नवउदारवाद और विश्विद्यालयों के बदलते मायने
विश्वविद्यालय तर्कसंगत समुदायों के प्रतीक हैं, जो एक आदर्श समाज के गठन में अहम् भूमिका निभाते हैं। विश्वविद्यालयों में मानव अस्तित्व के विभिन्न पहलुओं का वैज्ञानिक और तार्किक जाँच के माध्यम से विश्लेषण किया जाता है। वे नागरिक समाज को आगे बढ़ाने, राष्ट्र निर्माण में योगदान देने, संस्कृति को बढ़ावा देने, और शिक्षण व शोध के माध्यम से ज्ञान के प्रसार में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं। ज्ञान उत्पादन और ज्ञान प्रसारण के द्वारा इन सभी उद्देश्यों की पूर्ति विश्विद्यालय करते हैं। कुछ विश्वविद्यालय अपने पारंपरिक उद्देश्यों और ज़िम्मेदारियों पर क़ायम रहते हैं, जबकि अन्य ने समय के साथ बदलती परिस्थितियों और मांगों के अनुसार अपने कर्त्तव्यों और योजनाओं में बदलाव किया है।
इन बदलावों ने विश्वविद्यालयों की भूमिकाओं और भविष्य के बारे में अनिश्चितता पैदा की। बदलते समाज, अर्थव्यस्था और राज्य के स्वरुप की ज़रूरतों के बीच, विश्वविद्यालयों के सामने नयी चुनौतियाँ और अवसर आते हैं, जिन पर विचार करना महत्त्वपूर्ण है। 1990 के बाद वैश्विक स्तर पर उच्च शिक्षा में मौलिक बदलाव देखने को मिले। दुनिया भर में अब राजनैतिक और आर्थिक बदलाव तेज़ी से अपने पैर पसार रहे थे। कल्याणकारी राज्य अब निजीकरण और उदारीकरण द्वारा प्रभावित होकर नवउदारीकरण की विचारधारा को सर्वेश्रेष्ठ मानने लगे थे।
कल्याणकारी राज्य की आलोचना इस बात पर आधारित है कि यह जीवन के विभिन्न क्षेत्रों में हस्तक्षेप करता है, ख़ासकर व्यक्तिगत अधिकारों और बाज़ार की संभावनाओं का अतिक्रमण करने के लिए। यही वह बिंदु है जहाँ से दुनिया धीरे-धीरे नवउदारवादी व्यवस्था की ओर बढ़ने लगती है। नवउदारवाद बाजार-उन्मुख दृष्टिकोण, निजीकरण, सरकार के हस्तक्षेप में कमी, और प्रतिस्पर्धा व दक्षता पर ध्यान केंद्रित करने पर ज़ोर देता है। तीसरी दुनिया के देशों में नवउदारवाद मूलत: 1980 के बाद की एक घटना थी। भारत में 1980 के दशक की संरचनात्मक समायोजन नीतियाँ नवउदारवादी व्यवस्था स्थापित करने और अर्थव्यवस्था को बाहरी दुनिया के लिए खोलने का प्रयास थीं।
सरल शब्दों में कहें तो, बाज़ार को खुली छूट दी गयी, और राज्य द्वारा संचालित सभी नीतियाँ बाज़ार-आधारित प्रक्रियाओं का शिकार बन गयीं। 1980 के दशक में और अधिक संगठित रूप से 1990 के दशक में, भारत ने भुगतान संतुलन संकट (अंतरराष्ट्रीय मुद्रा कोष के लिए) के तहत अपनी अर्थव्यवस्था को उदार बनाया और ख़ुद को वैश्विक अर्थव्यवस्था के साथ जोड़ा। साफ़ माथे का समाज के लेखक अनुपम मिश्र के शब्दों में, “यह उदारीकरण नहीं, बल्कि उधारीकरण की व्यवस्था है”।
नवउदारवाद का विश्विद्यालयों पर असर अलग-अलग जगहों पर अलग-अलग हो सकता है, लेकिन कुछ आम बदलाव ज़रूर देखने को मिलते हैं। पहले उच्च शिक्षा को सार्वजनिक भलाई के रूप में देखा जाता था, लेकिन अब इसे निजी करियर में निवेश के रूप में देखा जाने लगा है। उच्च शिक्षा में सार्वजनिक निवेश की कमी हो रही है, और विश्वविद्यालय नयी आय के स्रोतों की तलाश कर रहे हैं, ख़ास कर शोध का व्यावसायीकरण करके। नवउदारवाद के माहौल में विश्वविद्यालयों में प्रशासनिक बदलाव भी देखने को मिलते हैं। जवाबदेही सुनिश्चित करने के नाम पर राजनैतिक नियंत्रण बढ़ रहा है। नवउदारवाद के युग में एक बड़ा परिवर्तन है विश्विद्यालयों को उत्कृष्टता के केंद्र बनाने पर ज़ोर देना। इसी सन्दर्भ में बिल रीडिंग्स की पुस्तक यूनिवर्सिटी ऑफ़ रूइंस (1996) में एक विश्विद्यालय के बदलते मायने को दर्शाते हुए कहा गया कि विश्वद्यालय अब यूनिवर्सिटी ऑफ़ कल्चर की बजाय यूनिवर्सिटी ऑफ़ एक्सीलेंस बन गये हैं।
बिल रीडिंग्स ने यूनिवर्सिटी ऑफ़ कल्चर पर विस्तार से लिखते हुए बताया कि विश्विद्यालय केवल विषय विशेष की शिक्षा प्रदान करने तक सीमित नहीं थे, यह कल्चर की शिक्षा को बढ़ावा देने और साइंटिफिक टेम्पर को सोचने-समझने का मूल मंत्र बनाने पर ज़ोर देते थे। टॉमस होब्स ने स्टेट ऑफ़ नेचर में व्यक्ति को मूल रूप से स्वार्थी और क्रूर बताया, यह दोनों विकार व्यक्ति को आत्म-परिरक्षण करने में मददगार साबित होते थे। इस स्थिति में व्यक्ति अपनी तार्किक क्षमताओं का प्रयोग करने में सक्षम न होकर, वही निर्णय लेता है जो उसके लिए लाभकारी हो। कल्चर का मूल उद्देश्य इंसान की तार्किक शक्ति को उसके व्यक्तित्व का हिस्सा बनाना है। स्टेट ऑफ़ नेचर से स्टेट ऑफ़ रीज़न में आने तक की यात्रा कल्चर को आत्मसात करने से ही संभव है और इसमें विश्विद्यालयों की भूमिका सबसे महत्वपूर्ण है।
समाज का ढांचा मूल रूप से कई तरह के भेदभावों से युक्त है, एक विश्विद्यालय ही ऐसा माहौल और मंच प्रदान करते है जहाँ व्यक्ति को उसकी अपनी क्षमता के लिए जाना और परखा जाता है। कार्ल जास्पर्स एग्जिस्टेंशियलिज़म पर लिखने वाले बेहतरीन दार्शनिक होने के साथ-साथ विश्विद्यालयों और इनके मूल्यों को बचाने के समर्थको में से एक थे। जास्पर्स ने अपनी किताब आईडिया ऑफ़ यूनिवर्सिटी में बताया कि विश्विद्यालयों में कल्चर की पढाई व्यक्ति को समाज में समानता के साथ रहने योग्य बनाने और कुछ सार्वभौमिक मूल्यों को सीखने में मदद करती है। सौंदर्यबोध, आचरण, तर्कसंगति, और निर्णय लेने की क्षमता इन सभी का ज्ञान कल्चर के स्वरूप में ही व्यक्ति सीख पाता है, इस दृष्टिकोण से विश्विद्यालयों की शिक्षा सभी के लिए बेहद महत्त्वपूर्ण हो जाती है।
जब विश्विद्यालयों में शिक्षा का संसार बदल रहा है तो साथ ही उनके प्रशासनिक ढांचे में भी परिवर्तन आ रहे हैं। नये जन प्रबंधन के सिद्धांत अब विश्विद्यालयों के संचालन में अहम् भूमिका निभा रहे हैं। इन सिद्धांतों का ज़ोर अमूमन परिणामोन्मुख शिक्षा और शोध पर रहता है, साथ ही यह सिद्धांत जवाबदेही, क्षमतावर्धन, गुणवत्ता और प्रबंधन को सख़्त करने की प्रक्रिया को बढ़ावा देते हैं। गुणवत्ता ऐसा शब्द है जिसे विश्वविद्यालय और परिसर के सभी पहलुओं पर बिना किसी औचित्य और व्याख्या के लागू किया जा सकता है। इस गुणवत्ता को सुनिश्चित करने के लिए, अवास्तविक और अस्पष्ट मापदंड बनाए जा सकते हैं और किसी भी मूल्यांकन उपाय को थोपने के लिए उन्हें मनचाहे ढंग से से परिभाषित किया जा सकता है। इसी नीति के परिणामस्वरूप विश्विद्यालयों की अपनी स्वावयत्तता पर गहरा असर पड़ा है। स्वायत्तता को संदर्भ और राजनीति के आधार पर परिभाषित किया जाता है। इसका मतलब है, “स्वायत्तता का अर्थ अनिवार्य रूप से वर्तमान संदर्भ और राजनैतिक गतिविधियों से प्रभावित होता है, और यह समय के साथ बदलता रहता है”।
यहाँ यह स्पष्ट करना ज़रूरी है कि विश्वविद्यालय का सार स्वायत्तता के विचार में निहित है, और स्वायत्तता का पतन विश्वविद्यालय के अंत का संकेत होगा। स्वायत्तता का यह विशेष महत्त्व जवाबदेही की बढ़ती मांगों के कारण खतरे में पड़ रहा है। स्वायत्तता महत्वपूर्ण तत्त्व के रूप में देखा गया, जो आंतरिक रूप से संस्थागत परिवर्तन की अनुमति देगा और शोध और शिक्षण की स्वतंत्रता को सुनिश्चित करेगा। नवउदारवाद की ख़ास बात यह है कि यह केवल एक आर्थिक प्रणाली नहीं है, अपने आप को जीवित और चलायमान रखने के लिए नवउदारवाद राजनीतिक बहुसंख्यकवाद और सत्तावाद जैसी राजनैतिक प्रणालियों का सहारा लेना ही पड़ता है। इसी कारण से नवउदारवाद शैक्षणिक स्वंतत्रता के ख़िलाफ़ खड़ा रहा है। नवउदारवाद के तहत विश्वविद्यालयों में जो बदलाव आ रहा है, वह मापने योग्य परिणामों, जैसे छात्रों की कमाई की क्षमता बढ़ाने, पर केंद्रित है, जिससे शिक्षा के पारंपरिक उद्देश्य, जो बुद्धिमत्ता, संवेदनशीलता, ऐतिहासिक जागरूकता, व्याख्यात्मक कौशल, और सैद्धांतिक समझ को विकसित करने पर केंद्रित थे, वे कहीं पीछे छूट रहे हैं।
शैक्षणिक जगत शैक्षणिक रचनात्मकता पर काम करता है। नवउदारवाद के युग की कठोर जवाबदेही की प्रक्रिया में मापदंड ने इस रचनात्मकता को मात्रा में तोलना शुरू कर दिया है। इसका परिणाम यह होता है कि विद्वानों और छात्रों का ज्ञान शैक्षणिक क्लर्क जैसा कार्य बनकर रह जाता है, जहाँ बस कम समय में अधिक मात्रा में लेखन का उत्पादन करते रहना है, जिससे कि उसके अंक मिलते रहें। यह विद्वानों को संस्थागत रूप से परिभाषित अकादमिक जवाबदेही से परे ख़ुद का विस्तार करने से रोकता है। और इस व्यव्स्था में यह बात भुला दी जाती है कि शैक्षणिक प्रयासों को मापदंडों और मापों से नहीं आंका जा सकता। मेट्रिक्स और मानकों पर चल रही व्यवस्था इंटेलेक्चुअल वर्कर्स का उत्पादन करती हैं।
विश्वविद्यालय वे संस्थान हैं जिन्हें जीवन के सबसे बुनियादी पहलुओं से संबंधित तीव्र, अंतर्दृष्टिपूर्ण और सहज सवाल पूछने का अधिकार है। इस कारण से, विश्वविद्यालयों को आइवरी टावर के रूप में देखा जाता था, जो अपने आप में सहनशील हैं, लेकिन बाहरी दुनिया से कुछ हद तक अलग-थलग होते थे। विश्वविद्यालय के सार्थक लक्ष्य और संस्थागत जवाबदेही के बीच का संघर्ष हमारे सामने अपनी सबसे विकृत रूप में खड़ा है। हलांकि यह याद रखना ज़रूरी है कि भले ही विश्वविद्यालय आज आर्थिक और राजनैतिक चुनौतियों से घिरे हुए हैं, लेकिन डॉ. आमिर अली के शब्दों में कहें तो, “बड़े गहरे संकट के समय में विश्वविद्यालय फिर से उठ खड़े होंगे। लेकिन, ऐसा क्षण विश्वविद्यालय के जीवन में शायद ही कभी आता है, यदि यह आता भी है”।