कम्पनी बाजार में आन्दोलित किसान
भारत में आधुनिक काल की शुरुआत और ईस्ट इण्डिया कम्पनी के भारत पर काबिज़ होने के बीच गहरा रिश्ता है। प्लासी युद्ध से सम्बद्ध 1757 को अगर हम भारत में आधुनिक काल की शुरुआत से जोड़ते हैं, तो मुक्त बाज़ार पर मोहर लगाने की वजह से 1991 का सम्बन्ध उत्तराधुनिक काल की शुरुआत से है।
यह बात यहाँ मात्र एक संयोग नहीं है कि व्यापारिक पूँजी से औद्योगिक पूँजी में संक्रमण का हेतु होने वाली एक कम्पनी हमारे यहाँ आधुनिक काल वाला युगांतर ले आती है और मुक्त बाज़ार की ओर खुलते हो भारत को औद्योगिक पूँजीवाद से उत्तर औद्योगिक पूँजीवाद के संसार में ले जाने वाली बहुराष्ट्रीय कम्पनियाँ, हमारे यहाँ उत्तराधुनिक काल वाले युगांतर का हेतु हो जाती हैं।
इस परिवर्तन चक्र को, पूँजीवाद के विविध चरणों में उभरी विविध कम्पनियों की भूमिका के आइने में, साफ पहचाना जा सकता है। ईस्ट इण्डिया कम्पनी से लेकर बहुराष्ट्रीय कम्पनियों तक, पूँजी के विविध रूपों का जो अन्तर्विकास है, वह कैसे सम्भव होता है? गहरे में वह उत्पादन पद्धतियों में आने वाली बड़ी तब्दीलियों पर आधारित है। कम्पनियो का पूँजी के नये रूपों को जन्म देने से सम्बन्धित जो पक्ष है, उसका आधार उनके बाज़ार के नियन्त्रक की भूमिका में आने की स्थिति में है।
कम्पनियों से सम्बद्ध इस आधुनिक काल के आने का एक लक्षण यह है कि अब उत्पादन की प्रक्रियाएँ अपनी आजादी खोकर बाज़ार पर निर्भर होने लगती हैं। वे धीरे धीरे, बाज़ार के नियमों के मुताबिक चलने के लिये विवश हो जाती हैं। ऐसा इसलिये होता है, क्योंकि अब उत्पादन के लिये मानव श्रम से ज़्यादा, यन्त्र, तकनीकी और उच्च तकनीकी का महत्व दिखाई देने लगता है।
व्यापारिक पूँजी वाली मध्यकाल की जो दुनिया थी, उसके केंद्र में मानव श्रम था। श्रम के कौशल और कलाओं के बेहतर होने की स्थिति में व्यापारिक पूँजी की दुनिया अधिक मुनाफा कमाने के अवसर में बदल सकती थी। लह दुनिया सामान्य जन की ज़रूरतों की पूर्ति की बजाय, अभिजन की सौंदर्य और विलास की ज़रूरतों की पूर्ति को अपना लक्ष्य मानती थी। सामान्यजन की सामान्य ज़रूरतों की पूर्ति का मसला तब इसलिये बहुत बड़ी समस्या नहीं बनता था, क्योंकि प्रकृति के संसाधनों पर तब तक किसी का एकाधिकार नहीं था। वन और कृषि लायक भूमि के बीच इतना संतुलन बचा था कि कोई सहज ही भूखों मरने की स्थिति में नहीं आता था। ऐसे में लोगों के बीच इस तरह की मानसिकता की मौजूदगी देखी जा सकती थी, जिस में वे कह पाते,
अजगर करे न चाकरी, पंछी करे न काम
दास मलूका कह गये, सबके दाता राम
बाद में कम्पनियों के प्रबन्धन के दौर की शुरुआत होते ही यह पूरा परिदृशूय बदल जाता है। ज़मीन, जंगल, नदी ताल, पशु और हस्त शिल्प के लिये आधारभूत कच्चा माल आदि भी कम्पनी की औद्योगीकृत हो रही पूँजी के प्रबन्धन की वस्तुएँ हो जाती हैं। उत्पाद, अब मानव श्रम के कौशल पर निर्भर न रह कर, समस्त संसाधनों के प्रबन्धन की परिणतियों में बदल जाते हैं। मानव श्रम भी इस प्रबन्धन के दायरे में आ जाता है।
इस तरह प्राकृतिक संसाधनों और मनुष्य के उपभोग की ज़रूरतों के दरम्यान बाज़ार सीधा हस्तक्षेप करता हुआ आकर खड़ा हो जाता है। यानी अब लोगों के मेहनतकश होने या कुशल कारीगर होने का महत्व अपने तौर पर उतना नहीं रहता, जितना बाज़ार के लिये उपयोगी होने का हो जाता है। उत्पाद की जगह पूँजी सामाजिक रिश्तों और नैतिक मूल्यों की निर्धारक होने लगती है।
व्यापारिक पूँजी उत्पाद आधारित पूँजी थी, पर अब यह जो बाज़ारवादी पूँजी आ रही थी, यह अपने तौर पर महत्वपूर्ण होने लगी थी। इसे पूँजी के, ‘पूँजी के लिये’ होने का दौर भी कह सकते हैं। पूँजी का अपने तौर पर यह जो महत्व बढ़ रहा था, उसे लोग इसलिये स्वीकार कर रहे थे, क्योंकि इससे लोग पहले के मुकाबले अधिक आज़ाद हुए थे। अब वे अपनी ज़रूरत की चीज़ों को सीधे खुद उपजाने से बच सकते थे और पूँजी होने पर बाज़ार से उन्हें जब चाहे हासिल कर सकते थे।
बाज़ार का विकसित होना, संसाधनों के औद्योगीकृत होते जाने का नतीजा था। उत्पाद का इतना बढ़ जाना कि वह जनसुलभ हो सके, यन्त्र की दखल से मुमकिन हुआ था। दुनिया उस दिशा में आगे बढ़ रही थी, जहाँ उसकी ज़रूरतों और उत्पादों की उपलब्धता के बीच फासला कम से कम हो सके।
व्यापारिक पूँजी के दौर में बेहतर उत्पाद अभिजात वर्ग की पहुँच में ही अमूमन अधिक थे। पर यन्त्र और उच्च तकनीकी ने यह मुमकिन बनाया है कि हर तरह के उत्पादों तक जन सामान्य की पहुँच का दायरा बढ़ सका है। बाज़ार की प्रतिस्पर्द्धा का कारण कीमतों में गिरावट और बेहतर ब्रांड के उत्पादों क समांतर खपत वाला परिदृश्य सामने आया है।
परन्तु इससे यह भी हुआ है कि कुदरती संसाधनों से उत्पादक वर्ग के रिश्तू गुणात्मक रूप में बदल गये हैं। इन रिश्तों को तय करने का जिम्मा अब उत्पादक का उतना नहीं रह गया है, जितना बाज़ार का। कैसा उत्पाद होगा और उसका क्या मूल्य होगा, इसे अब उत्पादक नहीं, बाज़ार तय करने लगा है।
यह बात यन्त्र और तकनीकी-उच्चतकनीकी की दुनिया के संचालन के लिये तो सम्यक प्रतीत होती है, पर इसे कृषि और वन पर आधारित उत्पादों की व्यवस्था पर ज्यों का त्यों लागू करने से हालात बेहतर होने के बजाय, संकटपूर्ण होकर उलझ जाते हैं। मौजूदा किसान आन्दोलन को इस नुक्तेनिगाह से गहराई से समझने की ज़रूरत है।
आधुनिक काल की शुरुआत से भारत के कृषि और वन क्षेत्र में औद्योगिक पूँजीवाद के औपनिवेशिक रूप का हस्तक्षेप दिखाई देने लगता है। अगर इस हस्तक्षेप से हालात बेहतर होने की कोई उम्मीद होती, तो तब से लेकर हमारे समय तक किसान और जनजातियों के आन्दोलित होने के सिलसिले का इतना लंबा इतिहास हमारे सामने न होता। यन्त्र आधारित उद्योग और उच्च तकनीकी के द्वारा जिस तरह का विकास सम्भव है, वह मनुष्य की उन ज़रूरतों की पूर्ति के लिहाज से सबको लुभाता है, जिनका सम्बन्ध सुविधाओं से होता है।
बुनियादी ज़रूरते अलग चीज़ हैं। उन्हें हम मनुष्य की कुदरती ज़रूरतों कह सकते हैं। पहले उनका इंतज़ाम हो जाये, तभी बात सुविधाओं की ओर आती है। यहाँ औद्योगिक व उत्तर औद्योगिक पूँजी का बुनियादी अन्तर्विरोध हमारे सामने आता है। विकास का यह मॉडल उन देशों के लिये एक बेहतर मॉडल है, जिनके यहाँ सामान्यजन की बुनियादी कुदरती ज़रूरतें एक हद तक पूरी हो जाती हैं। ऐसे में अधिक सुविधाएँ अर्जित करना उनकी प्रगति का लक्षण होजाता है। पर यह बात पूर्व उपनिवेशों पर, पिछड़े और अविकसित देशों पर लागू नहीं होती। वहाँ समाज अतिरिक्त सुविधाएँ पा सकने के लोभ का शिकार होकर विकास के भंवर में फंस कर रह जाता है। वह अपनी बुनियादी कुदरती ज़रूरतों की पूर्ति तक के संदर्भ में दुविधा और संकट से घिरा रहता है।
भूख मिटाने लायक भोजन, रहने लायक ज़मीन और जीने लायक पर्यावरण – ये तीन चीज़ें हैं, जिन्हें हम बुनियादी कुदरती ज़रूरतों कह सकते हैं। भारत एक पूर्व उपनिवेश की तरह अपने विकास के आधुनिक काल में दाखिल होता है। यहाँ का अपेक्षाकृत विकसित मध्यवर्ग, यन्त्र और तकनीकी की वजह से हासिल हो सकने वाली सुविधाओं की ओर दौड़ता है। वह उनकी पूर्ति के लिये उपभोक्ता उत्पादों तक अपनी पहुँच को, अपने विकसित या आधुनिक होने के लक्षण की तरह देखता है। परन्तु सामान्यजन भूख के मोर्चे पर बाज़ार की नयी शक्तियों के सम्मुख, खुद को लगातार लाचार होता पाता है।
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खेतीबाड़ी और जंगल के उत्पादों पर आधारित अर्थतन्त्र में यन्त्र और बाज़ार की दखल होने से दो वक्त की रोटी का जुगाड़ भी जीवन पर्यंत चलने वाले मरणांतक संघर्ष का रूप लेने लगता है। ‘गोदान का होरी एक किसान मजदूर के रूप में इस जानलेवा संघर्ष का एक प्रतीक बन कर हमारे सामने उपस्थित होता है। मंडी व्यापारी और सूद पर धन देने वाले महाजन मिल कर, लगान के बोझ से अभिशप्त कृषि की जीवनी शक्ति को चूसने लगते हैं। कृषि उत्पाद, यन्त्र, खाद और कीटनाशक आदि के हस्तक्षेप से बढ़ी लागत के कारण बाज़ार में मुनाफे का सौदा साबित नहीं हो पाते। नगरीकरण और खनिज उत्खनन के कारण सिकुड़ते जंगल और वहाँ से विस्थापित होती जनजातियाँ इस नये विकास मॉडल का ऐसा अन्तर्विरोध हो जाती हैं, जिसका समाधान इस विकास मॉडल के बस के बाहर की बात होता है। समस्या यह हो जाती है कि अब आप या तो किसानों और वनवासी को बचायेंगे या अपने इस आधुनिक व उत्तराधुनिक विकास मॉडल को।
मूल समस्या इतनी गहन है कि वह हमें वैकल्पिक विकास मॉडल को खोजने और मानवजाति के भविष्य के विकास के नये नक्शे बनाने तक चली जाती है, पर न किसान और न जनजातियाँ, अपने अब तक के संघर्षों में इस बुनियादी बात को अपना सरोकार बनाती हैं। वे केवल इतनी बात करती हैं कि उन्हें मरने से बचाया जाये। पर वे यह नहीं देख पातीं कि उन्हें मरने से बचाने की कोशिश, इस बाज़ारवादी विकास मॉडल के लिये आत्मघात करने जैसी बात है।
अब किसान आन्दोलन, जब पहली दफा व्यापक ज़मीन पकड़ने की ओर अग्रसर है, उसे अपने अब तक के संघर्षों के इतिहास से कुछ सबक लेने की ज़रूरत होगी। आइये, एक नज़र इस इतिहास पर डालने का प्रयास करते हैं।
यह सिलसिला शुरू होता है,1783 से। 1757 के प्लासी के युद्ध और कुछ बरस बाद बक्सर की लड़ाई के बाद, ईस्ट इण्डिया कम्पनी, बंगाल की दीवानी का प्रबन्धन अपने हाथ में ले लेती है। कृषि योग्य भूमि पर लगान, खेती के मुनाफावादी व्यापारीकरण और जंगलों से लाभ कमाने की अपनी नीतियों के तहत कम्पनी, ज़िमींदारों की मदद से, उगराही के ऐसे अभियान की शुरुआत करती है कि छोटे किसानों और खेतिहर मज़दूरों सहित बहुत से लोग अपने खेतों से और वनवासी अपने जंगलों से बेदखल होने के कगार पर आ जाते हैं। इसकी प्रतिक्रिया में 1783 का बंगाल का किसान विद्रोह पैदा होता है, जो कई दशकों तक छिटपुट रूप में सिर उठाता रहता है। लगान न दे पाने की वजह से बहुत से किसानों को उनकी जमीनों की मिल्कियत से बाहर कर दिया जाता है। तब वे हथियार उठा लेते हैं और अपनी अलग सरकार की स्थापना तक कर लेते हैं। परन्तु ब्रिटिश हुकूमत आखिरकार इस विद्रोह को कुचल देती है।
18 वीं सदी के आखिरी दशक में मालाबार के किसान भी विद्रोह करते हुए सिर उठाते हैं। कारण वही होते हैं, जिनकी वजह से बंगाल का विद्रोह हुआ था। पीछे पीछे 1824 में हरियाणा और पश्चिम उत्तर प्रदेश के जाट किसान भी जिमींदारों और ब्रिटिश हुकूमत के खिलाफ खड़े हो जाते हैं। मौजूदा किसान आन्दोलन में पंजाब, हरियाणा और पश्चिम उत्तरप्रदेश के जाटों की आन्दोलनधर्मिता का जो उभार दिखाई देता है, उसकी जड़े उस इतिहास में है, जो अब लगभग दो सदियों के वृहत अन्तराल मे फैला दिखाई देता है। तब के और अब के परिदृश्य में जो फर्क है, वह बाज़ार के औपनिवेशिक और उत्तर औपनिवेशिक रूप का है। खेतीबाड़ी में बाज़ार की दखल उसे नियंत्रित और संचालित करने की हद तक जाती है, तो किसान आन्दोलित हो उठते हैं। औपनिवेशिक दौर में लगभग सौ साल तक इस क्षेत्र के किसानों का कभी मुखर और ज़्यादातर मौन प्रतिरोध गहराता रहता है। फिर कहीं जाकर सुधार की प्रक्रिया शुरू होती है।
सुधार की प्रक्रिया को आरम्भ करने का श्रेय सर छोटूराम को जाता है। उन्होंने 1923 में पंजाब में यूनियनिस्ट पार्टी की स्थापना की, जो पंजाब में सत्ता में आ गयी। 1929 में कृषि सुधार कानून बनवाया। इसके तहत 1901 के बाद साहूकारों ने किसानों की जो ज़मीनें कर्ज़ अदायगी न हो पाने की वजह से हथिया ली थीं, वे उन्हें लौटा दी गयीं। फिर 1939 में उन्होंने मंडी कानून बनवाया। इसके अलावा सिंचाई की नयी योजनाएँ बनायी गयी। इससे यह क्षेत्र कृषि के संदर्भ में उस पूँजी के बाज़ार के दोहन शोषण से एक हद तक उबर गया, जो औपनिवेशिक दौर में यूरोप की औद्योगिक पूँजी के विकास के एजेंडे के तह,त भारत के प्रति अमानवीय होने की हद तक भेदभावपूर्ण था। ज़ाहिर हैं कि भारतीय किसानी के संदर्भ में पंजाब हरियाणा के जाट किसानों की स्थिति सर छोटूराम की नीतियों के लागू हो जाने से, बाकी भारत के मुकाबले में कुछ बेहतर थीं, इसलिये मौजूदा किसान आन्दोलन का केंद्र भी वही क्षेत्र दिखायी देता है। परन्तु अगर अबकी दफा वह अखिल भारतीय आन्दोलन होने में कामयाब हो पाता है, तो वह उत्तर औद्योगिक पूँजी के बिकास के लिये प्रतिबद्ध बहुराष्ट्रीय कम्पनियों के बाज़ार की कृषिक्षेत्र में दखल के दुष्परिणामों से किसानों को कुछ हद तक उबारने में कामयाब हो सकता है।
जहाँ तक शेष भारत के कृषि क्षेत्र की स्थिति है, उसका इतिहास कुछ अलग दिशा में जाता दिखाई देता है। तथापि दोनों के बीच काफी समानताएँ है। इस परिदृश्य को समझ कर हम मौजूदा किसान आन्दोलन के बारे में इन समानताओं और विभेदों के आधार पर कुछ ज़मीनी नतीजों तक पहुँच सकते हैं।
जहाँ तक किसानों के आन्दोलनधर्मी होने के इतिहास का सवाल है,, हम देख सकते हैं कि पंजाब के पीछे पीछे गुजरात के किसानों ने भी विद्रोह का रास्ता अपनाया था। लेकिन आन्दोलनधर्मी होने के संदर्भ में उत्तर प्रदेश, बिहार, बंगाल और मध्य प्रदेश की जो स्थिति है, वहाँ हम किसानों के अलावा वनांचल की जनजातियों और बनवासियों को भी सशस्त्र संघर्ष की ओर जाता देख सकते हैं। इस संदर्भ में बिहार के सिंहभूम के इलाके के कबीलाई लोगों ने भी ब्रिटिश हुकूमत की अपने इलाकों में घुसपैठ को बर्दाश्त नहीं किया था। वे भी अपने सेना नायक के नेतृत्व में उठकर खड़े हो गये थे। उड़ीसा और बंगाल में भी कबीलाई जनजातीय लोगों को उनके जंगलों से खदेड़ कर वहाँ खेती के लिए प्रयास हुए थे, जिससे उनमें असंतोष फैल गया था। इस संदर्भ में रोहेला और संथाल विद्रोह तो खासे मुखर प्रतिरोध के उदाहरण कहे जा सकते हें। उत्तर पूर्व का मौजूदा दौर का सशस्त्र नक्सल प्रतिरोध उस इतिहास की गूंज अनुगूंज से गहराई में स्पंदित प्रतीत होता है।
तथापि उत्तराधुनिक परिदृश्य अपने आधुनिक इतिहास से इस दृष्टि से साफ तौर पर अलहदा मालूम पड़ता है कि अब इसका विचारधारात्मक अन्तर्गठन भी हो रहा है। प्रतिरोध के अलगाववादी होने की हद तक मुखर होने के संकेत उन राज्यों में अधिक नज़र आते हैं, जो भारत की सुदूर सीमाओं की ओर छिटक गये हैं और जिन्हें खुद को उपेक्षित कर दिये जाने का भाव अधिक व्यापक रूप में घेरता है। पंजाब की स्थिति बीच की है। उत्तर प्रदेश से लेकर दक्षिण भारत तक की जो स्थिति है, वहाँ सीमावर्ती राज्यों की तुलना में राजनीतिक रण की प्रक्रिया अधिक गहरा सकी है।
बीसवीं सदी के आरम्भ से ही किसानों मज़दूरों के राजनीतिक विचारधाराओं के द्वारा संगठित होने के प्रयास ज़मीन पकड़ने लगते हैं। चंपारण की घटनाओं के बाद किसान गांधीवादी तरीके के प्रजातांत्रिक प्रतिरोध की ओर रुख करते हैं। विविध विचारधाराओं के द्वारा उन्हें संगठित करने का रास्ता भी अधिकांशतः प्रजातांत्रिक ही रहता है।
इस संदर्भ में 1917 का चंपारण सत्याग्रह एक तरह से किसानों की आन्दोलनधर्मिता की मूलचेतना का रूप ले लेता है। वह अब तक उनके प्रतिरोध को गांधीवादी बनाये रखने की वजह बना हुआ है।
औपनिवेशिक दौर में अंग्रेज़ों के द्वारा ऐसे नियम बनाये गये थे कि अपनी ज़मीन पर खेती करने का अधिकार उन्हीं किसानों को था, जो अपने खेत के एक हिस्से में नील की खेती करने को तेयार थे। नील की खेती 1760 से ही, बंगाल से होती हुई, बिहार और उत्तर प्रदेश तक में आरम्भ हो गयी थी। वह ज़मीन को बंजर बना देती थी। इस वजह से 1910 के आसपास चीन और अमेरिका सहित अनेक पश्चिमी देशों ने नील की खेती करने पर अपने यहाँ प्रतिबन्ध लगा दिये थे। इसलिये भारत में नील के उत्पादन को बढ़ाने के लिये किसानों पर दबाव बढ़ गया था। गणेश शंकर विद्यार्थी ने इस बारे में रपट प्रकाशित की। तो गांधी समेत अनेक कांग्रेसी नेता किसानों को अपने अधिकारों के लिये संगठित करने लग गये थे। मामला अदालत तक गया, परन्तु अन्ततः ब्रिटिश हुकूमत को झुकना पड़ा।
अब अगर हम उस दौर की उन घटनाओं का विश्लेषण करें, तो हमें तब की सरकारी नीतियों और मौजूदा सरकार द्वारा बनाये गये तीन नये कृषि कानूनों के पीछे खड़ी बाज़ारवादी सोच के बीच, काफी समानताएँ नज़र आयेंगी। कृषि में बाज़ार की दखल, ऊपर से देखने पर, कृषि और किसान के हितों की विरोधी नहीं है। उसका मकसद अन्तर्राष्ट्रीय बाज़ार में अधिक मुनाफा कमाने लायक होना है। ज़ाहिर है कि बाज़ार, ऐसा करके किसान को भी अधिक लाभ पाने का प्रलोभन देकर अपना काम निकलवाने की सोच रखता है। वह ज़मीन के बंजर होने या कारपोरेट के परोक्ष नियन्त्रण में जाने के दूरगामी परिणामों को गौण बनाता है और वर्तमान में अमीर हो जाने की बात को अधिक व्यावहारिक मानता है।
औपनिवेशिक काल में बाज़ार के मुनाफे का अधिकांश अंग्रेज़ों के हिस्से में जा रहा था और हमारा किसान एक तरह से बलात् ठेला जाकर विवश भाव से ही यह सब कर रहा था। इसलिये गांधी का सत्याग्रह किसानों के हित में नैतिक और आत्मिक शक्ति से भी युक्त था। अब बाज़ार का बहुराष्ट्रीयकरण हो गया है। खेतों के बंजर हो जाने जैसा कोई साफ तौर पर दिखाई देने वाला अनिष्ट भी यहाँ मौजूद नहीं है। इसलिये मौजूदा दौर का संकट अधिक जटिल ही नहीं, कही अधिक गहरा और व्यापक भी है। यहाँ वर्तमान नहीं, भविष्य दांव पर है। वर्तमान में तो उल्टे किसान को फायदा होने की संभावना ही अधिक है। किसान जानता है कि अगर वह कांट्रैक्ट फार्मिंग वाले विकल्प को चुन लेता है, तो कृषि का भविष्य परनिर्भर हो जायेगा और बाज़ार का ऐसा प्रभुत्व होगा कि कृषि के हर क्षेत्र में बाज़ार की दखल, उसकी स्वतन्त्रता और आत्मनिर्भर होने की संभावना को नष्ट कर देगी।
इसलिये आज वह जिस तरह के सत्याग्रह वाले रास्ते पर चल पड़ा है, वह किसान के राजनीतिक रण से या किसी विचारधारा से प्रतिबद्ध होने भर से उसे कामयाब नहीं बना सकेगा।
सत्ता के समीकरणों में उलटफेर से वह वक्ती तौर पर बाज़ार की दखल पर कुछ अंकुश तो लगा सकेगा, पर इससे कृषि क्षेत्र और वनांचल के भविष्य की रक्षा का कोई स्थायी इंतज़ाम नहीं हो सकेगा। किसान और वनांचल में सक्रिय प्रतिरोध करने वाली जनजातियाँ अपनी इस सीमा को समझती हैं, परन्तु समाधान को लेकर कोई व्यावहारिक रोडमैप किसी के पास नहीं है।
अब प्रकृति आधारित अर्थतन्त्र और वैकल्पिक बाज़ार की ज़रूरत अचानक एक ऐसा मुद्दा हो गयी है, जिससे संबोधित होने की ज़रूरत जितनी भारतीय किसान को है, उतनी ही पूरी मानवजाति को भी। जब मानवजाति अपने आधुनिक दौर में दाखिल हुई थी तो वह एक ऐसा अर्थतन्त्र लेकर आयी थी, जिस की वजह से मनुष्य की ज़रूरतों की पूर्ति का दायरा बढ़ा था। एक ऐसा बाज़ार आया था, जो बेहतर उत्पादों को अभिजात कुलीनों की चौहद्दी से बाहर निकाल कर पहले मध्यवर्ग तक पहुंचा था, फिर अब उत्तराधुनिक दौर में निम्न वर्ग तक जाने की कोशिश कर रहा है। मुंबई के झुग्गी झोंपड़ी इलाकों के नये अध्ययन बताते हैं कि बिजली, टी वी और मोबाइल जैसे उपभोक्ता उपकरण लगभग सभी घरों में दिखाई देने लगे हैं। सस्ते अनाज के सितरण की व्यवस्था ने, खाद्यान्न आपूर्त्ति को निम्न वर्गों की ज़रूरतों की पूर्ति तक ले जाने में उल्लेखनीय भूमिका निभायी है। परन्तु वह सब मनुष्य मात्र की वास्तविक ज़रूरतों की पूर्ति के उद्देश्य से नहीं, स्वयं बाज़ार के मुनाफावादी रूप को और मज़बूत करने के उद्देश्य से होता आया है।
अब हालात एकदम उलट दिशा पकड़ने की दहलीज़ तक चले गये हैं। प्रकृति को बचाये रखते हुए बाज़ार अब यह सब और देर तक करते रह पाने की स्थिति में नहीं रहेगा। ऐसे में जो युगांतर आयेगा वह पहली दफा मनुष्य मात्र की वास्तविक और कुदरती ज़रूरतों को केन्द्र में ला खड़ा करेगा। तब बाज़ार आदमी की भूख का नियमन संचालन नहीं करेगा, अपितु इसके विपरीत मनुष्य की ज़रूरतें तय करेंगी कि बाज़ार कैसा हो, क्या करेगा और किस तरह करेगा।
वहाँ तक पहुँचने के लिये जो बीच का संक्रांति कालीन चरण होगा, वहाँ सहकारिता एक नये अर्थ और रूप में सामने आ सकती है। वह अपनी नयी संभावनाओं के साथ आ सकी, तो हमारे भविष्य के नियोजन का मूल मंत्र हो सकती है। कारपोरेट की बजाय किसान खुद आपसदारी के आधार पर सहकारी कृषि, सहकारी भंडारण और सहकारी मंडी या बाज़ार तक के बारे में सोच सकते हैं। इस नज़रिये से वनांचल भी अपने विकल्पों के साथ उनके साथ आकर खड़े हो सकते हैं। शहरों में बहुराष्ट्रीय कम्पनियाँ अपनी वर्चस्वी स्थिति बनाये बचाये हुए, इन विकल्पों की, पूरक की तरह विकसित होने में मदद कर सकती हैं। यों भी इन्फ्रा स्ट्रक्चर वाले विकास को सकल गांवों और वनांचल तक ले जाने लायक संसाधन जुटाना, बहुराष्ट्रीय कम्पनियों के भी बूते से बाहर की बात है। तो क्यों नहीं वे किसानी और वन आधारित अर्थतन्त्र को आत्मनिर्भर होने में मदद करतीं? प्रकृति को और नुकसान पहुंचा कर अपने मुनाफे को बढ़ाते जाने वाला विकास मॉडल एक अंधेरी बंद गली में प्रवेश करने लग पड़ा है।
अब तो उल्टे प्रकृति को बचाते हुए ही, बहुराष्ट्रीय कम्पनियों के लिये विकास के नये क्षेत्र निकल सकते हैं। इनके तहत वे अब साफ हवा, साफ पानी, कुदरती नींद और आभासी पर्यावरण जैसी चीज़ों को अपने नये बिज़नेस मॉडल में शामिल कर सकती हैं। सौर ऊर्जा के विकास के नये क्षेत्र उसी सोच से निकल रहे हैं।
कृषि और वनों को अब संरक्षित क्षेत्रों में बदलना होगा। उन्हें व्यावसायिक क्षेत्र का हिस्सा मान कर अगर पहले की तरह बाज़ार की प्रतिस्पर्द्धा के रहमोकरम पर छोड़ा जायेगा, तो ये बर्बाद हो जायेंगे। ये क्षेत्र अब संरक्षित रूप में ही आत्मनिर्भर होने की प्रयास पुनः कर सकते हैं। उच्चतकनीकी को इन क्षेत्रों की मदद के लिये आगे आना होगा। उच्च तकनीकी इसे अपने नये विकास मॉडल की तरह अपना सकती है। ऐसा करने से भी उसके सामने मुनाफे के नये द्वार खुल सकते हैं। बात बस प्रकृति से दुश्मनी वाली सोच से निजात पाने भर की है। इस दुश्मनी के जाते ही, वे किसान और आदिवासी, जो अपने पिछड़े बने रहने के दर्शन की वजह से, बाज़ार को अपने दुश्मन लग रहे हैं, वे ही पूरक सहयोगियों की ई भूमिका में दिखायी दे सकते हैं। इससे बाज़ार नष्ट नहीं होगा, न ही वित्तीय पूँजी वा ला चरण, पूँजी वाद के विकास का आखिरी चरण होकर निपट जायेगा। अपितु जो नयी व्यवस्था सामने आयेगी, वह अपनी सोच में अपने अब तकके सभी विकास चरणों से गुणात्मक रूप में अलग होगी। वह विभाजन और विद्वेष के भावों को पीछे छोड़ कर, मैत्री, सहयोग और पारस्परिकता के आधार पर अपना विकास करेगी। यह कोई हृदय परिवर्तन की बात नहीं होगी, अपितु दरपेश संकट से बाहर आने के लिये अख्तियार किया गया हालात का तार्किक निष्कर्ष होगा। आज तक पूँजीवाद के गर्भ से मनुष्यता के प्राकृतिक रूप का जन्म एक असम्भव बात मानी जाती रही है। परन्तु क्या उलटबांसियाँ कभी घटित नही होती?
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