साँसत में ‘अन्नदाता’
‘’लोग कहते हैं आन्दोलन, प्रदर्शन और जुलूस निकालने से क्या होता है? इससे यह सिद्ध होता है कि हम जीवित हैं, अडिग हैं और मैदान से हटे नहीं हैं। हमें अपनी हार न मानने वाले स्वाभिमान का प्रमाण देना था। हमें यह दिखाना है कि गोलियों और अत्याचारों से भयभीत होकर अपने लक्ष्य से हटने वाले नहीं और हम उस व्यवस्था का अंत करके रहेंगे, जिसका आधार स्वार्थीपन और ख़ून पर है।‘’ (प्रेमचंद)
इस समय तरह-तरह के शब्द बज रहे हैं। खेल तमाशे भी प्रदर्शित हो रहे हैं। सत्ता के बाज़ार में ‘किसान’ अपनी वास्तविकताएँ खोज रहे हैं। वे अपने तपते-दहकते भूखंडों में जीने की आरजू कर रहे हैं। उनके अंदर जिन्दगी की मुस्कान है; लेकिन बाहर एक खामोश सन्नाटा पसरा है। एक अखंड हाहाकार है। रोज़-रोज़ उनके स्वप्न छितरा रहे हैं। वे प्रतिदिन जन्म लेते हैं और प्रत्येक दिन समस्याओं से ठुँकते-पिटते और लहूलुहान होते हैं। उनके अन्न के कोठार छूँछे हैं। वे थोड़ी-सी राहत की खोज में हैं। वे स्वयं तपकर भी सुख-समृद्धि के लिए एक सुख का सूराख तलाश रहे हैं। ‘किसानों’ की आपदाएँ और विपत्तियाँ कोई आज की नहीं है; लेकिन उन्हें जनतन्त्र की तमाम छलनाओं से भी संघर्ष करना है और वे भी आज़ाद भारत में।
‘किसान आन्दोलन’ के तहत एक अजीब बेचैनी है। सब कुछ समा रहा है हमारे नखों में; जिन्दगी लगातार लुट-पिट रही है। दुनिया में फैले तमाम दु:खों से मुक्ति का मार्ग तलाशते हम एक आसरा ही तो ढूँढ़ रहे हैं। अपने हक़ों के लिए ‘किसानों’ का ‘भारत बंद’ का आह्वान भी हमारी आँखों के सामने है। उन्हें तरह-तरह से भरमाने के षड्यन्त्र भी रचे गए। उनकी आवाज़ों को सुनने की किसी को परवाह नहीं। उन्हें भाँति-भाँति के आरोपों से मढ़ा और दुश्मनों जैसा व्यवहार किया जा रहा है। मानो, वे इस देश के नागरिक ही नहीं हैं। वे पता नहीं किस अन्य लोक से आकर अपना अनावश्यक हक़ जता रहे हैं। हम में से ज़्यादातर ‘किसान’ के बेटे हैं।
‘किसान’ अपनी धरती और खेतों में अपनी दुनिया और जिन्दगी की खुशहाली खोजता है। अपने टूटे-फूटे घरों और छोटी-छोटी झोपड़ियों में बाढ़, सूखा और कोपशील प्रकृति के तमाम रूपों को देखता और भुगतता है। उसकी जिन्दगी खेतों-खलिहानों, बंजर-कछारों में बीतती है। बाज़ार उसे तमाम प्रकार के प्रलोभनों में फँसाता है। सत्ता उसकी पहचान मिटाने पर प्राणपण से जुटी है। एकांत श्रीवास्तव की एक कविता ‘भूमि’ के एक अंश पढ़ें— “यह भूमि मेरी है/इस पर मत गाड़ो/अपने झंडे और त्रिशूल/इस पर हुआ मेरा जन्म/इस पर ली मेरे पुरखों ने आख़िरी साँस/इस पर किया मैंने गुस्सा और प्यार/इस पर गिरे पके हुए फल/इस पर उतरा चिड़ियों का झुंड/यह भूमि मेरी है/इसके भीतर अभी सोए हैं बीज/००० इस पर मत दौड़ाओ अपने घोड़े/मत करो अपना यज्ञ/मत फेंको खून से सना चाकू/रक्त और धूल से सनी/यह मेरी है/चिड़िया के पंख की तरह/टूटी हुई और निस्तेज़।”
जिधर देखिए, सभी ओर बैरियर लगे हैं। स्वच्छंदता को हर ओर से घेर दिया गया है।यहाँ तक की हमारे जीवन स्वप्न और जीवन शैलियाँ भी। कबाड़ में तब्दील हो रहे देश में हमारे जीने की स्वायत्तता पर लगातार पहरे हैं; जहाँ तक नज़र जाती है; राष्ट्रभक्ति और राष्ट्रद्रोह टहल रहे हैं दिन-रात। ‘किसान’ यदि अपने हक़ के लिए लड़ रहे हैं तो वे भी आतंकवादी घोषित किए जा रहे हैं। वे चाहे जिस मज़बूरी में हों, किसी भी तरह बोलें नहीं, अन्याय-अत्याचार सहते रहें; अन्यथा वे देशद्रोही हैं। जिन्दगी को निष्क्रिय बनाने का यह तरीका आखि़र क्या साबित कर रहा है? कारपोरेट घरानों को लाभ देने के लिए क्या कुछ भी किया जा सकता है? षड्यन्त्र का कोई भी जाल बिछाया जा सकता है।
जब भी किसी मुद्दे को लेकर प्रतिरोध होता है, उसे बेरहमी से, दहशत से, आतंकवादी तरीके से ख़त्म करने की लंबी मुहिम चलती है।सत्ता किसके ख़िलाफ़ नहीं है। कोई जब अपनी ज़िद के साथ होता है तब तक उसे अपने अलावा कोई ठीक दिखाई नहीं देता। जनतन्त्र प्रतिरोध को और विपक्ष की आवाज़ों को हमेशा महत्त्वपूर्ण मानता रहा है। यहाँ तो उसके ख़िलाफ़ हर तरह की लामबन्दी है। ‘किसानों’ की आत्महत्या और स्त्रियों के साथ हो रहे बलात्कार अर्थहीन हैं। जनतन्त्र मूल्यहीन है। मनुष्यता बेकार है। मज़दूरों की क्या हैसियत है। युवाओं की बेरोज़गारी का भी कोई मसला नहीं है शायद? हम एक अँधेरी सुरंग में समा रहे हैं। शिक्षा के गिरते स्तर पर प्रश्न न उठाए जाए, न बेरोज़गारी पर। सब चलता है कि शक़्ल में केवल इसे देखें और अनुभव करें; लेकिन कहें कुछ भी नहीं। यह नागरिकों को गूंगा बना देने की भयानक परियोजना है।
हमें सत्ता और कारपोरेट घरानों, मुनाफाखोरों की दुनिया से बाहर आकर ‘किसानों’ के बारे में सोचना विचारना चाहिए अन्यथा न हम घर के रहेंगे न घाट के। हमें फ़क्र है कि हम ‘किसान’ के बेटे हैं। अपने प्रारंभिक जीवन से ‘किसानों’ मज़दूरों के अपार दुःख और उनके सहने की क्षमता देखते, भोगते रहे हैं। जो कहा जा रहा वह मात्र कागज़ी बातें नहीं हैं न ‘अलल-टप्पू’ बयानबाजी। जिसने ‘किसानों’ को अकाल झेलते हुए देखा है। पाला से खेतों को एकदम नष्ट होते हुए देखा है या बाढ़ की तबाही का मंज़र देखा है। वही उनकी पीड़ा ठीकठाक ढंग से समझ सकता है। ‘किसानों’ की आत्म वेदनाएँ एक दो नहीं हैं; बल्कि उनकी अपार सहनशीलता बड़े धीरज का काम है।
क्या वजह है कि फसलें खत्म होने से वे हमेशा जूझते रहते हैं। वे गर्मी, ठंडी और अवर्षा से जूझते हुए ही फसलें तैयार करते हैं और उस फसल की बोली सत्ता, बिचौलिए या पूँजीपति लगाते हैं; जबकि सबको पता है कि साठ प्रतिशत देश गाँवों या ‘अन्नदाताओं’ के रहमो-करम पर जीवित है; तब भी इतना बदगुमान। ‘किसान’ इतना होशियार अभी तक नहीं हो पाया। अभी भी वह सत्ता और कारपोरेट घरानों तथा बिचौलियों की चपेट में है। तभी तो वह कहता है- ‘’आपके चेहरे पर ये जो लाली है सेठ जी/हमारे लहू से आपने चुरा ली है सेठ जी।” ‘किसान’ को ‘अन्नदाता’ यूँ ही नहीं कहा जाता। वह कितनी मशक्कत से खून-पसीना एक करके अनाज उगाता है और उसके द्वारा उत्पादित चीजें कौड़ियों के मोल खरीदी जा रही हैं। विजयशंकर चतुर्वेदी की एक कविता का अंश देखे- ‘’मुझको माटी मोल खरीदा तुम्हें बताया सोना व्यापारी की किस्मत चमकी मुझे बदा है रोना।‘’ ‘किसानों’ को थोड़ी-थोड़ी वस्तुओं के लिए तरसाया जाता है। सरकार के साथ मनोविज्ञान साझा करने वाले उनको ‘किसान’ न मानकर उनकी खिल्ली उड़ाते हैं। ‘किसान’ किस बदहाली और मुश्किलों में है इसका अंदाजा न सरकार के पास है, न कारपोरेट घरानों के, न पूँजीपतियों के, न सत्ता के हामियों के।
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कारपोरेट घरानों का जाल बिछा हुआ है। सरकार की नज़रें वोट बैंक पर टिकी हैं। जनजीवन और जनकल्याण केवल फार्मूलाबाजी में हैं अर्थात वास्तविकता से हज़ारों योजन दूर। लुटेरे कहाँ नहीं हैं और किस वेश में नहीं हैं। मूल्य नियंत्रण एकदम खोखला हो चुका है; लोकतन्त्र की अस्मिता दाँव पर लगी है। नफ़रत की खेती बोई जा रही है और आज़ादी को तहस-नहस किया जा रहा है। सन्नाटा गूँज रहा है और चारों ओर शिगूफेबाज दफ़्तर सजा के बैठ चुके हैं। हमारी आरजू मिन्नत का क्या कोई असर दिख रहा है। हम किन आपदाओं में तप रहे हैं। लगता है आगे चलकर नागरिकों को खाना भी मयस्सर नहीं हो पाएगा। हे सूर्य! इतना तपो कि समूचे गुमान फट जाएँ और उन्हीं गर्व की चट्टानों से झरने फूट पड़ें सुख समृद्धि के। दु:खों को फोड़कर खिल जाए ‘किसानों’ मज़दूरों की मुस्कान। हमारी इच्छाओं में जिन्दगी की खुशबू उग आए और हत्यारों की आँखों में कंटीली आपदाएँ छा जाएँ। ‘किसानों’ को कारपोरेट ‘किसान’ क्यों कहा जा रहा है?
कुछ बड़े ‘किसान’ तो हो सकते हैं; जिनकी खेती बड़ी है। बाकी यह सत्ता द्वारा गढ़ा गया नया मुहावरा है। कारपोरेट घरानों की तर्ज़ पर। ‘किसानों’ को आतंकवादी घोषित किया जा रहा है और अलगाववादी भी कहा जा रहा है। इसके पीछे कौन सी मंशा काम कर रही है। इस देश में न ग़रीब की बातें सुनी जा रही हैं और न पढ़े-लिखे नौज़वानों की। अजीब-अजीब तर्क़ गढ़ लिए जाते हैं और विरोध की गोलंदाजी की जाती है। हर प्रकार की चीज़ों की मनमाने ढंग से लीपापोती हो रही है। कहीं कोई ठहराव नज़र नहीं आता। यह सच है कि जिसे कुछ भी नहीं पता वह भी ‘किसानों’ की समस्याओं को अपने-अपने अंदाज़ में बढ़-चढ़कर पेश कर रहा है। मानों वह ‘किसान’ जीवन का और उसकी समस्याओं का बहुत बड़ा ज्ञाता है। ऐसी संवेदनहीनता पहली बार आज़ादी के बाद उभरकर आई है।
इस देश के छोटे-छोटे ‘किसानों’ की विपदाओं से ‘किसान आन्दोलन’ की वास्तविकता को समझा जाना चाहिए। क्या यह आन्दोलन केवल हरियाणा पंजाब के ‘किसानों’ का आन्दोलन है। इस पेंच की अनाम गुत्थियों के मार्फ़त इसे समझने की आवश्यकता है। भारत का ‘किसान’ बेहद कठिन स्थितियों में है। ‘किसान आन्दोलन’ को सत्ता की नज़र से आख़िर क्यों देखा जाए? मैं ‘किसान’ का बेटा हूँ। गाँव-गाँव तबाह हैं। ‘किसानों’ को कृषि नीति के नियमों में न उलझाया जाए बल्कि देश के ‘किसानों’ की वास्तविक समस्याओं के रूप में देखा जाए। सत्ता तो इस आन्दोलन को पूरी तरह से कुचलने का मूड बना चुकी है। नागरिकता जैसी लामबन्दी भी की जाएगी इसके साथ।
‘किसानों’ की समस्याओं के बरअक्स राजनीति और मीडिया के एजेंडे ‘किसान’ विरोधी नज़र आ रहे हैं। सच तो यह है कि हमारा देश एक मंडी के रूप में निर्मित हो रहा है। जो कंपनियाँ सरकार की सहमति से खड़ी हो रही है। वे साईलोस बनवाएँगी। एफ०सी०आई० से किराया वसूलेंगी। सब कुछ खुले आम हो रहा है। यह ढँका-मुँदा मुद्दा नहीं है। केंद्रीय फार्मिंग में निजी कंपनियाँ व्यापार करेंगी। हम न अपने खेत बचा पाएँगे न खलिहान। लोकतांत्रिक सवालों का तो सवाल ही नहीं। हम किसी भी सूरत में फसलों की रक्षा नहीं कर पाएँगे। ‘किसानों’ और सरकार के बीच विश्वास की कमी साफ़-साफ़ दिख रही है।
सत्ता ‘किसानों’ का ज़मीनी सच या हकीक़त देखना ही नहीं चाहती। पूरे देश को लगता है कि बिल ज़ल्दबाजी में पारित किया गया। ‘किसान’ समस्याओं की भरपूर अनदेखी की गई। बी०बी०सी० की एक रिपोर्ट में कहा गया है- ‘’विश्वास की कमी से अधिक, सरकार ने आपरेट करने का अपना एक तरीका चुना है। इसने एक फ़ैसला ले लिया है और इसे लागू करने पर तुली है। बातचीत करना और चर्चा करना इस सरकार की उपलब्धि नहीं है।‘’ दु:खद है कि समूची चीज़ें उद्योगपतियों को मैदान साफ़ करने के लिए मुहिम है। आतंकवादी सोच और ‘किसानों’ के संस्कार का अंतर सब समझते हैं…जिन्हें सरकार का अड़ियलपन दिख जाता है उन्हें सहज ही आन्दोलन के भीतर के तत्वों का गुणदोष भी दिख जाना चाहिए..सच और सटीक ‘किसान आन्दोलन’ के साथ होना जरूरी है. थकाकर ‘किसानों’ को नेस्तनाबूद किया जाएगा।
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कुछ पाले-पोशे गए इरादे ‘अन्नदाताओं’ की विपत्तियों के ख़िलाफ़ हैं। वे आखिर कहाँ खड़े हैं और ‘किसान आन्दोलन’ को किस रूप में देख रहे हैं। हमारी समझ है कि इसे जब तक ‘किसानों’ की संवेदना और आपदाओं के विराट सन्दर्भो के साथ नहीं देखा जाएगा; तब तक यही नज़रिया रहेगा। यदि आप जो ‘किसानों’ के साथ हैं भविष्य उसकी पूछ-परख करेगा। वे ‘किसानों’ की वास्तविक समस्याओं को समझते बूझते हैं। मुझे तो सत्ता की राजनीति अपने को चमकाने के संदर्भ में देख रही है।वे ‘किसानों’ की आपदा को समझ ही नहीं सकते। ‘किसानों’ ने ज़्यादातर दस एकड़ ज़मीन वाले ‘किसानों’ की बातें की हैं। फिर भी जो भरमाने की बात पीट रहे हैं। वे अलग तरह के तत्व हैं। प्रजातन्त्र में विपक्ष तो होता ही है। उन्हें राजनीतिक मंडी के बनिया कहें या दलाल; जब तक हम जनतन्त्र व्यवस्था में हैं उसकी फिज़ाओं में हैं इससे इन्कार नहीं किया जा सकता। आज जो सत्ता में हैं वे भी विपक्ष में ये काम करते रहे हैं।
यहाँ मुख्य समस्या ‘किसानों’ की समस्याओं की है। उनकी आपदाओं की है। हमें ‘किसानों’ की समस्याओं को वास्तविकता और संवेदनात्मकता के साथ हल निकालने हैं। ‘अन्नदाता’ न तो आतंकवादी हैं और न ही खालिस्तानी। यह सोच एकदम घटिया मनोविज्ञान से निर्मित और तानाशाही धारणाओं से संचालित है। जिसकी आलोचना की जा सकती है। हमारा सोच और चिंतन-मनन प्रणाली कहाँजा रही है। जो सत्ता में काबिज होते हैं। उन्हीं को हर समस्या का निराकरण करना होता है। किसी के समझ में नही आ रहा है बीच-बीच में कांग्रेस या विपक्ष को क्यों लाद दिया जाता है। ये अच्छी बात है कि जो पहले नहीं हुआ था अब वह हो रहा है। इसमें हर्ज़ क्या है और ऐसा होना भी चाहिए।
इसीलिए तो जनता ने जिम्मेदारी सौंपी है। यह कोई एहसान तो है नहीं। माना जा रहा है कि जय जवान जय ‘किसान’ नारे भर में झुर्रियाँ नहीं आईं। बुद्धिजीवियों की सोच में, आज़ादी में और जनतन्त्र में भी तमाम तरह की झुर्रियाँ आ चुकी हैं। इसके लिए सत्ता को क्या बधाई देनी चाहिए। केदारनाथ अग्रवाल की एक कविता का अंश पढ़ें-‘’हम न रहेंगे/तब भी तो यह खेत रहेंगे/इन खेतों पर घनघहराते/शेष रहेंगे/जीवन देते, प्यास बुझाते/माटी को मदमस्त बनाते/श्याम बदरिया के/लहराते केश रहेंगे।–‘’ किसी के रहने और न रहने से कुछ नहीं होता देश का अस्तित्व हमेशा रहता है किसको परवाह है कि 250 से ज़्यादा ‘किसान’ मौंत के मुँह में समा गए। उनके लिए सांत्वना का एक भी शब्द सत्ता के पास नहीं है।
आखिर ‘अन्नदाताओं’ से बात क्यों नहीं की जानी चाहिए। उनकी समस्याओं और दिक्कतों को क्यों नहीं समझा जाना चाहिए। उन्हें आतंकवादी घोषित करने का क्या औचित्य है। व्यवस्था की मंशा क्या है? ‘किसानों’ को खंड-खंड में बाँटने का पाखंड पाठ क्यों पढ़ा जा रहा है। कौन कहता है कि ‘अन्नदाताओं’ की सभी बातें मानने योग्य नहीं हैं। ‘किसान’ की आपदाओं को बेहतर तरीके से समझता हूँ। जो ‘किसानों’ के परिवार से आए हैं। सत्ता में हैं वे भी इन्हीं जटिलताओं के बीच से आए हैं, यह आकाश से नहीं उतरे। इन्हीं इलाकों से इनका रिश्ता है फिर यह परायापन क्यों। इतनी क्रूरता और मगरूरी क्यों? बातें हठधर्मी तरीके से संभव नहीं होती। उनमें लोच होता है। समस्याओं को हैंडल करने की इच्छा शक्ति होती है। संवाद से हर समस्या सुलझ सकती है गुमान से नहीं।
केदारनाथ अग्रवाल की एक कविता का अंश पढ़ें- ‘’यह धरती है उस ‘किसान’ की/जो मिट्टी का पूर्ण पारखी/जो मिट्टी के संग साथ ही/तपकर गलकर/ जीकर मरकर/खपा रहा है जीवन अपना/देख रहा है मिट्टी में/सोने का सपना।‘’ यह एक अलग तरह का मनोविज्ञान विकसित हुआ है। कारपोरेट घरानों और सत्ता की युगलबन्दी ने देश को स्वार्थों का अखाड़ा बना दिया है। व्यंग्य और गुस्से में कुछ भी हो सकता है । यह हर आदमी की समझ से बाहर है कि सरकार किसके द्वारा चुनकर आई है। शायद इसमें ‘अन्नदाताओं’ की कोई भागीदारी नहीं है? ‘अन्नदाता’ तो लगता है कि व्यवस्था की नज़र में प्रेतात्माएँ हैं।
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सत्ता ने प्रश्नों के जवाब देने की कभी कोशिश ही नहीं की। आगे भी इसकी कोई गारंटी नहीं है। पूरा देश मनमानेपन से हाँका जा रहा है। ‘किसानों’ की चिंता के स्थान पर अब धमका धमकाई चल रही है। आरोप पर आरोप ठोंके जा रहे हैं। क्या होगा। यह सब कुछ अनियमित है।यह तो सरकार की गुस्ताखी और ‘किसान आन्दोलन’ को बदनाम करने की पूरी योजना के तहत की गई कार्रवाई है। इसमें काबिज़ मन्त्री और अन्य भी ‘किसान’ पुत्र हैं और दवाब बस वे स्वयं इस ‘किसान आन्दोलन’ को कुचलने में लगे हैं। पूरा विश्लेषण देख लिया जाना चाहिए अन्यथा कोई भी आधे अधूरे सोच विचार से इसी सरकारी स्तर के निर्णय पर घूमता घामता नज़र आएगा। छात्र आन्दोलन को भी टुकड़ा-टुकड़ा गैंग कहा गया था अब भी पूरी तरह से वही रवैया है। इस आन्दोलन को कुचलने की पूरी कहानी या नैरेटिव गढ़ लिया गया है।
अंधेरे में कविता बहुत मार्मिक सारगर्भित कविता है। अंधेरे में भी प्रकाश की रूपरेखाएँ होती हैं। ध्वनियों एवं आवाज़ों में भी भरपूर जगह होती है। ‘किसान आन्दोलन’ की वास्तविकता को, इसके अंदरूनी हिस्सों, प्रकृति और मानवीय मूल्यों को ही नहीं ‘किसानों’ को जिन्हें ‘अन्नदाता’ कहा जाता है। बल्कि वे इसके सही सही पात्र हैं। ‘किसानों’ को ही ‘किसानों’ के ख़िलाफ़ खड़ा करने की प्रक्रिया और बाकायदा मुहिम चलाई जा रही है। यह तो सरासर झूठ है। ‘किसान आन्दोलन’ के तमाम महत्वपूर्ण पक्षों ने इस दलील को एकदम ख़ारिज कर दिया है। अभी झूठ बोलने और झांसा देने की कार्रवाई जारी है। ये सत्ता द्वारा उठाए मुद्दे हैं। जो एकदम फालतू और ग़ैरज़रूरी हैं।
‘किसानों’ ने बहुत लंबे अरसे बाद अपनी ताक़त पहचानी है। उन पर कई तरह के दोषारोपण भी किए जा रहे हैं। क्या ‘अन्नदाता’ भी अपनी वास्तविकता को सामने न लाए। जिन्दगी तो उससे खिलवाड़ करती है। क्या क्या नहीं सहते वे। ये तमाम सवाल मुँह बाए खड़े हैं। ‘अन्नदाता’ को उसी के द्वारा चुनी सरकार धता बता रही है। जनाब गौहर रज़ा की एक नज़्म का हिस्सा पढ़ें। शीर्षक है ‘किसान’–‘’तुम ‘किसानों’ को सड़कों पे ले आए हो/अब ये सैलाब हैं और सैलाब तिनकों से रुकते नहीं/ये जो सड़कों पे हैं खुदकुशी का चलन छोड़कर आए हैं/बेड़ियाँ पाँवों की तोड़कर आए हैं/सोंधी खुशबू की सबने कसम खाई है/और खेतों से वादा किया है/जीत होगी तभी लौटकर जाएँगे/अब जो आ ही गए हैं तो ये भी सुन लो/झूठे वादों से ये टलने वाले नहीं।‘’ वादा करना भरमान और वायदों से हट जाना सत्ता का स्थायी खेल है। इसे फिलहाल नागरिक नहीं समझा सकते। झूठे गुमानों का भी एक समय होता है। ‘किसान’ भी इस देश के नागरिक हैं। उनको भी अपनी वास्तविकता, बातें और तकलीफ़ों को रखने का हक़ है। एक न एक दिन झूठ ख़त्म होता ही है। घमंड न तो रावण का चल पाया न कंस का न हिटलर का। उम्मीद से ये दुनिया चलती है।
‘किसान’ या वास्तविक ‘अन्नदाता’ के सुचिंतित हित में लेकिन सत्ता की तरफ से उसका कोई मूल्य नहीं आंका जा सका बल्कि उन्हें अपमानित और दंगाई साबित किया गया है। जब जब भी किसी वस्तु या समकालीन जनमत का या प्रविधियों का आकलन नही होता तब तब इतिहास और वर्तमान कलंकित और अवमूल्यित होता है। ‘किसान आन्दोलन’ के ऊपर इतने लांछन थोप दिए गए हैं। हम सभी ‘किसान’ पुत्र हैं। ‘किसानों’ की मज़बूरियों और पीड़ाओं को भलीभांति जानते पहचानते हैं और परिचित हैं। ‘किसान आन्दोलन’ का फिलहाल धन ऋण, गुणा भाग और गुणनफल चल रहा है। किसी के खाते ‘किसानों’ की गद्दारी की चार्ज शीट निकाली जा रही है। किसी के द्वारा आतंकी और देशद्रोही के कोटे फिक्स किए जा रहे हैं। सत्ता की परिकल्पना में ‘किसान आन्दोलन’ ही अवैध है। समाजवाद और रामराज्य की ऐसी स्थितियाँ पैदा की गई हैं कि सब नाजायज जायज है। अष्टभुजा शुक्ल की कविता का अंश पढ़ें- ‘’कोई दुकानदार/एक बोरी यूरिया में/एक बोरी नमक मिलाता है तो उसकी आय/उसकी लागत की तिगुनी हो जाती है/वही खाद एक लघु सीमांत ‘किसान’/जब अपने खेत में डालता है/तो उसकी आय/उसकी लागत की आधी आती है/’किसान’ की किसी पीढ़ी का बच्चा/दूध-भात खाएगा/एवं किस युग के किस चरण में/रामराज्य अथवा समाजवाद आएगा।‘’
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‘अन्नदाताओं’ या ‘किसानों’ को कहाँ समझा गया है। उनकी समस्याओं को बाईपास करके तथाकथित कृषि सुधार कानून बनाए गए हैं। कानूनों के लागू होने से क्या लाभ होगा और क्या नुकसान होगा यह तो अलग सवाल है। उन पर जो आरोप मढ़े गए या लगाए गए हैं वे बेहद गम्भीर हैं। खाया पिया अघाया वर्ग इसे किसी भी तरह क्या समझ पाएगा। उसका मनोविज्ञान सत्ता के खूंटे से बंधा है। वे तो केवल मज़ा ले रहे हैं। ‘अन्नदाताओं’ को खालिस्तानी, आतंकवादी, पाकिस्तान परस्त और टुकड़ा-टुकड़ा गैंग कहा गया है। सत्ता की मनमानी का जो प्रतिरोध करे वह तरह-तरह के आरोपों से घेर दिया जाता है या ढंक दिया जाता है। यह विश्वास का सीधा सवाल है। ‘अन्नदाताओं’ पर सत्ता को विश्वास नहीं है तभी तो यह हो रहा है। आख़िर सरकार ‘अन्नदाताओं’ से इतना भयभीत क्यों है। ‘किसानों’ के हित का हवाला देते हुए उस पर बातें हो रही हैं; लेकिन ‘किसानों’ से, ‘किसानों’ संगठनों से उसका कोई वास्ता नहीं।
सरकार बहुत चतुराई से इन्हें ‘किसान’ कानून कहती है। जबकि ये कारपोरेट घरानों, बड़े पूंजीपति, व्यापारियों को लाभ देने के लिए लाए गए हैं। इन कानूनों से कुछ वर्षों बाद बुरा प्रभाव पड़ने वाला है। कानून में कांट्रेक्ट फार्मिंग की काफ़ी छूट दी गई है। सरकार मजबूर करेगी कि जो प्रोडेक्ट हम चाहते हैं वह उगाओ, तभी हम खरीदेंगे। संभव है पहले ‘किसानों’ को लाभ का लाली पॉप दिखाया जाए। फसल बेचने के लिए ‘किसानों’ को पूँजीपतियों और आढ़तियों पर निर्भर होना पड़ेगा। जब पूरे भंडारण हो जाएँगे तो न तो बड़े पूंजी पति खरीदेंगे न सरकार तब क्या होगा। सब जानते हैं कि फसलों की ख़रीद फरोख्त में कितना भ्रष्ट्राचार होता है। यह किसी से छिपा नहीं है।
जानना चाहिए कि उत्तर प्रदेश में गन्ना ‘किसानों’ की फसलों का लंबे अरसे से भुगतान नहीं किया गया आख़िर क्यों। जबकि कहा गया था कि पंद्रह दिन के अन्दर पूरा भुगतान कर दिया जाएगा । ‘किसान’ अभी तक मौत के घाट उतर गए। किसी को नहीं मालूम कि न ‘किसानों’ ने बिल की सहमति दी; गम्भीर मुद्दा है यह। ‘किसानों’ को डराया धमकाया जा रहा है। क्या-क्या उन्हें आरोप से मढ़ा गया है। ‘किसानों’ की ज़मीनी हक़ीक़त क्या है। इतना अपमानित किया गया है कि क्या कहा जाए? बुन्देली कविता का अंश पढ़ें- इस देश में छोटे ‘किसान’ किन विपत्तियों के बीच है– ‘’कभऊं परत है पालो, कभऊं तुषार लगत/वे समझत आसानी, अँधुआ का जानें/खून बोत जो खेतन में उनसे पूंछों/ऊसर होत ज्वानी, अँधुआ का जानें।‘’
पूर्व में किस परम्परा से राजा महाराजाओं को ‘अन्नदाता’ कहने का रिवाज़ या प्रचलन था। उसका भी इतिहास खंगाला जाना चाहिए। शायद एक तबका नए हुक्मरानों को ‘अन्नदाता’ कहने की फ़िराक में हो। ‘किसान’ जो वाकई में भूमि का सीना चीर कर अनाज और अन्य जिसका उत्पादन करता है। जो वाकई में ‘अन्नदाता’ है उसे इस संज्ञा से न नवाजा जाए। क्या अद्भुत क्षमता वाला तर्क़ है। ‘अन्नदाताओं’ को हम राजनीतिक मंशाओं में पटक देना चाहते हैं। यह भी भुला दिया जाता है कि सत्ता ने किन-किन आरोपों को लगाकर शायद उनको इज्ज़त बख़्शी है। वे खालिस्तानी, पाकिस्तान परस्त, आतंकवादी और टुकड़ा टुकड़ा गैंग हैं। जो पूरे देश को अन्न देता है, अनाज उपजाता है वह ‘अन्नदाता’ नहीं है तो आख़िर क्या है। सच को स्वीकार करने में भी हम जुमलों में फंस जाते हैं या फंसा दिए जाते हैं। इन वर्षों में किसी को भी बदनाम करने का चलन है। ‘अन्नदाताओं’ के बेटे भी इस तरह के सवाल पाल लेते हैं। मन्त्री भी ‘अन्नदाता’ का बेटा है। हम पूरी तरह से शब्दों में उलझे हुए या उलझा दिए गए लोग हैं। जब हम मन की मौज मस्ती में होते हैं तो शायद हमें इसी तरह की बातें सूझती हैं। यह बातों के रस या बतरस की ही तो दुनिया है।
कौन क्या रहा है। मैं जानता हूँ कि उनकी भूमिका क्या है। यहाँ प्रश्न ‘किसानों’ भूमिपुत्रों की असली समस्याओं का है। आखिर सरकार इस प्रकार के सभी मसलों को हठधर्मी और रंगदारी से क्यों निपटाना चाहती है। अड़ियल रवैया क्यों अपनाती है और हर मुद्दे को विपक्ष की दृष्टि से क्यों देखती है। फूट डालो और राज करो तो अंग्रेजों ने किया था क्या इसी तर्ज़ पर भारत का तथाकथित प्रजातन्त्र चलेगा। गुमान की उम्र ज़्यादा नहीं हो सकती। भारत ‘अन्नदाताओं’ का देश है। पहली बार इतने बड़े पैमाने पर गूँगे अपने हक़ और हुकूक के लिए लड़ रहे हैं। इस देश के छोटे-छोटे ‘किसानों’ की विपदाओं से ‘किसान आन्दोलन’ की वास्तविकता को समझा जाना चाहिए।
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क्या यह आन्दोलन केवल हरियाणा पंजाब के ‘किसानों’ का आन्दोलन है। इस पेंच की अनाम गुत्थियों के मार्फ़त इसे समझने की आवश्यकता है। भारत का ‘किसान’ बेहद कठिन स्थितियों में है। ‘किसान आन्दोलन’ को सत्ता की नज़र से आख़िर क्यों देखा जाए। मैं ‘किसान’ का बेटा हूँ। गाँव गाँव तबाह हैं। ‘किसानों’ को कृषि नीति के नियमों में न उलझाया जाए बल्कि देश के ‘किसानों’ की वास्तविक समस्याओं के रूप में देखा जाए। सत्ता तो इस आन्दोलन को पूरी तरह से कुचलने का मूड बना चुकी है। नागरिकता जैसी लामबन्दी भी की जाएगी। थका थका कर ‘किसानों’ को नेस्तनाबूद किया जाएगा।उनके अस्तित्व को एकदम खत्म करने की साजिश की जा रही है।
कम लोग हैं जो इतिहास से सबक लेते हैं और उससे सीखने का उपक्रम करते हैं। बाकी तो समूची चीज़ों को हवा में उड़ा देते हैं। जब देश की बहुलता को ख़त्म करने का षड्यन्त्र रचा जाता है हमारा भाईचारा, शांति, सद्भाव और जनतन्त्र भी छत-विक्षत होता है। शक्ति सम्बन्धों का एक बेहद खतरनाक नेटवर्क भी हुआ करता है। जिससे दबाव क्षेत्र बनते हैं और असमानताओं, अँतर्विरोधों का मेकेनिज़्म भी विकसित हुआ करता है। ताक़त का खेल हमेशा नहीं चल सकता। ‘किसानों’ का विराट आन्दोलन बताता है कि सत्ता किसी के प्रति जबावदेह नहीं है, बल्कि उसे हर हाल में अपनी कुर्सी बचानी है। इसके लिए वह दमन, उत्पीड़न और हिंसा का रास्ता अपना सकती है। जहाँ ताक़त है वहीं प्रतिरोध फूटता है।
जैसा कहा जा रहा है वैसा बिल्कुल नहीं है। क्या फायदा मिलेगा? कुछ तो उजागर होना चाहिए। क्यों सब कुछ ढाँका-मूँदा जा रहा है। जब ‘किसान’ के बेटे ही इस तरह की फिल्मी कार्रवाई की जा रही है तब तो मानना पड़ेगा कि सत्ता ने क्या-क्या गुल खिलाए हैं। जो ज़मीनी हक़ीक़त है ‘अन्नदाताओं’ की उसे भी समझा जाना चाहिए। बघेली बोली के कवि सैफू की ‘किसान’ नामक कविता का अँश पढ़ें। ‘’आँधी, पानी, घाम बई हरा इन्हीं सबैं डेराइं/विपत राम द उडे लई बेड़ना, तउ ठाड बिदुरायं/चाहे पिरिथी लेय करौंटा, नदिया छोंडे थान/सैफु कहें काम मा जिऊ का, औंटे तऊ ‘किसान’।‘’ मुझे नहीं मालूम कि न ‘किसानों’ ने बिल की सहमति दी। गम्भीर मुद्दा है यह। ‘किसानों’ को डराया धमकाया जा रहा है। क्या-क्या उन्हें आरोप से मढ़ा गया है। ‘किसानों’ की ज़मीनी हक़ीक़त क्या है। इतना अपमानित किया गया है कि क्या कहा जाए। बुन्देली कविता का अँश पढ़ें।इस देश में छोटे ‘किसान’ किन विपत्तियों के बीच है। ‘’कभऊं परत है पालो, कभऊं तुषार लगत/वे समझत आसानी, अँधुआ का जानें/खून बोत जो खेतन में उनसे पूँछों/ऊसर होत ज्वानी, अँधूआ का जानें।‘’
‘किसानों’ या ‘अन्नदाताओं’ के संदर्भ में हमें मात्र भावनात्मकता से सोचना-विचारना भर नहीं है बल्कि उनकी समस्याओं के निदान हेतु संघर्षरत भी रहना है। ‘अन्नदाता’ इस भारत की मुख्य जीवनरेखा हैं और उसी में शामिल हैं हमारे श्रमिक साथी। ये दोनों हमारे जीवन को सार्थक बनाते हैं। ये अहा ग्राम्य जीवन के अँतर्गत नहीं हैं, बल्कि भारत के लोगों को हर तरह से सुखी बनाने वाले बेहद दु:खों में अपना गुजारा कर रहे हैं। ये हमारे ऊपर एहसान करते हैं, लेकिन सत्ता के गलियारों में इनके लिए कोई स्थान नहीं है। वोट ये देते हैं सत्ताएँ तो इनसे लाभ उठाकर कुर्सी में विराजती हैं और उन्हें ख़राब स्थितियों में फेंक देती हैं। पिट्ठू और दुभाषिए इन्हें हमेशा कमतर आँकते हैं। इनको जिन्दगी और भारत के वास्तविक सच से बाहर किया जा रहा है। ह्स्गिज्न्स्ज
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सत्ता की परिकल्पना में उससे ज्यादा कोई शक्तिशाली नहीं होता। ‘अन्नदाताओं’ ‘किसानों’ की ताक़त हमेशा अकूत होती है। खेत,खलिहान धरती उनकी सबसे बड़ी चीज़ें होती हैं। हाँ, अपने प्रति वे लापरवाह होते हैं। कोशिश उनकी यह होती है कि ज़ल्दी किसी से लड़ाई झगड़ा न करें, लेकिन जब उन्हें माटी-कूरा समझ लिया जाता है और लगातार उनके साथ छल कपट प्रपंचतन्त्र होता है। तभी वे तन जाते हैं। उनकी बर्दाश्त करने की क्षमता को चुनौती दी जाती है। तब वे काल से भी लड़ने में नहीं चूकते। वे कभी भी अभिमान की चढ़ाई नहीं चढ़ते। उनका समग्र जीवन एक लम्बी साधना है। वे श्रम से नहाई हुई दास्तानें हैं। उनका आकलन किसी भी तरह कम न किया जाए। केदारनाथ अग्रवाल के शब्द हैं । ‘’ सबसे आगे हम हैं पाँव दुखाने में/सबसे पीछे हम हैं पाँव पुजाने में ।‘’
‘अन्नदाताओं’ यानी ‘किसानों’ के सिलसिले में सत्ता द्वारा झूठी कहानी गढ़ी जा रही है और झूठी दलीलें पेश की जा रही हैं। अब ‘किसानों’ के ख़िलाफ़ यह अन्याय भर नहीं है, बल्कि उनकी समूची हैसियत को ख़त्म करने की घोर निंदनीय योजना है। बेवकूफ तो ‘किसानों’ भर को नहीं बनाया जा रहा है। यह पूरा तन्त्र झूठ, झांसे और ठगी का कारखाना बन चुका है। यहाँ सच्चाई के लिए कोई प्रावधान ही नहीं है। समूचे नागरिकों को अपराधी तस्कर माफिया टुकड़े-टुकड़े गैंग में बिना किसी तर्क़ के घोषित कर दिया गया है। सत्ता को नागरिकों में विरोध के अलावा कुछ भी दिखाई नहीं पड़ रहा है। उनका सबसे बड़ा अपराध वोट देकर सरकार चुनना ही है शायद। पतन की कोई सीमा नहीं होती शायद। इस बार ‘अन्नदाता’ हर तरह से तैयार हैं। वे मंशा और नीयती दोनों भांप चुके हैं। उनका निर्णय बेहद ठोस और जीवन्त है।
‘किसान आन्दोलन’ का स्वरूप आकार में ही नहीं, गुणवत्ता और प्रभाव के मामले में भी व्यापक हो रहा है। अब वहाँ शादियाँ भी हो रही हैं, स्थाई मकान बन रहे हैं। वह समाज की अंदरूनी परतों में घुस आया है। महिलाओं के, बेरोज़गारों के, छात्रों के, आदिवासियों के, मज़दूरों के प्रश्न समाहित कर रहा है। इसे ‘किसान आन्दोलन’ तक ही सीमित करके देखना ‘दृष्टि दोष’ माना जाएगा। मुझे लगता है कि इस आन्दोलन ने एक खास बात यह कि महिला ‘किसान’ भी लामबंद हुईं। वे आधुनिक ‘वेश-भूषा’ में आधुनिक तकनीक के माध्यम से खेती किसानी कर रही हैं। ‘किसान आन्दोलन’ ने ‘किसानों’ की आवाज़ को निरंतर मुखर किया और उनकी देश में भागीदारी को सुनिश्चित भी।
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