कोरोना काल में स्वास्थ्य की बहु आयामी चुनौती
आजकल का समय स्वास्थ्य की दृष्टि से एक घनी चुनौती बनता जा रहा है जब पूरे विश्व में मानवता के ऊपर एक ऐसी अबूझ महामारी का असर पड़ रहा है जिसके आगे अमीर और गरीब सभी देशों ने हाथ खड़े कर दिये हैं। सभी परेशान है और उसका कोई हल दृष्टि में नहीं आ रहा है। इस अभूतपूर्व कठिन घड़ी का एक व्यापक वैश्विक परिदृश्य है जहाँ पर किसी दूर बाहर के देश से पहुँच कर एक विषाणु चारों ओर संक्रमण फैला रहा है और जान को जोखिम में डाल रहा है और उस पर काबू पाने की कोई हिकमत कारगर नहीं हो रही है। पूरे विश्व में हाहाकार मचा हुआ है। ऐसे में हम अपने को कैसे स्वस्थ रखें यह बड़ी पहेली बन रही है। पर जब हम विचार करते हैं तो यह प्रश्न खड़ा होता है कि हम अपने स्वास्थ्य की रक्षा के लिए कितने तत्पर हैं? यह सही है कि स्वास्थ्य केवल अपने ऊपर ही नहीं बल्कि व्यक्ति और परिवेश इन दोनों की पारस्परिक अंत:क्रिया पर निर्भर करता है। अपने परिवेश को देख समझ कर भारी अंतर्विरोध अनुभव होता है कि लॉक डाउन के दौर में हमारा परिवेश सकारात्मक रूप से प्रभावित हुआ, प्रदूषण कम हुआ, हवा और पानी की गुणवत्ता ठीक हुई, पेड़ पौधों का स्वास्थ्य ठीक होने लगा पर अब फिर लाक डाउन से छूट मिलने के साथ हालात बिगड़ने लगे हैं। देश की राजधानी दिल्ली पराली के धुंए से प्रदूषण के चरम पर पहुँचने लगी।
कोरोना की आकस्मिक आपदा का मुकाबला करने के लिए कोई भी देश पूरी तरह से तैयार नहीं था। आज अनिश्चित भविष्य को ले कर सभी विवश मह्सूस कर रहे हैं। इस अतिसंक्रामक और प्राणघातक विषाणु ने वैश्विक स्तर पर व्यापार-व्यवसाय को अस्त-व्यस्त कर आर्थिक गतिविधियों को पीछे धकेल दिया है। इसने न केवल देशों के बीच के आर्थिक राजनीतिक रिश्तों के समीकरणों को पुन:परिभाषित करने के लिए मजबूर किया है बल्कि उनके आन्तरिक जीवन की लय और गति को भी छिन्न-भिन्न किया है।
चूंकि संक्रमित व्यक्ति के साथ किसी भी तरह से सम्पर्क में आने वाला व्यक्ति दूसरों के लिए संक्रमण का वाहक बन जाता है इसलिए संक्रमण का क्रम अबाध रूप से आगे बढता जाता है। इसकी कड़ी को तोड़ना बड़ी चुनौती बन रही है और विषाणु के संक्रमण की संभावनाएं कम होती नहीं दिख रही हैं। दुर्भाग्य से इस रोग की सर्दी, जुकाम और बुखार जैसे सामान्य लक्षणों के साथ साम्य इतना अधिक है कि इसका सही सही पता चलना भी सरल नहीं है और लोग इसे प्रकट करने से भी बच रहे हैं हालांकि समय पर उचित उपचार पा कर संक्रमित लोग स्वस्थ हो कर घर भी लौट रहे हैं। अत: इस रोग के विषय में किसी पूर्वनिश्चित दुराग्रह को पाल कर उपेक्षा करना किसी के भी हित में नहीं है।
चूंकि यह विषाणु नया है इसके स्पष्ट उपचार की कोई निश्चित औषधि अभी तक उपलब्ध नहीं हो सकी है। चिकित्सा जगत में इसे ले कर देश विदेश में चारो ओर तीव्र गति से अनुसंधान जारी है पर व्यवस्थित निरापद उपचार और पूरी तरह सुरक्षित टीके की खोज में अभी समय लगेगा। किसी टीके या सुनिश्चित दवा के अभाव में संक्रमण को बढने से रोकने के लिए लोगों के बीच संसर्ग पर रोक ही एक मात्र उपाय है। इसे ध्यान में रख कर पूरे देश में लाक डाउन का निर्णय लिया गया। इसके चलते कठिनाइयों के बावजूद सबने इसका स्वागत किया और इस प्रयास के अच्छे परिणाम भी मिले। परंतु सामाजिक दूरी के निर्देश का ठीक से पालन न करने की स्थितियां भी कई जगह दिखीं। अधिक संसर्ग के फलस्वरूप संक्रमण की संभावना किस तरह तेजी से बढती है इसका प्रमाण देश के विभिन्न क्षेत्रों से लगातार और बार-बार मिलता रहा। इस तरह के गैर जिम्मेदार आचरण के चलते संक्रमण पर नियंत्रण में कठिनाई आने लगी।
जब हम अपने ऊपर विचार करते हैं तो हमें लगता है कि कुछ विशेष तरह का परिवर्तन ले आना अब आवश्यक हो गया है। जीवन में चुनौतियाँ और समस्याएं बनी रहती हैं, तनाव भी बने रहते हैं। इन सबके लिए आवश्यक है कि हम अपने आप को कैसे संचालित करें? हमको अपने इम्यूनसिस्टम या प्रतिरक्षा तन्त्र को कैसे सबल बनाएं? तमाम अध्ययनों के परिणामों से ऐसा प्रतीत हो रहा है कि जिस व्यक्ति में प्रतिरक्षा तन्त्र सुदृढ़ है वह कोविड-19 की लड़ाई में सक्षम साबित हो रहा है। साथ ही यह भी बड़ा आवश्यक है कि हम अपनी दिनचर्या को व्यवस्थित बनाएं रखें। हम सो कर कब उठते हैं, कब भोजन करते हैं, कब अध्ययन करते हैं और घर के काम में किस तरह हाथ बंटाते हैं इनका नियम से पालन किया जाय। इसके साथ ही साथ यह भी आवश्यक है कि शरीर के श्रम के ऊपर ध्यान दिया जाय। लॉक डाउन की स्थिति में प्रायः लोग एक ही जगह बने रहते हैं, बैठे रहते हैं, सोये रहते हैं यानी पड़े रहते हैं और यह शरीर के स्वास्थ के लिए हानिकर है और इससे कई तरह की कठिनाइयां पैदा हो सकती हैं। इसके साथ ही साथ यह भी आवश्यक है कि संतुलित आहार लिया जाय। अर्थात अपने शरीर, मन और कार्य के बीच में एक संतुलन स्थापित किया जाय।
अतीत की चिंता करते हुए उसी में खोये रहने से समस्या बढती है। हमें उससे भी मुक्त होना चाहिए। मनुष्य अपने भविष्य के बारे में विचार कर सकता है। चुनौती और तनाव के इस दौर में हमको नई राह और नये विकल्प ढूढने चाहिए और उसके आधार पर हमारी समस्याओं के समाधान विकसित हो सकते हैं। इसके लिए अपने आप में आत्मविश्वास चाहिए। पर अपनी क्षमताओं को लेकर दृढ़ निश्चय से अपने ऊपर कार्य करने पर ही मार्ग मिलेगा। इसके लिए ध्यान केन्द्रित करने का प्रयास करना चाहिए। अपनी शक्ति, अपनी ऊर्जा को कैसे बनायें रखे इसके लिए, योग और ध्यान (मैडिटेशन) लाभकर हैं। योग और ध्यान के माध्यम से आप एकाग्रता भी ला सकते हैं और आप में साहस का भी संचार होगा। तब आपकी क्षमता भी बढेगी। स्वस्थ्य शरीर अगर है तभी स्वस्थ्य मन और स्वस्थ्य बुद्धि होगी। इसके लिए मन में अच्छे विचार आने चाहिए। आप जिस किसी भी धर्म का पालन करते हैं, जिस गुरु के विचार को मानते हैं। कोशिश करें कि उसे सुनिए और सकारात्मक विचार लाएं। इनसे जीवन में सुगमता बढेगी, सहजता बढेगी, सरलता बढेगी। हमारे मनोभाव विस्तृत होंगे और मोह (अटैचमेंट) कम होंगे जो तमाम तरह के भय, क्रोध, घृणा और द्वेष पैदा करते हैं।
हमें अपने लिए प्रेरणा पाने की कोशिश करनी चाहिए और ऊर्जा का संचार लाना चाहिए। व्यक्ति अपने लिए ऐसे लक्ष्यों को सुनिश्चित कर उनकी दिशा में सक्रिय हो सकते हैं जो प्राप्त किये जा सके। छोटे लक्ष्य बना कर उन्हें एक-दिन में दो दिन में पूरा करने से स्फूर्ति अएगी। इस प्रसंग में समुदाय या समूह के साथ जुड़ कर उनके साथ संपर्क बनाए रखना भी जरूरी है। आज कल बहुत सारे ऐसे सोशल मीडिया के उपय उपलब्ध हैं जिनके आधार पर यह काम सरलता से हो सकता है। य्ह जरूर है कि सोशल मीडिया के व्यसन से बचा जाय। सम्पर्क से सहयोग की भावना पैदा होगी और अकेलेपन की समस्या भी कम होगी। आज की परिस्थिति में सामाजिक दूरी बनाएं रखने को आवश्यक माना जा रहा है और यह संक्रमण की संभावना को घटाती है। पर दूसरी ओर भावनात्मक दूरी को कम करना हितकर नहीं होगा। यह जरुरी होगा कि हमारे मन में जो विचार आयें, जो कार्य हम करें, उनमें व्यक्ति के साथ समाज की चिंता भी शामिल हो। यह कटु सत्य है कि हम प्राय: व्यक्तिवादी होते जा रहे हैं और समाज के हित की कम होती जा रही है। पर लोक हित का ध्यान नहीं करेंगे तब तक हमारा निजी हित भी संभव नहीं होगा। साथ ही वास्तविकताओं को स्वीकार करना भी सीखना चाहिए। हम यदि संयम से काम लें और उपलब्ध साधनों का ठीक से उपयोग करें तो समय का हम अच्छी तरह से उपयोग करते हुए कुछ सृजनात्मक कार्य भी कर सकते हैं।
कोरोना वायरस से बचने के लिए हमारे लिए स्वयं को स्वच्छ रखना अनिवार्य है। कहा जाता है कि अपने हाथ धोइए, बार-बार हाथ धोइए और यह कोशिश करिए कि विषाणु का संपर्क न हो। आपका स्वास्थ्य आप ही के हाथ में है यब बात सब लोग जानते हैं लेकिन जब सामान्य रूप से काम चलता रहता है तब हमें स्वास्थ्य की चिंता नहीं रहती है। आज के कठिन समय में बाजार में जंक फ़ूड और फास्ट फूड की दुकाने बंद हैं और सब लोग खान पान में बदलाव ला रहे हैं। यह समय अपने उचित आहार, अच्छे व्यवहार और सामाजिकता की आदत ढालने और अपनी जीवन शैली में परिवर्तन ले आने के लिए आमंत्रित कर रहा है जो दीर्घकाल तक लाभकारी हो सकती है। अपने को संस्कार देने का प्रयास करना होगा। बदलाव बाध्यता न हो बल्कि हमारा स्वयं का निर्णय हो। अपने जीवन के लिए ‘मेन्यु’ मेन्यु आप बना कर भविष्य संवारने की आवश्यकता है।
कोरोना की महामारी ने जहाँ सबके जीवन को त्रस्त किया है वहीँ उसने हमारे जीवन के यथार्थ के ऊपर छाए भ्रम भी दूर किये हैं जिनको लेकर हम सभी बड़े आश्वस्त हो रहे थे। विज्ञान और प्रौद्यौगिकी के सहारे हमने प्रकृति पर विजय का अभियान चलाया और यह भुला दिया कि मनुष्य और प्रकृति के बीच परस्पर निर्भरता और पूरकता का सम्बन्ध है। परिणाम यह हुआ कि हमारी जीवन पद्धति प्रकृति के अनुकूल नहीं रही और हमने प्रकृति को साधन मान कर उसका अधिकाधिक उपयोग करना शुरू कर दिया। फल यह हुआ कि जल, जमीन और जंगल के प्राकृतिक संसाधनों का क्षरण शुरू हुआ, उनके प्रदूषण का आरम्भ हुआ। धीरे-धीरे अन्न, फल, दूध, पानी और सब्जी आदि सभी प्रकार के सामान्यत: उपलब्ध आहार में स्थाई रूप से विष का प्रवेश पक्का हो गया। दूसरी ओर विषमुक्त या “आर्गनिकली” उत्पादित आहार (यानी प्राकृतिक या गैर मिलावटी!) मंहगा और विलासिता का विषय हो गया। इन सबका स्वाभाविक परिणाम हुआ कि शरीर की जीवनी शक्ति और प्रतिरक्षा तन्त्र दुर्बल होता गया।
सामाजिक स्तर पर भी देश की यात्रा विषमता से भरी रही। बापू के ‘ग्राम स्वराज’ का विचार भुला कर औद्योगिकीकरण और शहरीकरण को ही विकास का अकेला मार्ग चुनते हुए हमने गावों और खेती किसानी की उपेक्षा शुरू कर दी। गाँव उजड़ने लगे और वहाँ से युवा वर्ग का पलायन शुरू हुआ। शहरों में उनकी खपत मजदूर के रूप में हुई। श्रमजीवी के श्रम का मूल्य कम आंके जाने के कारण मजदूरों की जीवन- दशा दयनीय बनती रही और उसका लाभ उद्योगपतियों को मिलता रहा। वे मलिन बस्तियों में जीवन यापन करने के लिए बाध्य रहे। इस असामान्यता को भी हमने विकास की अनिवार्य कीमत मान लिया। बाजार तन्त्र के हाबी होने और उपभोग करने की बढती प्रवृत्ति ने नगरों की व्यवस्था को भी असंतुलित किया। उदारीकरण और निजीकरण के साथ वैश्वीकरण ने विदेशीकरण को भी बढाया और विचार, फैशन तथा तकनीकी आदि के क्षेत्रों में विदेश की ओर ही उन्मुख बनते गये। हमारी शिक्षा प्रणाली भी पाश्चात्य देशों पर ही टिकी रही। इन सबके बीच आत्म निर्भरता, स्वावलंबन और स्वदेशी के विचारों को बाधक मान कर परे धकेल दिया गया। करोना की महामारी ने यह महसूस करा दिया कि वैश्विक आपदा के साथ मुकाबला करने के लिये स्थानीय तैयारी आवश्यक है। विचार, व्यवहार और मानसिकता में अपनी स्वाभाविक प्रवृत्तियों को पुन: स्थापित करना पड़ेगा।
यह भी पढ़ें – कोरोना की त्रासदी और हमारा समय
गये साल 2020 में कोरोना विषाणु ने आकस्मिक रूप से विश्व के अनेक देशों को अपनी चपेट में ले लिया और भारत के अनेक प्रदेशों में भी जन स्वास्थ्य पर इसका बड़ा नकारात्मक प्रभाव पडा। इस बीमारी का आरम्भ विदेश में हुआ और वहाँ से आने वालों के सम्पर्क में आने वालों में यह संक्रमित हुई और उन लोगों से फिर औरों तक पहुंचा। समय बीतने के साथ इससे प्रभावित रोगियों की संख्या भी बढ रही है। इस महामारी के आतंक के साये में सबका जीवन अस्त-व्यस्त हो रहा है। यह सबके लिए चिंता की बात है कि इस पर किस तरह जल्दी से जल्दी काबू पाया जाय। यह अदृश्य विषाणु इतना सूक्ष्म है कि इसका प्रत्यक्ष अनुभव नहीं होता और इसके परिणामों को देख कर ही इसका अनुमान होता है। विशेष किस्म के नैदानिक परीक्षण द्वारा ही निश्चित रूप से इसका पता चल पाता है। कई रोगियों में इसके लक्षण भी शुरू में न दिख कर विलम्ब से दिखाई पड़ते हैं। इसमें भी सामान्य सर्दी, जुकाम, नाक से पानी आना, खांसी, सांस लेने में कठिनाई और बुखार आदि की अस्वास्थ्यकर स्थितियां दिखती हैं जो मिल कर शरीर की प्रणाली पर आक्रमण करती हैं। इनका प्रतिरोध करने के लिए शुरू में शरीर अपनी शक्ति भर प्रयास करता है परंतु उसकी भी सीमा होती है। इस संघर्ष में शरीर का संचित ऊर्जा संसाधन धीरे-धीरे कम पड़ने लगता है और यदि समय पर उपचार न मिले तो खतरनाक स्थिति पैदा हो जाती है और जीवन की हानि हो सकती हैं। पर अभी भी लोग इसे स्वीकार करने से डर रहे हैं और जांच कराने से भाग रहे हैं।
जीवन मरण का सवाल उठाती इस अदृश्य बीमारी का असर जाने-अनजाने कभी भी कहीं भी किसी भी तरह दस्तक दे सकता है। इससे बचाव के लिए सामाजिक सम्पर्क को नियंत्रित करना बेहद जरूरी है। भीड़-भाड़ की जगहों में जाने पर संक्रमण की संभावना बहुत बढ जाती है। किसी भी संक्रमित सतह से सम्पर्क खतरनाक हो सकता है। इसीलिए सामाजिक दूरी बनाने पर जोर दिया जा रहा है। करोना-संक्रमण के संदिग्ध व्यक्ति को ही नहीं बल्कि रोकथाम की दृष्टि से भी एकांत हितकर होगा। साथ ही शरीर के प्रतिरक्षा तन्त्र को सुदृढ बनाना बहुत जरूरी है। चूंकि यह समय ऋतु-परिवर्तन का है इसलिए शरीर की प्रक्रियाओं को उचित आहार-विहार और औषधियों द्वारा उसके अनुकूल बनाए रखना होगा। परंतु सामाजिक जीवन को भी नियमित करना आवश्यक है।
आज सभी लोग जीवन के अस्तित्व की चिंता से ग्रस्त हो रहे हैं। सब के मन में एक ही प्रश्न और आशंका है कि कोरोना की माहमारी से कैसे उबरें। कोरोना का विषाणु देश, धर्म, जाति या भाषा की चिंता किये बगैर राजा रंक सभी को अपने प्रभाव में ले रहा है। सामान्य जीवन में गतिरोध है और आम जनों में अविश्वास, चिंता और भय का वातावरण बन रहा है। अकेलापन और अलगाव, क्षय रोग, अवसाद, मद्यपान और कई मानसिक बीमारियों का भी कारण बन जाता है। अलगाव स्वयं में हमारे प्रतिरक्षा तन्त्र के लिए नुकसान देह होता है। दूसरों से जुड़े रहना हृदय और श्वास आदि के सुचारु संचालन के लिए जरूरी है। दूसरी ओर पारस्परिक जड़ाव और सहयोग सुरक्षा प्रदान करता है। स्वस्थ समाज के निर्माण के लिए जिसमें लोग कठिनाइयों का सामना कर सकें और उबर सकें पारस्परिक सम्बंधों का विशेष महत्व है। हमारे ज्ञानेंद्रियों को उचित उद्दीपन न मिले तो बौद्धिक विकास कुंठित हो जाता है। जेलों में लम्बी अवधि तक रह्ने पर ब्रेक डाउन होना आम बात है। तभी खूंखार अपराधियों या गंभीर दंड देने के लिए ‘काला पानी’ की सजा दी जाती थी।
आम जीवन में भी लोग अपनी अवहेलना और उपेक्षा को बर्दाश्त नहीं कर पाते और भावनात्मक रूप से टूट जाते हैं। सामाजिक रिश्ते शारीरिक और मानसिक स्वास्थ्य की गिरावट को कम करते हैं। प्रसिद्ध समाजशास्त्री दुर्खाइम ने तो समाज से न जुड़ने को आत्महत्या से जोड़ा था। सामाजिक जीवन में हाशिए पर जाना नकारात्मक अनुभव होता है। रिश्तों से बनती हमारी अस्मिता हमारी पहचान बनाती है और तनाव के असर को कम करती है। व्यक्ति अपने स्थान और समुदाय से लगाव विकसित कर लेता है और इनकी उपस्थिति अंतर्जगत में भी रहती है। प्रत्यक्ष उपस्थित न हो कर भी आंतरिक यथार्थ हमारे रिश्तों को बल प्रदान करते हैं। अत: स्वस्थ्य रहने के लिए लोगों के लिए उचित परामर्श देने की भी जरूरत है। सामाजिक परिवेश से समर्थन कठिन परिस्थितियों में ढाल का काम करता है। सामाजिक दूरी बनाए रखने की अनिवार्यता के अनेक नकारात्मक प्रभाव तो हैं परंतु इसका एक पहलू यह भी उभर कर सामने आ रहा है कि निजी और सामाजिक स्वास्थ्य के लिए लोगों में एक मानवीय चेतना का भी उभार हुआ है।
यह भी पढ़ें – कोरोना संकट: नवउदारवादी नीतियों का ‘प्रोडक्ट’
लोक स्वास्थ्य के लिए शताब्दी की महा चुनौती के रूप में कोविड -19 अब एक साल पुराना हो रहा है। इस दौरान इस विषाणु ने कई- कई रूप धारण किये और इसके लक्षण भी इस कदर बदलते रहे कि उससे बचने की सारी कोशिशें नाकाफ़ी रहीं। पिछले कुछ महीनों में ऐसा लगने लगा था कि धीरे-धीरे इसकी गति मंद पड़ रही थी। लोगों को ऐसा लगा कि इसकी गति नियंत्रित हो रही है और मन ही मन ऐसा सोचने लगे कि संभवतः इससे निजात पाने का क्षण भी आने ही वाला है। पर मार्च के महीने में जिस तरह पलटवार क़रते हुए कोविड के संक्रमण का पुनः प्रसार और विस्तार जिस तीव्र वेग से हुआ है वह अब सभी लोगों में भय का वातावरण पैदा कर रहा है। मीडिया की रिपोर्ट के मुताबिक़ इस बार इसकी गति पहले से तीव्र और रोग की तीक्ष्णता अप्रत्याशित रूप से ख़तरनाक स्तर तक पहुँच रही है।
इसके जैविक कारण क्या हैं यह पूरी तरह से स्पष्ट नहीं है परंतु सामाजिक जीवन में कोविड के लिए बनी मानक आचरण संहिता का पालन करने में ढील साफ़ तौर पर दिखने लगी थी। शायद थकान और ज़िंदगी के सामान्य क्रिया- कलापों पर लगे विभिन्न दीर्घक़ालिक प्रतिबंधों से उपजी ऊब के कारण लोगों ने उस जोखिम को नज़र अन्दाज़ करना शुरू कर दिया था जो उपस्थित था। प्रतीक्षा की परीक्षा होने लगी। लोगों को मास्क और सामाजिक दूरी के मानक का पालन अनिवार्य रूप से जिस तरह करना चाहिए था उसमें कोताही होने लगी। ज़रूरी अनुशासन का पालन नहीं हो रहा था और लोग खुद ब खुद ढील लेने लगे थे। बाज़ारों में भीड़ जुटने लगी थी और सरकारी दफ़्तर भी पुराने ढर्रे पर चलने को तत्पर हो रहे थे। कोविड पर क़ाबू पाने के लिए शुरू की गयी ख़ास स्वास्थ्य सुविधाएँ भी सरकारें समेटने लगीं थीं। बड़े बच्चों के स्कूल – कालेज भी खुलने लगे थे। इन सब जगहों पर बिना मास्क और बिना दूरी बनाए आना-जाना शुरू हो गया था। लोगों के प्रतिरक्षा तन्त्र ( इम्यून सिस्टम) की निजी क्षमता होती है जिसकी बदौलत बाहरी तत्वों से मुक़ाबला करने में शरीर अलग स्तर पर काम करता है। घर में बंद रहने, शारीरिक व्यायाम न करने, संतुलित और पौष्टिक आहार न लेने से प्रतिरक्षा तन्त्र कमजोर पड़ने लगता है। ऐसे में विषाणु का असर होना सरल हो जाता है।
आज हम एक विचित्र स्थिति का सामना कर रहे हैं। सन 2020 में मार्च अप्रैल के समय करोना की तीव्रता इस साल की तुलना में कम थी पर लोगों में तब भय ज़्यादा था पर सन 2021 के मार्च अप्रैल में तीव्रता अधिक। होने पर भी भय कम दिख रहा है। आज स्थिति यह हो रही है कि दिल्ली, नागपुर और बनारस जैसे शहरों में ग़ैर सरकारी और सरकारी हर अस्पताल के बेड पूरी तरह से मरीज़ों से भरे पड़े हैं। वेंटीलेटर और आई सी यू के बेड कम पड़ने से अस्पताल की व्यवस्था चरमरा रही है। करोना के प्रकोप के तीव्र वेग से बढ़ने के पीछे मुख्य कारण लोगों द्वारा यह मान बैठना था कि क़ोरोना जा रहा है। इस विश्वास के साथ यह अनुभव कि उसका टीका भी आ रहा है लोगों में विषाणु को कम तरजीह देने की प्रवृत्ति पनपने लगी। लोग उपेक्षा करने लगे और मानक कोविड प्रोटोकोल का पालन करने में ढील लेने लगे। मास्क लगाने और सामाजिक दूरी बनाए रखने से लोग चूकते गये। घर से बाहर निकल कर बाज़ार और धार्मिक, सामाजिक और राजनैतिक प्रकार के सार्वजनिक आयोजनों में लोग अनियंत्रित तरीक़े से भाग लेने लगे थे। ट्रेन के भीतर और स्टेशन पर खूब भीड़ होने लगी। इस स्थिति में कोविड -19 के संक्रमण की सम्भावना बढ़ने लगी। दूसरी ओर अभी तक इसकी कोई कारगर दवा नहीं खोजी जा सकी है। रेमडेस्वियर और फ़ेवि फ़्लू जैसी दवाएँ चल रही हैं पर कोई ख़ास सटीक दवा अभी भी विकसित नहीं हुई है। कोविड के म्यूटेड स्ट्रेन कई आ गये हैं जो रोग में उछाल ला रहे हैं। गफ़लत में बढ़े अति आत्म विश्वास का परिणाम है संक्रमण में बेतहाशा वृद्धि।
आज के बिगड़ते हालात में अपनी इच्छाओं और कामनाओं पर लगाम लगाने की ज़रूरत है। जान है तो जहाँ है। जीवन की रक्षा अधिक ज़रूरी है क्योंकि जीवन रहेगा तो ही इच्छाओं का कोई अर्थ होगा। व्यवहार के धरातल पर हमें स्वेच्छया परिवर्तन लाना पड़ेगा। सामाजिक परिसरों में आवाजाही को नियंत्रित और स्वच्छ रखना प्राथमिकता होनी चाहिए। पृथक वास, हाथ ढोना और मास्क का अनिवार्य उपयोग आज की सबसे बड़ी जरूरत है जिसे नजर अंदाज करना बड़ा नुकसानदेह होगा। इस बार सिर्फ पचीस दिन में बीस हजार के कोरोना मामले एक लाख के पार पहुच गये। इनमें अधिकांश, लगभग 76 प्रतिशत, महाराष्ट्र, छत्तीसगढ़, केरल पंजाब से हैं। यह स्थिति डरावनी है और जागरूकता के साथ बिना ढिलाई के कोरोना नियमों का सख्ती से पालन जरूरी हो गया है। प्रवासी मजदूर जो काम पर लौट चुके थे फिर वापस घर की और रुख करने लगे हैं। ऐसे हालात में लाकडाउन की संभावना बढ़ रही है। बचाव के हर उपाय अपनाने के लिए मुहिम तेज करनी होगी।
यह भी पढ़ें – कोरोना संकट और विज्ञान की उत्तर-आधुनिकतावादी आलोचना
कहते हैं मन ही आदमी के बंधन और मोक्ष दोनों का ही कारण होता है। मनुष्य अपने शरीर को किस तरह उपयोग में लाता है और उपलब्धि के किन उत्कर्षों की ओर या फिर पतन की किन गहरी घाटियों में ले जाता है यह मन की शक्ति पर निर्भर करता है। यही सोच कर कहा गया ‘मन के जीते जीत और मन के हारे हार’। कोविड -19 की वैश्विक महामारी ने प्रत्यक्ष और परोक्ष रूप से लोगों के मानसिक जगत को चुनौती दी है और सभी उससे जूझ रहे हैं। जीवन जीने में मन और शरीर की संगति जरूरी होती है। आज इस संगति में कई तरह के व्यवधान आ रहे हैं और बहुत सारे लोग मन से टूट रहे हैं क्योंकि उन्हे लग रहा है कि इस अंधेरी सुरंग का अंत नहीं है। उनका धैर्य खो रहा है और वे मनोविकारों का भी शिकार हो रहे हैं। मुख्यत: चिंता और अवसाद के लक्षण बढ रहे हैं और भावनाओं की दृष्टि से लोग दुर्बल हो रहे हैं। अपने सीमित होते और सिकुड़ते वर्तमान और धुंधलाते भविष्य को लेकर यदि मानसिक संकट बढता है तो यह आश्चर्यजनक नहीं है। ऊपर से टी वी और सोशल मीडिया पर कोरोना की त्रासदी इतने भयावह रूप में हावी है कि लोग अज्ञात मडराते भय से भयभीत और परेशान महसूस कर रहे हैं। लोगों में से एक है जो कोविड-19 की महामारी के बीच मानसिक उथल-पुथल खोते दिख रहे हैं। उसके विचार और भावनाएं ऊपर नीचे होते रहते हैं। कुछ समझ में नहीं आता क्या करें। ठगी सी वह अपने को किंकर्तव्यविमूढ पाती है। सब कुछ तो बंद हुआ पड़ा था और अपना अस्तित्व कहाँ रखूं? कहाँ बटाऊं? किससे बटाऊं?। इस तरह की नकारात्मक भावनाएं कुछ ज्यादा ही बेचैन करने लगीं।
उल्लेखनीय है कि बीते मार्च 24 को भारत में पूरी तरह से लाक डाउन का फैसला लिया गया जो दुनिया में सबसे व्यापक और कठोर था। इसने पूरे भारत की जनता के जीवन क्रम को तहस नहस कर दिया। बड़ी संख्या में लोगों की नौकरियां छूटीं। और बहु संख्यक जनता में तनाव की लहर सी फैल गयी। करोड़ से ज्यदा विस्थापित गरीब दिहाड़ी वाले मजदूर सबसे ज्यादा प्रभावित थे, पर घर में बैठे लोग भी प्रभावित होते रहे। इस हालात के कारण कई थे। जो हो रहा था उसके अर्थ अनिश्चित थे। रोग एक अदृश्य चुनौती था और उसके लिए खुद को जिम्मेदार नहीं ठहराया जा सकता था। उसको लेकर जो कहानियां टीवी और सोशल मीडिया में तैर रही थीं उनमें संशय और संदेह के साथ इतने भिन्न भिन्न संदेश आ रहे थे कि मन किसे माने और किसे माने कुछ भी समझ में नहीं आ रहा था। स्वस्थ और दुरुस्त मन से चंगे लोग भी इस अस्थिर और अस्पष्ट माहौल में मन में गुत्थियां पालने लगे। युवा जनों की मुश्किलें जीवन के अवसरों से भी जुड़ी थीं। लाक डाउन न सिर्फ वर्तमान के जीवन क्रम में व्यवधान डाल रहा था बल्कि भविष्य पर भी सवालिया निशान लगा रहा था। महामारी ने पाबंदी लगाई और सिर्फ भौतिक कैद ही नहीं इच्छाओं और आकांक्षाओं की दौड़ पर भी विराम लगा दिया। इस बदलाव ने भावनाओं की दुनिया को बुरी तरह प्रभावित किया। कोरोना के विषाणु की गिरफ्त में आने की बात उस समय और भी खतरनाक लगने लगी जब पता चला कि बीमारी बिना किसी लक्षण भी हो सकती है – एसिम्टोमेटिक यानी निराकार भी हो सकती है।
यह भी पढ़ें – महामारी के दुष्प्रभावों से उबरने का मनोवैज्ञानिक उपचार
भारतीय मनोचिकित्सा परिषद के सर्वेक्षण के हिसाब से लाक डाउन के दौरान मनोरोग के मामलों में बीस प्रतिशत का इजाफा हुआ है। इसका मतलब हुआ हर पांच भारतीय में से एक मानसिक कष्ट से पीडित था। जीविका खत्म होना, आर्थिक कठिनाई, अकेलापन,अलगाव, घरेलू हिंसा और दुर्व्यवहार मानसिक स्वास्थ्य की एक बड़ी त्रासदी का सबब बनता दिख रहा है। इन स्थितियों में आत्महत्या की प्रवृत्तियां भी तेजी से बढ रही हैं। लोगों का साहस और धैर्य जबाब दे रहा है। प्रतिकूल परिस्थिति में खड़े रहने की मानसिक शक्ति की भी एक सीमा होती है। तनाव की मात्रा ज्यादा हो और यदि वह लम्बी अवधि तक चले तो मुश्किल कई गुना बढ जाती है। बच्चों की अपनी समस्यएं हैं। उनके लिए अलगाव, स्कूल की सामान्य व्यवस्था से अलग हट कर इंटर्नेट से सीखना और घर में मनमुटाव और हिंसा की परिस्थिति उनके स्वाभाविक विकास के रास्ते में कठिन चुनौती प्रस्तुत कर रही है। बच्चों के लिए जोखिम बढ गया है। जब बच्चे बड़े होते रहते हैं उस बीच ऐसी त्रासदी से मानसिक स्वास्थ्य पर बुरा असर पड़ता है। यदि घर के सयाने सदस्य ज्यादा तनाव और दबाव महसूस करते हैं तो उसका असर बच्चों के प्रति हिंसा के रूप में परिलक्षित होता है।
उल्लेखनीय है कि लाक डाउअन के दौरान आत्म हत्या के ऐसे मामले भी बढे हैं जिनका कोविड -19 से कोई सम्बन्ध नहीं है। एक अध्ययन में इस तरह के मामलों में ऐसे लोगों की बड़ी संख्या है जो विषाणु संक्रमण के भय, अकेलेपन, घूमने फिरने की आजादी गंवाने, और घर वापसी में असफल थे। मद्यपान से जूझने वाले भी इसमें काफी थे जिन्होंने अव्यवस्थित तरीके से शराब को छोड़ने की कोशिश की थी। अगले साल भर तक मानसिक स्वास्थ्य की चुनौती विकट रूप लेती रहेगी। आर्थिक तंगी और सहारे की कमी, मद्यपान आदि से ये समस्याएं और बढेंगी।समाज और सरकार को इस स्थिति से निपटने के लिए तैयार होना होगा।मानसिक स्वास्थ्य की रक्षा का विधेयक 2017 में संसद में पास हुआ था। इसमें भारत के नागरिकों के लिए सरकार की ओर से मानसिक स्वास्थ्य रक्षण और चिकित्सा की व्यवस्था का प्रावधान है। पिछले कुछ वर्षों में इस दिशा में कुछ पहल हुई है पर वह अभी भी सब की पहुच के बाहर है और किसी भी तरह पर्याप्त नहीं कही जा सकती।
दर असल भारत में मानसिक स्वास्थ्य की देख रेख को कई मोर्चों पर संभालने की आवश्यकता है। कोशिश तो यह होनी चाहिए कि वे परिस्थितियां ही न बनें जिनसे मानसिक विकार को सहारा मिलता है। तात्कालिक चुनौती के साथ देश के ताने बाने में भी चारित्रिक ह्रास की खोट भी दूर करनी होगी। इसके लिए सबसे अधिक जरूरी है कि स्वस्थ सामाजिक-आर्थिक परिवेश बनाया जाय जो सबको अपनी योग्यता और रुचि के अनुसार आगे बढने का अवसर दे। आज कई स्तरों पर भेद भाव, अवसरों की कमी, योग्यता की उपेक्षा और विसंगति से भरे निहित स्वार्थ के अनुसार काम के तरीके लोगों में कुंठा और असंतोष बढा रहे हैं जिससे मन की शांति लुप्त होती जा रही है। अपरिमित महत्वाकांक्षाएं मनोजगत में जिस तरह का बदलाव ला रही हैं वे खतरनाक हैं। हमें घर, स्कूल, कार्यालय सभी संदर्भों में मानवीय मूल्यों स्थापित करना होगा। साथ ही समाज में फैले विश्वासों, प्रथाओं और अनेक तरह के भ्रम जाल से भी निपटना होगा। इसके लिए विद्यालय की शिक्षा के साथ ही जन शिक्षा के सघन अभियान की आवश्यकता है। मीडिया के प्रभावी उपयोग से इस तरह का बदलाव लाया जा सकता है।
इन दिनों जीवन की गति धीमी पड़ गयी है और नौकरी पेशा लोगों ही नहीं स्कूली बच्चों के दैनिक कार्यक्रम का बंधा-बंधाया ढांचा या रुटीन भी ढीला पड़ने लगा है। थोड़े से अवकाश के लिए भी तरस जाने वाले और अपने को अति व्यस्त महसूस करने वाले लोगों को इतनी लम्बी अवधि तक लगातार घर पर बैठना नये ही किस्म का अनुभव साबित हो रहा है। काम-धाम का विस्तार कम हो कर जीवन की भौतिक जरूरत की चीजें जुटाने तक सिमट गया है। समय के अनुभव को नये ढंग से पहचानने, संगठित करने और पुन:परिभाषित करने की चुनौती का समाधान करते हुए सृजनात्मक दृष्टिकोण अपनाने पर ही व्यर्थता की जगह सार्थकता की अनुभूति हो सकेगी। इस कठिन घड़ी में हम किस तरह प्रतिक्रिया करते हैं यह इस पर भी निर्भर करता है कि हम इस परिस्थिति को किस रूप में ग्रहण करते हैं और कितनी सक्रियता और सावधानी के साथ सामने आ रही चुनौतियों का सामना करते हैं। इसे एक अनिवार्य तनाव की विवशता मानना जीवन को और मुश्किल में डालेगा। इसकी जगह साहस, आशा, संतोष और लचीले दृष्टिकोण के साथ ही इस अदृश्य शत्रु का मुकाबला करना जीवन की संभावनाओं का विस्तार करेगा। इनके साथ ही उभर रही अनिश्चय की स्थिति से उबर सकेंगे। हम सभी अनुभव कर रहे हैं कि व्यक्तिगत स्वार्थ की जगह सामाजिक जीवन को समृद्ध करने और पृथ्वी की रक्षा के लिए त्याग अधिक जरूरी है ताकि प्राकृतिक व्यवस्था पर अतिरिक्त दबाव न पड़े। यह कठिन क्षण हम क्या हैं और क्या कर सकते हैं इस बारे में सोचने को मजबूर कर रहा है। संक्रमण के शिकंजे से मुक्त होने के लिए दृढता के साथ संकल्प लेना होगा।
.