देश

अँधेरे में डूबेगा या रोशनी दिखाएगा भारत

 

भारत ने जी-20 के आयोजन के समय जितने जोर शोर से वैश्विक लोकतन्त्र के उदात्त मूल्यों को व्यक्त किया, वे सारे मूल्य 18 वीं लोकसभा के चुनाव आते आते ध्वस्त होते जा रहे हैं। अगर भारत वास्तव में `अयं निजै परैवेति गणना लघुचेतषाम, उदार चरितानाम तू वसुधैव कुटुम्बकम।’ में यकीन करता है और विश्व लोकतन्त्र की जननी है तो आज जब बीसवीं सदी की फासीवाद की बीमारी एक बार फिर से दुनिया पर तारी हो रही है तो उसे दुनिया को इससे निकलने का मार्ग दिखाना चाहिए। लेकिन  क्या वह कोई मार्ग दिखाता हुआ दिख रहा है? क्या भारत का इस बार का आमचुनाव बराबरी के आधार पर लड़ा जा रहा है? ऐसा खेल जहाँ सबको समान अवसर प्राप्त हो यानी लेवल प्लेइंग फील्ड(एलपीएफ) उपलब्ध हो क्या वह स्थिति है? इन सारे प्रश्नों का उत्तर ना में ही दिया जाएगा।

ऐसे में यह गम्भीर बहस का विषय हो सकता है कि भारत में जो भी व्यवस्था उभर रही है उसे क्या कहा जाए? कुछ लोग इसे तानाशाही कह रहे हैं तो कुछ राजनीति विज्ञानी इसे अभी भी तानाशाही कहने से बच रहे हैं। मशहूर राजनीति शास्त्री योगेंद्र यादव ने जर्मनी और फ्रांस के राजनीति शास्त्रियों के हवाले से प्रतिस्पर्धी अधिनायकवाद की संज्ञा दी है। कुछ मार्क्सवादी मित्र इसे लम्बे समय से फासीवाद कह रहे हैं। तो कई भारतविद इन शब्दों पर इसलिए आपत्ति कर रहे हैं कि यह तो यूरोप से आया हुआ शब्द है और जब अब वहाँ फासीवाद नहीं आ रहा है तो भारत में कैसे आएगा।

आखिर फासीवाद है क्या और उसके क्या लक्षण हैं? क्या वह कोई विचारधारा है या कोई प्रक्रिया? या वह कोई मनोवृत्ति जो पाई तो हर समाजों में जाती है लेकिन वह अपने चारों ओर जो कोकून बनाती है वह अलग अलग संरचना की होती है।  यह एक कठिन प्रश्न है और इसका उत्तर कोई आसान नहीं है। ब्लुम नामक एक मनोविज्ञानी का कहना है कि यह एक प्रकार की पितृग्रन्थि है जो एक नेता को जनता के पिता के तौर पर प्रस्तुत करती है और चाहती है कि जनता उसकी आज्ञापालक बनी रहे। इसी को कुछ समाजशास्त्री कहते हैं कि राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ एक किस्म का आज्ञापालक समाज बना रहा है। वास्तव में जो फासिस्ट है वह चाहता है कि वह सदैव पितातुल्य रहे और जनता बच्चों की तरह से। बच्चे कभी बड़े न हों और न ही अपने पिता से सवाल करें। इस सम्बन्ध के भीतर पूँजीपतियों के लिए व्यापार करने की छूट निहित है और अगर कोई उसमें अन्याय देखता है या गैरकानूनी प्रक्रिया देखता है तो उसका दमन भी निहित है।

फासीवाद धर्म का सहारा लेता है, नस्ल का सहारा लेता है लेकिन यह आवश्यक नहीं कि वह सिर्फ उसी के सहारे चले। वह वास्तव में जो नारा देता है उसके विपरीत आचरण करता है और जनता को समझा देता है कि वास्तव में जनता अपने हितों के बारे में सही तरीके से सोच नहीं पाती इसलिए सोचने का काम उसी ने ले रखा है।

कोलंबिया विश्वविद्यालय के राबर्ट ओ. पैक्सटन ने 1998 में लिखे अपने एक लेख `फाइव स्टेजेज आफ फासिज्म’ में फासिज्म को परिभाषित करने में आने वाली दिक्कतों का जिक्र करते हैं। वे कहते हैं कि फासीवाद की परिधि का दिककाल अस्पष्ट है। आखिर कैसे हम इटली के मुसोलिनी और जर्मनी के हिटलर को एक साथ रख सकते हैं। कैसे हम फासीवाद को नाज़ीवाद के साथ जोड़कर देख सकते हैं। मुसोलिनी के साथ तो बहुत सारे यहूदी थे जबकि हिटलर यहूदियों पर जुल्म करता था। मुसोलिनी के आसपास उतना आतंक नहीं था जितना हिटलर के आसपास। मुसोलिनी के दमनकारी लोग उससे जुड़े जरूर थे लेकिन वे उससे दूर भी थे। फिर वे यह भी सवाल उठाते हैं कि किस तरह से हम फासीवाद की श्रेणी में स्तालिन को शामिल कर सकते हैं या सद्दाम हुसैन या दक्षिण अफ्रीका में रंगभेद लाने वाले नेता हेडरिक वेरबोर्ड को शामिल कर सकते हैं।

इन तमाम अनिश्चितताओं के बीच पैक्सटन फासीवाद के कुछ लक्षण बताते हैं जिन पर हमें गौर करना चाहिए और भारत के चेहरे को पूरी दुनिया के साथ उसमें देखना चाहिए। वे लक्षण इस प्रकार हैः-

1-फासीवाद के भीतर एक समूह को प्राथमिकता दी जाती है और उसके प्रति जो कर्तव्य निर्धारित किए जाते हैं वे सभी के अधिकारों से ऊपर मान लिए जाते हैं। चाहे वे अधिकार सार्वजनिक हों या व्यक्तिगत।

2-यह विश्वास पैदा किया जाता है कि वह समूह विशेष पीड़ित है। इस आख्यान के आधार पर ऐसी भावना भर दी जाती है कि जिसके तहत उस समूह के शत्रु चाहे आन्तरिक हों या बाह्य उनके विरुद्ध कोई भी कार्रवाई सही होती है।

3-यह भय पैदा किया जाता है कि व्यक्तिवाद और महानगरीय उदारवाद के चलते उस समूह का पतन हो जाएगा। इसलिए उसे इन मूल्यों के साथ नहीं जाना चाहिए।

4-उस समूह को एक किस्म के भाईचारे की भावना के तहत एक दूसरे से जोड़ा जाता है और उसकी पवित्रता और एकता को समान प्रतिबद्धता के आधार पर खड़ा किया जाता है।अगर सम्भव और जरूरी हो तो खास किस्म की हिंसा के साथ उसे जोड़ा जाता है।

5-अस्मिता और सम्बन्ध के बोध को बढ़ाया जाता है जिसके भीतर समूह का वैभव अपने आत्म सम्मान को लागू करता है।

6-स्वाभाविक नेता का अधिकार पूरे समाज पर कायम किया जाता है और इस तरह एक राष्ट्रीय सरगना तैयार किया जाता है और लोगों को समझाया जाता है कि वही समूह का भविष्य निर्धारित कर सकता है।

7-हिंसा और इच्छा तभी सुन्दर लगती है जब उसे डारविनवादी संघर्ष में समूह की सफलता से जोड़ दी जाए।

पैक्सटन फासीवादी सत्ताओं के चरित्र का वर्णन करते हुए कहते हैं कि यह वास्तव में विचारधारा से ज्यादा एक प्रक्रिया है। इसलिए जब भी इसे विचारधारा के रूप में ढूंढने की कोशिश की जाती है तो भ्रम पैदा होता है। फासीवादी लोग मौके पर पड़ी हुई हर चीज को अपनी योजना में शामिल कर लेते हैं। वे कहते हैं कि फासीवादी हमेशा चुनाव के माध्यम से ही आता है। इसलिए फासीवादी जब यह कहते हैं कि चुनाव तो नियमित हो रहे हैं तो वे एक भ्रामक बयान देते हैं। तख्तापलट के माध्यम से फासीवाद नहीं आता। उसके माध्यम से सैनिक तानाशाही आती है। क्योंकि जिस समाज में स्वतन्त्रता को समाप्त करना है उसे पहले से स्वतन्त्रता का अनुभव होना चाहिए। फासीवादी राजनीतिक क्रान्ति और आधुनिकता की बहुत बात करते हैं लेकिन उनका आचरण ठीक उसके विपरीत रहता है। वे कहते हैं चीजें जैसी हैं वैसी रहनी चाहिए इसलिए उन्हें बदलने की जरूरत है। एक तरह से वह भाषा के साथ भाँति-भाँति के छल करता है। जिसे एक हद तक ओरवेल के ओल्ड स्पीक और न्यू स्पीक में हम देख सकते हैं।

फासिस्ट अनुदार अभिजात वर्ग के साथ सहयोग करके सत्ता पर कब्जा करता है। इस दौरान अनुदार अभिजात वर्ग अपने लिए कुछ स्वतन्त्रता हासिल करता है। बाद में सत्ता उसे भी बदलती है।

बीसवीं सदी की इस बीमारी ने दुनिया के तमाम लोकतान्त्रिक देशों को फिर से अपने अपने ढंग से जकड़ना शुरू कर दिया है। भारत जिसने अपनी आजादी की लड़ाई से दुनिया के सौ से अधिक देशों को आजाद होने की प्रेरणा दी आज स्वयं एक तरह के फासीवाद में डूबता जा रहा है। विडम्बना यह है कि एक तरफ कहा जा रहा है कि भारत लोकतन्त्र की जननी है। आज अगर डॉ अम्बेडकर भी आ जाएँ तो वे भी संविधान नहीं समाप्त कर सकते, या विपक्ष संविधान को समाप्त होने की अफवाह उड़ा रहा है तो दूसरी ओर संघवाद, चुनावी आचार संहिता की परवाह किए बगैर राज्यों के अधिकार क्षेत्र में केन्द्रीय एजेंसियों का हस्तक्षेप बढ़ रहा है। विपक्षी मुख्यमन्त्रियों को गिरफ्तार किया जा रहा है, विपक्षी विधायकों को खरीद कर उनकी सरकारें गिराई जा रही हैं। विपक्षी दलों का फण्ड जब्त किया जा रहा है। और फिर भी कहा जा रहा है कि देश में लोकतन्त्र कायम है।

क्या भारतीय मानस इस चुनाव में इस खतरे को समझ सकेगा या जब तक समझेगा तब तक बहुत देर हो चुकी होगी?

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अरुण कुमार त्रिपाठी

लेखक वरिष्ठ पत्रकार और स्तम्भकार हैं। सम्पर्क +919818801766, tripathiarunk@gmail.com
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