्षा के प्रसार पर डालना कुछ अजीब था। लेकिन यह विचार एक ऐसा सूत्र बना जिसकी गूंज समकालीन भारत में सुनाई देती रही है।

मध्यरात्रि के बाद

आजाद हुए। विभाजित हुए। संविधान मिला। देश आगे बढ़ा। इतिहासकारों की चिन्ता थी कि अब वे आजाद भारत का आजाद इतिहास लिखेंगे। सबसे पहली पहल रोमेश चन्द्र मजूमदार ने की। इण्डियन हिस्टॉरिकल रिकॉर्ड कमीशन के जयपुर सत्र (1948) में मजूमदार ने भारतीय सरकार के लिए एक ज्ञापन तैयार किया कि हमें अब इतिहास लेखन के लिए अभिलेखागारों का निर्माण करना चाहिए। साथ ही महात्मा गाँधी जैसे महत्वपूर्ण नेताओं की लेखनी को भी एकत्र करना चाहिए। मजूमदार ने भारतीय विद्या भवन द्वारा प्रकाशित न्यू इण्डिया पत्रिका में 7 मई, 1948 को लेख भी लिखा। अपनी बात जवाहरलाल नेहरू और राजेंद्र प्रसाद तक पहुँचायी। बात आगे बढ़ी और 1952 में भारत सरकार ने स्वतन्त्रता आन्दोलन का आधिकारिक इतिहास लिखने के लिए शिक्षा मन्त्रालय के अन्तर्गत एक बोर्ड बनाया। बोर्ड के अध्यक्ष मजूमदार थे, और बाकी सदस्यों में सय्यद महमूद, नरेंद्र देव, एसएन सेन, एनवी पोटदार, नीलकंठ शास्त्री, बलवंत मेहता और सरकार की ओर से सांसद एसएम घोष को सचिव बनाया गया।

मजूमदार स्रोतो को एकत्र करने और इतिहास लेखन में मशरुफ हो गये। बोर्ड की मीटिंग कई दफ़े हुई जिसका खाका दिल्ली में राष्ट्रीय अभिलेखागार के पास उपलब्ध है। मार्च 1955 में जब पहला मसौदा तैयार हुआ तब एक अजीब घटना घाटी। बोर्ड के सभी सदस्य मसौदे से खुश थे लेकिन शिक्षा मन्त्रालय के सचिव तारा चंद ने मौसौदे को खारिज कर दिया। उसके पहले शिक्षा मन्त्री मौलाना आजाद ने पहले ही मजूमदार से यह कहकर असन्तुष्टि व्यक्त की थी कि चुकी वो और आजाद दोनों बंगाल से है इसलिए उन पर यह आरोप लगेगा कि आधिकारिक इतिहास में अन्य प्रान्तों की तुलना बंगाल की अधिक चर्चा हुई है। मजूमदर की 1857 की समझ और स्वतन्त्रता संग्राम में गाँधी की केन्द्रीयता पर उनके विचार सरकारी मत से अलग थे। जाहिर है सरकार की दृष्टि में मसौदा “इतिहास कहलाने के लायक नहीं था!”

इस तरह स्वतन्त्रता आन्दोलन का आधिकारिक इतिहास मजूमदर के पाले से निकालकर तारा चंद की ओर चला गया और उन्होंने तीन जिल्दों में इसे 1960 के दशक में प्रकाशित किया। प्रकाशन पब्लिकेशन डिवीजन था। मजूमदार ने उसी शीर्षक ‘हिस्ट्री ऑफ द फ्रीडम मूवमेंट इन इण्डिया’ के तीन जिल्द खुद के प्रयासों से निकाला।

इतिहास का मैदान

1960 के दशक की शुरुआत में जवाहरलाल नेहरू कई तरह की अलगाववादी प्रवृतियों का सामना कर रहे थे। यह भाषाई, जातीय, धार्मिक, क्षेत्रीय आदि थे। केवल 1950 और 1964 के मध्य देश में 243 साम्प्रदायिक दंगे हो चुके थे। नेहरू को राष्ट्रीय एकीकरण की चिन्ता खाये जा रही थी। जून 1, 1961 को नेहरू ने मुख्यमन्त्रियों के सम्मेलन में उन्हें सूचित किया काँग्रेस के भावनगर सत्र में इन्दिरा गाँधी की अध्यक्षता में राष्ट्रीय एकता परिषद का निर्माण हुआ है। उसी साल 1961 में राष्ट्रीय शैक्षिक अनुसन्धान और प्रशिक्षण परिषद (एनसीईआरटी) का भी गठन हुआ। यही से शिक्षा को राष्ट्रीय एकीकरण का सबसे मजबूत हथियार बनाने की यात्रा आरम्भ होती है।

एकीकरण का भार इतिहास के कन्धों पर डाल दिया गया। जाहिर है तब तक पाठ्यपुस्तकों के राष्ट्रीयकरण की पहल भी शुरू हो चली थी। मुदलियार समिति (1952-53) और कोठारी समिति (1964-66) ने राज्यों से भी इस दिशा में पहल करने को कहा था। 1968 में भारत सरकार ने शिक्षा मन्त्रालय के अन्तर्गत ‘नेशनल बोर्ड ऑफ स्कूल टेक्स्टबुक्स’ का निर्माण कर दिया। इसके कई लक्ष्यों में विशेषतः पाठ्यपुस्तकों का राष्ट्रीय एकीकरण में प्रयोग करने पर बल दिया गया। 1970 में एनसीईआरटी ने अपने दस्तावेजों में साम्प्रदायिकता, जातिवाद, और क्षेत्रवाद को आधिकारिक तौर पर परिभाषित कर दिया और प्रचलन में रही 7000 से अधिक पाठ्यपुस्तकों को इन मानदण्डों पर सुधारने का काम शुरू किया। साथ ही आधिकारिक पाठ्यक्रम और उसका राष्ट्रीयकरण भी तेजी पर था।

इसी ऐतिहासिक सन्दर्भ में एनसीईआरटी की ओर से इतिहास की पाठ्यपुस्तकें आयीं। रोमिला थापर, बीपन चन्द्र, राम शरण शर्मा, सतीश चंद्र, अर्जन देव आदि पेशेवर इतिहासकारों ने राष्ट्रीय एकीकरण को बढ़ावा देने के लिए नये इतिहास की रचना शुरू की।

लेकिन पेशेवर इतिहासकर इस शगल में अपनी समस्याएँ और अपनी सीमाओं के साथ उतरे। मसलन इस मामले पर लिखते हुए रोमिला थापर ने बताया है कि उन्हें 1960 के दशक में पहले पहल यूनिसेफ़ ने दिल्ली में प्रयोग में लायी जा रही पाठ्यपुस्तकों की जाँच करने को कहा था। उन्होंने देखा कि स्कूली स्तर पर पढ़ाया जा रहा इतिहासकर अभी भी “औपनिवेशिक” और “साम्प्रदायिक” था। उन्होंने निश्चय किया कि इतिहास को नये सिरे से लिखा जाना चाहिए। वहीं इसी घटनाक्रम को तत्कालीक शिक्षा मन्त्री मोहम्मद करीम छागला अलग रोशनी में याद करते हैं। छागला का स्पष्ट मत था कि यह पुस्तकें राष्ट्रीय एकता और सद्भाव की दृष्टि से लिखी जा रही थीं।

यहाँ हमारे पास दो अलग उद्देश्य आ गये। एक तरफ इतिहासकर ने कहा कि नयी किताबें नये इतिहास के लिए लिखी माँग। राज्य और राजनीति इन किताबों को एकीकरण और सद्भाव के लिए लिखवा रही थी। जाहिर है तब इतिहासकार ऐसे तथ्य उजागर करने से कतराया जिससे एकीकरण को खतरा हो सकता था।

घिरा घमासान

इतिहास पाठ्यपुस्तकों पर बवाल कटता रहा है। केरल में 1957 में कम्युनिस्ट पार्टी ऑफ इण्डिया की सरकार आते ही पाठ्यपुस्तक विवाद हो गया था। केरल शिक्षा विधयिकी, 1957 के अन्तर्गत कम्युनिस्ट सरकार पर आरोप लगा था कि वे पाठ्यपुस्तकों से एक विशेष विचारधारा को बढ़ावा दे रहे हैं। कथोलिक नाराज थे कि उनके किताब प्रकाशित करने के अधिकार छीन लिए गये थे। प्रादेशिक काँग्रेस नाराज थी कि पाठ्यपुस्तकों में मार्क्स और लेनिन की चर्चा अधिक थी और गाँधी की कम। कम्युनिस्ट सरकार के खिलाफ घेराबन्दी हुई। मुख्य विवाद कम्युनिस्ट विजयम नामक आठवीं कक्षा की पाठ्यपुस्तक पर हुआ। योजना आयोग के सदस्य श्रीमान नारायण ने शिक्षा मन्त्री केएल श्रीमाली को सितम्बर 1958 में हस्तक्षेप करने को कहा। बात संसद में भी उठाई गयी। उपराष्ट्रपति सर्वपल्ली राधाकृष्णन ने भी हस्तक्षेप किया। अन्ततः शिक्षा मन्त्रालय ने अक्टूबर 1958 में सेंट्रल ब्यूरो ऑफ टेक्स्टबुक रिसर्च की निदेशक रुक्मिणी रामस्वमी को त्रिवेनद्रम रवाना किया। अन्त में यह विवाद ठण्डा पड़ गया क्योंकि 31जुलाई, 1959 को केरल में राष्ट्रपति शासन लागू कर दिया गया।

इतिहास पर फिर घमासान 1977 में छिड़ा। जनता पार्टी सरकार ने ऊपर नामित इतिहासकारों की एनसीईआरटी किताबों पर नकेल कस दी। इतिहासकारों पर आरोप लगे कि यह मार्क्सवादी हैं और किताबें भारत के प्राचीन इतिहास पर कई गलत दावें करती हैं। इतिहासकारों ने अपना बचाव किया और मार्क्सवादी इतिहास होने की बात को गलत ठहराते रहे।

खैर, समय का पहिया चलता रहा। 1980 के बाद ये किताबें फिर से इस्तेमाल में आयीं। 2002 में इन पर फिर हमला हुआ। वाजपेयी सरकार ने अपनी किताबें सामने रखीं। इतिहासकारों में घमासान छिड़ता रहा। शिक्षा के “भगवाकरण” की बात भी उठाई माँग। प्राचीन और मध्यकाल भारत की कई घटनाओं पर विवाद छिड़े। सीख समुदाय ने सतीश चन्द्र पर अपने सीख गुरुओं के अपमान की बात कही।

2004 में नयी सरकार के साथ फिर से नई पाठ्यपुस्तकों का अवतरण हुआ। नेशनल करीकुलम फ्रेमवर्क (2005) के तहत इतिहास की स्कूली किताबों में पहली बार एक लेखक की जगह कई लेखक लाये गये। स्रोतों पर भी चर्चा हुई। सपाट कालक्रम की जगह “थीम्स” ने ले ली। लेकिन विवाद हल नहीं हुए।

आखिर की बात

प्रसिद्ध शिक्षाविद कृष्ण कुमार ने 1988 के एक लेख में भारत के “टेक्स्टबुक कल्चर” की साख को औपनिवेशिक राज में तलाशा है। “टेक्स्टबुक कल्चर” का सीधा मतलब है शिक्षा पद्धति में पाठ्यपुस्तकों की केन्द्रीयता। अगर यह केन्द्रीयता एकमात्र धुरी न होती तो शिक्षा के बाजार में पाठ्यपुस्तकों पर राजनीतिक बवाल नहीं कटता; या कम कटता। लेकिन समस्या है कि कृष्ण कुमार पूरा सच नहीं बतलाते।

यह सत्य है कि औपनिवेशिक भारत ने जिस तरह से प्रकाशित पुस्तकों का प्रचलन देखा वह भारतीय शिक्षा प्रणाली में एक नवीनता थी। लेकिन कृष्ण कुमार यह बताने से चूक जाते हैं कि आजाद भारत की तरह औपनिवेशिक भारत में केवल एक पाठ्यपुस्तक को ऊपर से थोपा नहीं जाता था। विद्यालयों के पास लेथब्रिज, मॉरिस, एल्फिंस्टन, ग्रांट डफ, मार्शमैन, जीयू पोप, प्रोथेरो आदि जैसे अनेक विकल्प थे तो दूसरी ओर मगनलाल, भगवानलाल, गणपतराम, कैलाश चंद्र मन्ना, ईश्वरी प्रसाद, कलिकिंकर दत्ता, एससी सरकार, जैसे भारतीय लेखकों की किताबें भी थीं। हर किताब को एक मानक पाठ्यक्रम के हिसाब से तैयार किया गया था और हर प्रान्त में अनेकों विकल्प थे।

समकालीन भारत में हमने वे विकल्प धीरे-धीरे खत्म कर दिये। शिक्षा समवर्ती सूची में होने के बाद भी कई मायनों में राष्ट्रीयकृत हो माँग। 1990 के दशक तक प्रादेशिक भाषा की पाठ्यपुस्तकों को “सब-स्टैंडर्ड” बताया जाता रहा और एनसीईआरटी को मॉडल मानने के लिए नीतिगत फैसले लिए जाते रहे।

‘शिक्षा और बाज़ार’ में इतिहास का संघर्ष आज राष्ट्रवाद की परिकल्पना की कथा है। लोकतान्त्रिक खाँचें में एक ओर विविधता की बानगी है लेकिन अगर वो विवध्ता इतिहास में परिलक्षित होती तो एकीकरण पर खतरा मँडराने लगता है। ऐसा प्रतीत होता है कि जब तक भारत सरकार शिक्षा का राष्ट्रीयकरण करने में अग्रणी रहेगी तब तक इतिहास का संघर्ष चलता रहेगा। हमें इतिहास को राष्ट्रीय बनाना सिखाया गया लेकिन इतिहास चिन्तन नहीं! हम हर बदलती सरकार के साथ “कभी अकबर महान, कभी राणा प्रताप” वाली दुर्दशा की भेंट चढ़ते रहेंगे क्योंकि इतिहास की पाठ्यपुस्तकें कभी इस ओर ध्यान नहीं दे पायीं कि अगर किसी शासक को महान बताया जाता है तो उसकी महातना को इतिहास के स्रोतों और घटनाक्रमों के प्रकाश में सन्दर्भित कैसे किया जाये। गाँधी ने भगत सिंह को फांसी से क्यों नहीं बचाया के सवाल में उलझी रही जनता औपनिवेशिक राज्य की दण्ड संहिता और उस राज्य की प्रकृति से अनिभिज्ञ रही। कदाचित इतिहास शिक्षा का काम एकीकरण की जगह सत्यान्वेषण होना था। ऐसा हो न सका

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शान कश्यप

लेखक अनुवादक तथा रेवेंशा विश्वविद्यालय, कटक में आधुनिक इतिहास के शोधार्थी हैं। सम्पर्क +919437849484, shaan.kashyapp@gmail.com
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