सार्वजनिक विमर्श का खोखलापन
गंभीर अकादमिक विमर्श और आसानी से समझ में आने वाले अखबारी लेखन के बीच अक्सर एक विभाजन रेखा खींची जाती है। पत्रकारों और सार्वजनिक टिप्पणीकारों का एक वर्ग (जो मूल रूप से समाचार पत्रों और वेब पोर्टलों में लिखते हैं) गंभीर शैक्षणिक शोध के प्रति उदासीन रहता हैं। यह उदासीनता उनके तर्कों को उथला और सतही बनाती है। दूसरी ओर शिक्षाविद और विशेषकर राजनीतिशास्त्र के शोधार्थी समकालीन प्रश्नों के महत्व को समझने में अमूमन देर करते हैं। वे ज्वलंत सामाजिक-राजनीतिक मुद्दों पर शोध करने के बजाय, ठहरे हुए, स्थूल और अकादमिक जगत में स्वीकार्य विषयों को अपना रिसर्च एजेंडा बनाते हैं। इस तरह अखबारी लेखन और गंभीर शोध के बीच की खाई बढ़ती जाती है। यह विरोधाभास हमारे बौद्धिक विमर्श के गिरते स्तर के मुख्य कारणों में से एक है।
मेरा मत है कि हमें सार्वजनिक विमर्श की इस गिरावट के तीन समस्याग्रस्त पहलूओं पर चर्चा करना ज़रूरी है। (अ) राजनीतिक संस्थानों (विशेष रूप से कानूनी-संवैधानिक ढांचे) की एक निश्चित और सतही समझ; (ब) राजनीति की वास्तविकताओं के प्रति उदासीनता; और (स) भविष्यवादी राजनीतिक परिकल्पनाओं की कमी।
एक धारणा है कि संविधान हमारे राजनीतिक जीवन के रोजमर्रा के कामकाज को निर्धारित करने के लिए एक अनिवार्य संदर्भ बिंदु है। यह विश्वास पूरी तरह से गलत नहीं है। यह सच है कि संविधान में कुछ ऐसे मानक आदर्श हैं, जिन्हें सरकार के लिए मार्गदर्शक सिद्धांत कहा गया है। लेकिन इसका मतलब यह नहीं है कि राजनीति की व्यावहारिकता हमेशा इन सिद्धांतों द्वारा निर्धारित होती है। राजनीतिक वर्ग अपनी आवश्यकताओं के अनुसार इन सिद्धांतों की व्याख्या करता है और इनके प्रभावी अर्थ बनाता है।
आजादी के बाद के शुरुआती दशकों मे संविधान का इस्तेमाल समाजवादी पैटर्न का समाज जैसी राजनीतिक परिकल्पना को सही ठहराने के लिए किया गया। संविधान को एक राजनीतिक स्रोत के रूप मे परिभाषित किया गया ताकि आर्थिक जीवन में राज्य के हस्तक्षेप को कानूनी मान्यता दी जा सके। यही वजह थी कि 1960 से 1980 के दौर का हमारा राजनीतिक विमर्श ‘सार्वजनिक क्षेत्र’, और ‘योजना-केंद्रित’ विकास के इर्द गिर्द घूमता रहा।
लेकिन संविधान की यह स्थापित राजनीतिक व्याख्या 1990 के दशक के तक आते आते पूरी तरह से विलुप्त हो गयी। आर्थिक उदारीकरण के बाद राज्य अब यह दावा करने लगा कि बाजार खुद को विनियमित करने में सक्षम है; इसलिए आर्थिक क्षेत्र में सरकार के हस्तक्षेप करने की कोई आवश्यकता नहीं है। इन बाजार आधारित आर्थिक नीतियों ने पिछले तीन दशकों में एक तरह से राजनीतिक संस्थानों का आमूल-चूल पुनर्गठन किया है। एस ई जेड की स्थापना और वस्तु एवं सेवा कर (जीएसटी) की शुरुआत केवल आर्थिक नीतियाँ नहीं है। इन नीतियों ने स्थानीय स्तर की राजनितिक संस्थानों और हमारे संघीय ढांचे पर दूरगामी प्रभाव डाला है। दुर्भाग्य वश, हमारी सार्वजनिक बहसें अर्थव्यवस्था और राजनीति के बीच इस तरह के जटिल और प्रत्यक्ष अंतर्संबंधों को मान्यता नहीं देती हैं। नतीजतन, राजनीतिक संस्थानों की एक सतही व्याख्या उभरती है, जो वास्तविकता से कोसों दूर है।
सार्वजनिक विमर्श की गिरावट की दूसरी समस्या विचार और विचारधारा के फर्क से जुड़ी हुई है। अब यह दावा करना फैशन सा बन गया है कि हमारी राजनीति में विचारधारा के लिए कोई जगह नहीं है। आम आदमी पार्टी (आप) ने इस दावे को प्रचारित करने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई है। पार्टी ने अपने शरुआती दौर से ही यह कहना शुरू कर दिया था कि विचारधारा 20 वीं सदी की परिघटना थी जिसका 21 वीं सदी की भारतीय राजनीति में कोई भूमिका नहीं है। यह तर्क भी दिया गया कि स्वथ्य राजनीतिक व्यवहार और प्रथाएँ नये राजनीतिक विचार उत्पन्न करेंगे, जिनके जरिये नये राजनीतिक मूल्यों और मानकों का निर्माण संभव होगा। निस्संदेह यह एक आकर्षक दावा था, खासकर 2010 के दशक की शुरुआत में जब सेक्युलर बनाम सांप्रदायिक विमर्श अपना पैनापन खो चुका था और भारतीय राजनीति अपने नये मुहावरे की तलाश में थी।
लेकिन इस सूत्रीकरण का एक व्यावहारिक निहितार्थ भी था। राजनीतिक दलों को अब चुनावी पैंतरेबाजी और जोड़तोड़ के लिए कोई वैचारिक औचित्य पेश करने की आवश्यकता नहीं रह गयी थी। वे चुनाव जीतने की क्षमता और व्यावहारिक राजनीति के नाम पर अपनी हर चाल को जायज ठहरा सकते थे। दिलचस्प बात यह है कि हमारी सार्वजनिक बहस राजनीति के इस नए रूप के वास्तविक प्रभावों को नहीं पहचानती है। उदाहरण के लिए, उदारवादी बुद्धिजीवियों का एक प्रमुख वर्ग इस बात को मान कर चलता है कि हिंदुत्व की राजनीति भारत में फासीवाद का ही एक रूप है। जाति-व्यवस्था पर संघ परिवार के बदलते रुख, आर्थिक उदारीकरण पर हिंदुत्व समूहों के बीच आंतरिक विरोधाभासों/बहसों और यहां तक कि समान नागरिक संहिता पर हिंदुत्व राजनीति की आंतरिक असहजता जैसे विषयों के बारे में इन उदारवादी बुद्धिजीवियों की कोई दिलचस्पी नहीं है। बदलती राजनीतिक वास्तविकताओं के साथ जुड़ाव की यह कमी उन्हें अपनी धारणाओं और विश्वास पर सवाल उठाने की अनुमति नहीं देती है। यही हालत अपने को गर्व से राष्ट्रवादी कहने वाले टिप्पणीकारों और विद्वानों की भी है। उनका लेखन हिन्दुत्व की राजनीति को मिलने वाली आंतरिक चुनौतियों के प्रति लगभग उदासीन है। वे सांप्रदायिकता उन्मुख चुनाव प्रचार, विपक्षी दलों के नेताओं की खरीद फरोख्त, राज्य संस्थाओ के बेजा राजनीतिक इस्तेमाल और गिरती राजनीतिक नैतिकता जैसे सवालों पर बात नहीं करते।
सार्वजनिक संवाद की तीसरी परेशानी भविष्य-उन्मुख है। हमारे सार्वजनिक विमर्श में नयी राजनीतिक परिकल्पनाओं के लिए कोई जगह नहीं है। राजनीतिक दलों ने पहले से ही राजनीतिक फर्मों की तरह व्यवहार करना शुरू कर दिया है: वे मतदाताओं को उपभोक्ताओं के रूप में संबोधित करते हैं और उन्हें आकर्षित करने के लिए कल्याणकारी पैकेजों की घोषणा करते है। दरअसल राजनीतिक दलों के लिए चुनाव प्रतिस्पर्धी बाजार है। यह चुनाव केंद्रित ढांचा दो परस्पर विरोधी मान्यताओं पर टिका है- मतदाताओं के एक समूह को आकर्षित करने के लिए पैकेज की वांछनीयता; और ऐसे राजनीतिक दुश्मन की शिनाख्त जिसे वोटर के लिए एक खतरे के रूप में पेश किया जा सके। उदाहरण के लिए, यूपीए की धर्मनिरपेक्षता और समावेश की राजनीति ने कल्याणकारी पैकेज के रूप में हाशिए के समूहों को शामिल करने की परिकल्पना दी। लेकिन इस के साथ ही साथ कांग्रेस और अपने आप को सेक्युलर कहने वाली पार्टियों ने भाजपा के हिंदुत्व को राष्ट्र के लिए खतरे के रूप में भी पेश किया।
दिलचस्प बात यह है कि भाजपा भी इसी तरह के तर्क का सहारा लेती है। एक ओर हाशिए पर खड़े समुदायों तक पहुंचने के लिए सब का साथ सब का विकास की बात की जाती है। वहीँ दूसरी ओर मुस्लिम पहचान को इस तर्ज पर समस्याग्रस्त किया जाता है जैसे राष्ट्रवाद का अर्थ हिंदुत्व के अलावा कुछ और नहीं हो सकता। इस बात से यह साफ जाहिर है कि राजनीतिक दलों के लिए व्यापक सामाजिक परिवर्तन का विचार कतई प्रासंगिक नहीं है।
लेकिन बुद्धिजीवी वर्ग के लिए ऐसी कोई बाध्यता नहीं है। वे निश्चित रूप से राजनीतिक दलों द्वारा निर्धारित सीमाओं से परे जा सकते हैं। इसमें कोई संदेह नहीं है कि गांधी, अंबेडकर, भगत सिंह, लोहिया, जेपी, सावरकर, दीन दयाल उपाध्याय, मौलाना आजाद और नेहरू पर हाल के वर्षों में गंभीर चर्चा हुई है। लेकिन इन बहसों में एक अजीब ठहराव भी है। ऐसा लगता है कि मानों हम अपने सवालों के जवाब इन महान विचारकों के जीवन और लेखन में तलाश कर रहे है। यह दृष्टिकोण समस्याप्रद है। अतीत के महान विचारक निश्चित रूप से हमारी राजनीतिक वास्तविकताओं को समझने के लिए हमारे संदर्भ बिंदु हो सकते हैं। लेकिन हमें अपने राजनीतिक ब्रह्मांड को पूरी तरह से तलाशने के लिए अन्य बौद्धिक संसाधनों की भी खोज करनी होगी। शायद तभी हम भारतीय राजनीतिक की एक गहरी, सर्जनात्मक और भविष्य-उन्मुख समझ विकसित कर पाएंगे।