महात्मा गाँधी की भाषा दृष्टि
गाँधी के जीवन में भाषा को लेकर पहली उलझन तब पैदा हुई जब वे चौथी कक्षा में थे। अपनी आत्मकथा में उन्होंने एक संस्मरण के जरिए बताया है कि किस तरह भूमिति जैसा प्रिय विषय अँग्रेजी माध्यम की वजह से उबाउ लगने लगा था और मन में यह ख्याल आने लगा था कि फिर पीछे की कक्षा में वापस लौट जाना चाहिए। लेकिन, लज्जा वश यह नहीं हो सका और फिर प्रयत्न पूर्वक यूक्लिड के तेरहवें प्रमेय तक पहुँचते पहुँचते यह बात स्पष्ट हो गयी कि भूमिति तो सरलतम और सरस विषय है। दरअसल उन्हें यह समझते देर नहीं लगी कि समस्या विषय में नहीं थी उस भाषिक माध्यम में थी जिसने विषय तक पहुँचने के सरल रास्ते को भी जटिल बना दिया था। शिक्षा के क्षेत्र में पराई भाषा कितनी बड़ी बाधा होती है यह बात गाँधी जी बचपन में ही समझ गये थे।
मुझे इस बात का संतोष है कि गाँधी जी की डेढ़ सौवीं वर्षगांठ मनाते हुए हमने नयी राष्ट्रीय शिक्षा नीति में प्राथमिक शिक्षा के स्तर पर माध्यम के रूप में मातृभाषा का जो निर्णय लिया है उससे बेहतर श्रद्धांजलि गाँधी के प्रति कुछ भी नहीं हो सकती थी।
गाँधी ने चौथी कक्षा में ही संस्कृत का भी सामना किया था। भूमिति की अपेक्षा संस्कृत इसलिए कठिन लगी क्योंकि उसमे समस्या रटने की थी। संस्कृत के शिक्षक प्रायः कड़े मिजाज के भी होते थे। गाँधी जी के भी संस्कृत शिक्षक अपवाद नहीं थे। उन्होंने भारी मन से स्वीकार किया है कि छठी कक्षा तक आते आते वे संस्कृत से हार गये। फारसी और संस्कृत के बीच टकराव का एक किस्सा भी उन्होंने सुनाया है और उनके यहाँ इस बात का आत्म स्वीकार भी है कि जो थोड़ी बहुत संस्कृत कृष्ण शंकर मास्टर की कृपा से हासिल हुई उसी की वजह से संस्कृत शास्त्रों में थोड़ा बहुत रस ग्रहण करने की काबिलियत पैदा हो सकी।
अपने बचपन के अनुभवों के आधार पर गाँधी जी ने अपनी आत्मकथा में ही लिखा है कि , “भारत वर्ष की उच्च शिक्षा के पाठ्यक्रम में मातृभाषा के अतिरिक्त राष्ट्रभाषा हिन्दी, संस्कृत, फारसी, अरबी, और अँग्रेजी का स्थान होना चाहिए। भाषाओं की इस संख्या से किसी को डरना नहीं चाहिए।”
वे भाषा शिक्षण में एक पद्धति पूर्ण शैली के विकास की ज़रूरत समझते थे जिससे विषयों को अँग्रेजी के जरिए समझने का बोझ खत्म हो और अलग अलग भाषाओं को सीखने की प्रक्रिया आनन्द मय हो। दुनिया के बड़े भाषा वैज्ञानिकों ने स्वीकार किया है कि अपनी मातृभाषा में दक्ष लोग ही दूसरी भाषाएँ आसानी से सीख और समझ सकते हैं। यह लगभग उसी तरह की सोच है कि जो अपनी माँ से या देश से प्यार नहीं करेगा उससे दूसरे की माँ या देश के प्रति सम्मान की उम्मीद कैसे की जा सकती है? लेकिन सिर्फ एक भाषायी समाज में पैदा हो जाने मात्र से भाषा पर अधिकार नहीं हो जाता बल्कि भाषाएँ अभ्यास और अनुशासन द्वारा अर्जित किए जाने की अपेक्षा रखती हैं।
गाँधी जी ने लिखा है कि, “जो व्यक्ति एक भाषा को शास्त्रीय पद्धति से सीख लेता है, उसके लिए दूसरी का ज्ञान सुलभ हो जाता है। “
भारत की विभिन्न भाषाओं के बीच अंतर्निहित सांस्कृतिक सम्बन्ध को रेखांकित करते हुए उन्होंने लिखा कि, “असल में तो हिन्दी, गुजराती, संस्कृत एक भाषा मानी जा सकती हैं। इसी तरह फारसी और अरबी एक मानी जाएँ। यद्यपि फारसी संस्कृत से मिलती जुलती है और अरबी का हिब्रू से मेल है, फिर भी दोनों का विकास इस्लाम के प्रकट होने के बाद हुआ है, इसलिए दोनों के बीच निकट का सम्बन्ध है। उर्दू को मैंने अलग भाषा नहीं माना है, क्योंकि उसके व्याकरण का समावेश हिन्दी में हो जाता है। उसके शब्द तो फारसी और अरबी ही हैं। ऊंचे दर्जे की उर्दू जानने वाले के लिए अरबी और फारसी का ज्ञान जरूरी है, जैसे उच्च प्रकार की गुजराती, हिन्दी, बंगला, मराठी जानने वाले के लिए संस्कृत जानना आवश्यक है।”
अपने बचपन के प्राथमिक विद्यालय के अनुभव से पैदा हुआ विचार गाँधी को सिर्फ आत्मकथा लिखने के समय ही नहीं पैदा हुआ था बल्कि इस किताब के लगभग दो दशक पूर्व ‘हिन्द स्वराज’ में भी शिक्षा और भाषा की मुश्किलों से वे टकरा रहे थे। ‘हिन्द स्वराज’ में भी उन्हें इस बात को लेकर कोई भ्रम नहीं था कि, “हमें अपनी सभी भाषाओं को उज्ज्वल- शानदार बनाना चाहिए। हमें अपनी भाषा में ही शिक्षा लेनी चाहिए – इसके क्या मानी है, इसे ज्यादा समझाने का यह स्थान नहीं है। जो अँग्रेजी पुस्तकें काम की हैं, उनका हमें अपनी भाषा में अनुवाद करना होगा। बहुत से शास्त्र सीखने का दम्भ और वहम हमें छोड़ना होगा।”
गाँधी जी धार्मिक शिक्षा के विरोधी नहीं थे। बल्कि, समर्थक थे। वे धार्मिक भावनाओं को साम्प्रदायिक सौहार्द का आधार मानते थे। गाँधी जी इस बात से भली भांति वाकिफ थे कि कोई भी धार्मिक भाव हमें किसी से नफरत करने का उपदेश नहीं देते इसलिए धार्मिक शिक्षा देश को जोड़ने में उपयोगी होती है। उन्होंने लिखा है कि, “सबसे पहले तो धर्म की शिक्षा या नीति की शिक्षा दी जानी चाहिए। हर एक पढ़े लिखे हिन्दुस्तानी को अपनी भाषा का, हिन्दू को संस्कृत का , मुसलमान को अरबी का, पारसी को फारसी का और सबको हिन्दी का ज्ञान होना चाहिए। ” ध्यान रहे कि गाँधी हिन्दी को किसी मजहब की भाषा नहीं मानते थे। मजहब से किसी भाषा का रिश्ता नहीं होता। भाषा और धर्म के बीच सम्बन्ध सूत्र स्थापित करना वैसे तो विवाद का विषय है लेकिन गाँधी जिस भाषिक धार्मिक अस्मिता की बात करते हैं वह एक लम्बी सांस्कृतिक परम्परा द्वारा अर्जित एक सामान्य स्वाभाविक पहचान है जिसमें कुछ अपवादों के बावजूद असहमति की गुंजाईश कम बचती है । गाँधी यहीं पर नहीं रुकते। वे इस प्रश्न को आगे बढ़ाते हुए भारतीय भाषाओं में राष्ट्र निर्माण की संभावनाओं की तलाश करते हैं।
भक्ति आन्दोलन और संत साहित्य के एक सच्चे मुरीद के रूप में उन्होंने महसूस किया था कि भारत के सांस्कृतिक इतिहास का ताना बाना धर्म और भाषाओं के मिले जुले प्रयास का परिणाम है। लिखते हैं कि, “उत्तरी और पश्चिमी हिन्दुस्तान के लोगों को तमिल सीखनी चाहिए। सारे हिन्दुस्तान के लिए जो भाषा चाहिए, वह तो हिन्दी ही होनी चाहिए। उसे उर्दू या नागरी लिपि में लिखने की छूट रहनी चाहिए। हिन्दू मुसलमानों के सम्बन्ध ठीक रहें, इसलिए बहुत से हिन्दुस्तानियों का इन दोनों लिपियों को जान लेना जरूरी है। ऐसा होने से हम आपस के व्यवहार में अँग्रेजी को निकाल सकेंगे। “
अँग्रेजी को निकालने की बात गाँधी के लिए क्यों जरूरी थी इसका सबसे बड़ा कारण स्वराज की लड़ाई थी। वे इस बात से चकित थे कि अपने देश में वे लोग भी जो अँग्रेजों से मुक्ति पाना चाहते हैं वे अँग्रेजी की मोह माया से इस कदर जकड़े हुए हैं कि स्वराज की बात भी अँग्रेजी में करते हैं। अँग्रेजी को अपना श्रृंगा मानने वालों के पाखण्ड पर गाँधी ने लिखा कि, “आपको समझना चाहिए कि अँग्रेजी शिक्षा लेकर हमने अपने राष्ट्र को गुलाम बनाया है। अँग्रेजी शिक्षा से दम्भ, राग, जुल्म वगैरा बढ़े हैं। अँग्रेजी शिक्षा पाए हुए लोगों ने प्रजा को ठगने में, उसे परेशान करने में कुछ भी उठा नहीं रखा है। अब अगर हम अँग्रेजी शिक्षा पाए हुए लोग उसके लिए कुछ करते हैं तो उसका हम पर जो कर्ज चढ़ा हुआ है उसका कुछ हिस्सा भी हम अदा करते हैं। ” अपने देश में शिक्षा की ही नहीं न्याय की भाषा भी अँग्रेजी ही रही है। गाँधी के लिए इससे बड़े जुल्म की बात कुछ भी नहीं हो सकती थी कि इंसाफ पाने के लिए भी अँग्रेजी भाषा के उपयोग की लाचारी हो। न्याय अगर अपने देश में महंगा, देर और दूर का विषय हुआ है तो इसमें सबसे बड़ी भूमिका पराई भाषा अँग्रेजी की है।
वाल्मीकि के राम राज्य में अगर एक लाचार कुत्ता भी न्याय पाने में सफल हुआ था इसका कारण सत्ता और जनता के बीच सीधा जुड़ाव था। न्याय प्रक्रिया को जटिल और आम आदमी की पहुँच से दूर करने में अँग्रेजी की कितनी बड़ी भूमिका थी इसे उसी पेशे से जुडे़ गाँधी से बेहतर कौन समझ सकता है। उन्हें अपने पेशे से जुड़ी विवशता का इलहाम था -“बैरिस्टर होने पर मैं स्वभाषा में बोल ही नहीं सकता! दूसरे आदमी को मेरे लिए तर्जुमा कर देना चाहिए! यह कुछ कम दम्भ है? यह गुलामी की हद नहीं तो और क्या है? इसमें मैं अँग्रेजों का दोष निकालूँ या अपना? हिन्दुस्तान को गुलाम बनाने वाले तो हम अँग्रेजी जानने वाले लोग ही हैं। राष्ट्र की हाय अँग्रेजों पर नहीं पड़ेगी, बल्कि हम पर पड़ेगी। “
गाँधी ने अपने समय के इंग्लैंड में देखा था कि वहाँ वेल्स जैसे छोटे प्रान्तों की भाषाओं में भी आत्मविश्वास आ रहा था और वे अँग्रेजी की जगह अपनी मातृभाषा को ज्यादा तरजीह देने के पक्ष में थे। यही नहीं स्वयं अँग्रेजी वाले अपनी भाषा की कमजोरी की चर्चा कर रहे थे और वहाँ के ऑक्सफोर्ड और कैम्ब्रिज जैसे विश्विद्यालय लम्बे समय से अँग्रेजी को शिक्षा का माध्यम बनाने में या तो हिचकिचा रहे थे या फिर बनाकर पछता रहे थे। फिर वे इस बात से भी चिंतित थे कि मेकाले ने जिस शिक्षा की बुनियाद डाली थी, वह सचमुच गुलामी की बुनियाद थी। ‘हिन्द स्वराज’ और’ सत्य के साथ मेरे प्रयोग’ के ठीक बीच गाँधी की भाषा दृष्टि के दो साक्ष्य उनके दो भाषणों में मिलेंगे।
पहला भाषण 1916 का है जो काशी हिन्दू विश्वविद्यालय के स्थापना समारोह में दिया गया था। भारतीय राजनीति में गाँधी के प्रवेश का वह क्रन्तिकारी प्रस्थान बिंदु था। उन्होंने एक तीर से तीन शिकार किए थे। पहला निशाना ब्रिटिश साम्राज्यवाद था तो दूसरा भारतीय सामन्तवाद और तीसरा निशाना उस साम्राज्यवाद और इस सामन्तवाद के बीच का वह अवसरवादी गठबंधन था जो अपने अपने फायदों के लिए देश की लाचार जनता को शोषण और दमन के कुचक्र के जाल में फंसाकर आपस में अँग्रेजी में युगलबन्दी कर रहा था।
गाँधी ने देश के हुक्मरानों और अपने को दानवीर समझने वाले राजाओं की उपस्थिति में अँग्रेजी में चलने वाले उस कार्यक्रम में हिन्दी में भाषण देकर भी देश के स्वाधीनता आन्दोलन और कांग्रेस की राजनीति को एक नया सन्देश दिया।। वास्तव में यह कितने आश्चर्य की बात थी कि जिस धरती को रैदास, कबीर और तुलसी से लेकर भारतेन्दु, प्रेमचन्द और प्रसाद जैसे लोगों ने सुशोभित किया हो उस धरती पर बनने वाले विश्विद्यालय का शिलान्यास कार्यक्रम अँग्रेजी में हो? गाँधी के लिए यह असह्य था। उन्होंने बाकी सभी चीज़ों के अलावा हिन्दी के पक्ष में आवाज उठाकर उसी पाखण्ड से पर्दा उठाया जिसकी चर्चा उन्होंने ‘हिन्द स्वराज’ में की थी।
दो साल बाद इंदौर के हिन्दी साहित्य सम्मेलन के मंच से उन्होंने हिन्दी को राष्ट्रभाषा बनाने की माँग की। गाँधी जिस गुजरात से थे उस गुजरात के स्वामी दयानन्द सरस्वती ने 1875 में हिन्दी में ‘सत्यार्थप्रकाश ‘ लिखकर यह सन्देश पूरे देश को दे दिया था कि देश के सामाजिक, सांस्कृतिक जागरण में हिन्दी की कितनी बड़ी भूमिका हो सकती है। गाँधी जी भारतीय नवजागरण के नक़्शे कदम पर चलते हुए भारत के सामाजिक , सांस्कृतिक जीवन के साथ साथ राजनीतिक जीवन में हिन्दी की ऐतिहासिक भूमिका और उपयोगिता को लेकर आश्वस्त थे। इंदौर से ही उन्होंने देश के उन पाँच क्षेत्रों में हिन्दी दूत भेंजने की जरुरत समझी थी जिन क्षेत्रों में हिन्दी को लेकर संशय और संकट था। दक्षिण भारत में हिन्दी को लेकर उनको इसलिए भी ज्यादा उम्मीद थी कि ऐतिहासिक और सांस्कृतिक कारणों से वहाँ उर्दू पहले से मौजूद थी।
वे इस बात से अनजान नहीं थी कि हिन्दी का एक सिरा दकनी से जुड़ा हुआ है और हिन्दी उत्तर भारत से कहीं ज्यादा समृद्ध दक्षिण में रही है। दकनी के पाँच सौ साल पुराने इतिहास से भी गाँधी अपरिचित नहीं थे। दक्षिण भारत में हिन्दी की बात पर गाँधी पर जो लोग संदेह कर रहे थे उनको राहुल सांकृत्यायन ने बाद में समझा दिया कि गाँधी की भाषा दृष्टि सिर्फ भावना पर ही नहीं इतिहास की समझ पर आधारित थी। नरसी, मीराबाई , कबीर और तुलसी की कविताओं से उन्होंने समझा था कि भारत की बहुभाषिकता उसकी ताकतहा है। कमजोरी नहीं। गाँधी भारत की भाषाओँ को एक ऐसी माला के रूप में देखते थे जिनका धागा और मनका ही नहीं मन भी एक दूसरे के से ह्रदय से जुड़ा हुआ है ।
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