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सापेक्षवाद के आईने में : आध्यात्म, दर्शन, इतिहास, मान्यताएँ, मिथक और विज्ञान

 

यह सर्वमान्य है कि सृष्टि के सभी तत्व गतिशील है। परिवर्तनों का, परिवर्तनों के अनुरूप अध्ययन, सापेक्षवाद की प्रमुख विशेषता है। ‘सापेक्षवादी अवधारणा की विशेषता गतिशीलता तथा परिवर्तन है!’ इतिहास में सापेक्षवाद को प्रकारांतर से मत विशेषवाद अथवा दृष्टि विशेषवाद भी कहा जा सकता है। इतिहास लेखन समसामयिक विचारों से अनिवार्यतः प्रभावित होता है – क्रोचे के अनुसार ‘सम्पूर्ण इतिहास समसामयिक इतिहास होता है‘। यह समसायिकवाद इतिहास लेखन में सापेक्षवाद की पुष्टि करता है।

‘समसामयिकवाद ने इतिहास सम्बन्धी दृष्टि अथवा इतिहासकार के मस्तिष्क को सदैव प्रभावित किया है। इसी से सापेक्षवादी अवधारणा की पुष्टि होती है।’ इस प्रकार समसामयिकवाद के परिवेश में इतिहासवाद का परिवर्तनशील स्वरूप सापेक्षवाद है। साफिस्ट सम्प्रदाय के संस्थापक प्रोटागोरस को सापेक्षवाद का जनक स्वीकार किया जाता है। इनका जीवनकाल 481 ई.पू. से 411 ई.पू. रहा। इनका कार्यक्षेत्र एथेंस यूनान था।

“प्रोटागोरस के सापेक्षवादी दर्शन का अभिप्राय यह सिध्द करना था कि मानव सभी पदार्थों का मापदण्ड है। समस्त साफिस्ट विचारकों ने प्रोटोगोरस का अनुसरण करते हुए यह सिध्द करने का प्रयास किया कि ‘‘मानव जाति के समुचित अध्ययन का माध्यम मानव ही है” ‘सापेक्षवादी अवधारणा के अनुसार यदि मानव जाति के समुचित अध्ययन के लिए मनुष्य ही समुचित माध्यम है तो सभी मनुष्यों के दृष्टिकोण में समानता का अभाव अपरिहार्य है।’

सापेक्षवादी स्पष्टतः यह स्वीकार करता है कि देश, काल, परिस्थितियाँ, धारणाएँ, विचार, मान्यताएँ, विश्वास, जाति, धर्म, शिक्षा, संस्कार, समाज, भाषा, लिंग आदि मनुष्य को अनिवार्यतः प्रभावित करते हैं। इतिहासकार भी मनुष्य ही होता है तथा पृथक पृथक वातावरण में निवास करने के कारण वह अलग अलग दृष्टिकोण से इतिहास का लेखन करता है अतः स्वाभाविक रूप से इतिहास लेखन दृष्टिसापेक्ष हो जाता है तथा एक ही घटना को लेकर अलग-अलग इतिहासकारों के निष्कर्ष सापेक्षवादी होने के कारण पृथक- पृथक हो जाते हैं।

इस प्रकार ऐतिहासिक धारणाओं अथवा तथ्यों का देश, काल, परिस्थितियों समसामयिक धारणाओं मान्यताओं, विश्वासों, तथा विचारों के अनुरूप दृष्टि विशेष युक्त इतिहास लेखन होता है। यह एक विचारणीय प्रश्न है कि सापेक्षवाद अधिकांश इतिहासकारों का ध्यान अब तक क्यों आकृष्ट नही कर सका है। सापेक्षवादी दृष्टि से दार्शिनिकों के ज्ञानवाद, विचारकों के विज्ञानवाद तथा अधिकांश इतिहासकारों के इतिहासवाद एवं इतिहासवाद के प्रमुख आधार बिन्दुओं – ऐतिहासिक तथ्य वस्तुनिष्ठता नैतिक न्याय एवं समाजिक मूल्य का मूल्याकंन प्रस्तुत किया गया है।

बीसवीं सदी के उत्तरार्ध में अमेरिका के कुछ इतिहासकारों ने सापेक्षवादी दृष्टिकोण से इतिहास का अध्ययन किया इनमें कार्ल वियर्ड, बेकर, एडम स्काफ, तथा मारविक का नाम अग्र्रगण्य है। सापेक्षवादी दृष्टि से ज्ञानवाद विज्ञानवाद तथा इतिहासवाद की धारणाओं की आलोचाना की जाती है। जबकि ज्ञानवादी दार्शनिकों के दर्शन का एक मात्र अभिप्राय सत्य की गवेषणा है आदिशंकराचार्य का अभिमत है कि परमब्रम्ह ही सत्य है और उसे एकमात्र ज्ञान द्वारा ही जान सकते हैं “समस्त जगत चेतना है क्योंकि परम चेतना ईश्वर की अभिव्यक्ति है।” लाइबर नित्स, देकार्त, स्पिनोजा-ईश्वर में आस्थावान थे। लाइवर नित्स सगुण ब्रम्ह के उपासक थे उनके अनुसार ईश्वर सर्वज्ञ सर्वशक्तिमान तथा पूर्णतम है।

आदि गुरू शंकराचार्य की प्रसिध्द उक्ति ‘‘ब्रम्हं सत्यं जगत मिथ्या‘‘ है। वे ब्रम्ह को सत्य स्वीकार करते हैं तथा जगत को मिथ्या अथवा माया की संज्ञा देते हैं। भारतीय दर्शन के पंच आचार्यों में प्रथम आदिगुरूशंकराचार्य अद्वैत दर्शन के प्रणेता माने जाते हैं। माधवाचार्य द्वारा द्वैत वाद निम्बकाचार्य द्वारा द्वैता द्वैत रामानुजाचार्य के द्वारा विशिष्टा द्वैत तथा पांचवे आचार्य वल्लभाचार्य के द्वारा शुध्दा द्वैत मत का प्रतिपादन किया गया।

पंच आचार्यों के पांच मत हैं परमात्मा, आत्मा, जगत के तथा उनके अन्तर्सम्बन्धों को लेकर इसी प्रकार आस्तिक मतावलंबिया के षडदर्शन-कपिल का सांख्य पतंजलि का योग, कणाद का वैशेषिक, गौतम का न्याय, जैमिनी का पूर्व मीमांसा तथा व्यास का उत्तर मीमांसा इसी प्रकार छः दर्शन नास्तिकों के माने गये, जैन, योगाचार, माध्यमिक, सौतांत्रिक चार्वाक, एवं वैभाषिक आस्तिक दर्शन ईश्वर को स्वीकार करता है जबकि नास्तिक दर्शन ईश्वर के अस्तित्व को अस्वीकार करता है- बौद्ध दर्शन इनसे एक कदम आगे बढ़कर ईश्वर के साथ आत्मा के अस्तित्व को भी नकार देता है।

आस्तिकतावादी दर्शन ईश्वर को पूर्ण के रूप में स्वीकारता है अधिकांश नास्तिकतावादी दर्शन ईश्वर को अस्वीकार कर शून्य की बात करते हैं बुध्द महाशून्य की बात करते है। हमारे देश में गोस्वामी तुलसीदास रचित रामचरित मानस सर्वाधिक लोकप्रिय ग्रंथ है। एक ही रचना में पृथक पृथक मत तथा सापेक्षवाद के स्पष्ट दर्शन होते हैं। राम निर्गुण ब्रह्म के रूप में प्रस्तुत हैं – ‘राम ब्रम्ह परमारथ रूपा’। अविगत अलख अनादि अरूपा। सगुण रूप में परम ब्रम्ह राम – सियाराम मय सब जग जानी करहु प्रनाम जोरि जुग पानी सापेक्षवादी उदाहरण के रूप में-जाकी रही भावना जैसी प्रभु मूरति देखी दिन तैसी-गोस्वामी तुलसी दास का यह लिखना स्पष्टतः सापेक्षवादी धारणा की पुष्टि करता है सापेक्षवादी दाशंनिकों विशेष रूप से एनेक्जेगोरस तथा हेक्लाइटस के अनुसार अनंत सत्य केवल भ्रांति है। 

यदि सत्य एक है तथा उसे ज्ञान से जाना गया है तो इतनी पूर्णतः पृथक पृथक अभिव्यक्तियाँ एक सत्य की “एकं सत्यं विप्र: बहुना वदन्ति” एक सत्य है परन्तु पंडितजन पृथक पृथक अभिव्यक्तियाँ देते हैं उपरोंक्त कथन स्पष्टतः सापेक्षवादी की उद्षोषणा करता है। “सत्य का स्वरूप सापेक्ष है कुछ भी सत्य नहीं है यदि सत्य है भी तो हम उसे जान नही सकते यदि सत्य जान भी सकते हैं तो उसे समझना अत्यंत जटिल एवं कठिन है। ज्ञानवादियों की सत्य सम्बन्धी अवधारणा स्वप्नलोकीय कल्पना है” वस्तुतः सत्य संवेदना जन्य है संवेदनाएँ व्यक्तिगत होती हैं अतः सत्य आत्म केंद्रित अथवा आत्मगत होता है। ऐसे सत्य का स्वरूप सार्वभौमिक नही हो सकता अतः ज्ञानवादियों का सत्य व्यक्ति सापेक्ष होता है।

“प्लेटो के अनुसार विज्ञान ही विश्व का मूल कारण है” प्लेटो के विज्ञानवाद को अरस्तु ने पांच उपादानों में विभक्त किया है। प्रो. जेलर के अनुसार ‘‘विज्ञान नित्य तथा वस्तुएँ अनित्य हैं। विज्ञान मूल बिंब है सम्पूर्ण जातिगत पदार्थ विज्ञान के प्रतिबिंब होते हैं विज्ञान का अभिप्राय सजातियों को एकत्र करना तथा विजातियों से इसका भेद स्पष्ट करना है। ज्ञान की दृष्टि से विज्ञान ही ज्ञान का विषय है।” विज्ञान नित्य, शाश्वत, अपरिणामी, सामान्य सार्वभौम, निरपेक्ष, परमार्थिक तत्व है। विज्ञान सबका कारण होते हुए भी अकारण है। विज्ञान सभी वस्तुओं का आधार होते हुए भी स्वयं निराधार है क्योंकि वह स्वयंभू है।

विज्ञानवाद की अवधारणा को उपरोंक्तानुसार समझा जाता है सामान्यतया विज्ञान प्रयोगों पर आधारित होता है तथा उसके निष्कर्ष सिध्द एवं निश्चित होते हैं। सापेक्षवादी दृष्टि से विज्ञानवाद की आलोचना की जाती है विज्ञान के नियम नित्य नहीं होते अपितु परिवर्तनशील होते हैं। चिकित्सा विज्ञान मौसम विज्ञान के नियम व सिध्दांत लगातार परिवर्तित होते रहते हैं। पदार्थ के कण भी सापेक्ष व्यवहार करते हैं। अवलोकन की स्थिति में उनका व्यवहार सजीव व्यक्तियों की तरह बदलता है। वह कभी कण की तरह तो कभी तरंग की तरह व्यवहार करता है।

भौतिक शास्त्र में इन्हें क्वांटा नाम दिया गया है। अतः विज्ञान के नियम कई अवसरों पर निश्चित भी नहीं होते। विज्ञान शोध, पुनरावलोकन तथा संशोधन पर चलता है “सापेक्षवादी दर्शन का सारतत्व है कि सृष्टि के सभी तत्व गतिशील तथा परिवर्तनशील हैं। सापेक्षवाद की इस अवधारणा में कुछ भी नित्य, शाश्वत, निरपेक्ष तथा सार्वभौम नहीं है। इस प्रकार ज्ञानवाद तथा विज्ञानवाद में कुछ भी शाश्वत तथा निरपेक्ष नहीं है। सभी क्षेत्रों में वैज्ञानिक शोध की आवश्यकता पुनरावलोकन, संशोधन, तथा समसामयिकता होनी चाहिए। वैज्ञानिक यह दावा नहीं करते कि उनका निष्कर्ष शाश्वत है। वह आशा नहीं करता कि उनकी उपलब्धि का अध्ययन भावी पीढी न करे।

‘इतिहासवाद’ का प्रवर्तक हीगेल को माना जाता है। “इतिहासवाद से अभिप्राय ज्ञान से है। सामाजिक विज्ञान का वह दृष्टिकोण जो विज्ञान की भांति ऐतिहासिक भविष्यवाणी कर सके तथा समाज के लिये अतीत से ज्ञान प्रस्तुत कर सके उसे इतिहासवाद की संज्ञा दी जा सकती है।” क्रोचे की दृष्टि में “इतिहासवाद इस तथ्य का स्वीकरण है कि जीवन तथा यथार्थ इतिहास से अभिन्न है। ऐतिहासिक धारणाएँ तथा विचार सभी इतिहास प्रवाह के अंग होते हैं।

“विज्ञान की सफलताओं से प्रभावित इतिहासकारों ने इतिहास में भी विज्ञान की विधियों के प्रयोग पर जोर दिया फ़्रांसीसी इतिहासकार टेने जर्मनी में रांके अमेंरिका में चाल्र्स वियर्ड इंग्लैंड में जे.वी.ब्यूरी इन इतिहास कारों में प्रमुख थे।” 1903 में केंब्रिज वि.वि. के सत्रांरभ के अवसर पर एक्टन के उत्तराधिकारी प्रो.जे.वी.ब्यरी ने अपने अभिभाषण में कहा था कि इतिहास विज्ञान है, न कम न अधिक ‘उपरोंक्त आन्दोलन के परिणाम स्वरूप इतिहास चिंतन के क्षेत्र में प्रत्यक्षवाद का जन्म हुआ रांके के द्वारा प्रत्यक्षवादी इतिहासकारों का नेतृत्व किया गया। रांके ने अपने विचारों को यथार्थ इतिहास लेखन हेतु प्रेरित व प्रशिक्षित किया।

अर्नेस्ट लेविस ने फ्रांस के इतिहास (1900 से 1911) का वैज्ञानिक विधाओं द्वारा सम्पादन किया। तो प्रो. एक्टन ने कैंब्रिज मार्डन हिस्टी को वैज्ञानिक विधाओं द्वारा सर्वमान्य इतिहास प्रस्तुत करने का प्रयास किया। एक्टन वाटरलू का ऐसा इतिहास प्रस्तुत करना चाहते थे जिसे डच, अंग्रेज, फ्रांसीसी, जर्मन सभी स्वीकार कर सकें। इतिहासवाद को सापेक्षवाद का जनक कहा जा सकता है। इतिहासवाद अतीत के सत्यान्वेषण की एक विधा है इसके अंतर्गत सामाजिक, आर्थिक, राजनैतिक, वैचारिक, मूल्य नैतिकता तथा संस्कृति के सभी पक्षों का अध्ययन अधिकाधिक वैज्ञानिक रीतियों से होता है। इतिहासवाद ऐतिहासिक ज्ञान की विश्लेषणात्क तथा परिकल्पनात्मक व्याख्या है। समसामयिकवाद के परिपेक्ष्य में इतिहासवाद का परिवर्तित रूप हमारे समक्ष होता है वही सापेक्षवाद है।

ऐतिहासिक तथ्य – इतिहासवाद का आधार बिंदु जिस पर इतिहास लेखन निर्भर है वह तथ्य है। तथ्यों को प्रकारांतर से साक्ष्य या प्रमाण भी कहा जा सकता है जिसके आधार पर इतिहास का लेखन होता है। ई.एच. कार लिखते हैं- ऐतिहासिक तथ्य, मछली विक्रेता के शिलापट्ट पर सजाई गई मछलियों कीे भांति नहीं होते वे अगाध समुद्र में तैरती हुई मछली की भांति होते हैं। तथ्य संकलन का स्वरूप चयनात्मक होता है यह पूर्णतः इतिहासकार पर निर्भर है कि वह किन तथ्यों का चयन करे इतिहासकारों के जैसे विचार, जैसी मान्यताएँ और समझ – वैसे ही तथ्य चयनित होंगे पश्चात उसकी व्याख्या इतिहासकार द्वारा होगी। वह व्याख्या भी पूरी तरह समसामयिक विचारों से प्रभावित होगी। 

इतिहासकार न तो तथ्य चयन में, न ही तथ्यों की व्याख्या में निरपेक्ष रह सकता है। वह अपने विचारों व मत से सापेक्ष चयन व व्याख्या करेगा। उसके ऐतिहासिक निष्कर्ष पूर्णतः मत सापेक्ष होंगे विशुध्द सत्य नहीं। “प्रायः व्यक्तियों के विचार ऐतिहासिक तथ्यों में परिवर्तन करने का सामथ्र्य रखते हैं।” इस प्रकार इतिहासवाद में कोई भी तथ्य निरपेक्ष नहीं होता है, जहाँ चयन व परित्याग की प्रक्रिया है। सापेक्षवादी अवधारणा के अनुसार निरपेक्ष सत्य अथवा यथार्थ की इतिहास में परिकल्पना असंभव है। प्रत्येक तथ्य का संकलन तथा चयन समाज सम्बन्धी ज्ञान तथा प्रक्रिया को प्रस्तुत करता है।‘ इस प्रकार इतिहासकार द्वारा चयनित तथ्यों के द्वारा इतिहासकार की व्यक्तिगत रुचि तथा समाजिक आकांक्षाओं की पूर्ति मात्र होती है तथा इतिहास पूर्णतयाः सापेक्षवादी होता है।

ऐतिहासिक वस्तुनिष्ठता से अर्थ ऐतिहासिक यथार्थ चित्रण अथवा यथातथ्य व्याख्या से लिया जाता है। “वस्तुनिष्ठता का अर्थ बिना व्यक्तिगत पक्षपात या पूर्वाग्रह के ऐेतिहासिक तथ्यों का प्रयोग करना है।” डार्डेल ने स्पष्ट लिखा है कि कोई भी पदार्थ स्वमयेव वस्तुनिष्ठ नही होता विषय से अलग करके ही वस्तुनिष्ठता प्रत्यारोंपित की जाती है। यदि ऐतिहासिक तथ्यों पर वस्तुनिष्ठता इतिहासकार प्रत्यारोंपित करेगा तो निःसंदेह वह सापेक्षवादी हो जायेगा वह अपने विचारों से पृथक होकर यह कार्य न कर सकेगा। प्रो. वाल्श की मान्यता है कि इतिहास का अध्ययन दृष्टि विशेष से करना चाहिये। अतः दृष्टि विशेष से अध्ययन तो सम्पूर्ण इतिहास को ही सापेक्षवादी बना देता है।

karl marx
(Photo by Roger Viollet Collection/Getty Images)

कार्ल मार्क्स का कथन है -‘‘वैज्ञानिक विधा में आस्थावान इतिहासकारों को समाज के बाहर ऐतिहासिक वस्तुनिष्ठता ढूढनी चाहिए‘‘ प्रत्येक पीढ़ी का इतिहासकार अपने युग की आवश्यकतानुसार इतिहास लिखता है- ऐतिहासिक वस्तुनिष्ठता का स्वरूप सार्वभौमिक तथा सर्वयुगीन नही हो सकता। इतिहासकार को भावनाएँ, राष्ट्रवाद, धर्म, सामाजिक मूल्य, सांस्कृतिक तथ्य, व्यक्तिगत रूचियाँ -अनिवार्यतः प्रभावित करती है।

औरंगजेब के सम्बन्ध में सर जदुनाथ सरकार एवं फारूकी की रचनाएँ व्यक्तिगत दृष्टिकोण से प्रभावित हैं तथा पृथक पृथक निष्कर्ष देती हैं। 1857 की तथाकथित स्वतंत्रता संग्राम के विषय का विवाद भी स्पष्टतः पूर्वाग्रही सोच का परिणाम है। डॉ. ईश्वरी प्रसाद एवं मेंहदी हुसैन द्वारा सुल्तान गयासुदद्दीन तुगलक की मृत्यु विषयक विवरण दोनों इतिहासकारों के पूर्वाग्रही विचारों के कारण है। पूर्वाग्रही विचार वस्तुनिष्ठता के मार्ग में बाधक है तथा सापेक्षवादी विचारधारा के पोषक हैं।

इसी तरह का इतिहास लेखन प्रोटेस्टेंट-कैथोलिक, अरब-यहूदी इतिहासकारों के ऐतिहासिक विवरणों में दृष्टिगोचर होता है। तथ्यों के चयनात्मक प्रक्रिया के साथ ही इतिहास सापेक्षवादी हो जाता है। ‘इतिहासकार की निष्पक्षता इतिहास में परिणाम प्राप्ति का एक प्रयास होता है इसके लिये परिपक्व ज्ञान उपयुक्त शोध विधा कठिन अध्यवसाय की आवश्यकता होती है। अथक प्रयास के बावजूद उसका कार्य कभी पूर्ण नही हो सकता क्योंकि इतिहासकार सदैव एक मनुष्य ही रहेगा।’ एडम स्कैफ सापेक्षवादी सिध्दांत से सर्वाधिक प्रभावित थे। उन्होने ऐतिहासिक वस्तुनिष्ठता के निरपेक्ष रूप को अस्वीकार किया है। उनके अनुसार “समसामयिकवाद ने इतिहास के वस्तुनिष्ठ स्वरूप को प्रत्येक युग में प्रभावित किया है।” 

इतिहासकार वस्तुनिष्ठता पाने का भरसक प्रयास कर सकता है पर पा नहीं सकता क्योंकि वह मनुष्य है तथा समाज में रहता है। उसके प्रभावों से मुक्त होकर इतिहास लेखन उसके लिये संभव ही नही है। अतः वह सदा सापेक्षवादी रहेगा इतिहास में नैतिक न्याय के प्रबल पक्षधर एक्टन एवं बटरफील्ड रहे। उन्नीसवीं सदी के उत्तरार्ध में यूरोंप में इतिहास लेखन की नवीन प्रवृत्ति उदित हुई। इसका उददेश्य तत्कालीन समाज को नैतिकता की शिक्षा से शिक्षित करना था। इंग्लैंड के दार्शनिक स्पिनोजा, जॉन लॉक तथा फिट्से भी समाज में नैतिक चेतना जागृत करने में सहयोगी रहे।

“बटरफील्ड ने लिखा इतिहास की गरिमामय कार्यालय से अपेक्षा की जाती है कि वे नैतिक न्याय की अभ्यर्थना को उठाएँ क्योंकि भावी पीढी की अभ्र्यथना ईश्वर की अभ्यर्थना होती है और इतिहासवाणी भावी पीढी की पुकार होती है। अमानुषिक कार्य करने वाले किसी व्यक्ति को इतिहास के अमरदण्ड से बचने नही देना चाहिए।” अब इतिहासकार नैतिक न्याय के प्रश्न पर समझौता करता है तो विवादपूर्ण विषयों पर न्याय देने के अधिकार को खो देता है। नैतिक न्याय देने सम्बन्धी इतिहासकार के अधिकार को दबाने के लिये पृथ्वी की सम्पूर्ण शक्तियाँ सतत प्रयत्नशील है। सापेक्षवादी धारणा के अनुसार “मानव सभी पदार्थो का मापदण्ड है।” 

इस धारणा के आधार पर सार्वभौमिक नैतिकता तो संभव ही नही है। ‘नैतिक नियमों की स्थापना, रीति रिवाज तथा परंपराओं पर आश्रित है। सामाजिक परंपराओं के साथ नैतिक नियम बदलते हैं। यह सत्य है कि नैतिकता वस्तुनिष्ठ नहीं है। सापेक्षवादियों ने सार्वभौमिक नैतिकता को तो अस्वीकार किया हो साथ ही साथ इतिहासकार के न्यायाधीश की भांति अमरदण्ड के अधिकार की कटु आलोचना की वस्तुतः इतिहासकार न कोई न्यायाधीश होता और न ही कोई निरकुश शासक कि वह निर्णय दे अथवा न्याय करें। न्याय में सामाजिक मूल्यों की अहम भूमिका होती है। अतः इतिहास लेखन में भी सामाजिक मूल्यों को महत्व दिया जायें- ई.एच.कार ने लिखा है – “इतिहासकार की व्याख्या सदैव उद्देश्यपरक तथा मूल्य संपृक्त हेाती है।”

निसंदेह इतिहासकार जिस समाज में रहता है उस समाज के समाजिक मूल्यों से वह प्रभावित होकर ही इतिहास लिखता है। परन्तु सामाजिक मूल्य स्थायी नहीं होते। समाज की गतिशीलता के साथ सामाजिक मूल्य परिवर्तित हो जाते हैं। समाजिक मूल्य एक समाज से दूसरे समाज में भिन्न होते हैं। किसी युग विशेष में जाति प्रथा दासप्रथा तथा सम्राज्य वाद को सामाजिक मूल्यों के अनुरूप माना गया है। परन्तु अब इन्हें अभिशाप के रूप में स्वीकार किया जाता है। सापेक्षवादी विचारको का अभिमत है कि सामाजिक मूल्यों की विभिन्नता तथा निरन्तर परिवर्तनशीलता के कारण इतिहास कार को व्याख्या में इसे महत्व नही देना चाहिए।

प्रत्येक इतिहासकार युगानुरूप लेखन करता है। अतः स्वाभाविक है कि इतिहास लेखक सापेक्षयवादी है तथा रहेगा। समसामयिकवाद का सीधा सम्बन्ध विषयवाद से तथा सापेक्षवाद से रहेगा यही इतिहास वाद की यर्थाथता है। निष्कर्ष के रूप में कहा जा सकता हैं इतिहास का कोई भी पक्ष मतनिरपेक्ष अथवा वस्तुनिष्ठ नहीं हो सकता वह सदा सापेक्षवादी ही रहेगा

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शैलेन्द्र चौहान

लेखक स्वतन्त्र पत्रकार हैं। सम्पर्क +917838897877, shailendrachauhan@hotmail.com
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