मोदी दशक के बाद भारत का लोकतन्त्र
पूर्ण बहुमत से सत्ता में आई पहली हिन्दुत्ववादी सरकार के एक दशक पूरे हो चुके हैं, इस दौरान नरेंद्र मोदी के नेतृत्व में चल रही सरकार अपने कोर एजेण्डे को लागू करने में बहुत ईमानदार साबित हुई है साथ ही उसने यह सन्देश देने का कोई मौका नहीं गवाया है कि नरेंद्र मोदी के नेतृत्व में एक नये भारत का निर्माण हो रहा है जो 1947 में जन्में भारत से बिलकुल अलग है लेकिन इसी के साथ ही भारत एक विकेन्द्रीकृत, उदारवादी और समावेशी लोकतन्त्र के तौर पर लगातार कमजोर हुआ है। एक दशक के बाद ऊपरी तौर पर तो भारत वही दिखलाई पड़ता है लेकिन इसकी आत्मा को बहुत ही बारीकी से बदल दिया गया है। आज भारत और भारतीय होने की परिभाषा बदल चुकी है। विभाजक और एकांगी विचार जो कभी वर्जित थे आज मुख्यधारा बन चुके हैं, भारतीय लोकतन्त्र को रेखांकित करने वाले मूल्यों और संस्थानों पर लगातार हमले हुए हैं जिससे लोकतन्त्र के स्तम्भ कमजोर हो चुके हैं, नागरिक के बीच असमानता बढ़ी है और नागरिक स्थान सिकुड़ते गये हैं।
देश और नागरिक समाज और मीडिया की स्थिति
भारत पूरी तरह से बदल चुका है, 2014 से 2024 के बीच देश का बुनियादी चरित्र बदल चुका है। आजादी के बाद पण्डित जवाहर लाल नेहरू द्वारा दिए गये प्रसिद्ध भाषण “ट्रिस्ट विद डेस्टिनी” में पुराने से बाहर निकल नये युग में कदम रखने का वादा किया गया था लेकिन अब देश के पहले प्रधानमन्त्री द्वारा नियति से किये गये वायदे को तोड़ दिया गया है। आज भारत भविष्य के रास्ते से भटककर अतीत के रास्ते पर चल पड़ा है। सबसे चिन्ताजनक स्थिति उस धर्मनिरपेक्षता के रास्ते से हटना है जिसे आजादी के बाद से हमारे राष्ट्रीय नीति का एक मूलभूत सिद्धान्त माना जाता रहा है, उसकी जगह हिन्दू राष्ट्रवाद ने खुद को स्थापित कर लिया है। आजादी के 75 वर्ष बीत जाने के बाद आज देश, समाज और राजनीति में हिन्दुत्व की विचारधारा का स्वर्णकाल है।
पिछले दस सालों खासकर 2019 के बाद अपने दूसरे कार्यकाल में मोदी सरकार ने अपने वैचारिक एजेण्डे को जोरदार गति से क्रियान्वित किया है जिसमें अयोध्या में राम मन्दिर निर्माण, जम्मू-कश्मीर से धारा 370 हटाना, तीन तलाक पर कानून, नागरिकता संशोधन कानून-2019 प्रमुख रूप से शामिल हैं। राम मन्दिर के प्राण प्रतिष्ठा समारोह के बाद केन्द्र सरकार के कैबिनेट बैठक में एक प्रस्ताव पारित किया गया जिसमें कहा गया है कि “1947 में इस देश का शरीर स्वतन्त्र हुआ था और अब इसमें आत्मा की प्राण-प्रतिष्ठा हुई है”।
एक लोकतन्त्र में सिविल सोसाइटी (नागरिक समाज) की भूमिका उसके अन्तरात्मा के आवाज की तरह होती है। यह राज्य और बाजार से स्वतन्त्र ईकाई होती है और किसी भी जिन्दादिल लोकतन्त्र के लिए प्रभावी सिविल सोसाइटी का वजूद बहुत जरूरी है। नागिरकों के हितों की वकालत, लोकतान्त्रिक सहभागिता और मानव अधिकारों की रक्षा जैसे काम इसकी प्रमुख भूमिकाओं में शामिल है। पिछले एक दशक के दौरान भारत में सिविल सोसाइटी की आवाज कमजोर हुई है साथ ही नागिरकों का सिविक स्पेस भी संकुचित हुआ है। सिविल सोसाइटी और नागरिक अधिकारों पर नजर रखने वाले वैश्विक संगठन ‘सिविकस’ ने अपने 2022 के रिपोर्ट में भारत को ‘दमित’ की श्रेणी में रखा है। गौरतलब है कि 2019 से भारत लगातार इसी श्रेणी में है। रिपोर्ट में कहा गया है कि ‘जो लोग और संगठन सरकार से सहमत नहीं होते हैं उनके खिलाफ यूएपीए और एफसीआरए जैसे कानूनों का इस्तेमाल किया जाता है।’
मीडिया का हाल तो बेहाल है ही। देश के प्रमुख मीडिया घरानों की विश्वसनीयता लगातार कम होती गयी है, कम हो भी गयी है, वे पक्षपाती नजर आने लगे हैं, मुख्यधारा की मीडिया मोदी सरकार की आलोचना करने में स्वतन्त्र महसूस नहीं करती है। इन सबके चलते एक स्वतन्त्र संस्थान के तौर पर मीडिया बहुत कमजोर हुई है। 2014 के बाद से भारत विश्व प्रेस स्वतन्त्रता सूचकांक में 180 देशों में से 161वें स्थान पर आ गया है, जो अफगानिस्तान, बेलारूस, हांगकांग, लीबिया, पाकिस्तान और तुर्की से नीचे है। इधर सोशल मीडिया के उदय ने संचार सामग्री के निर्माण और प्रसार को विकेन्द्रीकृत तो कर दिया है लेकिन उसकी प्राथमिकता मूल्य गुणवत्ता के बजाय वायरल होना (तेजी से फैलना) है।
लोकतन्त्र के उखड़ते पाँव
2014 में नरेंद्र मोदी की राष्ट्रवादी भारतीय जनता पार्टी के सत्ता में आने के बाद से देश की प्रमुख लोकतान्त्रिक संस्थाएँ औपचारिक रूप से अपनी जगह पर बनी हुई हैं लेकिन लोकतन्त्र को कायम रखने वाले मानदण्ड और प्रथाएँ काफी हद तक कमजोर हुई हैं इस स्थिति को देखते हुए लोकतन्त्र पर नजर रखने वाले संगठन आज भारत को एक ऐसे “हाइब्रिड शासन” के रूप में वर्गीकृत करते हैं जहाँ ना तो पूरी तरह से लोकतन्त्र है ना ही निरंकुशता।
लेकिन अन्तरराष्ट्रीय संस्था वी-डेम इंस्टिट्यूट की डेमोक्रेसी रिपोर्ट-2024 में कहा गया है कि ‘2023 में भारत ऐसे 10 शीर्ष के देशों में शामिल रहा जहाँ पूरी तरह से तानाशाही अथवा निरंकुश शासन व्यवस्था है।’ वी-डेम इंस्टिट्यूट द्वारा भारत को 2018 में चुनावी तानाशाही की श्रेणी में रख दिया गया था, उसके बाद से वी-डेम के सूचकांक में भारत का दर्जा लगातार गिरा ही है।
भारत में 2024 में आम चुनाव होने जा रहे हैं, लोकतन्त्र के लिए जरूरी है कि मैच समान पिच पर खेला जाए लेकिन इलेक्टोरल बॉन्ड से मिली भारी दानराशि, विपक्ष पर केंद्रीय जाँच एजेंसियों की कार्रवाई के चलते मुकाबला एकतरफा सा लगने लगा है। विपक्ष और जागरूक नागिरकों द्वारा चुनावों के स्वतन्त्र और निष्पक्ष होने को लेकर चिन्ताएँ वाजिब हैं।
एक लोकतन्त्र में राजनीतिक प्रक्रिया का मतलब सत्ता परिवर्तन नहीं बल्कि रचनात्मक सहयोग को बढ़ावा देना है, एक प्रकार से देखा जाए तो एक लोकतन्त्र में राजनीति का अर्थ आम सहमति और सामूहिक कार्रवाई के लिए मंच प्रदान करना है लेकिन भारत में आज दोनों चीजें दुर्लभ हो चुकी हैं। भारतीय लोकतन्त्र में सत्ता सन्तुलन की स्थिति बिगड़ चुकी है। पिछले दस वर्षों से हमारे लोकतन्त्र के साथ ऐसा कुछ हो रहा है जो इसकी लोकतान्त्रिक आत्मा को ख़त्म कर रहा है और हम गुस्से से उबलते, आपस में भिड़ते, छोटे दिल, दिमाग और संकीर्ण आत्मा वाले एक राष्ट्र के रूप में तब्दील होते जा रहे हैं।
भारत में लोकतान्त्रिक राजनीतिक प्रक्रिया कमजोर हो चुकी है। अब हम दुनिया के सबसे बड़े लोकतन्त्र नहीं रह गये हैं। ऐसा नहीं है कि संस्थागत तन्त्र पर कब्जा कर लिया गया है, बल्कि लोकतन्त्र के रूप में हमारे आगे बढ़ने के रास्ते बन्द होने की कगार पर हैं, सत्ता केन्द्रीकृत होती जा रही है, शक्ति सन्तुलन को साधना लगातार मुश्किल होता जा रहा है। अगर दावे के मुताबिक़ सत्तारूढ़ दल लगातार तीसरी बार सता में वापस आती है तो हमें और अधिक लोकतान्त्रिक गिरावट, निरंकुशता देखने को मिल सकती है।