हम भारत के लोग: किस भारत के कौन लोग?
एक दफा भारत का संविधान बन गया और उसकी प्रस्तावना में यह लिख दिया गया कि ‘हम भारत के लोग’ इस संविधान को लागू करने करवाने के पीछे की असल ताकत हैं, तो इस पर पुनर्विचार की प्रक्रिया करीब-करीब बंद हो गई। दिक्कत यह है कि भारत और उसके लोग, दोनों दो अमूर्त धारणाएं हैं, जिनकी बहुत तरह की अलग-अलग व्याख्या संभव है।
जहां तक संविधान निर्माताओं की मूल-चिंता का प्रश्न है, वह लोगों की सामूहिकता से निर्मित होने वाली ‘हम’ की अवधारणा से संबंध रखती है। ‘हम’, यानी हमारा कोई सामूहिक रूप, जिसके साथ हम सब बिना किसी संदेह के जुड़े रह सकें। इसके लिए कुछ बहुत ऊंचे आदर्शों की परिकल्पना कर ली गई, जिनसे भारत के लोग कमोबेश सहमत हो सकते हों। इनमें से एक राष्ट्र की प्रभुसत्ता की बात है, जिस पर किसी तरह का समझौता संभव नहीं है। परंतु वह प्रभुसत्ता कैसे बनी रहेगी उसके लिए कौन से रास्ते अपनाए जाएंगे, इसे लेकर विचारों की भिन्नता दिखाई देती है। संविधान ने इसके लिए हमारे प्रजातांत्रिक होने और बने रहने के विकल्प को चुना है। फिर उसे समाजवादी लक्ष के प्रति भी समर्पित कर दिया गया है। सांस्कृतिक एकता को बनाए रखने के लिए बात हमारे धर्म-निरपेक्ष या पंथ-निरपेक्ष होने तक चली गई है।
जहां तक सभी के लिए समान न्याय की बात है उसे स्वीकार करते हुए भी सवाल उठता रहता है की उसकी संस्थानों पर किसी विशेष वर्ग का कब्जा तो नहीं हो गया है। यही स्थिति विकास करने के समान अवसर पाने पर भी लागू होती है। दिखाई तो यही देता है कि अवसर सबके लिए समान रूप में खोल दिए गए हैं। परंतु परोक्ष रूप में वे किस तरह कुछ विशेष वर्गों के लिए अधिक खुले होते हैं, इसे देख पाना कठिन नहीं है। न्याय जिनकी ओर अधिक झुका होता है तथा विकास के अवसर जिनकी अधिक परवाह करते हैं, समाज के वही विशेषाधिकार प्राप्त वर्ग एक तरह से ‘भारत के वे लोग’ हो जाते हैं, जिस संविधान ‘हम’ कहकर संबोधित करता है।
तब सवाल उठता है कि असल भारत कौन सा है और किन लोगों का है?
आज़ादी मिलने के बाद हमें जो भारत मिला है, वह एक विभाजित भारत है। विभाजन का आधार सांप्रदायिक रहा है। इसलिए यह सवाल भी साथ ही हमारे सामने उठ खड़ा होता है कि भारत किस धर्म को मानने वाले लोगों का है? जब हमने एक ऐसे भारत को स्वीकार कर लिया है, जिसका सांप्रदायिक विभाजन हुआ है तब उसमें जब हम संवैधानिक रूप में धर्मनिरपेक्ष होने की बात को सभी लोगों की सामूहिक जरूरता और चेतन की अभिव्यक्ति की तरह प्रस्तुत करते हैं, तब वह वांछनीय होने के बावजूद एक आरोपित बात लगने लगती है। इस बात का सीधा-साधा मतलब यह है कि जब तक पाकिस्तान और बांग्लादेश एक राज्य के रूप में इस्लाम को सबसे ऊपर रखने की बात करते रहेंगे, भारत के लिए एक राज्य की तरह धर्मनिरपेक्ष बने रहने के रास्ते में हमेशा अड़चन आती रहेगी। विभाजन को रद्द करना अब संभव नहीं है। पर तब क्या भारत का धर्मनिरपेक्ष हो पाना भी एक असंभावना है? तब तक क्या भारत के हिंदू-मुसलमान-सिख-इसाई का, ‘हम सब भारत के लोग है’ – इस रूप में समाहार हो सकता है?
यहां मैं अपने संविधान निर्माताओं में प्रमुख बी आर अंबेडकर की चर्चा करना चाहूंगा। भारत को इतने महान उच्च आदर्शों की परिकल्पना से जोड़ने वाले इस मनीषी को भी पाकिस्तान और जिन्ना के संदर्भ में यह लगता रहा कि कहीं ऐसा तो नहीं कि संकट के क्षणों में भारत के मुसलमान, भारत की ओर न रहकर, किसी मुस्लिम देश की ओर तो नहीं झुक जाएंगे? आज़ाद भारत के मुसलमानों ने अंबेडकर जैसे लोगों की इस चिंता को खारिज करने में बहुत दूर तक अपनी सकारात्मक भूमिका पर मोहर लगाई है।
भारत को हिंदू राष्ट्र बनाने की दिशा में अग्रसर होने वाली भारतीयता से आप यह उम्मीद नहीं कर सकते कि वह हमें भारत की उसे आत्मा के साथ जोड़ सकेगी जिसे हमने धर्म और संप्रदायों से ऊपर उठकर ही पाया है। यह बात हिंदू धर्म के अभी तक ठीक से एक धर्म ना हो सकने की बात से भी जाहिर होती है। दिक्कत यह है कि अब हम हिंदू धर्म की व्याख्या भी किसी विधिवत धर्म की तरह करने लग पड़े हैं। तथापि यदि हम अपने हिंदू होने के वास्तविक इतिहास को सामने रखेंगे तो हमारा सांप्रदायिक होना उत्तरोत्तर कठिन होता चला जाएगा।
यहां हिंदू धर्म के इस इतिहास की कुछ बुनियादी बातों की तरफ इशारा करना ज़रूरी लगता है। हिंदू धर्म को एक धर्म की तरह गठित करने के लिए बुनियाद की तरह जो ग्रंथ आज भी खारिज नहीं हो सका है वह है वेद। हम जानते हैं कि वेद संहिताएं है। उनका संबंध बहू देव वादी विचारधारा से है। बेशक किसी एक ब्रह्म में उन सभी देवों के विलय की बात भी बीच-बीच में चली आती है। देवों के ब्रह्म में विलय के बावजूद इंद्र, विष्णु, ब्रह्मा, शिव, सूर्य, वरुण तथा अन्य देवताओं का अपना विशिष्ट व्यक्तित्व बना और बचा रहता है। लेकिन बाद में हिंदू धर्म की यह उदारवादी ज़मीन, कुछ लोगों की विचारधाराओं के बाड़ों में, कैद होने लगती है। तब हम पाते हैं कि बाकी अवतार पृष्ठभूमि में चले जाते हैं। फिर राम के मर्यादावादी अवतार को उन सबके ऊपर इस तरह बिठा दिया जाता है, जैसे वे ही ब्रह्म के एकमात्र प्रतिनिधि या पर्याय हों। वेद की जगह भगवद्-गीता को ले आने की बात भी धीरे-धीरे पीछे छूट जाती है। इस यरह तुलसी के रामचरितमानस को एक धर्म ग्रंथ की तरह सबसे ऊपर बैठा लेने का प्रयास होने लगता है।
यह सारा मामला भारत को किसी ऐसी एकरूपता में बांधने का है, जिससे यह लगे कि भारत किसी खास विचारधारा के आसपास केंद्रित है। फिर उसी विचारधारा के आधार पर भारत के संगठित होने की बात सामने आती है। लोगों को संगठित करने के लिए भारतीयता के एक सीमित और संकीर्ण रूप को राष्ट्रवाद की तरह गठित कर लिया जाता है। फिर सत्ता के एक खास रूप और राजनीतिक दल से उसका संबंध जोड़ लिया जाता है। इस तरह भारत को एक नए रूप में परिभाषित करने की बात सामने आती है। उसे असहमत होने वालों को देशद्रोही तक कहा जा सकता है।
इस यरह ‘हम भारत के लोग’ एक नयी व्याख्या के रूप में हमारे सामने आते हैं। अब इसका अर्थ भारत के सामूहिक व्यक्तित्व के बजाय, बहुसंख्यक राजनीतिक व्यक्तित्व वाला हो जाता है।
तथापि इस तरह से भारत की जो व्याख्या की जाती है, वह भारत के लोगों की ठीक से व्याख्या करने में कामयाब नहीं हो पाती। जहां तक भारत के लोगों की बात है, उनका संबंध किसी खास धार्मिक या सांस्कृतिक पहचान भर से ही नहीं है। आपितु वह भारत के सामूहिक विकास में लोगों की हिस्सेदारी से प्रकट होने वाली बात अधिक है।
आजकल प्राच्यवादी दृष्टि से विचार करते हुए बहुत से लोग अक्सर यह कहते देखे जाते हैं कि अंग्रेजो के आने से पहले भारत का विश्व की आर्थिकता में योगदान एक चौथाई से अधिक था। आर्थिक दृष्टि से संपन्न राष्ट्र की संस्कृति भी, भारत को विश्व के लिए अनुकरणीय बनाती थी। परंतु अंग्रेज़ जब भारत से गए तब भारत की विश्व की आर्थिक संरचना में हिस्सेदारी दो प्रतिशत के आसपास ही बची रह गई थी। विकास की पटरी से नीचे उतरते ही संस्कृति भी अपने उज्जवल पक्ष से विश्व को प्रभावित करने के लिए जद्दो-जहद करती दिखाई देने लगती है। आज़ाद होते ही भारत खुद को इस दिशा में संभालने का प्रयास करने में मशगूल हो जाता है। पर तब होता ये है कि विकास के लिए भारत को समाजवादी प्रगति का मॉडल, सर्वाधिक लुभावना लगने लगता है।
यह देखते हुए संविधान के निर्माताओं ने ‘हम भारत के लोगों’ के सपनों में, समाजवाद को भी जगह दे दी। यहां यह समझना ज़रूरी है कि यह विचारधारा, गांधी के अंत्योदय तथा सर्वोदय की अधिक व्यापक अवधारणाओं को एक तरफ रखने की कीमत पर ही, अख्तियार की गई। इसे आप उस समय की ज़रूरत कह सकते हैं। रूस की पंचवर्षीय योजनाएं और उस देश का हमारे साथ खुले मन से किया जाने वाला सहयोग हमें, उसे दिशा में आगे बढ़ने के लिए एक ज़रूरी ज़मीन प्रदान करता है।
लेकिन इससे एक दूसरी दिक्कत खड़ी हो जाती है। वह यह है कि हम भारत की स्थितियों के मुताबिक समाजवाद की अपनी तरीके की पुनर्व्याख्या कैसे करेंगे। अपर्याप्त औद्योगिक विकास के कारण, मज़दूर हमारे यहां परिवर्तन का मुख्य आधार बनने की स्थिति में नहीं आ पाता। दूसरी तरफ भारत के कृषि-प्रधान देश होने की स्थिति में बना रहता है। परंतु वह क्षेत्र जिमीदारों और छोटे किसानों में विभाजित दिखाई देता है।
मज़दूर और किसान, दोनों ही भारत में मौजूद, जातियों के विविध स्तरों और उप-स्तरों में विभाजित रहते हैं। इस वजह से वे कोई बड़ा परिवर्तन कारी आंदोलन खड़ा करने से चूकते रहते हैं। अब जैसे आप मौजूदा दौर के किसान आंदोलन को ले लीजिए। भारत के लोगों को इससे बहुत उम्मीदें थी। महात्मा गांधी भारत को गांव का देश मानते थे। हमारी आर्थिक व्यवस्था की एक धुरी कृषि भी है। इस वजह से किसान की स्थिति हमारे यहां बहुत महत्वपूर्ण हो जाती है। परंतु भारत के कृषि उत्पादन, विश्व की आर्थिक व्यवस्था के मौजूदा बाजार वादी दौर की जरूरतो की पूर्ति करने वाले नहीं हो पा रहे हैं। कृषि का कॉर्पोरेट बाज़ार, उच्च तकनीकी पर आधारित बाज़ार मैं बदलता जाता है। कृषि उत्पादों पर आधारित उद्योग भी हमारे यहां बहुत विकसित नहीं हो पाए हैं। एक विकासशील देश होने की वजह से, अनाज का संग्रह करने वाले गोदाम पर्याप्त मात्रा में नहीं हैं। मौजूदा दौर में कॉर्पोरेट क्षेत्र की नजर गोदाम वाले पहलू की ओर आई है। किसान परंपरागत मंडी करण पर अधिक भरोसा करता है। इससे कृषि-उत्पाद और बाज़ार की बीच जो सकारात्मक संबंध बनने चाहिए थे वे बन ही नहीं पा रहे है। किसानी अपने पारंपरिक रूप को बचाए रखने के लिए आंदोलन करने के लिए बाहर निकल आई है। इस बात को समझना कठिन नहीं है कि इसके बहुत दूरगामी परिणाम नहीं हो सकेंगे।
दूसरी बात यह भी ध्यान देने लायक है कि मज़दूर को केंद्र में रखकर चलने वाली वाम राजनीति पर भी किसानों को बहुत भरोसा नहीं है। कांग्रेस किसान के पक्षधर वाली अपनी पारंपरिक भूमिका और ज़मीन को बहुत हद तक खो चुकी है। किसानों के पास गैर राजनीतिक होने के अलावा कोई अन्य विकल्प नहीं बचा है। परंतु ऐसे में किसान और सरकार के बीच जो बातचीत होती है, उसके बजाय, किसान और बाज़ार के बीच यदि कोई सकारात्मक संवाद हो सके, तो ही उसके कोई ऐसी परिणाम हो सकते हैं, जो भारत को प्रगति के रास्ते पर आगे ले जा सकेंगे।
इस परिदृश्य को समझने पर हमारे लिए यह सवाल पुनर्विचार के केंद्र में आ जाता है कि भारत के विकास और प्रगति का आधार क्या है और इसकी मुख्य दिशा क्या होनी चाहिए। यह न कांग्रेस के तरीके वाले समाजवाद के बस की बात रह गई है और न वाम-दलों की प्रगति की अप्रासंगिक अवधारणा के।
भारत के विकास और प्रगति का तीसरा जो आधारभूत पहलू है, वह प्राकृतिक संसाधनों के बाज़ार से जुड़ा है। मज़दूर, किसान और खनिक- ये तीन भारतीय प्रगति और विकास के मुख्य जन-संसाधन हैं। लेकिन यह तीसरा क्षेत्र भी अनेक अंतर विरोधों का शिकार है। इसकी वजह से भारत के उत्तर-पूर्व के बहुत से लोग विस्थापित होने की स्थिति में चले गए हैं। उससे ऐसी विभाजनकारी लहरें पैदा हो जाती हैं, जो उलटे भारत की प्रभु सत्ता के लिए ही नुकसानदेह होती हैं।
तो कुल मिलाकर भारत के विकास और प्रगति के लिए अधिक फायदेमंद हो गया है, एक चौथा जन-संसानन, जो तकनीकी रूप में कुशल नौजवानों के रूप में सामने आया है। इस ‘स्किल्ड लेबर’ का एक बड़ा बाज़ार है। भारत की उसमें काफी महत्वपूर्ण भूमिका दिखाई देती है। ऐसे में भारत को विकास और प्रगति की राह पर ले जाने वाले, ‘हम भारत के जो लोग’ सामने वाली पांत में खड़े दिखाई देते हैं, उनमें शिक्षित नौजवान आगे होते चले जा रहे हैं। लेकिन इस क्षेत्र का अंतर विरोध यह है कि उसका पूरा दारोमदार विश्व बाज़ार में उसकी भागीदारी पर टिका है। वह भारत को एक राष्ट्र के रूप में देखने के बजाय, भारत को विश्व बाज़ार के एक हिस्सेदार के रूप में देखने की स्थिति में चला जाता है। जाहिर है उसकी सोच अगर बहुराष्ट्रीय होती है, तो उस पर किसी को ऐतराज नहीं होना चाहिए।
अब हम इस बात को ठीक से समझ सकते हैं कि भारत में मौजूदा राजनीति, भारत को भारतीयता और भारतीय राष्ट्र के रूप में जिस तरह परिभाषित करने का प्रयास कर रही है उसके पीछे कौन लोग खड़े हैं। उन में बेरोजगार वर्ग की एक बड़ी भूमिका है। निम्न वर्गों में मौजूद वे लोग, जिन्हें हम एक भक्त समाज में बदलता हुआ देखते हैं, वे भी इस हिंदं-भारतीयता में सक्रिय भूमिका निभाने के लिए प्रस्तुत रहते हैं। इसके अलावा भारत के बाज़ार में अधिक बड़ी हिस्सेदारी करने वाले व्यापारी और पूंजीपति हैं, जो इस तरह की भारतीयता वाले राष्ट्र की प्रभुसत्ता को सबसे ऊपर मानते हैं। थोड़ा सरलीकृत रूप में कहें तो इसके पीछे भारत का वह अमीर तबका है जो गरीबों और वंचितों को भारतीयता के जन-संसाधन की तरह इस्तेमाल करने के लिए प्रतिबद्ध है। यह सत्ता पर काबिज होने का एक बेहतर तरीका तो है, परंतु इससे भारत के विकास और प्रगति के लिए कितनी सकारात्मक ऊर्जा निकलती है, इस बाबत अगर हमें संदेह होता है, तो वह निराधार नहीं है।
भारत को, भारत के रूप में गठित करने का, इससे बेहतर तरीका हमारे पास था। उसका संबंध मनुष्य की तांत्विक चेतना को संबोधित करने से है। भारत के सांख्य, न्याय और योग जैसे दर्शन, बौद्ध और जैन विचारधारा, उपनिषदों के प्रश्नाकुल संवाद, गोरखनाथ से लेकर कबीर आदि तक के आह्वान और भारत में आने वाले सूफियों की उदार विचारधारा – ये सब किसी उच्चतर चेतन की बात करते हैं। ऐसी चेतना की, जो न हिंदू है ना मुसलमान, और जो न सिख हो सकती है, न इसाई। ‘न को हिंदू न मुसलमान’ – वाली इस सोच को मध्यकाल के बाद, हमारे यहां छोड़ दिया गया। हालांकि हम यह देख सकते हैं कि वही विचारधारा भारत को भारत की तरह एकजुट किये रखने में सर्वाधिक सफल होती रही है। उसके द्वारा भारत के सामाजिक परिदृश्य में भी बहुत से सकारात्मक परिवर्तन होते दिखाई देते रहे हैं। उसमें आत्मालोचन करके, खुद को सुधारने की जो प्रवृत्ति रही है, उसे हम आधुनिक काल में गांधी तक आते हुए देख सकते हैं। परंतु सांस्कृतिक रूप में गांधी भी ईश्वर अल्लाह का जोड़ बैठाने में लग जाते हैं। इससे तात्विक-चेतना वाली गहराई जमीन पकड़ने से रह जाती है।
भारतीय संविधान, ‘हम भारत के लोगों’ के रूप में, जिस महत्वपूर्ण बात को हमारे लिए एक आदर्श के रूप में प्रस्तुत करता है, उसे ज़मीन पर उतारने के लिए, बहुत कुछ करना अभी बाकी ह