कउड़ा
रामपुर की रामकहानी –9
मुंशी प्रेमचंद की प्रसिद्ध कहानी है ‘कफन’, जिसमें बाप बेटे- घीसू और माधव अपनी झोंपड़ी के बाहर अलाव में भुना हुआ आलू खा रहे हैं और बेटे की जवान बहू बुधिया प्रसव- वेदना से रह- रह कर चीख रही है। प्रसव वेदना से चीखते -चिल्लाते वह झोंपड़ी में ही मर जाती है और ये दोनो बाप- बेटे भुने हुए आलू खाकर अलाव के पास ही सो जाते हैं।
इस कहानी को पढ़ने के बाद मैं वर्षों तक प्रेमचंद को यथार्थवादी कथाकार मानने को तैयार नहीं था। मैंने देखा है, गाँव के लोग इतने बेरहम नहीं होते। चाहे जितने भी गरीब हों, यदि किसी के घर की बहू प्रसव पीड़ा से कराह रही हो तो गाँव भर की स्त्रियाँ उसे घेर लेंगी। देख- भाल दवा-दारू में लग जाएंगी। बच्चा जनने या दर्द से निजात दिलाने के लिए उनके पास तरह- तरह के नुस्खे होते हैं। दर्द से कराहती स्त्री को वे अकेला कभी नहीं छोड़ेगी। घर के पुरुष भी घीसू-माधव की तरह नहीं होते। वे अपनी बहू को बचाने में कुछ भी उठा नहीं रखते। बहुत बाद में मैं समझ सका कि दरअसल प्रेमचंद यह बताना चाहते हैं कि शोषण पर आधारित हमारी व्यवस्था ही ऐसी है जिसके कारण घीसू और माधव जैसे काहिल, कामचोर और बेरहम पैदा होते हैं। सारा दोष हमारी व्यवस्था का है।
किन्तु प्रेमचंद की कहानी का इतना अर्थ मैं तत्काल समझ गया था कि अलाव की आँच में ऐसी चुम्बकीय शक्ति होती है जिसके समीप आने वाला हर इन्सान उससे चिपकता ही चला जाता है। स्त्री-पुरुष हों या बच्चे, सबके कपड़ों का कोई न कोई कोना अलाव में जला हुआ मिल जाता था। जलने की गंध से पता चलता था कि उनका ओढ़ा हुए चद्दर, साड़ी का पल्लू या पैजामे की डोरी अलाव की आग में जल रही है। वे जल्दी-जल्दी बुझाते। एक बार अलाव के किनारे बैठ जाने के बाद उसे छोड़कर जाना बड़ा कठिन होता था। इसीलिए जिन्हें जल्दी होती थी वे खड़े- खड़े ही पाँव सेंक लेते थे। हालाँकि, झिंगुरी काका के रहते यह संभव नहीं था। एक बार तो ठंढ से ठिठुरते गया के पैर पर उन्होंने कईन के टुकड़े से मार दिया था, “अगिनदेवता को पैर दिखा रहे हो ?” छनमना कर रह गए थे गया।
हमारे यहाँ अलाव को ‘कउड़ा’ कहते हैं। घीसू और माधव की तरह मैं भी कउड़ा में भुने हुए आलू का दीवाना था। जाड़े के मौसम में जब दरवाजे पर कउड़ा लगता था तो बगल के खेत में नया आलू भी तैयार होने लगता था। मैं सबेरे-सबेरे बिस्तर से उठते ही खेत में जाता, घोहे में से खोदकर आलू निकाल लाता और उसे भूनने के लिए कउड़ा के भीतर धान की भूँसी वाली आग में डाल देता। घंटे भर में आलू भुनकर तैयार हो जाता। कउड़ा में भुने हुए आलू का सोंधापन अद्भुत होता। गरमा गरम इस आलू को हम नमक से खाते अथवा चोखा बना लेते। इस आलू के चोखे में हम नमक, हरा मिर्च, लहसुन के पत्ते और धनिया और सोया के पत्ते की पिसी हुई चटनी डालते और थोड़ा सा कड़ुआ तेल। हमारे जैसे अधिकाँश लोगों को इस तरह का चोखा मिल जाने के बाद और किसी तरह की सब्जी की जरूरत नहीं पड़ती।
कउड़ा जाड़े में ठंढ से बचने का सबसे सरल और अमोघ साधन तो था ही, कउड़ा की पूरी एक संस्कृति थी। मेरे बाऊजी के जीवन का बड़ा हिस्सा कउड़ा के किनारे आग तापने बीत गया किन्तु वह आग तापने वाला समय कभी व्यर्थ नहीं गया। किसान के जीवन में खाली हाथ बैठने के लिए कोई जगह नहीं थी। किसान के जीवन का मंत्र था, “ ऊठ S त कोड़ S बइठ S त चिखुर S” और किसानों के घर की महिलाओं के लिए, “ए बहुरिया साँस ल S, ढेंका छोड़ S जाँत ल S “। यानी, आराम करने का अर्थ था काम का बदलाव। ऐसे काम का चयन जिसमें काम करने वाले अंगों को आराम मिल जाय। खेत की गोड़ाई खड़े होकर ही की जा सकती है, इसलिए थकान लगने पर बैठ जाने और बैठकर घास चिखुरने का सुझाव दिया गया है ताकि कमर और पैर को आराम मिल सके और काम भी होता रहे। इसी तरह ढेंकी पर धान कूटने का काम खड़े- खड़े ही किया जा सकता है लिहाजा यदि थकान हो जाय तो जाँत पर बैठकर आटा पीसने का काम कीजिए इससे पैर को भी आराम मिलेगा और आटा पीसने का काम भी होता रहेगा।
हमारे गाँवों की बड़ी से बड़ी समस्याओं का समाधान कउड़ा के किनारे बैठे- बैठे हो जाता था। बेटे- बेटियों की शादियाँ, परिवार से लेकर गाँव-जवार के आपसी झगड़े, खेतों- पशुओं आदि की खरीद- बिक्री, वर्षों से चले आ रहे पट्टीदारी के झगड़े, कउड़ा तापते और बतकही करते हल।
मैं जब थोड़ा बड़ा हो गया तो कउड़ा लगाने की जिम्मेदारी मेरी हो गई। बल्कि यों कहें कि मैने खुद आगे बढ़कर वह जिम्मेदारी ले ली थी। असल में कउड़ा लगाने में मुझे बड़ा मजा आता था। जाड़ा शुरू होते ही कउड़ा लगने लगता था और फगुआ के बाद तक बिना नागा वह रोज लगाया जाता था। सबसे पहले घर के दरवाजे के आस- पास कहीं भी उपयुक्त जगह देखकर कउड़ा के लिए गड्ढा खोदा जाता था- गोल आकार में लगभग पौन फुट गहरा। एक बार गड्ढा खोद देने के बाद वह पूरे सीजन भर इस्तेमाल होता था। मौसम बीतने के साथ- साथ वह गड्ढा मिट्टी से भर दिया जाता था और अमूमन वही गड्ढा अगले सीजन में फिर दुबारा इस्तेमाल होता था।
कउड़ा लगाने का काम मैं शाम को दिन डूबने से आधा घंटा पहले ही शुरू कर देता था। सबसे पहले उस गड्ढे में गोहरा को तोड़कर आवश्यकतानुसार डालता, उसके ऊपर धान की भूँसी, फिर पइया धान का कुछ अंश, फिर पुरकेसा और अंत में सबसे ऊपर पुआल अथवा पेड़ों के सूखे पत्ते या गन्ने के सूखे पत्ते आदि। कउड़ा तैयार करने के बाद उसमें आग लगाता-बड़ी शान से। जब कउड़ा धधक कर जलने लगता तो आस-पास के लोग अपने आप खिंचते चले आते। शंकर भैया, गया, दुखी काका, राम नयन, बड़कू भैया और कभी- कभी उपधिया के टोले से झिंगुरी काका। यद्यपि इनमें से अधिकाँश घरों में कउड़ा लगता था किन्तु बतकही की लालच सबको अमूमन मेरे घर खींच लाती। मेरा घर सबके बीच में पड़ता था और मैं खूब रुचि से कउड़ा भी लगाता था। डर के मारे मेरे रोएं खड़े जाते थे जब राम बिरिछ भैया पुरनका टोला के बँसवारी में रहने वाली चुड़ैल का आँखो देखा हाल बयान करने लगते। उन्होंने उसे देखा है, ऐसा उनका दावा था। वे कहते, “वह काली भुजट्ट थी, बड़े बड़े दाँत थे, हुँड़ार जैसा मुँह था, लंबे- लंबे जमीन तक घिसटने वाले बाल थे, सफेद लक- लक करती साड़ी पहने हुए थी, किन्तु उसके पंजे पीछे की ओर मुड़े हुए थे। मुझे वह बुला रही थी, जब वह मुँह खोलती तो उसके मुँह से आग निकलती थी। मैं हनुमान चलीसा पढ़ते हुए भागा। इसीलिए वह पीछे से दौड़ा नहीं सकी और मैं सीधे घर आकर दादा से चिपक गया।” उनके विश्वास दिलाने पर मैंने भी हनुमान चालीसा रट लिया और कई बार उनसे निहोरा किया, “मुझे भी एक दिन बँसवारी वाली चुड़ैल को दिखाने ले चलिए न, मुझे तो पूरा हनुमान चालीसा याद है, चुड़ैल क्या कर लेगी ?” उन्होंने कई बार आश्वासन भी दिया किन्तु दिखाने नहीं ले गए।
कउड़ा तापते हुए जब लोग तरह- तरह की झूठी –सच्ची कहानियाँ कहते तो हम लोग बड़ी उत्सुकता से सुनते। हमें खूब आनंद आता। शुरू में, आग धधकते समय लोग खड़े- खड़े ही कउड़ा तापते और कुछ देर बाद जब आग की लपटें सिमट जातीं तो कउड़ा को घेर कर बैठ जाते।
कउड़ा के किनारे बैठने के लिए आम तौर पर बीड़ा का इस्तेमाल होता था। बींड़ा, पुआल का बनाया जाता था। पहले पुआल की एक चोटी जैसी बना ली जाती थी और उसके बाद उस चोटी को कलात्मक ढंग से लपेट कर बींड़ा तैयार कर लिया जाता था। जरूरत के अनुसार बींड़ा छोटा या बड़ा बनाया जाता था। इसमें कोई खर्च नही आता और एक बार बना लेने के बाद बींड़ा पूरे सीजन भर आसानी से चल जाता था। झिंगुरी काका बीड़ा बनाने में माहिर थे। शंकर भैया भी अच्छा बीड़ा बनाते थे। कउड़ा के किनारे बैठने के लिए बींड़ा जैसा आरामदेह और मुलायम कुछ भी नहीं था।
पहले बता चुके हैं कि कउड़ा में जिस मूल्यवान वस्तु का इस्तेमाल सबसे पहले किया जाता था उसे ‘गोहरा’ कहते हैं और इसके टुकड़े को ‘करसी’। इसे ही कुछ लोग ‘उपला’ और ‘कंडी’ भी कहते है। ‘चिपरी’ भी इसी की एक प्रजाति है जो दीवालों पर सूखने के लिए चिपका दी जाती है और चार-पाँच दिन में सूख जाने पर इस्तेमाल की जा सकती है।
चिपरी या करसी के अलावा हम अलाव में ‘गोइंठा’ का भी इस्तेमाल करते थे। उन दिनों परती खेत बहुत होते थे। उन खेतों में और रेहाव नदी के किनारे के मैदानों में भी गाय -भैंस के झुंड चरा करते थे खुल्ला। वे चरते -चरते गोबर भी करते रहते थे। ऐसे गोबर जब वहीं खेतों में सूख जाते थे तो गरीब घरों की महिलाएं उन्हें बीन लाती थीं। ये छोटे- बड़े टुकड़ों में होते थे, शायद इसीलिए इन्हें गोइंठा कहा जाता था। पिपराही काकी का भोजन तो गोइंठा के सहारे ही बनता था। उनके पास खेती बहुत कम थी इसीलिए छब्बे काका ने कभी कोई गाय या भैंस नहीं पाला। काकी हमारे बागइचा में से लकड़ियाँ बीन लाती थीं और सरेह में से गोइंठा। गोइंठा से भरी हुई खाँची अपने सिर पर रखकर, अपने दोनो हाथों को ऊपर करके उसे पकड़ी हुई जब जवान और अल्हड़ काकी मेरे खेत के किनारे से होकर मटकती हुई गुजरतीं तो मेरी पलकें, झँपकना भूल जातीं। एक बार तो उन्होंने टोक ही दिया था, “ए, बाबू! का निहारताड़ S ? जवान मेहरारू नाई देखलेबाड़ S का ?” और मैं झेंप गया था। ऐसी गँठीली और हँसमुख काकी का भी छब्बे काका छोटी-छोटी बातों को लेकर आए दिन सरेआम पिटाई कर दिया करते थे। जब भी काका उन्हें मारते, काकी उन्हें चिल्ला- चिल्लाकर तरह -तरह की गालियों से नवाजतीं किन्तु खुद कभी हाथ नहीं उठातीं। एक बार जब काका उनकी पिटाई कर रहे थे और काकी चिल्ला रही थीं तो बदरी काका से नहीं रहा गया। वे पहलवान आदमी थे। छब्बे काका की ओर दहाड़ते हुए झपटे। यह देखते ही काकी चंडिका बन गईं और डपटते हुए बदरी काका के सामने खड़ी हो गईं, “हमार मरद हमके मारताआ, तुहार का फाटताआ ? के हव S बीच में टपके वाला ? “ और बदरी काका अपना सा मुँह लेकर लौट गये थे।
चूल्हे में एक -दो लकड़ी के टुकड़ों के साथ गोइंठा जोड़ देने पर भोजन बन जाता था। गोहरा या चिपरी बनाने से लेकर गोइंठा बीनने का काम भी जाड़े के दिनों में ही होता था। उन दिनों रबी की फसल कम बोई जाती थी क्योंकि सिंचाई के साधन बहुत कम थे। कच्चे कुँए खोदकर ढेंकली के सहारे रबी की फसल की सिंचाई करना बहुत कठिन था। खेती ज्यादातर मौसम की बारिश पर ही निर्भर थी। इसीलिए खरीफ की फसल पर ही सारा जोर होता था। जाड़े में ज्यादातर खेत परती रहते थे जिनमें पशुओं के झुंड चरा करते थे।
गोहरा तथा चिपरी हर घर में तैयार होती थी। जाड़ा शुरू होते ही गोहरा बनना शुरू हो जाता था। गोबर में पुरकेसा को उचित अनुपात में मिलाकर महिलाएं उसे लंबे-लंबे आकार का बना लेती थीं। उन्हें धूप में छल्ली बनाकर रखा जाता था, सूखने के लिए और क्रमश: आकार बढ़ाते हुए। ऐसा दूसरे-तीसरे दिन करना पड़ता था- जब थोड़ा गोबर इकट्ठा हो जाता था। दस-बारह तह हो जाने के बाद उसके ऊपर से गोबर का ही लेप कर दिया जाता था। अब ‘खन्हा’ तैयार। बरसात आने से पहले खन्हे का गोहरा घरों में रख लिया जाता था और कउड़ा के अलावा बरसात भर जलावन के काम आता था और सबसे मजेदार यह कि लिट्टी -चोखा लगाने के काम। गोहरा पर बनने वाली लिट्टी और आलू बैगन के चोखे का स्वाद अलौकिक होता था।
जाड़े में खिचड़ी ( मकर संक्रान्ति) के आस -पास ठंढ अपने शबाब पर होती थी। सूरज आँख-मिचौनी खेलने लगता था। धूप के लिए लोग तरसने लगते थे। कुहरा से सारा आकाश आच्छादित हो जाता था। ऐसी ठंढ से बचने के लिए हम बच्चे जोर- जोर से समूह में गाकर भगवान से प्रार्थना करने लगते थे।
“दई- दई घाम कर S, खिचड़ी बिहान कर S, तोहरे बलकवा के जड़व S ताआ /
गोइंठा बिनि बिनि ताप S ताआ”
रात में सोने के लिए जाने के समय तक लोग कउड़ा तापते रहते थे। जैसे- जैसे आग की आँच कम होती उसे कुरेदते रहते। सबसे अंत में बाऊजी कउड़ा ताप कर उठते। उठने से पहले वे आस- पास की सारी राख इकट्ठा करके कउड़ा के ऊपर छाप देते। इसका फल यह होता कि सबेरे उठकर जब फिर से वे कउड़ा तापने के लिए जाते और ऊपर की राख हटाते तो फिर से वही आँच तापने को मिलती। इतना तापने के बावजूद कउड़ा के आग की आँच दिन में दोपहर तक बनी रहती।
बहरहाल, मैं कह रहा था कि कउड़ा सिर्फ ठंढ से बचने के लिए एक साधन मात्र नहीं था बल्कि, वह एक संस्कृति थी जो लुप्त हो गई। पहले जाड़े में पहनने के लिए बहुत कम लोगों के पास स्वीटर होता था, कितने बच्चे तो ‘भगई’ पहनकर जाड़े में भी घूमते रहते थे। किन्तु गाँवों में ठंढ से मौत की खबर सुनने को बहुत कम मिलती थी। इसका सबसे बड़ा कारण था कउड़ा। सुबह- शाम दोनो वक्त कउड़ा। बूढ़ों की ठंढ भी भाग जाती थी कउड़ा देखकर। यद्यपि जाड़ा खुद कहता है,
“लइकन के हम छूअब नाहीं जवनका लगें गुरुभाई,
बुढ़वन के हम छोड़ब नाहीं चाहे केतनों ओढ़े रजाई।”
शाम होते ही कउड़ा तापने लोग बैठ जाते और रात में भोजन के बाद विस्तर पर। सुबह उठते ही फिर कउड़ा के किनारे। जिस विस्तर पर सोते वहाँ जाड़ा नहीं पहुँच पाता। वह बिस्तर पुआल का होता। बिस्तर लगाने का काम भी मेरा ही था। हफ्ते में एक बार लगाता। पुरवट से पुआल ले आता और बरामदे में पुआल की मोटी परत- इतनी मोटी कि उसपर गद्दा बिछ जाने पर छोटे बच्चे जब धमाचौकड़ी मचाते तो उसमें धँस से जाते। कभी- कभी मेरा भी उसमें धँसने का मन करता। बिना खर्च के इतना आरामदेह बिस्तर पता नहीं कहाँ खो गया। पुआल की मोटी परत को बराबर करने के बाद ऊपर से गद्दा या गुदरा जिन्हें घर की महिलाएं पुराने कपड़ों को सजाकर खुद सिल लेतीँ। पुआल के उस बिस्तर पर आने वाली नींद का बखान नहीं किया जा सकता। चाहे जितना भी जाड़ा हो, सोने और कुछ देर बाद ही दन्दा जाने के बाद जाड़े की हिम्मत नहीं होती थी कि वह पास में भी फटक सके। सम्पन्न घरों के जो लोग मसहरी (खाट) पर या तख्ते पर सोते, वे भी उसके ऊपर पहले पुआल की एक परत जरूर बिछा लेते ताकि उन्हें जाड़ा न लगे।
पुरवट लगाना एक कला थी जो लगभग सबको आती थी। पुआल की ढेर इस तरह सजाया जाता कि बरसात भर चाहे जितना भी पानी बरसे, पुआल तनिक भी नहीं भीगता था। दरअसल पुआल की ढेर सजाने के बाद अंत में सबसे ऊपर के हिस्से को बीच में ऊँचा और दोनो तरफ ढाल कर दिया जाता था, ठीक छप्पर की तरह। बरसात में पानी दोनो तरफ सरक कर गिर जाता था। जिसके खलिहान में पुरवट जितनी ही ऊँची होती थी उसे उतना ही धनी मान लिया जाता था। हमें भी अपनी ऊँची पुरवट देखकर गौरव का बोध होता था। एक बार तो जब मैं अपनी पुरवट से पुआल निकाल रहा था, तिरबेनी काका आ गए। उन्हें चुहल सूझी। पूछ बैठे, “बाबू, सुनते हैं कि पढ़ने में बहुत तेज हो। हमारे सवाल का जवाब दे दो तो जानें” और पूछ बैठे, “जब हाहाकार और महाकार में युद्ध हो रहा था तो मेदिनी कहाँ थी? “मैंने तो हाहाकार और महाकार का नाम भी नहीं सुना था। मैं भौचक्का होकर उन्हें देखने लगा। फिर ठहाका लगाते हुए उन्होंने ही जवाब भी दिया। “पुरवट पर थी।” मैं समझ न सका तो उन्होंने समझाया, “हाहाकार और महाकार दो कुत्ते थे जो आपस में लड़ रहे थे और मेदिनी बिल्ली का नाम था जो उनके डर से उछलकर पुरवट पर चढ़ गई थी।” मैं भी हँसने लगा।
हम रोज ही पुरवट से पुआल निकालकर पशुओं के चारे के लिए ले आते। बाऊजी गँड़ासी से छाँटी काटते, दोनो बैलों के खान भर का। रोज यही काम था। बाद में जब चारा काटने वाली मशीन आ गयी तो मशीन चलाने में मैं सहयोग करने लगा।
अब लोग जाड़े में ठिठुरते हैं, दिन चढ़ जाने तक अपने विस्तरों में दुबके रहते हैं और ठंढ से बीमार होकर मरते भी हैं क्योंकि ठंढ से बचने का अचूक साधन कउड़ा को वे बचा न सके या हम कह सकते हैं कि हमारी पूँजीवादी व्यवस्था ने कउड़ा की संस्कृति को अपने हित में खत्म कर दिया। अब चाहकर भी हम कउड़ा नहीं लगा सकते क्योंकि कउड़ा के लिए साधन अब गाँवों में नहीं है। न चिपरी है, न गोहरा है, न पुरकेसा है, न पइया है और न पुआल है।
पहले हमारे घरों में ढेंकी होती थी और घर की महिलाएं खुद धान कूट लेती थीं। इससे एक ओर शरीर की कसरत भी हो जाती थी और धान की भूँसी कउड़ा लगाने तथा घर में चूल्हे के लिए इस्तेमाल की जाने वाली लकड़ी के सपोर्ट में भी काम आती थी। घरों से ढेंकी जब गायब हुई तो आस -पास की धान कूटने वाली मशीनों में भी धान कुटाने पर भूँसी मिल जाती थी और हमारे काम आती थी, किन्तु अब तो हर घर के सामने धान कूटने की मशीनें, ट्राली में सजाकर लोग ले आते हैं और साल भर तक खाने के लिए धान कूट कर दे जाते हैं। धान की भूँसी कूटने वाले लोग ही लेकर चले जाते हैं। लिहाजा, धान की भूँसी भी अब गाँव से नदारत हो गई। अन्य चीजें हैं पइया, पुरकेसा और पुआल। अब खेत में ही कंपायन से धान की कटाई हो जाती है और खेत में ही उसकी ओसउनी भी। सिर्फ धान घर में आता है। कंपायन से काटने पर डंठल का बड़ा हिस्सा खेत में ही खड़ा रह जाता है जिन्हें बाद में जला दिया जाता हैं। इससे सबसे बड़ा नुकसान यह होता है कि डंठल जलाते समय खेत के लिए अत्यंत उपयोगी किसान के दोस्त केचुए तथा अन्य कीड़े मकोड़े जलकर मर जाते हैं। खेत की उर्वराशक्ति नष्ट हो जाती है। पुआल घर में आता ही नहीं। घरों में पशु भी नहीं हैं इसलिए पुआल की जरूरत पशुओं के चारे के रूप में भी नही होती। कउड़ा अब कथा-कहानियों में ही बचा है। कउड़ा अब लौटेगा भी नहीं और न उसकी संस्कृति। हे कउड़ा ! तुम्हें मेरी भावभीनी श्रद्धांजलि।