मित्रता और संस्कृति
मैथिली शरण गुप्त जी ने बहुत ही खूबसूरती से निम्नलिखित पंक्तियों मे मित्रता को परिभाषित किया है:
‘तप्त हृदय को, सरस स्नेह से,
जो सहला दे, मित्र वही है।
रूखे मन को, सराबोर कर,
जो नहला दे, मित्र वही है।
प्रिय वियोग ,संतप्त चित्त को ,
जो बहला दे , मित्र वही है।
अश्रु बूँद की, एक झलक से ,
जो दहला दे, मित्र वही है’।
आज अन्तर्राष्ट्रीय मित्रता दिवस है। यह पर्व दुनिया के कई देशों में मनाया जाता है। 1958 मे पहली बार अन्तर्राष्ट्रीय मित्रता दिवस प्राग, चेक गणराज्य की राजधानी, से प्रस्तावित किया गया था। हालाँकि कुछ लोग इसकी शुरुआत 1930 के जोइस हॉल के हालमार्क कार्ड से मानते हैं। संयुक्त राष्ट्र ने आधिकारिक रूप से 30 जुलाई को अन्तर्राष्ट्रीय मित्रता दिवस घोषित किया था। परन्तु भारत में यह अगस्त महीने के पहले रविवार को मनाया जाता है। इस दिन लोग अपने मित्रो को बधाई और उपहार देते हैं। और मित्रों के मिलने का एक बहाना तो मिलता ही है। परुन्तु इस कोरोना काल में सोशल दूरियों को बरकार रखते हुए शायद इसका उत्साह फीका हो जाये। यह दिन सोशल मीडिया पर भी प्रमुखता से मनाया जाता है, जहाँ लोग अपने मित्रों को लाइक, कमेंटस और पोस्ट करते हैं। और सैकड़ों मीम को शेयर करते हुए अपने मित्रता के भावों को प्रगट करते हैं।
मित्रता मानव अनुभवों का एक जरूरी अंग है। इसमे जीवन के प्यार और नैतिकता के साथ-साथ भौतिक, लौकिक और वास्तविक प्रसंग भी आते हैं। पुराने मित्र का होना और नई मित्रता का बनना मानव समाज के रोज़मर्रा जीवन का अभिन्न अंग है। बावजूद इसके, मित्रता के सम्बन्धों को और बाकी रिश्तों से, जैसे की नातेदारी, आर्थिक और राजनैतिक सम्बन्धों से कमतर आँका जाता है।
मित्रता क्या है? मित्रता वह सम्बन्ध है जो की बायोलॉजी पर निर्भर नहीं होता परुन्तु केवल सामाजिक सम्बन्धों द्वारा ही बनता है। इसका मतलब है कि मित्रता एक ऐसा सम्बन्ध है, जिसे हम स्वयं बनाते हैं। जबकि बाकी सारे रिश्ते जन्म के साथ ही बन जाते हैं। जैसे कि हमारे भाई-बहन, माता-पिता, दादा-दादी, चाचा-चाची, इत्यादि नातेदारी तो हमारे जन्म पर ही निर्धारित होती है। इन सब सम्बन्धों के बनाने और चुनने में हमारा योगदान नहीं होता। हाँ इन सम्बन्धों को निभाने में जरुर होता है। पर मित्रता के चुनाव, सम्बन्धों को बनाने और निभाने सभी पहलुओं के लिए मित्रों का दोतरफा योगदान जरुरी है।
मित्रता वह भावना है जो दो व्यक्तियों के हृदयों को आपस में जोड़ती है। जिसका सानिध्य हमें सुखद लगता है। व्यक्ति अपने मित्र के साथ स्वयं को सहज महसूस करता हैं, इसलिए अपने मित्र से अपना दुख-सुख बाँटने में ज़रा भी संकोच नहीं करता। मित्र से अपना दुख बाँटकर उसका विषाद धुएँ का गुब्बार बन कर दूर उड़ जाता है, और वह स्वयं को हल्का महसूस करने लगता है। इसेक विपरीत, कोई सुख या ख़ुशी को बाँटकर मित्र उन भावनाओं की अनुभूतियों मे कई गुना बढ़ोतरी कर लेता है। वैसे तो कहा जाता है कि मित्रता में जाति, धर्म, उम्र तथा स्तर नहीं देखा जाता। लेकिन सबसे प्रगाढ़ दोस्ती हमउम्र के लोगों के बीच ही होती है। जिसमे एक साथ एक समय अन्तराल को जीने का अनुभव भी साथ-साथ रहता है।
वैदिक काल से ही मित्रता के विशिष्ट मानक माने जाते रहें हैं। जहाँ रामायण काल में राम और निषादराज, सुग्रीव और हनुमान की मित्रता प्रसिद्ध रही है। वहीँ महाभारत काल में कृष्ण-अर्जुन, कृष्ण-द्रौपदी और दुर्योधन-कर्ण की मित्रता नवीन प्रतिमान गढती रही है। कृष्ण और सुदामा की मित्रता की तो आज तक मिसाल दी जाती है। जहाँ दोनों ने अमीर और गरीब के बीच की दीवारों को तोड़कर मित्रता निभाई थी।
वैसे तो जीवन में मित्रता बहुतों से होती है लेकिन कुछ के साथ अच्छी बनती है जिन्हें सच्चे मित्र की संज्ञा दी जा सकती है। तुलसीदासजी ने भी लिखा है “धीरज, धर्म, मित्र अरु नारी; आपद काल परखिये चारी। अर्थात जो विपत्ति में सहायता करे वही सच्चा मित्र है।
वही रहीम सच्चे मित्र की विशेषता को निम्नलिखित दोहे में वयक्त करतें हैं।
मथत-मथत माखन रहे, दही मही बिलगाय।
‘रहिमन’ सोई मीत है, भीर परे ठहराय॥
रहीम कहते है कि सच्चा मित्र सदा संकट में साथ निभाता है। सच्चे मित्र की पहचान यही है कि वह संकट आने पर कभी अपने मित्र का साथ नहीं छोड़ता। जिस प्रकार दही को बार-बार मथने पर दही और मट्ठा तो अलग हो जाते हैं किन्तु मक्खन वही स्थिर रहता है। तात्पर्य यह है कि सच्चा मित्र मक्खन के सामान अपने मित्र के सदा साथ रहता है।
आचार्य रामचन्द्र शुक्ल ने मित्रता के बारे मे कहा है कि क्यूँ कि व्यक्ति को अपना मित्र चुनने की स्वतन्त्रता है तो उसे अपने मित्र सदैव अच्छे से जाँच-परख कर ही चुनने चाहिए। एक व्यक्ति मे सब बातें अच्छी ही अच्छी मानकर अपना पूरा विश्वास नहीं जमाना चाहिए। ज्यादातर नौजवान लोग हंसमुख चेहरा, बातचीत का ढंग, थोड़ी चतुराई या साहस-ये ही दो चार बातें किसी में देखकर उसे अपना मित्रा बना लेते है। वे लोग नहीं सोचते कि मैत्री का उद्देश्य क्या हैं। तथा जीवन के व्यवहार में उसका कुछ मूल्य भी है। एक प्राचीन विद्वान का वचन है- “विश्वासपात्र मित्र से बड़ी भारी रक्षा रहती है। जिसे ऐसा मित्र मिल जाये उसे समझना चाहिए कि खजाना मिल गया।” विश्वासपात्र मित्र जीवन की एक औषधि है।
यही कारण है कि मित्रता एक सार्वभौमिक सम्बन्ध है। इसकी मौजूदगी हर एक संस्कृति मे पायी गयी है। किन्तु इसका प्रकार हर एक संस्कृति में भिन्नता लिए हुए प्रतीत होता है। देसाई और किल्लिक अपनी 2010 की संकलित पुस्तक मे मित्रता के इसी विवद्धता को अलग-अलग संस्कृतियों मे खोजने का प्रयास करतें है। अलग-अलग मानव वैज्ञानिक अध्ययनों द्वारा ये पुस्तक मित्रता के बारे में कुछ बहुत ही जरूरी प्रश्न करती है। जैसे की विभिन्न संस्कृतियों मे मित्रता को कैसे देखा जाता है? उन संस्कृतियों की मित्रता के बारे मे क्या विचारधाराएँ हैं? और वो इस संदर्भ मे कैसा व्यवहार करतीं हुई दिखतीं हैं?
पुस्तक के मुख्य बिन्दु है कि मित्रता और नातेदारी मे क्या समानता है और क्या भिन्नता है। पुस्तक मे एक अध्याय के लेखक माइकल ओबेड बताते हैं कि कैसे लीबिया मे शहर के लोग मित्रता को नातेदारी से बढ़कर समझते हैं। क्योंकि इसमे नातेदारी वाली बन्दिशें नहीं होतीं हैं। इसमे वह रीति और रिवाजों कि हथकड़ियाँ भी नहीं हैं, जिनसे नातेदारी बंधीं होतीं है। और कैसे मित्रता के सामाजिक सम्बन्धों मे एक स्थायित्व, स्थिरता और टिकाऊपन है जिनका नातेदारी के सम्बन्धों मे सदैव ही अभाव रहता है।
इसी पुस्तक मे एक अन्य अध्याय के लेखक पेग्गी फ़्रोरर ने मध्य भारत के आदिवासी गाँव मे बच्चो की मित्रता का अध्ययन किया है। वो कहतीं हैं कि यहाँ मित्रता एक अवसर है क्यों कि यह नातेदारी नहीं है। यहाँ पर मित्र चुनने का अधिकार है। और कैसे यह आदिवासी बच्चे अपने चुनने के अवसर का प्रयोग कर के अपने मित्रों का चुनाव अपनी नातेदारी, जाती व्यवस्था, उम्र और लिंग से दूर रह कर करते हैं। यह आदिवासी बच्चे अपनी मित्रता चुनने मे स्वतंत्र हैं। वह यह भी बतातीं है कि कैसे इन आदिवासी समुदायों मे भौगोलिक स्थितियाँ और भौतिक नज़दीकियों की सीमाएँ निर्धारित करतीं हैं कि कौन हमारा मित्र है और कौन नहीं।
जब मित्रता की बात हो तो आज के परिपेक्ष्य मे आभासी (virtual, social network’s friends) मित्रों का बयान भी नितान्त आवश्यक हो जाता है। आभासी मित्रता एक ऐसी मित्रता होती है जहाँ हम सिर्फ और सिर्फ भावनाओं से जुड़े होते हैं। यहाँ किसी भी प्रकार का स्वार्थ नहीं जुड़ा होता। बहुत से लोगों का मत है कि आभासी दुनिया की मित्रता सिर्फ लाइक कमेंट पर टिकी होती है। यह सत्य भी है। किन्तु यदि हम सकारात्मक दृष्टि से देखेंगे तो यह लाइक और कमेंट ही हमें आपस में जोड़तें हैं। क्यों कि पोस्ट, लाइक्स और कमेंट्स ही व्यक्ति के व्यक्तित्व को उजागर करता है। जिनमें हम वैचारिक समानता तथा शब्दों में अपनत्व को महसूस करते हैं और मित्रता को एक शारीरिक रूप मिलता है।
यह भी सही है के इसके कुछ नकारात्मक पहलू भी हैं। कभी कभी ऐसा भी देखा गया है कि आभासी दुनिया की मित्रता में बहुत से लोग ठगी के शिकार हो जाते हैं। इस लिए मित्रों के चयन में सावधानी बरतना अत्यंत आवश्यक है। चाहे वह आभासी मित्रता हो या फिर धरातल की। किसी भी प्रकार के मित्रता हो, लोगों की मानसिकता एक-सी ही होती है। दुनिया मे अच्छे और बुरे लोग हर जगह हैं। सोशल मीडिया पर जो हैं वो भी इसी दुनिया के हैं। यह तो खुशी की बात है कि यहां बहती ज्ञान गंगा में सबकी पहचान जल्द हो जाती है।
एक तरफा मित्रता नहीं हो सकती है। और न ही वह उपयुक्त ही मानी जाती है। मित्रता में यदि कोई सबकी हर बात की चिन्ता करे, सलाह दे, उनकी हर खुशी और गम में शरीक हो पर उसके सुख-दुःख से किसी को कभी कोई वास्ता ही न रहे तो एक दिन यह भी होता है कि ऐसे इंसान मित्र नहीं, धीरे-धीरे सबसे विमुख हो हमेशा के लिए दूर चले जाते हैं। इसीलिए मित्रता दो तरफ़ा ही अच्छी होती है। मित्रता एक खूबसूरत बन्धन है जो हमें एक दूसरे से जोड़ कर हमें मजबूती का एहसास कराता है।
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