शिक्षा

भारतीय शिक्षा की दिशाहीनता

 

सुखिया सब संसार है – खाए और सोए

दुखिया दास कबीर है – जागे और रोए

भूमिका

आज भारत शिक्षा क्रान्ति में शामिल देशों का अगुवा है। भारत का शिक्षा बाजार लगभग 225 अरब डॉलर का हो चुका है। 2020 में भारत ने एक नयी शिक्षा नीति भी अपनाई है। शिक्षा के लिए संसाधन जुटाने के प्रयत्न में 2% शिक्षा कर भी शुरु किया गया है। इससे पहले 2009 से शिक्षा को 6 से 14 बरस के सभी बच्चों का एक नागरिक अधिकार बनाया। यह काम हमें 1960 में करना था लेकिन देर से ही सही दुरुस्त कदम उठाया गया। बच्चों को मध्यान्ह भोजन की सुविधा के जरिये शिक्षा-अर्जन में भूख की अड़चन को दूर किया गया है। 2017 की जानकारी के अनुसार इसका लाभ 12,65,000 विद्यालयों के 12 करोड़ बच्चों को मिला। दूसरे छोर पर, उच्च शिक्षा में 4 करोड़ 33 लाख विद्यार्थी 58,000 संस्थानों में पढाई में जुटे हैं। इसमें 2 करोड़ छात्राएँ थीं। इनमें से 79% स्नातक, 12% स्नातकोत्तर, और 0.5% शोध (पी-एच. डी.) में थे। स्नातक शिक्षा ले रहे विद्यार्थियों में 34% आर्ट्स, 15% विज्ञान, 13% वाणिज्य, 13% इंजीनियरिंग\ टेक्नोलॉजी की पढाई में थे। स्नातकोत्तर शिक्षा में 35% समाज विज्ञान। 15% विज्ञान और 24% वाणिज्य प्रबन्धन की धरा में थे। देश में स्त्रियों, दलितों, आदिवासियों, पसमांदा मुसलमानों और विकलांगता पीड़ित बच्चे-बच्चियों की शिक्षा के लिए विशेष प्रावधान और आरक्षण किये गये हैं। 5-6 बरस आयु समूह के 93% बच्चों को प्राथमिक शिक्षा विद्यालयों में, 10-12 बरस के 60% को माध्यमिक स्कूलों में और 18-23 बरस के आयु समूह के 25% युवक-युवतियों को उच्च शिक्षा के लिए प्रवेश मिला हैं। 

‘खुला दाखिला, सस्ती शिक्षा–लोकतन्त्र की यही परीक्षा!’ साठ के दशक के विद्यार्थी जुलूसों का एक महत्त्वपूर्ण नारा था। लेकिन जब नारा लगानेवाले विद्यार्थी नेता अस्सी और नब्बे के दशक से लगातार सत्ता संचालन में शामिल हुए तो शिक्षा को मुनाफे का धन्धा बनाने में जुट गये। आज तमाम दावों के बावजूद भारत की शिक्षा व्यवस्था 1. नर-नारी, 2. गाँव-शहर, 3. जातिभेद, 4. अमीर-गरीब के वर्गभेद, और 5. अँग्रेजी भाषा माध्यम से जुडी विषमताओं से पीड़ित है। उदाहरण के लिए, हमारे शहरों के 50% बच्चे ‘पब्लिक स्कूल’ ( निजी संस्थाओं के अँग्रेजी माध्यम के स्कूल) में पढ़ते हैं। वैसे पूरे देश में 65% बच्चे सरकारी विद्यालयों में हैं लेकिन अधिकाँश प्रदेशों में बाजारीकरण और निजीकरण की आंधी चल रही है। प्राथमिक शिक्षा से लेकर उच्च शिक्षा और शोध संसार में अँग्रेजी का वर्चस्व है। देशी भाषाओं के माध्यम से चल रहे राज्यपोषित विश्वविद्यालय और महाविद्यालय दोयम दर्जे के ज्ञान केंद्र माने जाते हैं।

स्वराज यात्रा में शिक्षा को 1. चरित्र निर्माण 2. आजीविका अर्जन की क्षमता, 3. राष्ट्रनिर्माण और 4. मानवता निर्माण का रचनात्मक माध्यम बनाने की कल्पना की गयी थी। लोकतन्त्रीकरण, उपनिवेशवाद से मुक्ति, राष्ट्रीय एकता और चहुमुखी प्रगति में योगदान की अपेक्षा थी। लेकिन इन चारो मोर्चों के नतीज़े निराशाजनक है। बाजारीकरण की बाढ़ से शिक्षा मुनाफे का धन्धा हो गयी है। आज हमारे शिक्षा केन्द्रों में राजनीतिकरण, भ्रष्टाचार और व्यवसायीकरण का खुला इस्तेमाल हो रहा है। सरकारी संस्थानों में कुलपति से लेकर शिक्षकों की नियुक्ति में पैसे का लेनदेन और राजनैतिक पक्षपात के मामले सामने आते रहते हैं। अधिकांश निजी संस्थान पैसे के बल पर शिक्षा और डिग्री देने के काम में जुटे रहते है। इससे नयी पीढ़ी में येन-केन-प्रकारेण धनशक्ति सम्पन्न होने की भूख का बोलबाला है। सत्यनिष्ठा की बजाय अवसरवादिता को बढ़ावा मिल रहा है। ‘नयी आर्थिक नीतियों’ के परिणामस्वरूप 21 वीं शताब्दी ‘रोजगार विहीन आर्थिकी’ का युग है और 75% उच्च-शिक्षित युवा भारत में किसी भी रोजगार या नौकरी के लिए अक्षम पाए जा रहे है। शिक्षा और राष्ट्र्निर्माण परस्पर निर्भर सामाजिक प्रक्रियाएं हैं फिर भी अधिकाँश शिक्षित भारतीय नागरिकता की बजाय जाति, सम्प्रदाय और अन्य भेदमूलक अस्मिताओं के प्रति जादा आग्रही होते जा रहे हैं। राष्ट्रीयता की बजाय प्रादेशिकता और क्षेत्रीयता जादा आकर्षित करती है। शिक्षा के जरिये हिंसा और शोषण मुक्त दुनिया बनाने का लक्ष्य तो सपनों की बात हो गयी है। मनुष्य के जीवन में सत्य और अहिंसा का संचार करने और प्रतिस्पर्धा और इर्ष्या के स्थान पर सहयोग और प्रेम आधारित मानव परिवार का सदस्य बनने–बनाने की होड़ की ओर बढने की शिक्षा कैसे मिलेगी?  

शिक्षा सुधार का सिलसिला

शिक्षा व्यवस्था के दोषों के ईलाज की कोशिशों का लम्बा इतिहास भी जरूर है। इसमें कोठारी आयोग (1966) की रपट सबसे महत्त्वपूर्ण मानी गयी है। वैसे राधाकृष्णन आयोग, राममूर्ति आयोग, यशपाल आयोग, अम्बानी-बिडला समिति, तापस मजूमदार समिति, पित्रोदा आयोग और सुब्रमण्यम आयोग की सिफारिशों की भी कभी-कभी चर्चा होती है। इधर 2020 में कस्तूरीरंगन आयोग की सिफारिशों पर आधारित ‘नयी शिक्षा नीति’ की स्वयं प्रधानमन्त्री नरेंद्र मोदी द्वारा प्रस्तुति की गयी है। लेकिन उसकी भाषा सम्बन्धी सिफारिशों का तमिलनाडु सरकार द्वारा विरोध और वित्त सम्बन्धी जरूरतों का लगातार चार साल से वित्त मन्त्रालय द्वारा अनदेखी के कारण इसका शोर जादा है और असर बहुत कम। संयुक्त राज्य अमेरिका और चीन से आगे बढ़कर अपने आप स्वयं को ‘विश्वगुरु’ घोषित करने में जुटे भारत में अभी शिक्षा का अधिकार (2007) ग्रामीण बेटियों, दलित, आदिवासी और पसमांदा परिवारों के बच्चों को और विकलांगता से पीड़ित लड़के-लड़कियों को उपलब्ध कराने के लिए संसाधनों की कमी पड रही है। हम साक्षरता के मोर्चे पर विश्व औसत (पुरुष 90%, स्त्री 84%) और चीन (पुरुष 99%, स्त्री 98%) के मुकाबले पिछड़े (पुरुष 84%, स्त्री 67%) हुए हैं। मानव प्रगति की कसौटी पर 193 देशों में चीन 75 वें और भारत 134 वें स्थान पर पाया गया है। श्रीलंका और बांग्लादेश तक बेहतर स्थिति में हैं। भारतीय शिक्षा के दोषों के सन्दर्भ में एक और तथ्य विचारणीय है। इधर के दिनों में 2022 में भारत में अन्य देशों से 46,000 विदेशी विद्यार्थी आये जिसमें से 28% नेपाल, 7% अफगानिस्तान, 6% बांगलादेश और 3% भूटान से थे। 7% संयुक्त राज्य अमरीका से भी थे। जबकि भारत से विदेशों में शिक्षा प्राप्त करने के लिए साढ़े सात लाख छात्र-छात्राएँ गये और पिछले 10 वर्षों में 10 लाख सुशिक्षित भारतीयों ने भारत की नागरिकता त्याग कर अन्य देशों को अपना देश बना लिया है।

साठ के दशक में शिक्षा पद्धति और बेरोजगारी की जुड़वां समस्याओं के सन्दर्भ में विद्यार्थी असन्तोष का विस्तार हुआ। इसे कई विचारधाराओं, दलों और राष्ट्रीय नेताओं से सहानुभूति और मार्गदर्शन भी मिला। इसमें दिल्ली, पंजाब, कोठारी आयोग के विश्लेषण में शिक्षा की व्यवस्था में बुनियादी बदलाव करने और शिक्षा के अवसर बढ़ने के लिए संसाधन बढाने पर बल देने से विद्यार्थी असन्तोष के प्रति दृष्टिकोण बेहतर हुआ। हरियाणा, उत्तर प्रदेश, बिहार, मध्य प्रदेश, पश्चिम बंगाल, आन्ध्र प्रदेश, तमिलनाडु, महाराष्ट्र, गुजरात और केरल में उल्लेखनीय मुद्दे उठाये गये। तत्कालीन सत्ता प्रतिष्ठान ने इसे ‘अनुशासनहीनता’ करार दिया और शिक्षण संस्थाओं को पुलिस और सेना के हवाले सौंपने के उपाय किये। 1969-70 में विद्यार्थी संवाद भी आयोजित किये गये। लेकिन समाजवादी नेता डॉ. लोहिया ने विद्यार्थियों के राजनीति से जुड़ने का आवाहन किया।

शिक्षा में बने हुए अँग्रेजी वर्चस्व को हटाने को राष्ट्रीय आन्दोलन का अधूर सपना बताया और विद्यर्थियों के साथ राजधानी में 1965 में एक बहुचर्चित ‘विद्यार्थी मार्च’ का आयोजन किया और गिरफ्तारी दी। इससे विद्यार्थियों में लोहिया और समाजवादियों का आकर्षण बढा। समाजवादी युवजन सभा (सयुस) और युवा क्रान्ति दल (युक्रांद) को फैलाव मिला। भाषा के सवाल ने उत्तर भारत में राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ और विदार्थी परिषद् से जुड़े युवकों को भी आकर्षित किया। जबकि यह सगठन भाषा आन्दोलन के पहले तक विद्यार्थिओं को राजनीति से दूर रहने का समर्थक था। समाजवादी चिन्तक मधु लिमये ने लोकसभा में दो निजी विधेयक प्रस्तुत करके मताधिकार की आयु घटा कर 18 बरस करने तथा हर युवजन को रोजगार का अधिकार देने और शिक्षा संचालन में विद्यार्थियों की भागीदारी की माँगों को राष्ट्रीय आकार दिया ‘18 बरस से दो अधिकार– रोजगार और मताधिकार!’

मार्क्सवादियों के युवा संगठनों में माओवाद की लहर फैली जिसे नक्सलवाद की संज्ञा देकर बर्बर दमन का शिकार बनाया गया। दलित पैंथर के रूप में जातिप्रथा से प्रताड़ित शिक्षित युवाओं का प्रतिरोध भी सामने आया। हिन्दी साम्राज्यवाद का भय तमिलनाडु में विद्यार्थी आन्दोलन का कारण बना। मुस्लिम युवाओं ने सत्य शोधक समाज को नवजीवन दिया। बेरोजगारी, क्षेत्रीय विषमता और शिक्षा के अवसरों के अभाव को लेकर आँध्रप्रदेश, पंजाब और हरियाणा में नये प्रदेशों के लिए आन्दोलन हुए। इन आन्दोलनों से विद्यार्थियों में राजनीतिक चेतना का फैलाव हुआ और राजनेतिक संगठनों से जुड़ाव का विस्तार हुआ। विश्वविद्यालयों और कालेजों में छात्रसंघ स्थापित हुए और छात्रसंघों के चुने हुए पदाधिकारी विद्यार्थी समस्याओं के प्रवक्ता के रूप में अपनी पहचान बनाने में सफल हुए। इन प्रवृत्तियों से व्यवस्था के प्रति असन्तोष को गहराई मिली और ‘काँग्रेस हटाओ’ की राजनीतिक कोशिशों से युवाओं का जुड़ाव हुआ।  

लेकिन यह निर्विवाद तथ्य है कि शिक्षा सुधार के प्रयासों और आन्दोलनों को पूर्ण अभिव्यक्ति और सम्मान लोकनायक जयप्रकाश नारायण के ‘सम्पूर्ण क्रान्ति आन्दोलन’ से प्राप्त हुआ। 5 जून 74 से आरम्भ इस आन्दोलन की पृष्ठभूमि में क) जयप्रकाश नारायण का मार्गदर्शन, ख) गुजरात के ‘नवनिर्माण आन्दोलन’ से उत्पन्न विद्यार्थी-युवा शक्ति की चेतना, तथा ग) बिहार के छात्र-विद्रोह की ऊर्जा थी। शिक्षा के संकट को देश की दशा से जोड़कर देखने की जरूरत पर बल दिया गया। जेपी ने विद्यार्थियों के असन्तोष को ‘अनुशासनहीनता’ और कानून-व्यवस्था की समस्या मानने से इनकार करते हुए इसमें निहित क्रान्तिकारिता को विकसित करते हुए दो-टूक शब्दों में कहा कि एक ऐसी क्रान्ति की जरूरत है जो तीव्र गति से व्यक्ति और समाज दोनों में सर्वांगीण मौलिक और दूरगामी परिवर्तन के जरिये मौजूदा समाज से भिन्न एक नया समाज बनाए। वह भारत के आभिजात्य वर्ग (‘एलीट’) की जीवन-दृष्टि से भिन्न ‘अन्त्योदय’ और ‘सर्वोदय’ के लिए प्रतिबद्ध हो। हम चाहते हैं कि अबतक की हिंसक राजनीतिक क्रान्तियों से अलग गांधीमार्ग से यानी अहिंसक तरीके से एक सम्पूर्ण क्रान्ति सम्पन्न हो: यह सत्ता हथियाने की लड़ाई नहीं है। बल्कि व्यवस्था-परिवर्तन, प्रक्रिया-परिवर्तन और नव-निर्माण की बात है।

बिहार के आन्दोलनकारी विद्यार्थियों ने जेपी के आवाहन को आकर्षक नारे में बदल दिया – ‘सम्पूर्ण क्रान्ति अब नारा है, भावी इतिहास हमारा है!’। जेपी ने आगे समझाया कि सम्पूर्ण क्रान्ति के सात आयाम होंगे – 1. सामाजिक, 2. आर्थिक, 3. राजनीतिक, 4. सांस्कृतिक, 5. वैचारिक अथवा बौद्धिक, 6. शैक्षणिक, तथा 7. आध्यात्मिक। सम्पूर्ण क्रान्ति आन्दोलन की वाहक लोकशक्ति होगी जिसके दो पहिये होंगे – छात्र संघर्ष समिति और लोकसमिति। क्रान्तिकारी नवनिर्माण के लिए शान्तिमय सक्रियता और लोकनीति आधारित निर्दलियता की शर्तें रखी गयीं। बिहार आन्दोलन के दौरान 18 मार्च 74 के विधानसभा प्रदर्शन के जरिये प्रस्तुत माँगपत्र में तात्कालिक शिक्षा-सुधार की 12 माँगें थीं। लेकिन जेपी की शैक्षणिक क्रान्ति सम्बन्धी दृष्टि का क्रमिक विकास 1969 में मुसहरी (मुजफ्फरपुर) में माओवादियों से हुए आमना-सामना, चम्बल में सैकड़ों बागियों के आत्म समर्पण, सर्वोदय आन्दोलन की रजत जयन्ती सम्मलेन (राजगीर), बांगलादेश मुक्ति संग्राम के लिए विश्व-जनमत निर्माण और भारतीय लोकतन्त्र की विकृतियों से साक्षात्कार के दौरान हुआ था। इसके कुछ संकेत काशी विश्वविद्यालय के दीक्षांत भाषण (1970) और ‘यूथ फॉर डेमोक्रेसी’ आवाहन (1973) में दिए गये थे।

शिक्षा सुधार के लिए शिक्षाविदों की समिति से मिले सुझावों से भी स्पष्टता मिली। 6 मार्च 1975 को हुए ऐतिहासिक ‘संसद मार्च’ के जरिये जेपी द्वारा भारत की संसद को दिए गये ज्ञापन में शिक्षा सुधार के 5 बिन्दुओं को रेखांकित भी किया गया – 1. शिक्षा समाज के लोकतांत्रिक निर्माण का माध्यम बने और यह पश्चिमीकरण के बदले आधुनिकीकरण का साधन हो। 2. राष्ट्रीय आवश्यकताओं के अनुकूल शिक्षा के गुण और तत्त्व के विकास के लिए कारगर कदम उठाये जाएँ। मौजूदा ढाँचे में प्रत्येक स्तर पर सुधार किया जाये। 3.माध्यमिक स्तर से शिक्षा को रोजगार अभिमुखी बनाया जाए, जिसके साथ आर्थिक योजना की ऐसी प्रणाली हो जो रोजगार की गारंटी करे। शिक्षण सम्बन्धी नौकरियों को छोड़ अन्य नौकरियों के लिए विश्वविद्यालय की डिग्री आवश्यक न रहे। 4. पाँच वर्षों के अन्दर प्राथमिक शिक्षा और वयस्क शिक्षा के सार्वत्रिक प्रसार को सर्वोच्च प्राथमिकता दी जाए। 5. शिक्षण संस्थाओं में सरकार के हस्तक्षेप पर रोक लगायी जाए। इन संस्थाओं का प्रबन्ध सामान्यत: उनके शिक्षकों को सौंपा जाए और उसमें लोकतान्त्रिक ढंग से विद्यार्थियों की भागीदारी हो।

सम्पूर्ण क्रान्ति के सन्दर्भ में शैक्षणिक क्रान्ति की व्याख्या करते हुए जयप्रकाश नारायण ने मौजूदा शिक्षा के बहिष्कार की जरूरत बतायी। क्यों? क्योंकि यह शिक्षा दोषपूर्ण है और विद्यार्थियों का भविष्य अन्धकारमय है। आज भी अंग्रेजों की बनायी हुई शिक्षा पद्धति ही लागू है। शिक्षा को जीवनोपयोगी होना चाहिए। वर्तमान शिक्षा सिर्फ नौकरी खोजने और दर-दर ठोकर खाने का शिक्षण है। नौकरियाँ नहीं मिलती हैं तो जीवन यापन का रास्ता ही नहीं रहता। इसमें डिग्री का झूठा मोह है। क्या करें? शिक्षाशास्त्रियों की आम राय है कि प्राथमिक से लेकर विश्वविद्यालय तक की शिक्षा में आमूल परिवर्तन होना चाहिए। योग्यता केवल डिग्री से न आँकी जाए। इसका रोजगार से कोई समबन्ध न रहे। न्यूनतम शिक्षा सबको सुलभ हो और अज्ञान तथा निरक्षरता का निर्मूलन किया जाए। विद्यार्थियों में विवेकपूर्वक विचार की शक्ति का विकास होना चाहिए और शिक्षा श्रममूलक होनी चाहिये।    

शिक्षा का औपनिवेशीकरण और स्वदेशी विकल्प

हमारी शिक्षा का औपनिवेशीकरण 1835 में अँग्रेजी शासन के दौरान लार्ड मैकाले की दिखाई राह की ओर मुड़ने से शुरू हुआ। 1860 में मुंबई, कोलकाता और चेन्नई में लंदन विश्वविद्यालय जैसे तीन विश्वविद्यालय स्थापित किये जाने से इसकी जड़ें मजबूत हुईं। फिर भी शिक्षा पर न्यूनतम खर्च करने की ब्रिटिश राज की नीति के कारण अंग्रेजों के भारत छोड़ने के मौके पर देश में मात्र 20 विश्वविद्यालय और 491 कालेज थे जिसमें कुल 2 लाख 41 हजार 319 विद्यार्थी थे। लेकिन पूरी सत्ता व्यवस्था -सचिवालय से लेकर न्यायालय और अस्पताल से लेकर सेना तक- का संचालन अंग्रेज़ी भाषा में प्रशिक्षित और अंग्रेजों द्वारा नियंत्रित ‘भूरे’ साहबों के माध्यम से हो रहा था। पश्चिमीकरण ही आधुनिकीकरण था। ‘मानसिक गुलामी’ आभिज्यात वर्ग का आभूषण थी। अँग्रेजी महारानी थी और संस्कृत, अरबी तथा सभी भारतीय भाषाएँ दासी की भूमिका में धकेली जा चुकी थीं। मैकाले का लगाया औपनिवेशिक शिक्षा का विषवृक्ष आजादी के दशकों बाद भी पुष्पित-पल्लवित हो रहा है।

यह सच है कि विवेकानंद, रबिन्द्रनाथ ठाकुर और महात्मा गांधी जैसे मुट्ठीभर भविष्यद्रष्टा शिक्षा के संकट के प्रति सजग थे। इसलिए स्वराज की परिभाषा में ‘बौद्धिक स्वराज’ एक अनिवार्य तत्त्व बनाया गया। हमारे देश में गाँधी के नेतृत्व और डॉ. जाकिर हुसैन के मार्गदर्शन में 1921 के असहयोग आन्दोलन से शुरू और 1937 से ‘रचनात्मक कार्यक्रम’ का अंग बनी ‘नयी तालीम’ सबसे महत्त्वपूर्ण विकल्प निर्माण अभियान था। एक अरसे तक गुरुदेव रविन्द्रनाथ ठाकुर का शान्ति निकेतन स्वदेशी शिक्षा का प्रतिमान था। इसमें गुजरात विद्यापीठ, काशी विद्यापीठ, बिहार विद्यापीठ और जामिया मिलिया इस्लामिया ने अपना अपना अमूल्य योगदान किया। इस प्रयोग को 19३7 से 19८7 के पचास बरसों में आर्यनायकम, आशा देवी, राधाकृष्ण, कमला, सत्य्नाथन, बनवारीलाल चौधरी, द्वारकाप्रसाद परसाई, बीबी अम्तुस्सलाम, लक्ष्मीपति, एल्टन कैसल, देवी प्रसाद, विल्फ्रेड वैलोक, माक्स पार्कर आदि ने अलग अलग योगदान करके इसे बहुमुखी सिक्षा की वैकल्पिक पद्धति के रूप में स्थापित किया।

मार्जरी साइक्स (1905-1995) ने तो इंग्लैंड से आकर बुनियादी तालीम के विस्तार में अपना जीवन लगा दिया था। उनकी दृष्टि में, ‘गांधीजी की इस सृजनशील शिक्षनात्मक क्रान्ति की राह की खोज और उनपर प्रयोग करने में यदि अगले पचास साल में मानवता ने प्रयास न किये तो यह बड़ा दुर्भाग्य होगा।’। कोठारी आयोग की रपट में भी इसको महत्त्वपूर्ण प्रयोग माना गया। लेकिन आज ‘बुनियादी तालीम या नयी तालीम’ की याद भर बाकी है। इस चर्चा को प्रसिद्ध चिंतक इवान इलीच का एक उद्धरण देकर समेटना उपयोगी होगा – “मैं आजके योजनाकारों से पूछता हूँ कि सादगी का जो रास्ता गांधीजी ने दिखाया उसे वे क्यों नहीं अपनाते हैं? तो वे कहते हैं कि गांधी का मार्ग बड़ा कठिन है। आमलोग उस पर चल नहीं पायेंगे। पर सचाई यह है कि गांधीजी के सिद्धांतों के अमल में केन्द्रीय व्यवस्था और बिचौलिए वर्ग का स्थान न होने से उसके प्रति योजनाकारों, प्रबन्धकों और राजनीतिज्ञों का ही आकर्षण नहीं है।”।

साम्प्रदायिकता के दौर में शिक्षा का संकट

आज हम शिक्षा के क्षेत्र में साम्प्रदायिकता की लहर को देख रहे हैं। इस लहर का समाज विज्ञान और मानविकी से जुड़े विषयों पर जादा असर है। विज्ञान, टेक्नोलोजी, कृषि, चिकित्सा और वाणिज्य प्रबन्धन में दखल की जादा गुंजाइश नहीं है। गांधी पर सीधा हमला है। सर्वसेवा संघ, गुजरात विद्यापीठ, गांधी अध्ययन केंद्र, गांधी शान्ति प्रतिष्ठान से लेकर साबरमती आश्रम और सेवाग्राम पर प्रहार हुए हैं। नेहरु को खलनायकों की सूची में सबसे उपर रखा जा रहा है। ईसाई संस्थान, मुगलकालीन इतिहास से जुड़े अध्ययनों और मार्क्सवादी समाजवैज्ञानिक निशाने पर हैं। सर्वधर्म समभाव, धर्मनिरपेक्षता और समाजवाद जैसे आदर्शों को उपहास का उपहास का विषय बनाने को प्राथमिकता है। लेकिन जाति व्यवस्था, नारी उत्पीड़न, दलित दमन, मुसलामानों के प्रति नफरत और आदिवासियों के साथ अन्यायों पर चुप्पी का माहौल है। बेरोजगारी, महंगाई, भ्रष्टाचार, मानव अधिकार उल्लंघन, राष्ट्रीय सीमाओं की सुरक्षा और सरकारी योजनाओं की आलोचना देशद्रोह जैसी हरकत बतायी जाती है। ज्योति की जगह तमस का अभिनंदन है। 21 वीं सदी की शुरुआत में प्रो. अनिल सदगोपाल की पहल पर ‘शिक्षा अधिकार आन्दोलन’ की सक्रियता रही। इसे आजकल प्रो. जगमोहन सिंह संभाल रहे हैं। लेकिन इसका पिछले दस बरस के मोदी राज में प्रभाव नगण्य हो चुका है। साम्प्रदायिकता विरोधी मोर्चे के लोग अपने पर्चे बांटते हैं लेकिन कर्नाटक, तमिलनाडु, बंगाल और केरल में कोई अनुकरणीय विकल्प नहीं उभर सका है। समाजवादी सोच के संगठनों में लोहिया के ‘हिन्दू बनाम हिन्दू’ और ‘हिन्दू और मुसलमान’ की प्रेरणा नहीं है। जाति अस्मिता और आरक्षण नया मन्त्र है। कम्युनिस्ट रुझ्हान वाले विद्यार्थी और शिक्षक संगठन अपने पर्चे और प्रस्ताव बांटते रहते हैं। कुछ निर्दलीय मंच और मोर्चे भी सक्रिय है। लेकिन शिक्षा का मुद्दा किसी आन्दोलन की धुरी नहीं है।

लेकिन इसका यह मतलब नहीं कि भारतीय जनता पार्टी के शासन काल में स्वदेशी शिक्षा का पलड़ा भारी हुआ है। या देशज चिंतन और मानसिक स्वराज की ओर रुझान बढ़ा है। अँग्रेजी पहले औपनिवेशीकरण का आधार थी। अब तथाकथित वैश्वीकरण का संरक्षण मिला हुआ है। यह हास्यास्पद रहा कि इस राज में 10 साल में 4 शिक्षामन्त्री बनाये और हटाये गये- स्मृति ईरानी की शिक्षा, निशंक की मनमानी, प्रकाश जावेडकर का पक्षपात और धर्मेन्द्र प्रधान की कार्य क्षमता को लेकर अनगिनत किस्से अभी भी शास्त्री भवन के गलियारों में कहे जाते हैं। क्योंकि मौलाना आज़ाद, अर्जुन सिंह और प्रो. नुरुल हसन की तुलना में इन मंत्रियों की योग्यताएं बेमिसाल थीं। शिक्षा की दिशा तय करने के लिए दो शिक्षा सुधार आयोग भी बनाये जा चुके हैं। सुब्रमण्यम आयोग की संस्तुतियों को लागू नहीं किया गया और कस्तूरी रंगन आयोग की संस्तुतियों के लिए पैसा नहीं दिया गया है। वैसे शिक्षकों से लेकर कुलपतियों की नियुक्ति में ‘संघी संपर्क’ जरुरी योग्यता है। पैसे की व्यवस्था कर सकें तो काम आसान हो जाता है। परिसर की गतिविधियों में ‘संघ’ का प्रतिनिधित्व अनिवार्य दोष जैसे जुड़ गया है। कार्यक्रमों के शुभारम्भ में दीप प्रज्वलन और आराधना के श्लोकों का ऑडियो टेप बजाना शामिल है। राष्ट्रीय स्वयसेवक संघ में विद्वानों की कमी है और गैर-संघी विद्वानों को बुलाने से परहेज है। सरकारी गठबंधन से जुड़े विद्यार्थी संगठनों की उग्रता और दबंगयी बढ़ गयी है। परिसर में लोकतांत्रिक मूल्यों की बजाय हिंसा का बोलबाला है। कई विश्वविद्यालयों में अध्यापक संघ, कर्मचारी संघ और छात्रसंघ भंग हैं। रोहित वेमुला की आत्महत्या से लेकर दिल्ली विश्वविद्यालय के कुलपति योगेश त्यागी की मुअत्तली और काशी हिन्दू विश्वविद्यालय भ्रष्टाचार के खिलाफ ह्रदय रोग विशेषज्ञ प्रो. ओमशंकर का 20 दिनों तक अनशन इनकी उपलब्धियों में उल्लेखनीय हैं। कई जानकार इस सबमें हिटलर और मुसोलिनी की छबी देखते है। इसे फासीवाद का भारतीय रूपान्तर बताते हैं। कुछ लोग इसकी तुलना इमरजेंसी राज से करते है। जो भी हो, यह सब तरीके ज्ञान के प्रवाह में सहयोग नहीं करते। दिशाहीन शिक्षा से नयी पीढ़ी और देश का नुक्सान हो रहा है।

इस नये दौर में मेरा भी विद्यार्थियों के बीच जाना घट गया है। वैसे भी 19६7 से 2024 की अवधि में शिक्षा सुधार के लिए किये गये प्रयासों के सन्तोषजनक परिणाम न मिलने से हमारे पास आशाजनक उपाय नहीं बचे हैं। लेकिन फिर भी इधर गोवा से लेकर ग्वालियर और बनारस से लेकर बेंगलुरु तक के युवा संवाद के

 कार्यक्रमों में यह सवाल बार-बार उठाया जाने लगा है कि “आप बताये कि हम क्या करें? आपने तो 1974 में जेपी का मार्गदर्शन पाया और सम्पूर्ण क्रान्ति आन्दोलन में हिस्सा लिया था। हम जानना चाहते हैं कि आज लोकनायक जयप्रकाश नारायण जीवित होते तो क्या करते?”। अधिकांश श्रोता इस प्रश्न के अनुमोदन में ताली बजाने लगते हैं!

मुझे कोई बताये कि इस मासूम सवाल का क्या जवाब है?

कबीरदास जी से पूछा तो उन्होंने यह दोहा दुहराने की सलाह दी है:

साधो!

देखो, जग बौराना।

सांच कहे तो मारन दउरे

झूठ कहे, पतियाना

.

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आनंद कुमार

वरिष्ठ शोधकर्ता, जवाहरलाल नेहरु स्मृति संग्रहालय और पुस्तकालय, नयी दिल्ली। सम्पर्क- +919650944604, anandkumar1@hotmail.com
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