देश

नागरिक की बदलती अवधारणा बनाम दास का पुनर्जन्म

 

भारत राष्ट्र के जन्म के बारे में प्रतिक्रियावादियों को छोड़कर लगभग सर्वानुमति है कि औपनिवेशिक दासता से मुक्ति संघर्ष की प्रक्रिया में ही इसे हासिल किया गया है। लेकिन किसी राष्ट्र का जन्म किसी घटना का परिणाम नहीं होता बल्कि एक यह एक प्रक्रिया का हिस्सा होता है। इस लिहाज से भारत राष्ट्र का जन्म एक प्रक्रिया का हिस्सा है जिसकी जड़ें मध्यकालीन सन्त परम्परा से अनिवार्यतः जुडती हैं। यह अनायास नहीं है कि राष्ट्र के सबसे बड़े प्रतीक और आधार ‘भारत के संविधान’ निर्माता डॉ. बाबा साहब भीमराव आंबेडकर ने भक्तिकालीन सन्तों को याद किया है और बुद्ध, कबीर और फूले को अपना गुरु माना है।

आधुनिक भारत के निर्माण की चिन्ता में रैदास जैसे सन्तों ने किस तरह बाबा साहब की दृष्टि को निर्मित किया यह विचार का विषय है। ‘ऐसा चाहूँ राज मैं मिले सबन को अन्न, छोट-बड़ो सब सम बसें रैदास रहे प्रसन्न’ जैसी पंक्ति लिखने वाले रैदास की परिकल्पना में किस तरह की राज व्यवस्था है। उनकी कविता का भावी मनुष्य क्या किसी आधुनिक राज्य व्यवस्था का आधुनिक नागरिक नहीं है। सबके लिए अन्न उपलब्द्ध कराने वाला राज्य, छोटे और बड़े का भेद मिटाकर सबके साथ समानता का व्यव्हार करने वाला राज्य कोई मध्यकालीन सामन्ती मूल्यों वाला राज्य नहीं हो सकता था।

रैदास

रैदास की परिकल्पना वाला राज्य कोई आधुनिक राज्य ही हो सकता था। ऐसी राजशाही से मानवीय मूल्यों की अपेक्षा करना जहाँ राजा की दया ही न्याय, अधिकार और समानता को परिभाषित करती हो, उस राज्य की संरचना को लोकतान्त्रिक बनाये बगैर सम्भव नहीं हो सकता था। यह नए मनुष्य के जन्म के बगैर भी सम्भव न था। रैदास की इस तार्किक और अन्तर्दृष्टिपूर्ण परिकल्पना ने ही बाबा साहब को इस बात के लिए प्रेरित किया होगा कि वे ऐसी ही भावनाओं की अभिव्यक्ति करने वाले कबीर को अपना गुरु माने।

कबीर ने अपने दोहों में जिस अमर देसवा की परिकल्पना की है भले ही वह आध्यात्मिक आवरण में है लेकिन उनकी चिन्ता सांसारिक विभाजन के विपरीत एक ऐसे देस की परिकल्पना है जहाँ ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य शूद्र, मुग़ल, पठान, सैयद और सेख का विभाजन नहीं है, वहाँ गौरी, गणेश, ब्रह्मा, विष्णु, महेश और शेष जैसी कोई ज्योति नहीं है। क्या यह परिकल्पना रैदास के उस परिकल्पित राज्य से नहीं मिलती है जिसमे सभी मनुष्य बराबर हैं और अन्न के हक़दार हैं। इसिलिये यह बात कहने का पूरा आधार है कि जिन सामन्ती मूल्यों वाले मध्यकाल में आधुनिक मनुष्य की कल्पना भर की जा सकती थी, उसी के गर्भ से हमारे आधुनिक राष्ट्र-राज्य का जन्म हुआ है।

भारत राष्ट्र ने अपने औपचारिक जन्म का लगभग सतहत्तर वर्ष पूरा कर लिया है। औपनिवेशिक गुलामी से आजादी के आरम्भिक वर्षों में हमने यह तय किया था कि भारत को एक आधुनिक राष्ट्र के रूप में स्थापित करने के लिए सामाजिक और राजनीतिक स्तर पर जितनी भी समस्याएँ हैं उनको हल करके एक मुकम्मल राष्ट्र बनाएँगे। लेकिन यह सपना अभी भी अधूरा ही है। इस असफलता की जड़ें बहुत गहरी हैं। औपनिवेशिक भारत में भी इसकी जड़ें उस समय तक जाती हैं जिसे हम नवजागरण का काल कहते हैं। इसी नवजागरण के भीतर आधुनिक भारत और आधुनिक नागरिक का सपना भी पल रहा था और इसी में अतीतजीविता का भाव भी दिखता है। लेकिन आजादी मिलने के बाद अतीतजीविता का यह भाव कहीं नेपथ्य में चला गया। लेकिन हमेशा के लिए ख़त्म नहीं हुआ। यह दबी हुई प्रवृत्ति के रूप में बना हुआ था।

भारतीय समाज में जाति

भारत के इतिहास का अधिकांश सवर्ण वर्चस्व वाली राज सत्ताओं का इतिहास है। आजादी के दौरान आधुनिक भावबोध और लोकतन्त्र की व्यवस्था के आग्रह ने सवर्णवाद को चोट पहुंचाई थी या यूँ कहा जा सकता है कि बिना सवर्णवाद पर चोट के भारत की स्वाधीनता और आधुनिकता सम्भव भी नहीं थी। लेकिन धीरे-धीरे सवर्णवाद अपना फन फिर से उठाने लगता है। इसकी उपस्थिति साठ के दशक में ही दिखने लगती है। हिन्दू महासभा के संगठन में इसकी मजबूत अभिव्यक्ति दिखती है। जब तक औपनिवेशिक हुकूमत से संघर्ष करना था तब तक तो समाज की प्रतिक्रियावादी ताकतों को इस बात से कोई आपत्ति नहीं थी कि भारत की आजादी के लिए यहाँ सभी जाति- सम्प्रदाय के लोग मिलकर लड़ें। और नहीं तो इस आजादी के संघर्ष के मुद्दे पर वे निरपेक्ष ही बनी रहीं। शायद उन्हें अब समझ में बात आ गयी थी कि आजादी अगर मिल जाती है तो सत्ता की बागडोर किसी न किसी रूप में उन्हीं को मिल जाएगी। उन्होंने इस लाभ का अपना मंसूबा बना लिया था इसीलिए समय रहते चुप भी रहीं। लेकिन उनकी मुसीबत संविधान में प्रस्तावित एक व्यक्ति एक मूल्य का क्रातिकारी सिद्धान्त था। यही सिद्धान्त इनके मनसूबे पर पानी फेरने वाला था। यही वह सिद्धान्त था जिससे हजारों साल की आन्तरिक गुलामी के सांस्कृतिक और भौतिक आधार ख़त्म हो जाने थे। यह बात तो ऐतिहासिक रूपों से सत्य है कि आधुनिक भारत के नीव के इस सिद्धान्त पर प्रस्तावित बहुतेरी प्रथाओं को समाप्त करने के प्रस्ताव का संविधान सभा में खुलकर विरोध किया गया।

भारत की आजादी के संघर्ष से केवल नागरिक भावना और मूल्य का ही विकास नहीं हुआ बल्कि सामाजिक लोकतन्त्र की बुनियाद भी पड़ी। हजारों साल से उत्पीडित सामाजिक वर्गों ने सामाजिक संरचना में गुलामी की संस्कृति और जीवन स्थितियों के खिलाफ विद्रोह कर दिया। आजादी के संघर्ष ने उनको केवल राजनीतिक आजादी के लिए ही संघर्ष करना नहीं सिखाया बल्कि अपनी अमानवीय सामाजिक अवस्थाओं के खिलाफ भी उनको गोलबंद कर सामाजिक लोकतन्त्र के माध्यम से भारत को एक आधुनिक और मुकम्मल राष्ट्र बनाने का रास्ता भी मुहैया कराया।

भारतीय संविधान की प्रस्तावना में ‘हम भारत के लोग’ की परिकल्पना एक परिवर्तनकामी परिकल्पना है। भारत भले ही सामाजिक और सांस्कृतिक रूप से एकीकृत नहीं था लेकिन उसकी परिकपना भारत के भविष्य के लिए की गयी थी। हम भारत के लोग की परिकल्पना पर तब तब अधिक चोट की जाती रही है जब-जब भारत की दमित सामाजिक अस्मिताओं ने अपनी बराबरी और देश के संसाधनों में अपनी हिस्सेदारी का मजबूत दावा प्रस्तुत किया है। उनकी तरफ से प्रस्तुत ऐसी दावेदारी से भारत का प्रमुख शासक वर्ग जिसका प्रतिनिधित्व यहाँ का सवर्ण करता है, डर जाता है। उसका यही डर उसको सामाजिक अस्मिताओं के खिलाफ आक्रामक बनाता है।

इक्कीसवीं सदी एक तरह से भारत के लिए सामाजिक परिवर्तन की सदी होने वाली थी लेकिन इसी सम्भावना को भांपकर शासक वर्ग ने अपनी रणनीति को तय किया है। उसको इस बात का आभास है कि भारत सामाजिक परिवर्तन के मुहाने पर खड़ा है तभी उसने चौतरफा घेरेबंदी कर रखी है। आधुनिक भारत के निर्माण की जो प्रक्रिया चल रही थी उसके प्रति प्रतिक्रियावादी शक्तियाँ सचेत हो गयी हैं। प्रसिद्द चिन्तक कँवल भारती इसी को प्रतिक्रान्ति का दौर कह रहे हैं। अब नागरिकता की नयी परिभाषा गढ़ी जा रही है। ऐतिहासिक तथ्यों को बदलकर इतिहास बोध को प्रतिक्रियावादी इतिहास बोध निर्मित करने की कोशिश की जा रही है। मिथक को इतिहास की तरह प्रस्तुत करके जनता की चेतना को भ्रष्ट किया जा रहा है। यह सिद्ध करने की कोशिश हो रही है कि सामाजिक सम्बन्धों का पारम्परिक ढाँचा ही भारत के लिए उपयोगी है। कई बार यह कोशिश उपनिवेशवाद के खिलाफ अधूरे संघर्ष को पूरा करने की कोशिश के रूप में प्रस्तुत किया जाता है। जाति व्यवस्था को जब तर्कसंगतत ठहराने के सारे तर्क असफल हो रहे हैं तो इसके उत्पत्ति के लिए मुगलों को दोषी बताया जा रहा है। ये सारे प्रयास दरअसल दमित सामाजिक अस्मिताओं की मुक्तिकामी चेतना को उभरने से रोकने के उद्देश्य से परिचालित हैं।

भारतीय संविधान लक्ष्य के रूप में वर्णित, समाजवाद, पन्थनिरपेक्षता जैसे आधुनिक मूल्यों को संरक्षित और संवर्धित करने वाले पारिभाषिक शब्दों को हटाने की बेचनी कुछ और नहीं बल्कि भारत को एक ऐसे राष्ट्र के रूप में तब्दील कर देने की बेचैनी है जिसमे नागरिक स्वाधीनता को स्थगित कर देने की अपेक्षा है। अगर भारत एक समाजवादी राष्ट्र बनता है तो जाहिर है कि इससे दलित, मुस्लिम, स्त्रियों और अन्य हाशिये के समाजों को स्वाधीनता की परिस्थिति हासिल होगी। इससे चला आ रहा गैरबराबरी वाला सामाजिक ढाँचा टूटेगा और परम्परा से लाभ उठाने वाले सामाजिक और राजनीतिक वर्ग को नुकसान होगा। यही कारण है कि अब राजनीतिक रूप से जो नयी संस्कृति विकसित हो रही है, उसमे सिर्फ सवर्ण हितों को संरक्षित करने की संस्कृति का ही विकास हो रहा है। यह अनायास नहीं है कि भारत के इतिहास में इस दौर में जितना अधिक सवर्ण-गोलबंदी हुई है उतना शायद ही किसी और दौर में हुई हो। इसीलिए कुछ लोग इस दौर को पुष्यमित्र सुंग के काल से भी अधिक आक्रामक और संगठित काल मान रहे हैं

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रामनरेश राम

लेखक जनपक्षीय मुद्दों पर नियमित लिखते हैं। सम्पर्क +919911643722, naynishnaresh@gmail.com
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