शिक्षा

ज्ञान के स्वराज का दिवास्वप्न

 

भारत को एक उपयुक्त शिक्षा नीति की आवश्यकता दशकों से रही है। समाज और काल के बदलाव के साथ शिक्षा और ज्ञान दोनों को ताल और कदम मिलाकर चलना पड़ता है। स्वतन्त्रता के बाद के समय में पूरी दुनिया बदल चुकी है। पूँजीवाद एक नये चरण में पहुँच चुका है। अब तो भूमण्डलीकरण भी दो तीन दशक पुरानी घटना हो गयी है। लेकिन अभी भी शिक्षा पर भारतीय चिन्तन कोई निश्चित निष्कर्ष तक नहीं पहुँच पाया है कि भारत ऐसे देश में शिक्षा का क्या रूप और दिशा होनी चाहिए। इसी सन्दर्भ में कुछ समय पहले नरेंद्र मोदी की सरकार द्वारा नयी शिक्षा नीति की घोषणा की गयी। यह कोई अनायास घोषणा नहीं थी। इसकी उम्मीद तो थी ही क्योंकि जब-जब भाजपा केंद्र की सरकार में आई है तब-तब उसने शिक्षा में बदलाव की चर्चा की है, भले ही बदलाव की दिशा और पहलू के बारे में उनके चिन्तन स्पष्ट न रहे हों।

वाजपेयी सरकार के दौरान भी कुछ ऐसी ही बहस चलायी गयी थी जिसमें स्कूलों के टेक्स्टबुक बदलने और इतिहास लेखन को बदलने की बात थी। यह सर्वविदित है कि भाजपा शासन के दौरान शिक्षा में बदलाव की बहस के पीछे आरएसएस की भूमिका हमेशा से रही है। क्योंकि ज्ञान हो या खान-पान या वेश-भूषा का तथाकथित भारतीयकरण करना, यह हमेशा से आरएसएस के एजेण्डे का हिस्सा रहा है। यह अलग बात है कि उनका भारतीयकरण और स्वदेशी पर दृष्टिकोण कई आंतरिक विसंगतियों से भरा हुआ है। वे भले ही ज्ञान का “डिकोलोनाइजेशन” की बात करते हों लेकिन हकीकत कुछ और ही होता है। क्योंकि इनके डिकोलोनाइजेशन की अवधारणा जिसके सही अर्थ को हमने राष्ट्रीय आन्दोलन में आत्मशात किया था उससे कोसों दूर होता है। और उनके ऐसे ही विचार कई अर्थों में नयी शिक्षा नीति को भी प्रभावित करता हुआ दिखाई देता है।

नयी शिक्षा नीति के बारे में हमें बताया गया है कि यह आने वाली नयी भारत के निर्माण का दस्तावेज है। यह एक समृद्ध भारत बनाने की दिशा में पहल है जो 2047 तक भारत को एक महाशक्ति बनाने में कामयाब होगा। यह भी दावा किया जा रहा है कि नयी शिक्षा नीति रोजगारोन्मुख होगी। लेकिन यदि इसके गहराई में जाकर इसका विश्लेषण किया जाए तो ऐसा प्रतीत होता है कि यह मुख्य रूप से शिक्षा को राज्य के दायित्व से मुक्त करने और इसे पूँजीवादी बाजार को सौंपने की दिशा में एक कदम है। भूमण्डलीकरण के दौर में तो यह पूरी दुनियाभर में हो ही रहा है। भारत कोई नया मिशाल नहीं कायम करने जा रहा है।

 

शिक्षा के बाजारीकरण के परिणाम भी दुनिया में दिखने शुरु हो गये हैं। जहाँ पूँजीवाद के इस चरण में एकतरफ नये-नये वैज्ञानिक आविष्कार ने मानव समाज के लिए कई नयी चुनौती खड़ी कर दी है। मिसाल के तौर पर कृत्रिम बुद्धिमता (आर्टिफिशियल इंटेलिजेंस) को लिया जा सकता है जिसने ज्ञान रचना की पुरानी धारणाओं को नयी कसौटी पर कसना शुरू कर दिया है। इसके परिणाम मानव सभ्यता, उसकी संस्कृति और मानव मूल्यों के लिए भयानक होने वाले हैं जिसके विभिन्न आयामों के बारे में अभी पूरा अंदाजा नहीं लगाया जा सकता है। इस पृष्ठभूमि में यदि नयी शिक्षा नीति को देखें तो ऐसा प्रतीत होता है कि यह पश्चिम के पूँजीवादी देशों में शिक्षा में चल रहे प्रयोगों का अकुशल नकल मात्र है। शिक्षा रोजगारोन्मुख बने और नये पीढ़ी के लोगों को व्यवसाय के अवसर मिले इससे कौन एतराज कर सकता है। लेकिन अपने ऐतिहासिक धरोहर को भूलकर, अपनी सामाजिक और सांस्कृतिक पृष्ठभूमि को नजरअंदाज करते हुए अपनी प्राथमिकताओं को तिलांजलि देकर यदि हम कोई भी शिक्षा नीति बनाते हैं तो वह भावी पीढ़ी के साथ कुठाराघात करना होगा।

भूमण्डलीकरण के दौर में शिक्षा विश्व व्यापार संघ के एजेंडे का हिस्सा बनेगी और तीसरी दुनिया के देशों को वैश्विक पूँजी और बाजार में लुभाकर इसे पूँजीवाद के मकड़जाल में लाया जाएगा इसकी पूरी संभावना तो थी ही। हमें याद रखना चाहिए कि 90 के दशक में तीसरी दुनिया पूँजीवाद की कुछ ऐसी ही प्रकिया का भुक्तभोगी हुई थी जब एक नये बाजार के सहारे इन देशों के दोहन के लिए एक नयी जमीन तलाशी गयी थी। यह कोई संयोग नहीं था कि उन दिनों अधिकांश ‘सौंदर्य प्रतियोगिता’ तीसरी दुनिया के देशों में आयोजित हुई थी और जीतने वाली अधिकतर बच्चियां भी इन्ही देशों से होती थी। फिर एकबार कुछ ऐसा ही होता हुआ दिख रहा है जब शैक्षिक संस्थानों के रैंकिंग का एक नया खेल शुरु हुआ है और भारत जैसे देश इस जाल में फंसते जा रहे हैं। मुझे ताज्जुब हुआ जब कुछ साल पहले भारत में एक शीर्ष संवैधानिक पद पर बैठे व्यक्ति घूम-घूम कर अपनी वेदना का इजहार कर रहे थे कि भारत का एक भी विश्वविद्यालय दुनिया के सौ विशिष्ट संस्थानों में जगह नहीं बना पाया है।

भारत में शिक्षा नीति पर कोई भी बहस राष्ट्रीय आन्दोलन के समय चलाये गए “ज्ञान का स्वराज” के बहस को नजरअंदाज नहीं कर सकता है। 1928 में के सी भट्टाचार्य द्वारा लिखित लेख “स्वराज्य ईन आईडियाज” आज भी उतना ही महत्वपूर्ण है जितना स्वतन्त्रता से पहले था। यद्यपि उग्र राष्ट्रवादी आन्दोलन ने, खासकर 1905 के स्वदेशी आन्दोलन के दौरान, ‘ज्ञान का स्वराज’ को सबसे पहले बौधिक क्षितिज पर लाया था। इस आन्दोलन ने पहली बार ज्ञान को भारतीय परिवेश से जोड़ने और विचारों को औपनिवेशिक जंजीर से मुक्त कराने की बात की थी। गाँधीजी इस चिन्तन को आगे बढ़ाये और उनका ‘हिन्द स्वराज’ ने इस बहस को एक नया स्वरूप प्रदान किया था। इस मुद्दे पर तिलक, अरबिंद, टैगोर और गाँधी का चिन्तन काफी सघन था।

स्वतन्त्रता के बाद भी कुछ दिनों तक हमने इस बहस को जारी रखा। 1948 में एस राधाकृष्णन के नेतृत्व में गठित शिक्षा आयोग इसे दर्शाता है। बाद में शिक्षा पर और भी नीतियां बनी और आयोग भी बनाये गये। कोठारी कमीशन और 1985 में राजीव गाँधी की नयी शिक्षा नीति को इसी कड़ी में देखा जा सकता है। लेकिन स्वतन्त्रता के बाद जितने भी पहल हुए हैं उसे विचार या ज्ञान का स्वराज हासिल करने के दिशा में कोई महत्वपूर्ण कोशिश नहीं कहा जा सकता है। स्वतंत्रोत्तर भारत में शिक्षा राष्ट्र-राज्य निर्माण और विकास हासिल करने का एक माध्यम तक ही सीमित होकर रह गया है। यद्यपि भारत में शिक्षा के क्षेत्र में प्रयोगों की कमी नहीं रही है। यदि हम स्वदेशी आन्दोलन के समय के प्रयोगों को छोड़ भी दें फिर भी कई प्रयोग उल्लेखनीय हैं। असहयोग आन्दोलन के समय जामिया मिलिया इस्लामिया और गुजरात और काशी विद्यापीठ सरीखे प्रयोग हुए थे। बाद में टैगोर का शांति निकेतन, मालवीय का बनारस हिन्दू विश्विद्यालय और सत्तर के दशक में बना जवाहरलाल नेहरू विश्विद्यालय कुछ महत्पूर्ण प्रयोगों में रहा है। जवाहरलाल नेहरू विश्विद्यालय को छोड़कर बाकि सब प्रयोग चाहे तो आधुनिकता के दायरे में रहा है या भारतीय स्वदेशी चिन्तन से प्रभावित रहा है।

जे. एन. यू. का प्रयोग कुछ मायने में अपने समय से कहीं आगे का प्रयोग माना जा सकता है जिसे उत्तर-आधुनिकतावाद से जोड़ा जा सकता है। यह दुनिया का एक मात्र विश्विद्यालय था जिसने विषयों और विभागों की रचना में दर्शनशास्त्र और गणित को बिलकुल दरकिनार कर दिया था। ऐसा केवल उत्तर आधुनिकवादी चिन्तन में सम्भव है जो 1980 के दशक में बौद्धिक क्षितिज पर हावी हुआ।

परंतु आजतक के सभी प्रयोगों के आधार पर एक बात निश्चित ही कहा जा सकता है कि हम अभी भी नहीं तय कर पाए हैं कि भारत के लिए कौन सी शिक्षा पद्द्ति उपुक्त होगी। ज्ञान का स्वराज यहाँ एक प्रत्याशा बनकर रह गया है। नयी शिक्षा नीति कुछ अनोखा और बहुत ही हितदायी परिणाम देगी ऐसी सम्भावना तो नहीं दिख रही है। विऔपनिवेशिकरण (डिकोलोनाइजेशन) को बहस के रूप में चलाना अलग बात है लेकिन इसे धरातल पर उतारना और हासिल करना बिलकुल ही आसान नहीं है। केवल डिकोलोनाइजेशन की समय सीमा को पीछे धकल देने से और 300 साल के बदले 1000 साल घोषित कर देने से रास्ता सरल नहीं हो जाता है। बल्की यह केवल लक्ष्य से भटकने का रास्ता है।

यदि नयी शिक्षा नीति इस उदेश्य से बनाई गयी है कि स्वतन्त्रता के सौ साल पूरे होने पर सन 2047 में राष्ट्र को “ज्ञान का स्वराज” हासिल करा दिया जाएगा तो यह एक दिवास्वपन ही प्रतीत होता है

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सतीश कुमार झा

लेखक आर्यभट कॉलेज, दिल्ली विश्वविद्यालय में एसोसिएट प्रोफेसर हैं। सम्पर्क satish_k_jha2005@yahoo.com
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