मुगल-ए-आजम का विचार पक्ष
मुगल-ए-आजम वह फिल्म थी जो सबके सर चढ़ कर बोली थी। साठ साल पहले। सन साठ में। महीना था अगस्त। तारीख थी पांच। रिलीज हुई थी यह फिल्म। केवल हिन्दी नहीं, भारतीय सिनेमा की पेशानी पर लिखी गयी इबारत है मुगल-ए-आजम। इस फिल्म का निर्माण हो, रिलीज हो या फिर असर, सब बेमिसाल इतिहास है। ऐसा इतिहास जिसे दोहराया नहीं जा सका है अब तक।
इस फिल्म को बनाया था के आसिफ ने। यह उनके जीवन का एक ड्रीम प्रौजेक्ट था। कोई भी ड्रीम प्रौजेक्ट चट मंगनी पट ब्याह की गति से कब अंजाम पाता है। कहाँ उसका मंजिल से दीदार हो पाता है। उस तरन्नुम में भी नहीं हो सकता था जिसमें आमतौर से फिल्में बन जाया करती थीं। इस फिल्म की रचना अपने रचे जाने के समय में ही किंवदंती बन गयी थी। कोई कहता है पंद्रह साल लगे, कोई दस तो कोई सात। दिलीप कुमार ने एक वीडियो में छह साल बताया था। इस का एक मतलब होता है कि छह सालों में उनकी शूटिंग पूरी हुई। के. आसिफ सन चौवालीस से ही लग गये थे जबकि।
इस फिल्म का रिलीज होना भी एक बेमिसाल घटना थी। जिस हॉल में इस फिल्म का प्रीमियर शो हुआ था वहाँ इस फिल्म के लिए तैयार शीश महल का सेट लगाया गया था। दर्शकों के सीधे सीधे अनुभव के लिए। दिलीप कुमार ने उसे मेगा इवेंट बताया है। हालांकि दिलीप कुमार वहाँ मौजूद नहीं थे। अपने पारिवारिक सबब से। कहा जाता है कि दिलीप कुमार ने दस साल बाद देखी थी फिल्म। जहाँ प्रीमियर शो हुआ वहाँ यह फिल्म तीन साल तक लगातार चलती रही। लोग ऐसे लट्टू थे। वह हॉल था मराठा मंदिर।
यह फिल्म बनी थी एक नाटक से हौसला पा कर। लिखा था इमतियाज अली ताज ने। वह उर्दू का नाटक था। लिखा था उन्नीस सौ बाइस में। संयोग देखिए के. आसिफ की पैदाइश भी बाइस की थी। जैसे दोनों एक साथ पैदा हुए हों एक दूजे के लिए। फिल्म मुगल-ए-आजम का स्क्रिप्ट और संवाद लिखने के लिए चार लोगों की टीम बनी थी। अमनउल्लाह, वजाहत मिर्जा, कमाल अमरोही और एहसान रिजवी। अमनउल्लाह जीनत अमान के पिता थे।
यह फिल्म महज एक फिल्म नहीं है। एक क्लासिक कृति है। मकसदशुदा। वह मकसद ए हौसला क्या रहा होगा कि आसिफ किसी दीवाने की तरह जलते रहे इस अदब की आग में? वह था इंकलाब। यही वह आग थी जो धधक रही थी के. आसिफ के जिगर में। मुगल-ए-आजम एक इंकलाबी फिल्म थी, एक दीगर इंकलाबी फिल्म। मुहब्बत के लिबास में इंकलाब। मुहब्बत इंकलाब बनी।
गौर करिये फिल्म के अफसाने पर, कथा विन्यास पर, चरित्रों के चित्रण पर, उनके संवादों पर। इस फिल्म के चार मुख्य किरदार हैं। अकबर, सलीम, अनारकली और संतरास। इनके साथ और दो किरदार हैं, उन्हें नहीं भूलना है। वे हैं दो राजपूत। एक जोधा और दूसरा एक सैनिक। इनमें सबसे महत्वपूर्ण किरदार है संगतराश। यह फिल्म उसकी आंख से बनी है। उसकी आंख एक कलाकार की आंख है। वे चेतना के पैगामी हैं। संवाहक हैं।
चूंकि मुगल-ए-आजम में अकबर एक चरित्र है, जाहिर है कि फिल्म अकबर के समय की पृष्ठभूमि में है। इस फिल्म के सलीम को समझने के लिए यह जरूरी है अकबर के शासनकाल की दो एक बातें जान लें। बातें जान लेने से सलीम और फिल्म दोनों को समझने में आसानी होगी। याद में यह रखना है कि अकबर का ही वह शासन समय है जिसमें सात समंदर पार से व्यापार होने लगा था। यह विदेश व्यापार की शुरुआत था हिंदोस्तान में। बकायदा आमद और रफ्तानी दोनों होने लगे थे। आमद रफ्तानी माने आयात निर्यात। एक ओर यह था तो दूसरी ओर हिंदोस्तान में बाजार की नींव रखी जा चुकी थी और पनपाया जा रहा था। अकबर के समय में ही बाजार और दीन-ए-इलाही का कांसेप्ट आया था। मुगल-ए-आजम में अकबर को दीन ए इलाही कह कर सम्बोधित किया गया है। सलीम इसी की छाया में वयस्क हो रहे थे।
अकबर और सलीम में संघर्ष है। आमना सामना है। यह मुठभेड़ सत्ता पर नियन्त्रण या हस्तांतरण के लिए नहीं है। अकबर और सलीम में व्यक्तित्व का संघर्ष है। सलीम अपने वजूद की तलाश में है। वह व्यक्ति की आजादी और अपना खुदमुख्तार होने की लड़ाई लड़ रहा है। चूंकि यह वाकया सलीम के हवाले से आया है, कह सकते हैं हिंदुस्तान की माटी पर व्यक्तित्व का उदय इसी बाजार की छाया में सोलहवीं शताब्दी में होने लगा था।
अब आते हैं अनारकली पर। अनारकली राज दरबार की लौंडी है। यानी आज की भाषा में वह हाशिए की जमात से थी। काबिले नजर यह है कि अनारकली सलीम से बीस है वजूद के मामले में। अगर आप बीस पर मुहर न लगा पा रहे हों, तो उन्नीस तो किसी सूरतेहाल नहीं है। बराबर की छोरी है। मेरी नजर में तो वह बीस क्या, ईक्कीस- बाइस है।
छोरी अनारकली का जज्बा देखिए। भरी महफिल में अकबर के सामने बुलंदी के साथ घोषणा करती है,” प्यार किया तो डरना क्या…” स्क्रीन पर अनारकली की आवाज में यह गीत उस समय का घोषणा पत्र बन जाता है। पूरे भारतीय समाज की यह आवाज बन जाती है। सन साठ में आई यह फिल्म उस समय की पीढ़ी की ताकत बन गयी। समाज का शास्त्र बदलने लगा। बदल भी गया।
कह सकते हैं कि इस फिल्म के सलीम और अनारकली के ऐसा बनने में उस समय में पनप रहा बाजार का प्रभाव है। उस समय बाजार के साथ चेतना भी आई थी। अब वही बाजार उस मुकाम पर पहुंच गया कि मनुष्य के अस्तित्व को ही कुचल रहा है। कुचल चुका है। बाजार का बाजा कुछ ऐसे बज रहा है अब कि आदमी का बाजा बज गया है।
जब भी मुगल-ए-आजम देखता हूं, सोचता हूं कि इस फिल्म का केंद्रीय पात्र कौन है? क्या आप भी ऐसा सोचते हैं? जब भी यह प्रश्न टकराता है कि संगतराश आकर सामने खड़ा हो जाता है।
याद है आपको संगतराश की? भुलाया न जा सकेगा इसे। यह भी हो सकता है कि आप उसे मिस कर रहे हों, आसपास ढूंढ रहे हों और वह आपको मिल न रहा हो। मिलेगा कैसे? वैसा चरित्र अब ढूंढे नहीं मिलता है।
यह वही संगतराश है जिसने फिल्म में अंत की तरफ एक गीत गाया था, “मुहब्बत जिंदाबाद”। यह संगतराश और कोई नहीं, अकबर की सल्तनत का संगतराश है। गुमनामी में रहता है। वीराने में रहता है। मगर उसकी सोच देखिए। सोच समझने के लिए उसकी वे दो मूर्तियां देखिए, जो फिल्म में दिखलाई गयीं हैं।
एक मूर्ति वह है जिसके लिए संगतराश बताता है कि शहंशाह का कहा गया एक एक शब्द आदेश है। न्याय है। उसका इशारा यह पढ़ा जाना है यहाँ कि न्याय की कोई समुचित पद्धति नहीं है। दूसरी प्रतिमा जो वह दिखाता है वह है हाथी से कुचले जाने का। इसका आशय अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता की मांग है।
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यही दो दर्द हैं जो के आसिफ को मथते रहे मुगल-ए-आजम बनाने के लिए। और वो हर हाल में इसे बनाते हैं। कहा जा सकता है कि संतरास ही वह है जो के. आसिफ की सोच का प्रतिनिधि चरित्र है। इसी ने अपनी आत्मा सलीम और अनारकली में डाल दी है। प्यार को प्रतिरोध की ताकत बना दी।
पहली नजर में यह मुहब्बत की फिल्म है, लेकिन किसने नहीं समझा है कि यह इंकलाब की फिल्म है। आधुनिक मिजाज की फिल्म है। यही वह ताकत है कि यह फिल्म अभी भी दीवाना बना लेती है।
प्रसंगेतर ही सही, याद रखने लायक एक बात है यह है कि यह सन साठ है। इसी सन साठ में निर्मल वर्मा का पहला कहानी संग्रह परिंदे आया था। परिंदे कहानी आधुनिकता की परिणति की कहानी है।