भारतीय ज्ञान–परम्परा : जनहित–राष्ट्रहित की सिद्धि
(युवाओं के नाम एक और जागरण संदेश)
अस्तबल में बंधे–बंधे घोड़ा बिगड़ता है। बिना सैन्य अभ्यास के जवान बिगड़ता है। बिना भाँजे म्यान में रखी तलवार धार खो देती है। बिना सफ़ाई के बंदूक अवरुध्द हो जाती है। बिना ज्ञान–अनुशासन के विद्यार्थी जीवन–मर्म खो देते हैं। बिना संस्कारों और कालोचित जीवन–मूल्यों के व्यक्ति–परिवार–समाज की नींव खोखली हो जाती है। इसीलिए घोड़े को सिर्फ़ चना खिला कर अस्तबल में बाँध कर रखा नहीं जाता प्रत्युत उसे प्रतिदिन दौड़ाया जाता है ताकि उसका चाल–चलन और गति बेहतर बनी रहे। सेना के जवानों को सुबह–सुबह क़सरत–क़वायद और सेनाभ्यास कराया जाता है ताकि अयाचित जंग की तैयारी नित्यक्रम चलती रहे। तलवारें नित दिन भाँजी जाती हैं ताकि योद्धा और तलवार, दोनों की धार बरक़रार रहे – उसमें मोरचा (ज़ंग) न लगे और वह अपना तेज़ न खो दे। गोली धाँय–धाँय चले न चले, बंदूक की नियमित सफ़ाई ज़रूरी होती है ताकि उसके पुर्ज़ों में मोरचा न लग जाए और अयाचित संकट की स्थिति में अचूक तथा अबाध चले। बिना अनुशासन के विद्यार्थी का जीवन गर्त में खो जाता है – नारकीय हो जाता है। इसीलिए विद्यार्थियों को शैशव से ही अनुशासन और संस्कार सिखाए जाते हैं। अनुशासनहीन व्यक्ति पशु–समान (‘पसु बिन पूँछ विषान’) होता है। अनुशासन विहीन व्यक्तियों (असामाजिक तत्व?) से बने समाज की नींव खोखली ही रह जाती है। इसीलिए वह बेहतर भविष्य के सृष्टा नहीं हो सकते। निष्कर्षतः कहा जा सकता है कि ज्ञान–अनुशासन और संस्कार नींव की ईंट–बजरी–चूना पत्थर–मृत्तिका के समान हैं
जो देश–समाज अपनी पीढ़ी को संस्कार, अनुशासन, जीवन–मूल्य नहीं दे पाते हैं, वे समय के बहाव में कट्टरता, बर्बरता और पतन के अंधतमस् से घिर जाते हैं। आज धर्म राज्यों (थिओक्रेटिक स्टेट्स) की स्थिति (दुर्दशा?) पूरा विश्व भलीभाँति जानता ही है। ऐसे में भारतीयों को पश्चिम से आयातित अव्यावहारिक, भारतीय समाज हित से विलग अनादृत सिद्धांतों की सड़ांध से बचना चाहिए और प्राचीन भारतीय विद्या परम्परा की ओर पुनः प्रस्थान करना चाहिए। भारत के प्राचीन ग्रंथ ज्ञानानुशासन, शांति, सहनशीलता, परोपकार, धर्मपरायणता के साथ–साथ कर्मवादिता का संदेश देते हैं। युद्ध से कुछ क्षण पूर्व भी युद्ध से बचने–बचाने की कोशिश–क़वायद कदाचित् ही विश्व के किसी देश में दिखाई देगी। इस दृष्टि से भी निश्चय ही हमें अपने ग्रंथों और ज्ञान–परम्परा की ओर लौटने की ज़रूरत है।
‘प्रगतिशीलता’ के नाम पर युवाओं के दिमाग़ में जो नग्न–यथार्थ का ‘फ्लैश’ और ‘ब्लैक’ डाला गया और जा रहा है, वह केवल हिंसात्मक ऊर्जा को ही जन्म दे रहा है। इसीलिए देश में आगजनी, पत्थरबाजी, बमबारी, आत्मघाती हमले, लूटमार, आतंकवादी, नक्सलवादी, माओवादी हिंसा, सरकारी संपत्ति की तोड़फोड़ और स्वाहा करना इत्यादि वारदातें दिखाई–सुनाई दे रही हैं। मानवीय संवेदना और मूल्यों की निरन्तर होली हो रही है। मानवीयता को संकट में डालने की हर संभव प्रयास किया जा रहा है। युवा अविरत सुनियोजित ढंग से ब्रेन वॉश करने वाले मनोविकारग्रस्त बुद्धिजीवियों की संगत में स्व–हित और राष्ट्र–हित को ताक पर रख कर उनके भ्रष्ट–कलुषित–असामाजिक विचार एवं संकल्प का शिकार हो रहे हैं।
आज देश को विचारशील, आदर्शवादी, आदर्शोंन्मुखी प्रतिभाओं की आवश्यकता है, ताकि देश में शांति एवं सुरक्षा स्थापित हो सके। अशांति–असुरक्षा फैलाने का प्रयास जो अभारतीय, अव्यावहारिक सिद्धांतवादी, अलगाववादी कर रहे हैं, उनका सतत खंडन होना चाहिए। देश को जोड़े रखने वाले सह्रदय, संवेदनशील–सामाजिकों की आवश्यकता है, न कि तोड़ने–फोड़ने–फाड़ने (टुकड़े-टुकड़े गैंग) वालों की, जो हर नई शक़्लो–सूरत में हर जगह, शहरों से लेकर जंगलों तक फैले हुए हैं। हमें जंगलराज नहीं, रामराज्य की चाह होनी चाहिए और आवश्यकता उसी की है ताकि समाज में समन्वय, सद्भाव, शांति, सौहार्द बना रह सके। आज सबका दायित्व है कि सर्वधर्म समभाव की भावना को दृढ़ कर राष्ट्र प्रेम जगाएँ। सर्वोपरि यदि कुछ है तो ‘राष्ट्र’ है और हमारा देश तथा देशवासियों के लिए ‘प्रेम’ है। यह राष्ट्र और इसके लिए हमारा प्रेम सदैव बना ही न रहे प्रत्युत उत्तरोत्तर बढ़ता ही जाए – पागलपन के हद तक! यह एक तरह से इस सदी के भारतीय नवजागरण की नयी कड़ी होगी, जिसमें सडांध और आयातित–अव्यावहारिक सिद्धांतों को ताक पर रख कर नए भारत का निर्माण किया जा सकेगा।
ऐसे विकट समय में भारतीयता पर बात करना ख़तरे से भरा काम है। हर जगह अपने–अपने, अपनी ही क़िस्म के ‘नैरेटिव’ तैयार हो रहे हैं और उन पर नित–नवीन वितण्डा खड़ा किया जा रहा है। महाविद्यालयों–विश्वविद्यालयों को आखाड़ों में तब्दील किया जा रहा है। पाश्चात्य सिद्धांतों पर आधारित ज्ञान के नाम पर विद्यार्थियों में विचार–चिंतन–दर्शन कम, भटकाव–उद्दंड़ता अधिक दृष्टिगोचर हो रही है। कविताएँ (साहित्य) लम्बे समय से एक ही ढर्रे पर लिखी और पढ़ाई जा रही हैं। ऐसे में यह सोचना और अनुभव करना कि भारतीय युवाओं को आयातित–अभारतीय सिद्धांतों की अपेक्षा भारतीय जीवन–दर्शन के मर्म से अवगत कराने की नितांत आवश्यकता है – नए नवजागरण की माँग से कम नहीं है! आयातित सिद्धांत हमारे भारतीय परिप्रेक्ष्य में किस हद तक लागू हैं (हुए हैं?), अब तक हम यह जान ही गए हैं। जो नहीं समझ रहे हैं, वे देर-सवेर समझेंगे और जो जानने की अनिच्छा से ग्रसित हैं, उन्हें निश्चय ही अपने दृष्टिकोण में परिवर्तन करने की आवश्यकता है।
इस विषय–संदर्भ को लेकर जब लिखने बैठा तो सोचा कि कुछ इस तरह लिखना होगा कि बहुत–कुछ का स्वतः समाहार हो जाए ताकि वितण्डा न खड़ा हो जाए, जो कि आजकल सुनियोजित ढंग से खड़ा किया जा रहा है। ब़हरहाल, जो भारतीय ज्ञानानुशासन परम्परा तथा जीवन–दर्शन को समझते हैं, वे यह अवश्य अनुभव करेंगे कि कर्मवाद की बात करते हुए भी जनहित की ही बात कही गयी है। घर पर – गाँव में प्रायः कही जाने वाली कहावत यहाँ सहज स्मरणीय है – ‘दे रे हरि पलंगावरी’ (आणि देव काही देत नाही!)। देव (सरकार?) सबकुछ ऐसे ही पलंग पर लाकर नहीं देते। हमें निर्भरता से सचेष्ट बचना चाहिए ताकि कुछ करने की ललक जाग सके। हम प्रायः सरकारों पर निर्भर होते जा रहे हैं, इसलिए जीवन में असरकारी (असरदार?) काम नहीं हो पा रहे हैं। सरकारें तो चाहती ही रही हैं कि अधिकाधिक नौकर (ग़ुलाम?) पैदा करें, जिसकी न तो रीढ़ हो, न मुँह में जुबाँ ही! हमें जानने–समझने की आवश्यकता है कि व्यवस्था में मुखर कम ही मिलेंगें! हमें ‘मुखर’ और ‘उपद्रवी’ में अंतर भी करने की आवश्यकता है। प्रायः हम ‘मुखर’ को ‘उपद्रवी’ मानने की मानसिकता के शिकार होते जा रहे हैं। इसलिए सारा खेल और परिदृश्य बिगड़ रहा है।
आज युवाओं का प्रवृत्ति जोड़ने की अपेक्षा तोड़ने–फोड़ने (टुकड़े-टुकड़े करने) की ओर अधिक है। यह जानते हुए भी कि ‘हिंसक’ होने का अर्थ ‘विचारहीन–दिशाहीन’ होना है – भारत के युवा उसी दिशाहीनता के शिकार हैं! “कर्मणा मनसा वाचा सर्वभूतेषु सर्वदा। अक्लेशजननं प्रोक्ता त्वहिंसा परमर्षिभिः” में निहित विचार–दर्शन को पुनः स्मरण करने की ज़रूरत है। सर्वज्ञात तथ्य है कि विद्यार्थी प्रायः चंद स्वार्थांध राजनीतिज्ञों के मोहरे बनते रहे हैं। इधर ऐसे नेता उभर कर आए (आ रहे?) हैं, जिनका भारत के तत्व–सत्व (सत्य वृत्त) से अभी परिचय भी नहीं है! वे अलग–अलग मंचों से, देश ही नहीं विदेश में भी अपना ही भोंपू बजाने और राष्ट्र की महिमा पर लांच्छन लगाने की जुगत में हैं। वंशवाद से ग्रस्त तथा अव्यवहारिक सिद्धांतों का अंधानुकरण करने वाले राजनेता विश्वसनीयता खो चुके हैं। राजनीति के ऐसे दमघोंटू समय में सतह से उठकर आने वाले कितने नेता हैं? इसलिए राष्ट्र–निर्माण की दृष्टि से पुनः–पुनः चाणक्य (विष्णु गुप्त) को स्मरण करने की आवश्यकता है। अतः पुनः दोहराने में हानि नहीं कि भारतीय ज्ञान–परम्परा की ओर लौटने की आवश्यकता है।
विद्या–मंदिरों में व्यावहारिकता और आदर्शोन्मुख जीवन–मर्म के पाठ जब कम होने लगते हैं तो विद्यार्थी दिशाहीन हो ही जाते हैं। ‘यथार्थ’ के नाम पर जो कुछ परोसा और उपद्रव मन–मस्तिष्क में ‘पंप’ (इंजेक्ट) किया जा रहा है, जिससे कि चहुँओर ‘भारत दुर्दशा न देखी जाई’ का वातावरण बनता दिखाई दे रहा है। लाज़िमी है कि ऐसी गतिविधि (चाल चलन) से देश का वर्तमान तो चकनाचूर हो ही रहा है, भविष्य और देशवासियों के हित भी संकटों से ग्रस्त हैं। निरन्तर देखा जा सकता है कि राष्ट्र–विरोधी शक्तियाँ उत्पन्न की जा रही हैं। दूरदर्शन के डिबेट और एंकर अपनी शालीनता–विश्वसनीयता खो चुके हैं। कुछेक एंकरों का अहंकार इतने चरम पर है कि वे अपने आपको बुद्धिजीवियों का बुद्धिजीवी मान चुके हैं। लगातार नए–नए नैरेटिव तैयार किये जा रहे हैं – ‘देश को मिटाओ बनाम देश बचाओ’ का एक विचित्र ही दृश्य अपनी पूरी रंगत में है।
इसमें हमारे विद्यार्थी, देश के युवा कहाँ हैं? उन्हें कहाँ होना चाहिए? यह सवाल मन–मस्तिष्क में बारम्बार आते रहते हैं। जो देखा, जाना, अनुभव किया और बहुत–कुछ जिया–भोगा, उसी के अंकन का यह प्रयास मात्र है। सबके अपने–अपने अनुभव हैं। होने भी चाहिए। असहमति हो सकती है। होनी भी चाहिए। यह अनिवार्य नहीं है कि हर कोई हर बात से सहमत हो जाए लेकिन मुद्दा यह है कि हम विद्यालयों–महाविद्यालयों–विश्वविद्यालयों में जिस तरह की शिक्षा और जिन सिद्धांतों–विमर्शों की बात कर रहे हैं, क्या वे वास्तव में श्रमिक–किसान, शोषितों–पीड़ितों का भला करने में सार्थक सिद्ध हो रहे हैं? (हुए हैं?) हमारा बुद्धिजीवी वर्ग जिन शोषितों–पीड़ितों की बात कर रहा है, उस वर्ग का जीवन सुंदर–समृद्ध करने में आयातित सिद्धांतों का क्या कोई लाभ हो रहा है? (हुआ है?) जबकि यह बुद्धिजीवी वर्ग भारी–भरकम वेतन पाकर भी असंतुष्ट है और वेतन आयोग की अनुशंसा को चुनौती देते हुए वेतनवृद्धि के लिए आंदोलन खड़ा करने से नहीं चूका है। शोषित–पीड़ित (स्वतंत्रता प्राप्ति के अनंतर) आज भी उन्हीं विपरीत परिस्थितियों में जीवन जीने के लिए विवश है। दो–जून की रोटी के लिए वह आज भी मर–खप ही रहा है। किसान की अपनी समस्याएँ हैं, जिनका कभी अंत ही नहीं हुआ। वह निरन्तर कभी प्रकृति तो कभी राजनीति की ‘जो मार खा रोई नहीं’ की यथास्थिति में हैं। ‘पेट-पीठ दोनों मिलकर है एक, चल रहा लकुटिया टेक’ की स्थिति से कितने शोषित–पीड़ित उबरे हैं?
कितना विरोधाभास है और कितनी विड़ंबना है! धन–संचय, संपत्ति–मोह किसी ने भी नहीं छोड़ा। हर कोई ‘मेरे सभ्य नगरों के सुशिक्षित मानव’ प्रगति–उन्नति के नाम पर संचय का ही वरन कर रहा है और स्वप्न के भीतर एक और स्वप्न गढ़ रहा है। इसीलिए कहने की आवश्यकता महसूस हुई – भारतीयों को पश्चिम से आयातित अव्यावहारिक, भारतीय समाज हित से विलग सिद्धांतों की सड़ांध से बचना चाहिए और प्राचीन भारतीय विद्या परम्परा की ओर प्रयाण करना चाहिए। राष्ट्र के प्रति कृतघ्न सिद्धांतवादी, जनहितैषी होने का स्वांग रचने वाले राजनीतिज्ञ ही नहीं अकादमीशियन, तथाकथित बुद्धिजीवी और उनके निर्देशन में तत्व–सत्व हार चुके युवा बातें बहुत–सी और बड़ी–चौड़ी कर लेते हैं परंतु उनके मन–मस्तिष्क–विचारों से राष्ट्र की संरक्षा एवं सुरक्षा वस्तुतः अंतर्धान पा गई है।
निश्चय ही हमारे मन–मस्तिष्क–विचारों से ‘गायब होता देश’, ‘देश की क्षणजीवी परिस्थिति की अनुभूति’ (ख़स्ता हालत) और ‘दीन–हीन गाँव–किसान’ चिंता के विषय हैं। उक्त लिखित कथन – “भारत के प्राचीन ग्रंथ ज्ञानानुशासन, शांति, सहनशीलता, परोपकार, धर्मपरायणता के साथ–साथ कर्मवादिता का संदेश देते हैं। युद्ध से कुछ क्षण पूर्व भी युद्ध से बचने–बचाने की कोशिश–क़वायद शायद ही विश्व के किसी देश में दिखाई देगी। निश्चय ही हमें अपने ग्रंथों और ज्ञान परम्परा की ओर लौटने की ज़रूरत है।” – में प्रकारांतर से जनहित और राष्ट्रहित की ही बात को रेखांकित करने का प्रयास है। सरहदों पर हमारे जवान सीना ताने युद्ध करते हैं और गोली खाकर शहीद हो जाते हैं तो उनके लिए जान–माल नहीं, देश और देश की जनता की संरक्षा–सुरक्षा सर्वोपरि होती है। तो प्रश्न यह है कि हमारे लिए देश/राष्ट्र सर्वोपरि क्यों नहीं होना चाहिए? हमें अपनी ज्ञान–परम्परा से ही अहिंसा–शांति–सम्मान–सौहार्द और संघर्ष के अपने तौर–तरीक़े प्राप्त हो सकते हैं।
वचन–विचार और जीवन–कर्म में उग्रता से देशहित, सामाजिक सौहार्द, समरसता, समभाव प्राप्त नहीं ही हो सकता। हमें अवसरवादिता और निस्सार सैद्धांतिक दासत्व से मुक्त होकर सोचने–विचारने की अनिवार्यतः आवश्यकता है। ‘मेरे ग्रामों के वासी’ अब यह जान गए हैं कि रटे–रटाए बयान, अभारतीय–अप्रासंगिक–निस्सार सिद्धांत अब उनके मानस (समाज) में भाव–प्रभाव, रस–सार उत्पन्न नहीं कर सकते। भारत हो! ज्ञानानुशासन के भारतीय संस्करण हो! भारत की मौजूदा तसवीर बदलने के लिए अवश्य ही इस सोच की आवश्यकता है। पंत की ‘वाणी’ से इस जागरण–वक्तव्य को विराम – “तुम वहन कर सको जन मन में मेरे विचार / वाणी मेरी, चाहिए तुम्हें क्या अलंकार / भव कर्म आज युग की स्थितियों से है पीड़ित / जग का रूपांतर भी जनैक्य पर अवलंबित / x x x चित शून्य — आज जग, नव निनाद से हो गुंजित, मन जड़ — उसमें नव स्थितियों के गुण हो जागृत, तुम जड़ चेतन की सीमाओं के आर पार, झंकृत भविष्य का सत्य कर सको स्वराकार।”
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