मुक्त छन्द से छन्दमुक्ति तक
हिन्दी कविता में छन्द और लय या के हासिये पर जाने का रूपक कुछ वर्ष पहले देखने में आया था। सन् 2005 के ‘आलोचना’ के ‘सहस्राब्दी अंक उन्नीस-बीस’ में देवीप्रसाद की एक लम्बी कविता छपी है- ‘हर इबारत में रहा बाकी’। पूरी कविता छन्द-मुक्त है। इसे ‘मुक्त छन्द’ नहीं कह सकते क्योंकि आगे हम देखेंगे कि मुक्त छन्द अलग है, छन्द-मुक्त अलग। विशेष मन्तव्य से कविता के हासियों पर देवीप्रसाद ने दो-दो चार-चार पंक्तियाँ छान्दसिक लय के साथ दी हैं। कवि शायद रूपक की भाषा में यही कहना चाहता है कि अब छन्द हासिये पर चला गया है। मुख्य धारा के रूप में छन्दहीन कविता विराजमान हो गयी है। गीत, नवगीत, ग़ज़ल दोहा आदि की समानान्तर विपुल रचना के बावजूद आलोचकों ने इन विधाओं के अस्तित्व को जिस रूप में अनदेखा किया है और इन्हे आज प्रयुक्त होने वाली ‘कविता’ संज्ञा के दायरे से जिस रूप में बाहर रखा है, वह इसी रूपक का प्रतिबिम्ब है।
‘छन्दमुक्त काव्य’ पद के प्रयोग से कुछ सवाल खड़े होते हैं। क्या ‘छन्दमुक्त काव्य’ का वही अर्थ है, जो ‘छन्दरहित काव्य’ का है? परिणाम की दृष्टि से तो इस स्थापना को मान लेने में कोई हर्ज़ नहीं है कि छन्दमुक्त काव्य छन्दरहित भी है लेकिन छन्दरहितता जहाँ एक ‘स्थिति’ है, वहीँ छन्दमुक्ति एक ‘प्रक्रिया-सापेक्ष घटना’ है। छन्द से मुक्ति में एक सायासता है। हिन्दी कविता छन्द से चल कर ‘छन्द-मुक्त काव्य’ के सोपान तक कैसे पहुँची, इसे समझने के लिए मुक्त छन्द को ही नहीं, कविता में छन्द की स्थिति को भी जानना होगा।
संस्कृत के आचार्यों को साक्ष्य मानें तो ‘छन्दमुक्त’ अवधारणा असम्भव और अनुपस्थित है। उनके अनुसार छन्द की व्याप्ति केवल कविता तक नहीं और न ही यह केवल पद्य-रचना का पर्याय है। भरत का कथन है: “छन्दोहीनो न शब्दोस्ति, न छन्दः शब्दवर्जितम् ।” (‘नाट्यशास्त्र’ 14.45)। निरुक्त में छन्द के बिना वाक् के उच्चरित न होने तक की बात कही गयी है। जयकीर्ति तो यह भी मानते हैं कि: “छन्दोभाग्वाङ्मयं सर्वं न किञ्चिच्छन्दसां विना।” (छन्दोनुशासन-1.2) अर्थात– सम्पूर्ण वाङ्मय छन्द से युक्त है, छन्द के विना कुछ नहीं। परन्तु पिंगल शास्त्र में ‘छन्द’ शब्द जिस रूप में रूढ़ होता चला गया है, उसे “मात्रा, वर्ण, यति, गति के नियमों से उत्पन्न लय–विधान” के रूप में ही निर्धारित किया जाता रहा है। यह रोचक तथ्य है कि इस रूप में संस्कृत कव्य-शास्त्र में छन्द को कविता का अनिवार्य तत्त्व तो कहीं भी घोषित नहीं किया गया है पर प्राचीन भारतीय काव्य में छन्दरहित कविता की कोई लम्बी परम्परा नहीं मिलती।
भ्रान्तिवश कभी-कभी तुक को छन्द के साथ जोड़ कर देखा जाता रहा है। यह भ्रान्ति ‘blank verse’, verse libre’ तथा ‘free verse’ के बीच के अन्तर को न समझने से उत्पन्न होती है। फ़्रांसिसी भाषा में प्रयुक्त पद verse libre और अंग्रेजी के free verse — दोनों के लिए हिन्दी में मुक्त छन्द का प्रयोग होता रहा है लेकिन अमेरिका स्थित फ्रांसीसी कवि-आलोचक तौपीन इन्हें समानार्थी नहीं मानते क्योंकि फ्रांसीसी भाषा प्रत्येक बोले जाने वाले अक्षर को बराबर वजन देती है, जबकि अंग्रेजी अक्षरों में बलाघात के अनुसार मात्रा में भिन्नता होती है। इससे दोनों की प्रकृति में अन्तर आता है। हिन्दी में इस अन्तर को हम इसलिए नज़रअन्दाज़ कर सकते हैं क्योकि मुक्त छन्द का मूल अभिप्राय यहाँ असमान भार युक्त, तथापि लयवती, पंक्तियों से है।
मुक्त छन्द पारम्परिक छन्द के समानान्तर एक भिन्न छन्द-व्यवस्था है, जबकि तुक एक आनुप्रासिक सौन्दर्य-व्यवस्था है। यह छन्द का अनिवार्य धर्म नहीं है। इसी लिए संस्कृत काव्य में तुकान्त काव्य नगण्य है। blank verse अर्थात् अतुकान्त पद्य में प्राय: छन्द का शास्त्रीय ढाँचा रहता है लेकिन उसमें अन्त्यानुप्रास का निर्वाह नहीं होता। हिन्दी में ‘प्रिय प्रवास’, ‘प्रेम पथिक’ और ‘उर्वशी’ अतुकान्त लेकिन छन्दोबद्ध पद्य काव्य के उत्तम उदाहरण कहे जा सकते हैं। मुक्त छन्द और छन्दमुक्त का एक ही अर्थ में प्रयोग करना भी भ्रान्त धारणा है। मुक्त छन्द में छन्द की उपस्थिति तो अनिवार्यत: रहती है, इसमें मध्यानुप्रास अथवा अन्त्यानुप्रास की न अनिवार्यता है; न निषेध। बस छन्द के शास्त्रीय बन्धनों से मुक्ति रहती है। इसी लिए इसे स्वच्छन्द छन्द भी कहा गया।
मुक्ति वहाँ छन्द का एक विशेषण भर है जबकि ‘छन्दमुक्त’ पद में ‘मुक्त’ एक परिघटनापरक अर्थ देता है और किसी पूर्वत: बद्ध स्थिति के रज्जुओं के खुलने का संकेतक है। छन्द का विरोध करने वाले अनेक विद्वान अपने तर्क के पक्ष में निराला के काव्य को छन्दहीन घोषित कर इसी भ्रान्ति का परिचय देते हैं। मुक्त छन्द की भरपूर उपस्थिति के बावजूद निराला की एक भी पंक्ति छन्दरहित अतएव छन्दमुक्त नहीं है। उनकी कई मुक्त छन्द रचनाओं के मूल में वही लय-व्यवस्था है, जो ‘राम की शक्तिपूजा’ या ‘सरोज-स्मृति’ में है।
पश्चिम में मुक्त छन्द की उपस्थिति तो बाइबल के अनुवाद आदि में मध्य काल से ही रही लेकिन उसे लोकप्रिय बनाने में वाल्ट व्हिटमैन की भूमिका प्रमुख है। जुलाई 1855 में उनकी एक विवादित एवं चर्चित पुस्तक छपी थी- ‘लीव्स ऑफ़ ग्रास’। विवाद का एक महत्त्वपूर्ण पक्ष इसका मांसल शृंगार-चित्रण तो था ही, मुक्त छन्द का प्रयोग भी इसके चर्चित होने का कारण था। पुस्तक का शीर्षक ही प्रतीकात्मक है। ये प्रतीक विषयपरक भी हैं और शिल्पपरक भी। वाल्ट व्हिटमैन ने शीर्षक के रूपकत्व को व्याख्यायित करते हुए लिखा था कि जिस प्रकार घास की पत्तियाँ छोटी-बड़ी होती हैं, उसी प्रकार मेरी कविता की पंक्तियाँ भी छोटी-बड़ी हैं। यूरोपीय कविता में मुक्त छन्द को लोकप्रियता बनाने वाला यह पहला बड़ा कदम था।
छन्द की रूढ़ियों के प्रति वाल्ट व्हिटमैन ने पहला विद्रोह किया। उन्होंने अमेरिका के छन्दानुशान को विजातीय कहा। वे मानते हैं कि मुक्त छन्द ने कविता के बहिरंग को ही नहीं बल्कि उसके अन्तरंग को भी बदला है। उन्होंने यह भी कहा कि जीवन की प्रत्येक घटना काव्य का विषय हो सकती है। उत्तर आधुनिक युग में समस्त संरचना को टेक्स्ट के रूप में देखने के बीज इसमें हैं। वाल्ट व्हिटमैन का तब बहुत विरोध हुआ। उनके काव्य को ‘wild, irregular, unrhymed, almost unmetrical lengths’ जैसी गद्य-विशेषताओं से विभूषित किया गया तथापि व्हिटमैन ने कविता को नयी लयवत्ता से संपन्न किया। वाल्ट व्हिटमैन से पहले जर्मन कवि हेनरिक हेइन की ‘डाई नॉर्ड सी’ (द नॉर्थ सी) की 1825-1826 में लिखी और ‘बुक डर लिएडर’ (बुक ऑफ़ सांग्स) के रूप में 1827 में प्रकाशित 22 कविताओं ने से मुक्त छन्द के विकास में महत्वपूर्ण योग दिया था।
फ्रांसीसी साहित्य में अनियमित स्वर-ताल का उपयोग करते हुए 1890 में प्रकाशित डर्नियर वर्स” में गुस्ताव कान और जुल्स लाफोरगू ने मुक्त छन्द को विशेष रूप से अपनाया। अंग्रेजी नई कविता के आधारस्तम्भ रहे इलियट, हल्मे और एजरा पाउण्ड का हिन्दी के प्रयोगवाद और नई कविता कविता के कथ्य और शिल्प पर विशेष प्रभाव पड़ा। टी. ई. हल्मे ने 1908 में प्रकाशित “ए लेक्चर ऑन मॉडर्न पोइट्री” में मुक्त छन्द और बिम्बवाद पर बल दिया। प्रयोगवाद और नई कविता की छन्द-व्यवस्था को प्रभावित करने वाले अमेरिकी कवि एलन गिन्सबर्ग पर भी वाल्ट व्हिटमैन के मुक्त छन्द का प्रभाव था। बीसवीं शताब्दी का हिन्दी साहित्य कथ्य और शिल्प दोनों दृष्टियों से यूरोपीय साहित्य से न केवल प्रेरणा ग्रहण कर रहा था, बल्कि प्रभावित भी हो रहा था।
बीसवीं शताब्दी के प्रारम्भ में ही जब यूरोपीय कविता में मुक्त छन्द प्रयोग के साथ कथ्यपरक परिवर्तन न्ही हुए। प्रतीकवाद, बिम्बवाद, अस्तित्ववाद, मनोविश्लेषणवाद, दादावाद, अतियथार्थवाद जैसी प्रवृत्तियाँ इसी दौर में उभरीं। प्रयोगवाद और नई कविता हिन्दी कविता का आनुपातिक रूप से यूरोपीय कविता से सर्वाधिक प्रभावित होने वाला काल कहा जा सकता है। कथ्य की यह अनुकरणपरकता छान्दसिक बन्धनों के बीच असुविधाजनक थी। तब हिन्दी कविता ने यूरोपीय कविता के विषयों के साथ उसके शिल्प का भी अनुकरण किया। उसमें दृश्य-रूप में छन्दमुक्त ढाँचा अनुकरण का पहला कदम था। यहाँ तक कि छन्दोबद्ध यूरोपीय काव्य का अनुवाद छन्दमुक्त रूप में ही किया गया क्योंकि छन्द तुलनात्मक रूप में अननुवाद्य है। हिन्दी कविता के मुक्त छन्द की और बढ़ने के जो दो अलग-अलग और स्पष्ट ऐतिहासिक कारण हैं, उनमें से एक यह है।
हिन्दी कवि द्वारा मुक्त छन्द के स्वीकार का एक बड़ा कारण छायावादी कवियों की विद्रोही चेतना थी लेकिन इस परिवर्तन में अनुकरण की अपेक्षा एक नई सृजनधर्मिता थी जो निश्चित रूप से प्रयोगवाद की पूर्ववर्ती है। मुक्त छन्द की सैद्धान्तिक चर्चा से एक दशक पूर्व ही 1916 में निराला की ‘जूही की कली’ प्रकाशित हो चुकी थी। इसी के साथ मुक्त छन्द की स्वच्छन्द प्रवृत्ति का परिहास भी आरम्भ हो गया था और इसे रबड़ छन्द, केंचुआ छन्द, कंगारू छन्द जैसे हास्यास्पद पदों से विडम्बित किया गया। यद्यपि स्वच्छन्दता का एक गौरव इसके साथ जुड़ गया था, तथापि मात्रात्मक दृष्टि से 1943 तक, अर्थात ‘तारसप्तक’ के प्रकाशन तक, इसका प्रयोग अल्प ही हुआ है। प्रतिष्ठित कवियों में तो निराला और प्रसाद के अतिरिक्त प्राय: अन्य ने मुक्त छन्द का प्रयोग नहीं किया यहाँ तक की पन्त तो “छन्द के बन्ध” टूटने की घोषणा भी पारम्परिक छन्द में करते हैं।
हिन्दी में मुक्त छन्द की सैद्धान्तिक चर्चा का आरम्भ सूर्यकान्त त्रिपाठी ‘निराला’ और सुमित्रानन्दन पन्त ने ही किया। पन्त ने 1926 में प्रकाशित ‘पलल्व’ के ‘प्रवेश में सवैय्या छन्द की मूल संरचना को ग्रहण कर उससे मुक्त छन्द के निर्माण की प्रक्रिया पर प्रकाश डाला है और अपने काव्य से इसके उदाहरण भी दिये। निराला इस प्रकरण पर ‘परिमल’ की भूमिका में और ‘पन्त और पल्लव’ में गम्भीरतापूर्वक विचार करते हैं। पन्त की स्थापनाओं को विस्थापित तो करते हुए वे मुक्त छन्द का आधार सवैय्या की अपेक्षा कवित्त छन्द को मानते हैं और उसे ही हिन्दी का औरस छन्द कहते हैं। ‘परिमल’ की भूमिका में वे लिखते हैं- “मनुष्यों की मुक्ति की तरह कविता की भी मुक्ति होती है। मनुष्यों की मुक्ति कर्म के बन्धन से छुटकारा पाना है और कविता की मुक्ति छन्दों के शासन से अलग हो जाना है।” निराला मानते हैं कि “मुक्त छन्द तो वह है, जो छन्द की भूमि में रहकर भी मुक्त है। इस पुस्तक (‘परिमल’) के तीसरे खण्ड में जितनी कविताएँ हैं, सब इसी प्रकार की हैं। इनमें कोई नियम नहीं। केवल प्रवाह कवित्त छन्द का-सा जान पड़ता है। कहीं-कहीं आठ अक्षर आप-ही-आप आ जाते हैं। मुक्त छन्द का समर्थक उसका प्रवाह ही है। वही उसे छन्द सिद्ध करता है और उसका नियमराहित्य उसकी ‘मुक्ति’।
“छन्द के साथ ‘नियमराहित्य’ को जोड़ कर निराला हिन्दी कविता को एक बड़े परिवर्तन की दहलीज तक ले आते हैं। निराला हिन्दी के मुक्त छन्द के प्रयोक्ता कवियों के भी प्रेरणास्रोत हैं और छन्दमुक्त रचना करने वाले कवियों के भी क्योंकि वे कविता में सबसे अधिक महत्त्व भाव को देते हैं। निराला के कथनों से बहुत साफ़ है कि पारम्परिक छान्दसिक व्यवस्था से उनका विपथन बहुत तार्किक और सौदेद्श्य है। उनकी घोषणा है: “भावों की मुक्ति छन्दों की मुक्ति चाहती है।” इसीलिए वे अपनी कविताओं के बारे में कहते हैं: “यहाँ भाषा, भाव और छन्द तीनों स्वछन्द हैं।” हमने छन्द के सन्दर्भ में जिस सर्जनात्मकता का पहले उल्लेख किया है, निराला के ये कथन उसी को प्रमाणित करते हैं। वे यह भी मानते हैं कि भाव की सघनता के क्षणों में कुशल कवि के लिए छन्द तो स्वत: वश:व्रती हो जाता है, जबकि भावरहितता छन्दोबद्ध होकर भी काव्य नहीं बन पाती। उनका यह कथन क्रान्तिकारी है: “जहाँ मुक्ति रहती है, वहाँ बन्धन नहीं रहते, न मनुष्यों में न कविता में। मुक्ति का अर्थ ही है बन्धनों से छुटकारा।”
छन्द के मूलार्थ हैं: “आच्छादित करने वाला” और “आह्लादित करने वाला”। निराला से बड़ा मुक्त छन्द का कोई अधिवक्ता हिन्दी में नहीं है लेकिन अपने मुक्त छन्द में वे छन्द के दोनों मूलार्थों को स्थान देते हैं। “औरों को प्रसन्न करने के लिए” सापेक्ष स्वच्छन्दता का सूचक है, उच्छृंखल निरंकुशता का नहीं। साथ ही निराला की कविता की बुनावट छन्द के आच्छादन अर्थ की भी वाहक है। एक और महत्त्वपूर्ण बात। निराला ने कविता की मुक्ति छन्दों के ‘शासन’ से अलग हो जाने में मानी है, ‘अनुशासन’ से नहीं। यह अनुशासन ही मुक्त छन्द को छन्दमुक्त से अलग करता है। इसलिए निराला यह भी मानते थे कि छन्द को तोड़ने का अधिकार उसी को है, जो छन्द रच सकता है।
निराला के वक्तव्य प्रयोगवाद और नई कविता के कवियों की विद्रोही मानसिकता के सर्वथा अनुकूल थे। उनकी ‘नई राहों के अन्वेषण’ की चाह और नकार-वृत्ति मुक्त छन्द तक नहीं रुकी। क्रमश: वह छन्दमुक्ति की ओर बढ़ने लगी। तभी अर्थ की लय के सन्धान की बात उठी। मुक्त छन्द के प्रचलन में कविता में छन्द के प्रयोग की स्थिति को पहले ही बदल डाला था। अब क्रमशः बल वर्णों अथवा मात्राओं की संख्या पर न देकर पद-न्यास पर, उससे उत्पन्न होने वाली लय पर दिया जाने लगा। संरचना की दृष्टि से भाषा की व्यापक अर्थपरक इकाई प्रोक्ति है। भाषा में अवरोहात्मक क्रम में वाक्य, उपवाक्य, पद एवं शब्द जैसी अर्थपरक इकाइयों का निर्माण अन्ततः ‘निरर्थक’ ध्वनियों से हुआ है। परंतु ध्यान रखना होगा कि स्वतन्त्र रूप में अर्थ की वाहक न होकर भी ध्वनियाँ संवेदनात्मक सन्दर्भों से जुड़ी हैं क्योंकि वे काव्य-गुणों का निर्माण करती है। ध्वनियों का विशिष्ट संयोजन ही लय एवं छन्द के स्वरूप को निर्धारित करता है। जब चरण-सापेक्ष पारम्परिक छन्द-योजना का रिश्ता कविता से टूटने लगा तो समग्र कविता की लय को पहचानने की प्रक्रिया शुरू हुई और उसीसे उसके छन्द के निर्धारण को सम्भव माना गया।
अज्ञेय ने तब छन्द का सम्बन्ध अन्तर्वस्तु से जोड़ कर लिखा: ‘‘हमारे सामने यह प्रश्न आता है कि इन नयी लयों की पहचान हमें कैसे हो, कैसे हमारी अपनी रचना में उतरे। लेकिन अनुभव के इस साक्ष्य के अलावा एक और बात भी ध्यान में रखने की है। …कविता के क्षेत्र में भी हमने पहचाना कि भावों का, काव्यगत अनुभवों का भी तनाव घटता-बढ़ता है, कभी संकुल और कभी विरल होता है। जिन अनुभवों से हम गुजरते हैं, जो भाव हमारे भीतर उमड़ते हैं, वे भी कभी बड़ी तेजी से होते हैं और कभी बड़ी धीमी गति से, अतएव अगर हम अपनी लय को, अपने भावों को, अपने अनुभव के साथ जोड़ना चाहते हैं तो उस लय के भीतर भी ऐसी सम्भावना होनी चाहिए कि कभी उसमें सघनता आये और कभी विरलता।’’
निश्चितत: अज्ञेय लय की यह उपस्थिति कविता के अर्न्तगत मान रहे हैं। वे गद्य की अलग संरचना के प्रति सचेत हैं क्योंकि वे गद्य में लय की उपस्थिति मानते हुए भी उसकी छान्दसिक सत्ता अस्वीकार करते हुए लिखते हैं: ‘‘गद्य की एक लय होती है, यह मान लेने में तो मुझे कठिनाई नहीं है लेकिन गद्य का एक छन्द होता है यह मैं बिना परिभाषित व्याख्या से स्वीकार नहीं करूँगा…छन्द की चर्चा में प्रायः उन चीजों का उल्लेख होता है जिन्हें हमने अर्थात् समकालीन कवियों ने छोड़ दिया। वे चीजें पहले छन्द का अंग मानी जाती थीं। एक-एक करके हम पहचान गये कि इनके बिना भी हमारा काम चल सकता है लेकिन लय पर आकर हम अटक गये। हमने माना कि लय के बिना काम नहीं चलता अर्थात् अगर कविता है तो लय है, अगर लय नहीं है तो काव्य और गद्य में भेद का आधार नहीं रहता।’
सन् 1940 के बाद हिन्दी कविता में मुक्त छन्द और छन्द-मुक्त दोनों शैलियों का प्रचलन आरम्भ होता है यद्यपि अज्ञेय, मुक्तिबोध, धर्मवीर भारती और नरेश मेहता जैसे कई बड़े कवियों में बल मुक्त छन्द पर अधिक है, छन्द-मुक्त पर कम तथापि आगामी पीढ़ी विद्रोह और नकार के प्रतीक के रूप में छन्द का भी विरोध करती है जिससे कविता की छन्द से दूरी क्रमश: बढ़ती जाती है।
समानान्तर रूप से प्रवाहित नवगीत और ग़ज़ल धारा को छोड़ कर कविता ने पहले मुक्त छन्द की और फिर छन्द-मुक्त की डगर पर तेजी से पाँव बढ़ा दिए। धूमिल तक यद्यपि मुक्त छन्द की लयवती रचनाएँ सामने आती रहीं लेकिन 1970 के बाद हिन्दी कविता का वह हिस्सा, जिसे एक तकनीकी नाम ‘कविता’ दे दिया गया है, मुक्त छन्द का भी आवरण उतार फेंकता है और उसकी भंगिमा शुद्ध गद्यपरक हो जाती है। अब उसके लिए छन्दमुक्त संज्ञा ही समीचीन रह जाती है। बाद के कवियों को अज्ञेय की लय-संसक्ति भी स्वीकार्य नहीं रही। यह भी (कु)तर्क दिया जाने लगा कि जब जीवन में ही लय नहीं तो कविता में लय कैसे संभव है? विशेषकर ‘अकविता’ ने कविता के नाम ठस गद्य परोसना शुरू कर दिया।
स्पष्ट है कि 1940 के बाद की हिन्दी कविता की रचना-प्रक्रिया को छन्द के बदलते स्वरूप को समझे बिना नहीं जाना जा सकता। कविता में छन्द की एक भूमिका अन्विति लाने की और उसके माध्यम से पाठक को कविता से जोड़ने की थी। छन्द के त्याग के साथ नए कवि के सामने अन्विति का यह सवाल आया तो आरम्भ में उसने सघन बिम्बात्मकता का सहारा लिया। अज्ञेय और मुक्तिबोध की कविता का ‘टोन’ यद्यपि नितान्त भिन्न है तथापि बिम्बसर्जना की भिन्न शैलियों के बावजूद बिम्बों के प्रति इन दोनों कवियों की आसक्ति स्पष्ट है। चाहे अज्ञेय की छोटी-छोटी कवितायें हों या मुक्तिबोध की दीर्घ कवितायें, इनमें छन्द से मुक्ति के प्रयास में बिम्बों का एक संसार रचा गया है।
हिन्दी कविता जब सपाटबयानी को अपना कर रघुवीर सहाय के साथ बिम्बों के निविड़ वन से बाहर निकल कर आती है तो भाषा में गद्य की लय इस अन्विति का सहारा बनती है। पर 1970 के बाद की छन्दमुक्त कविता अधिकाधिक गद्योन्मुखी हो जाती है तब न शब्द की लय प्रासंगिक रह जाती है और न अर्थ की लय। निस्संदेह समकालीन कविता पर गद्य का दबाव बढ़ा है। रामस्वरूप चतुर्वेदी की आधुनिक कविता विषयक पुस्तक के अध्यायों के अधिकांश शीर्षकों में ‘गद्य शब्द का प्रयोग सन् 50 के आसपास की कविता पर गद्य के दबाव के सूचक हैं। अब कविता का संघर्ष गद्य और मुक्त छन्द को आत्मसात कर के भी बचे रहने का अर्थात् लय की सारी व्यस्थाओं को तोड़कर भी निरा गद्य न बन जाने का है। रघुवीर सहाय और धूमिल जैसे कवि कविता को ‘निरा गद्य’ होने से बचाते हैं पर उनके बाद स्थिति बहुत बदल जाती है।
छन्द के त्याग के साथ कविता में कथ्य पर बल बढ़ा और वह टिप्पणीपरक तथा विश्लेषणपरक होती गई। नए कवियों ने छन्द को छोड़ने के कई तर्क दिए। इस वाद-विवाद में छन्द की मनमानी व्याख्याएँ भी की जाने लगीं लेकिन इस बौद्धिक विवाद की कोई कविता को सार्थक रचनात्मक प्राप्ति उतनी नहीं हुई। इसका मूल कारण कविता से अभ्यास और परिष्कार का निष्कासन था। लेकिन अन्तत: छन्दमुक्ति को हिन्दी कवि ने अनिवार्य घोषित कर दिया। चंद्रकान्त देवताले का यह कथन कुछ ऐसा ही है: “छन्द से मुक्त होना आधुनिक कविता की नियति थी। उसी तरह जैसे इसका इस्तेमाल पुराने कवियों की। छन्द की केंचुल को कविता ने अपनी परम्परा में ही उतारा है। निराला और मुक्तिबोध जैसे बड़े कवियों ने इसकी चिन्ता नहीं की और जहाँ तक व्यापक सम्प्रेषणीयता का सवाल है तो छन्दहीनता नहीं, इसके लिए अन्य कई कारण हैं जिनके चलते व्यवधान आये हैं। छन्दमुक्ति हमारे समय की आकांक्षाओं और सामाजिक चिन्ताओं के दबाव का परिणाम है।”
छन्द के छूट जाने के बाद कविता की भाषिक संरचना में बहुत अन्तर आया है। छन्द-मुक्ति शब्दों के चुनाव की अधिक स्वतन्त्रता देती है। इससे भाषा को एक व्यापकता तो मिली ही है, उसमे एक सहजता का आगमन भी हुआ है। कुछ स्थितियों में छन्द और लय के बन्धन भाषा को कृत्रिमता की ओर ले जाते है। लय का सहारा छूट जाने के बाद कवि के सामने भाषा को अधिक प्रभावी बनाने की चुनौती आयी। भाषा का प्रासंगिक मुहावरा गढ़ने और सम्प्रेषण को सशक्त बनाने का दायित्व आया। छन्द-मुक्ति का सबसे बड़ा खतरा कवियों का अभ्यास-निरपेक्ष हो जाने का है। समकालीन कविता अक्सर सृजनात्मक संश्लिष्टता को प्राप्त किये बिना अखबारी टिप्पणी या विश्लेषणात्मक निबन्ध बन जाती है। शब्दों की मितव्ययिता पर कम कवियों का ध्यान है।
पारम्परिक छन्द अक्सर कविता की आकारगत सीमा तय कर देता है। चरण और पद इस आकार के निर्धारक होते हैं। मुक्त छन्द को अपना कर विन्यास आधारित रूप-रचना ने कविता के इस आकारपरक ढाँचे को तोड़ दिया था। तो भी उसकी लयाश्रितता के कारण प्राय: पंक्तिगत विस्तार का एक निर्धारित माप रहता था। लेकिन छन्दमुक्त कविता में एकमात्र निर्धारक तत्त्व व्याकरण रह गया। इसलिए गिरधर राठी आदि कवियों ने उसे गद्य की तरह दण्डक रूप में लिखना शुरू कर दिया। अन्य ने स्वेच्छा से पंक्तियों को तोड़ कर लिखना शुरू किया। इस यादृच्छिकता के परिणामस्वरूप गद्य और कविता का व्यावहारिक अन्तर समाप्त हो गया। इसी कारण इसे सीढ़ीदार गद्य भी कहा जाने लगा।
‘जुही की कली’ के प्रकाशन से अब तक हिन्दी कविता में मुक्त छन्द का प्रचलन सौ वर्षों से अधिक का हो चुका है। छायावाद के बाद आलोचकों का ध्यान छन्दमुक्त कविता पर केंद्रित रहा। इसका दुष्परिणाम यह हुआ कि इसके समानान्तर रचे गए विपुल काव्य नवगीत और गजल को आलोचकों ने अनदेखा कर दिया। स्पष्टत: यह स्थिति सामयिक हिन्दी कविता की समृद्धि की अपेक्षा दरिद्रता की संकेतक अधिक है।